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और आना घर में मुर्ग़ियों का

मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी

और आना घर में मुर्ग़ियों का

मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी

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    अर्ज़ किया, कुछ भी हो, मैं घर में मुर्ग़ियां पालने का रवादार नहीं। मेरा रासिख़ अक़ीदा है कि उनका सही मुक़ाम पेट और प्लेट है और शायद।”

    “इस रासिख़ अक़ीदे में मेरी तरफ़ से पतीली का और इज़ाफ़ा कर लीजिए।” उन्होंने बात काटी।

    फिर अर्ज़ किया, “और शायद यही वजह है कि हमारे हाँ कोई मुर्ग़ी उम्र-ए-तबई को नहीं पहुंच पाती। आपने ख़ुद देखा होगा कि हमारी ज़ियाफ़तों में मेज़बान के इख़लास-ओ-ईसार का अंदाज़ा मुर्ग़ियों और मेहमानों की तादाद और उनके तनासुब से लगाया जाता है।”

    फ़रमाया, “ये सही है कि इंसान रोटी पर ही ज़िंदा नहीं रहता। उसे मुर्ग़ मुसल्लम की भी ख़्वाहिश होती है। अगर आपका अक़ीदा है कि ख़ुदा ने मुर्ग़ी को महज़ इंसान के खाने के लिए पैदा किया तो मुझे इस पर क्या एतराज़ हो सकता है। साहिब, मुर्ग़ी तो दरकिनार। मैं तो अंडे को भी दुनिया की सबसे बड़ी ने’मत समझता हूँ। ताज़े ख़ुद खाइए, गंदे होजाएं तो होटलों और सियासी जलसों के लिए दुगुने दामों बेचिए। यूं तो इसमें, मेरा मतलब है ताज़े अंडे में,

    हज़ारों खूबियां ऐसी कि हर ख़ूबी पे दम निकले

    मगर सबसे बड़ी ख़ूबी ये है कि फूहड़ से फूहड़ औरत किसी तरह भी पकाए यक़ीनन मज़ेदार पकेगा। आमलेट, नीम ब्रश्त, तला हुआ, ख़ागीना, हलवा।”

    उसके बाद उन्होंने एक निहायत पेचीदा और गुंजुल्क तक़रीर की जिसका माहस्ल ये था कि आमलेट और ख़ागीना वग़ैरा बिगाड़ने के लिए ग़ैरमामूली सलीक़ा और सलाहियत दरकार है जो फ़ी ज़माना मफ़क़ूद है।

    इख़्तिलाफ़ की गुंजाइश नज़र आई तो मैंने पहलू बचा कर वार किया, “ये सब दुरुस्त लेकिन अगर मुर्ग़ियां खाने पर उतर आएं तो एक ही माह में डरबे के डरबे साफ़ होजाएंगे।”

    कहने लगे, “ये नस्ल मिटाए नहीं मिटती। जहां तक इस जिन्स का ताल्लुक़ है दो और दो-चार नहीं बल्कि चालीस होते हैं। यक़ीन आए तो ख़ुद हिसाब करके देख लीजिए। फ़र्ज़ कीजिए कि आप दस मुर्ग़ियों से मुर्ग़बानी की इब्तिदा करते हैं। एक आला नस्ल की मुर्ग़ी साल में औसतन दो सौ से ढाई सौ तक अंडे देती है। लेकिन आप चूँकि फ़ित्रतन क़ुनूती वाक़े हुए हैं। इसलिए ये माने लेते हैं कि आपकी मुर्ग़ी डेढ़ सौ अंडे देगी।”

    मैंने टोका, मगर मेरी क़ुनूतीयत का मुर्ग़ी की अंडे देने की सलाहियत से क्या ताल्लुक़?”

    बोले, “भई आप तो क़दम क़दम पर उलझते हैं। क़ुनूती से ऐसा शख़्स मुराद है जिसका ये अक़ीदा हो कि अल्लाह तआला ने आँखें रोने के लिए बनाई हैं। ख़ैर, इसको जाने दीजिए। मतलब ये है कि इस हिसाब से पहले साल में डेढ़ हज़ार अंडे होंगे और दूसरे साल उन अंडों से जो मुर्ग़ियां निकलेंगी वो दो लाख पच्चीस हज़ार अंडे देंगी। जिनसे तीसरे साल इसी मुहतात अंदाज़े के मुताबिक़, तीन करोड़ सैंतीस लाख पच्चास हज़ार चूज़े निकलेंगे। बिल्कुल सीधा सा हिसाब है।”

