फरीहा नक़वी
ग़ज़ल 21
नज़्म 9
अशआर 32
ज़माने अब तिरे मद्द-ए-मुक़ाबिल
कोई कमज़ोर सी औरत नहीं है
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तुम मिरी वहशतों के साथी थे
कोई आसान था तुम्हें खोना?
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भली क्यूँ लगे हम को ख़ुशियों की दस्तक
अभी हम मोहब्बत का ग़म कर रहे हैं
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लड़खड़ाना नहीं मुझे फिर भी
तुम मिरा हाथ थाम कर रखना
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