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सरफ़राज़ ख़ालिद

1980 | अलीगढ़, भारत

सरफ़राज़ ख़ालिद

ग़ज़ल 18

नज़्म 4

 

अशआर 47

आइने में कहीं गुम हो गई सूरत मेरी

मुझ से मिलती ही नहीं शक्ल-ओ-शबाहत मेरी

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रौनक़-ए-बज़्म नहीं था कोई तुझ से पहले

रौनक़-ए-बज़्म तिरे बा'द नहीं है कोई

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उस से कह दो कि मुझे उस से नहीं मिलना है

वो है मसरूफ़ तो बे-कार नहीं हूँ मैं भी

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उसी के ख़्वाब थे सारे उसी को सौंप दिए

सो वो भी जीत गया और मैं भी हारा नहीं

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दिल जो टूटा है तो फिर याद नहीं है कोई

इस ख़राबे में अब आबाद नहीं है कोई

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