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Iqbal Sajid's Photo'

इक़बाल साजिद

1932 - 1988 | लाहौर, पाकिस्तान

लोकप्रिय पाकिस्तानी शायर , कम उम्र में देहांत

लोकप्रिय पाकिस्तानी शायर , कम उम्र में देहांत

इक़बाल साजिद के शेर

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ये तिरे अशआर तेरी मानवी औलाद हैं

अपने बच्चे बेचना 'इक़बाल-साजिद' छोड़ दे

बढ़ गया है इस क़दर अब सुर्ख़-रू होने का शौक़

लोग अपने ख़ून से जिस्मों को तर करने लगे

जैसे हर चेहरे की आँखें सर के पीछे लगीं

सब के सब उल्टे ही क़दमों से सफ़र करने लगे

उस ने भी कई रोज़ से ख़्वाहिश नहीं ओढ़ी

मैं ने भी कई दिन से इरादा नहीं पहना

दरवेश नज़र आता था हर हाल में लेकिन

'साजिद' ने लिबास इतना भी सादा नहीं पहना

मारा किसी ने संग तो ठोकर लगी मुझे

देखा तो आसमाँ था ज़मीं पर पड़ा हुआ

अन्दर थी जितनी आग वो ठंडी हो सकी

पानी था सिर्फ़ घास के ऊपर पड़ा हुआ

रोए हुए भी उन को कई साल हो गए

आँखों में आँसुओं की नुमाइश नहीं हुई

मैं आईना बनूँगा तू पत्थर उठाएगा

इक दिन खुली सड़क पे ये नौबत भी आएगी

अपनी अना की आज भी तस्कीन हम ने की

जी भर के उस के हुस्न की तौहीन हम ने की

मुझ पे पत्थर फेंकने वालों को तेरे शहर में

नर्म-ओ-नाज़ुक हाथ भी देते हैं पत्थर तोड़ कर

मैं तिरे दर का भिकारी तू मिरे दर का फ़क़ीर

आदमी इस दौर में ख़ुद्दार हो सकता नहीं

सज़ा तो मिलना थी मुझ को बरहना लफ़्ज़ों की

ज़बाँ के साथ लबों को रफ़ू भी होना था

बगूला बन के समुंदर में ख़ाक उड़ाना था

कि लहर लहर मुझे तुंद-ख़ू भी होना था

मिरे ही हर्फ़ दिखाते थे मेरी शक्ल मुझे

ये इश्तिहार मिरे रू-ब-रू भी होना था

सूरज हूँ चमकने का भी हक़ चाहिए मुझ को

मैं कोहर में लिपटा हूँ शफ़क़ चाहिए मुझ को

सूरज हूँ ज़िंदगी की रमक़ छोड़ जाऊँगा

मैं डूब भी गया तो शफ़क़ छोड़ जाऊँगा

मैं ख़ून बहा कर भी हुआ बाग़ में रुस्वा

उस गुल ने मगर काम पसीने से निकाला

होते ही शाम जलने लगा याद का अलाव

आँसू सुनाने दुख की कहानी निकल पड़े

प्यासो रहो दश्त में बारिश के मुंतज़िर

मारो ज़मीं पे पाँव कि पानी निकल पड़े

'साजिद' तू फिर से ख़ाना-ए-दिल में तलाश कर

मुमकिन है कोई याद पुरानी निकल पड़े

कट गया जिस्म मगर साए तो महफ़ूज़ रहे

मेरा शीराज़ा बिखर कर भी मिसाली निकला

दुनिया ने ज़र के वास्ते क्या कुछ नहीं किया

और हम ने शायरी के सिवा कुछ नहीं किया

ग़ुर्बत की तेज़ आग पे अक्सर पकाई भूक

ख़ुश-हालियों के शहर में क्या कुछ नहीं किया

पिछले बरस भी बोई थीं लफ़्ज़ों की खेतियाँ

अब के बरस भी इस के सिवा कुछ नहीं किया

मिले मुझे भी अगर कोई शाम फ़ुर्सत की

मैं क्या हूँ कौन हूँ सोचूँगा अपने बारे में

वो बोलता था मगर लब नहीं हिलाता था

इशारा करता था जुम्बिश थी इशारे में

वो चाँद है तो अक्स भी पानी में आएगा

किरदार ख़ुद उभर के कहानी में आएगा

पढ़ते पढ़ते थक गए सब लोग तहरीरें मिरी

लिखते लिखते शहर की दीवार काली हो गई

अब तू दरवाज़े से अपने नाम की तख़्ती उतार

लफ़्ज़ नंगे हो गए शोहरत भी गाली हो गई

मोम की सीढ़ी पे चढ़ कर छू रहे थे आफ़्ताब

फूल से चेहरों को ये कोशिश बहुत महँगी पड़ी

एक भी ख़्वाहिश के हाथों में मेहंदी लग सकी

मेरे जज़्बों में दूल्हा बन सका अब तक कोई

फ़िक्र-ए-मेआर-ए-सुख़न बाइस-ए-आज़ार हुई

तंग रक्खा तो हमें अपनी क़बा ने रक्खा

मिरे घर से ज़ियादा दूर सहरा भी नहीं लेकिन

उदासी नाम ही लेती नहीं बाहर निकलने का

मुसलसल जागने के बाद ख़्वाहिश रूठ जाती है

चलन सीखा है बच्चे की तरह उस ने मचलने का

प्यार करने भी पाया था कि रुस्वाई मिली

जुर्म से पहले ही मुझ को संग-ए-ख़म्याज़ा लगा

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