aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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लैस क़ुरैशी

ग़ज़ल 21

अशआर 3

तल्ख़ाबा-ए-हयात पिया है तमाम उम्र

अब और क्या मिलाएगा साक़ी शराब में

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मिरी समझ में आया ये कारोबार-ए-हयात

कहाँ है नफ़ा कहाँ है ज़रर नहीं मालूम

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यही बहुत है कि ज़िंदा हैं क़ैद-ए-ज़ीस्त में हम

ये कैसी शाम है कैसी सहर नहीं मालूम

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