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Bahadur Shah Zafar's Photo'

बहादुर शाह ज़फ़र

1775 - 1862 | दिल्ली, भारत

आख़िरी मुग़ल बादशाह। ग़ालिब और ज़ौक़ के समकालीन

आख़िरी मुग़ल बादशाह। ग़ालिब और ज़ौक़ के समकालीन

बहादुर शाह ज़फ़र के शेर

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लोगों का एहसान है मुझ पर और तिरा मैं शुक्र-गुज़ार

तीर-ए-नज़र से तुम ने मारा लाश उठाई लोगों ने

बनाया 'ज़फ़र' ख़ालिक़ ने कब इंसान से बेहतर

मलक को देव को जिन को परी को हूर ग़िल्माँ को

हम ही उन को बाम पे लाए और हमीं महरूम रहे

पर्दा हमारे नाम से उट्ठा आँख लड़ाई लोगों ने

ये चमन यूँही रहेगा और हज़ारों बुलबुलें

अपनी अपनी बोलियाँ सब बोल कर उड़ जाएँगी

हाथ क्यूँ बाँधे मिरे छल्ला अगर चोरी हुआ

ये सरापा शोख़ी-ए-रंग-ए-हिना थी मैं था

मैं सिसकता रह गया और मर गए फ़रहाद क़ैस

क्या उन्ही दोनों के हिस्से में क़ज़ा थी मैं था

वाए इंक़लाब ज़माने के जौर से

दिल्ली 'ज़फ़र' के हाथ से पल में निकल गई

ग़ज़ब है कि दिल में तो रक्खो कुदूरत

करो मुँह पे हम से सफ़ाई की बातें

कुछ हम हँस के सीखे हैं कुछ हम रो के सीखे हैं

जो कुछ थोड़ा सा सीखे हैं तुम्हारे हो के सीखे हैं

मोहब्बत के ये मा'नी हैं कि मैं ने

वही चाहा कि जो कुछ तू ने चाहा

यार था गुलज़ार था बाद-ए-सबा थी मैं था

लाएक़-ए-पाबोस-ए-जानाँ क्या हिना थी मैं था

तू कहीं हो दिल-ए-दीवाना वहाँ पहुँचेगा

शम्अ होगी जहाँ परवाना वहाँ पहुँचेगा

लड़ा कर आँख उस से हम ने दुश्मन कर लिया अपना

निगह को नाज़ को अंदाज़ को अबरू को मिज़्गाँ को

हाल-ए-दिल क्यूँ कर करें अपना बयाँ अच्छी तरह

रू-ब-रू उन के नहीं चलती ज़बाँ अच्छी तरह

तुम ने किया याद कभी भूल कर हमें

हम ने तुम्हारी याद में सब कुछ भुला दिया

क्या ताब क्या मजाल हमारी कि बोसा लें

लब को तुम्हारे लब से मिला कर कहे बग़ैर

मेरे सुर्ख़ लहू से चमकी कितने हाथों में मेहंदी

शहर में जिस दिन क़त्ल हुआ मैं ईद मनाई लोगों ने

इधर ख़याल मिरे दिल में ज़ुल्फ़ का गुज़रा

उधर वो खाता हुआ दिल में पेच-ओ-ताब आया

जा कहियो मेरा नसीम-ए-सहर

मिरा चैन गया मिरी नींद गई

कोई क्यूँ किसी का लुभाए दिल कोई क्या किसी से लगाए दिल

वो जो बेचते थे दवा-ए-दिल वो दुकान अपनी बढ़ा गए

फ़रहाद क़ैस वामिक़ अज़रा थे चार दोस्त

अब हम भी मिले तो हुए मिल के चार पाँच

दूँगा दिल उसे मैं ये हमेशा कहता था

वो आज ले ही गया और 'ज़फ़र' से कुछ हुआ

दिल को दिल से राह है तो जिस तरह से हम तुझे

याद करते हैं करे यूँ ही हमें भी याद तू

'ज़फ़र' बदल के रदीफ़ और तू ग़ज़ल वो सुना

कि जिस का तुझ से हर इक शेर इंतिख़ाब हुआ

