स्वप्निल तिवारी
ग़ज़ल 34
नज़्म 6
अशआर 13
उजालों में छुपी थी एक लड़की
फ़लक का रंग-रोग़न कर गई है
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किस ने रस्ते में चाँद रक्खा है
उस से टकरा के गिर पड़ेंगे हम
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नींद का रस्ता छोटा है
जिस में ख़्वाब की ठोकर है
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बड़े ही ग़ुस्से में ये कह के उस ने वस्ल किया
मुझे तो तुम से कोई बात ही नहीं करनी
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ये ज़िंदगी जो पुकारे तो शक सा होता है
कहीं अभी तो मुझे ख़ुद-कुशी नहीं करनी
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चित्र शायरी 1
धीरे धीरे ढलते सूरज का सफ़र मेरा भी है शाम बतलाती है मुझ को एक घर मेरा भी है जिस नदी का तू किनारा है उसी का मैं भी हूँ तेरे हिस्से में जो है वो ही भँवर मेरा भी है एक पगडंडी चली जंगल में बस ये सोच कर दश्त के उस पार शायद एक घर मेरा भी है फूटते ही एक अंकुर ने दरख़्तों से कहा आसमाँ इक चाहिए मुझ को कि सर मेरा भी है आज बेदारी मुझे शब भर ये समझाती रही इक ज़रा सा हक़ तुम्हारे ख़्वाबों पर मेरा भी है मेरे अश्कों में छुपी थी स्वाती की इक बूँद भी इस समुंदर में कहीं पर इक गुहर मेरा भी है शाख़ पर शब की लगे इस चाँद में है धूप जो वो मिरी आँखों की है सो वो समर मेरा भी है तू जहाँ पर ख़ाक उड़ाने जा रहा है ऐ जुनूँ हाँ उन्हीं वीरानियों में इक खंडर मेरा भी है जान जाते हैं पता 'आतिश' धुएँ से सब मिरा सोचता रहता हूँ क्या कोई मफ़र मेरा भी है