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हसरत अज़ीमाबादी

1727 - 1795 | पटना, भारत

मीर तक़ी मीर के समकालीन, अज़ीमाबाद के प्रतिष्ठित एवं प्रतिनिधि शायर

मीर तक़ी मीर के समकालीन, अज़ीमाबाद के प्रतिष्ठित एवं प्रतिनिधि शायर

हसरत अज़ीमाबादी के शेर

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इश्क़ में ख़्वाब का ख़याल किसे

लगी आँख जब से आँख लगी

भर के नज़र यार देखा कभी

जब गया आँख ही भर कर गया

बुरा माने तो इक बात पूछता हूँ मैं

किसी का दिल कभी तुझ से भी ख़ुश हुआ हरगिज़

ज़ुल्फ़-ए-कलमूँही को प्यारे इतना भी सर मत चढ़ा

बे-महाबा मुँह पे तेरे पाँव करती है दराज़

हक़ अदा करना मोहब्बत का बहुत दुश्वार है

हाल बुलबुल का सुना देखा है परवाने को हम

मय-कशी में रखते हैं हम मशरब-ए-दुर्द-ए-शराब

जाम-ए-मय चलता जहाँ देखा वहाँ पर जम गए

मोहब्बत एक तरह की निरी समाजत है

मैं छोड़ूँ हूँ तिरी अब जुस्तुजू हुआ सो हुआ

मत हलाक इतना करो मुझ को मलामत कर कर

नेक-नामो तुम्हें क्या मुझ से है बद-नाम से काम

खेलें आपस में परी-चेहरा जहाँ ज़ुल्फ़ें खोल

कौन पूछे है वहाँ हाल-ए-परेशाँ मेरा

रहे है नक़्श मेरे चश्म-ओ-दिल पर यूँ तिरी सूरत

मुसव्विर की नज़र में जिस तरह तस्वीर फिरती है

मैं 'हसरत' मुज्तहिद हूँ बुत-परस्ती की तरीक़त का

पूछो मुझ को कैसा कुफ़्र है इस्लाम क्या होगा

माख़ूज़ होगे शैख़-ए-रिया-कार रोज़-ए-हश्र

पढ़ते हो तुम अज़ाब की आयात बे-तरह

ता-अबद ख़ाली रहे या-रब दिलों में उस की जा

जो कोई लावे मिरे घर उस के आने की ख़बर

हम जानें किस तरफ़ काबा है और कीधर है दैर

एक रहती है यही उस दर पे जाने की ख़बर

उठूँ दहशत से ता महफ़िल से उस की

इताब उस का है हर इक हम-नशीं पर

सौगंद है हसरत मुझे एजाज़-ए-सुख़न की

ये सेहर हैं जादू हैं अशआ'र हैं तेरे

गुल कभू हम को दिखाती है कभी सर्व-ओ-समन

अपने गुल-रू बिन हमें क्या क्या खिजाती है बहार

दुनिया का दीं का हम को क्या होश

मस्त आए बे-ख़बर गए हम

सज्दा-गाह-ए-बरहमन और शैख़ हैं दैर-ओ-हरम

मय-परस्तों के लिए बुनियाद मय-ख़ाने हुए

ना-ख़लफ़ बस-कि उठी इश्क़ जुनूँ की औलाद

कोई आबाद-कुन-ए-ख़ाना-ए-ज़ंजीर नहीं

इस जहाँ में सिफ़त-ए-इश्क़ से मौसूफ़ हैं हम

करो ऐब हमारे हुनर-ए-ज़ाती का

ज़ाहिदा किस हुस्न-ए-गंदुम-गूँ पे है तेरी निगाह

आज तू मेरी नज़र में गूना-ए-आदम लगा

काफ़िर-ए-इश्क़ हूँ शैख़ पे ज़िन्हार नहीं

तेरी तस्बीह को निस्बत मिरी ज़ुन्नार के साथ

साक़िया पैहम पिला दे मुझ को माला-माल जाम

आया हूँ याँ मैं अज़ाब-ए-होशयारी खींच कर

अज़ीज़ो तुम कुछ उस को कहो हुआ सो हुआ

निपट ही तुंद है ज़ालिम की ख़ू हुआ सो हुआ

निभे थी आन उन्हों की हमेशा इश्क़ में ख़ूब

तुम्हारे दौर में मेरी गदा हुईं आँखें

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