हो गया जिस दिन से अपने दिल पर उस को इख़्तियार

इख़्तियार अपना गया बे-इख़्तियारी रह गई

गई यक-ब-यक जो हवा पलट नहीं दिल को मेरे क़रार है

करूँ उस सितम को मैं क्या बयाँ मिरा ग़म से सीना फ़िगार है

दौलत-ए-दुनिया नहीं जाने की हरगिज़ तेरे साथ

बाद तेरे सब यहीं बे-ख़बर बट जाएगी

कोहकन है मजनूँ कि थे मिरे हमदर्द

मैं अपना दर्द-ए-मोहब्बत कहूँ तो किस से कहूँ

भरी है दिल में जो हसरत कहूँ तो किस से कहूँ

सुने है कौन मुसीबत कहूँ तो किस से कहूँ

मुझ को कहने की ताक़त कहूँ तो क्या अहवाल

उस को सुनने की फ़ुर्सत कहूँ तो किस से कहूँ

जो तू हो साफ़ तो कुछ मैं भी साफ़ तुझ से कहूँ

तिरे है दिल में कुदूरत कहूँ तो किस से कहूँ

ख़ाकसारी के लिए गरचे बनाया था मुझे

काश ख़ाक-ए-दर-ए-जानाना बनाया होता

रोज़ मामूरा-ए-दुनिया में ख़राबी है 'ज़फ़र'

ऐसी बस्ती को तो वीराना बनाया होता

बुराई या भलाई गो है अपने वास्ते लेकिन

किसी को क्यूँ कहें हम बद कि बद-गोई से क्या हासिल

बुत-परस्ती जिस से होवे हक़-परस्ती 'ज़फ़र'

क्या कहूँ तुझ से कि वो तर्ज़-ए-परस्तिश और है

सब मिटा दें दिल से हैं जितनी कि उस में ख़्वाहिशें

गर हमें मालूम हो कुछ उस की ख़्वाहिश और है

याँ तक अदू का पास है उन को कि बज़्म में

वो बैठते भी हैं तो मिरे हम-नशीं से दूर

हम अपना इश्क़ चमकाएँ तुम अपना हुस्न चमकाओ

कि हैराँ देख कर आलम हमें भी हो तुम्हें भी हो

मोहब्बत चाहिए बाहम हमें भी हो तुम्हें भी हो

ख़ुशी हो इस में या हो ग़म हमें भी हो तुम्हें भी हो

सहम कर 'ज़फ़र' उस शोख़ कमाँ-दार से कह

खींच कर देख मिरे सीने से तू तीर तोड़

देख दिल को मिरे काफ़िर-ए-बे-पीर तोड़

घर है अल्लाह का ये इस की तो तामीर तोड़

हम ये तो नहीं कहते कि ग़म कह नहीं सकते

पर जो सबब-ए-ग़म है वो हम कह नहीं सकते

क्या पूछता है हम से तू शोख़ सितमगर

जो तू ने किए हम पे सितम कह नहीं सकते

थी हाल की जब हमें अपने ख़बर रहे देखते औरों के ऐब हुनर

पड़ी अपनी बुराइयों पर जो नज़र तो निगाह में कोई बुरा रहा

'ज़फ़र' आदमी उस को जानिएगा वो हो कैसा ही साहब-ए-फ़हम-ओ-ज़का

जिसे ऐश में याद-ए-ख़ुदा रही जिसे तैश में ख़ौफ़-ए-ख़ुदा रहा

ये क़िस्सा वो नहीं तुम जिस को क़िस्सा-ख़्वाँ से सुनो

मिरे फ़साना-ए-ग़म को मिरी ज़बाँ से सुनो

तमन्ना है ये दिल में जब तलक है दम में दम अपने

'ज़फ़र' मुँह से हमारे नाम उस का दम-ब-दम निकले

ख़ुदा के वास्ते ज़ाहिद उठा पर्दा काबे का

कहीं ऐसा हो याँ भी वही काफ़िर-सनम निकले

हमदमो दिल के लगाने में कहो लगता है क्या

पर छुड़ाना इस का मुश्किल है लगाना सहल है

ख़्वाब मेरा है ऐन बेदारी

मैं तो उस में भी देखता कुछ हूँ

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