    “मगर ये सब खाएँगे क्या?” मैंने बेसब्री से पूछा।

    इरशाद हुआ, “मुर्ग़ और मुल्ला के रिज़्क़ की फ़िक्र तो अल्लाह मियां को भी नहीं होती। इसकी ख़ूबी यही है कि अपना रिज़्क़ आप तलाश करता है। आप पाल कर तो देखिए। दाना-दुनका, कीड़े-मकोड़े, कंकर-पत्थर चुग कर अपना पेट भर लेंगे।”

    पूछा, “अगर मुर्ग़ियां पालना इस क़दर आसान-ओ-नफ़ा बख़्श है तो आप अपनी मुर्ग़ियां मुझे क्यों देना चाहते हैं?”

    फ़रमाया, “ये आपने पहले ही क्यों पूछ लिया, नाहक़ रद्द-ओ-क़दह की। आप जानते हैं मेरा मकान पहले ही किस क़दर मुख़्तसर है। आधे में हम रहते हैं और आधे में मुर्ग़ियां। अब मुश्किल ये पड़ी है कि कल कुछ ससुराली अज़ीज़ छुट्टियां गुज़ारने आरहे हैं, इसलिए...”

    और दूसरे दिन उनके निस्फ़ मकान में ससुराली अज़ीज़ और हमारे घर में मुर्ग़ियां गईं।

    अब इसको मेरी सादा-लौही कहिए या ख़ुलूस-ए-नीयत के शुरू शुरू में मेरा ख़्याल था कि इंसान मुहब्बत का भूका है और जानवर इस वास्ते पालता है कि अपने मालिक को पहचाने और उसका हुक्म बजा लाए। घोड़ा अपने सवार का आसन और हाथी अपने महावत का आंकुस पहचानता है। कुत्ता अपने मालिक को देखते ही दुम हिलाने लगता है, जिससे मालिक को रुहानी ख़ुशी होती है। साँप भी सपेरे से हिल जाता है। लेकिन मुर्ग़ियां...

    मैंने आज तक कोई मुर्ग़ी ऐसी नहीं देखी जो मुर्ग़ के सिवा किसी और को पहचाने और ऐसा मुर्ग़ नज़र से गुज़रा जिसको अपने-पराए की तमीज़ हो। महीनों उनकी दाश्त और सँभाल कीजिए, बरसों हथेलियों पर चुगाईए, लेकिन क्या मजाल कि आपसे ज़रा भी मानूस हो जाएं।

    मेरा मतलब ये नहीं कि मैं ये उम्मीद लगाए बैठा था कि मेरे दहलीज़ पर क़दम रखते ही मुर्ग़ सर्कस के तोते की मानिंद तोप चला कर सलामी देंगे, या चूज़े मेरे पांव में वफ़ादार कुत्ते की तरह लोटेंगे, और मुर्ग़ियां अपने अपने अंडे “सिपर दम बुतो माए-ए-ख़वेश रा” कहती हुई मुझे सौंप कर उल्टे क़दमों वापस चली जाएँगी। ताहम पालतू जानवर से ख़्वाह वो शरअन हलाल ही क्यों हो, ये तवक़्क़ो नहीं की जाती कि वो हर चमकती चीज़ को छुरी समझ कर बिदकने लगे और महीनों की परवरिश-ओ-पर्दाख़्त के बावजूद महज़ अपने जेबिल्ली तास्सुब की बिना पर हर मुसलमान को अपने ख़ून का प्यासा तसव्वुर करे।

    उन्हें मानूस करने के ख़्याल से बच्चों ने हर एक मुर्ग़ का अलैहदा नाम रख छोड़ा था। अक्सर के नाम साबिक़ लीडरों और ख़ानदान के बुज़ुर्गों पर रखे गए। गो उन बुज़ुर्गों ने कभी इस पर एतराज़ नहीं किया मगर हमारे दोस्त मिर्ज़ा अब्दुल वदूद बेग का कहना था कि ये बेचारे मुर्गों के साथ बड़ी ज़्यादती है। लेकिन उन नामों के बावस्फ़ मुझे एक ही नस्ल के मुर्गों में आज तक कोई ऐसी ख़ुसूसियत नज़र आई जो एक मुर्ग़ को दूसरे से मुमय्यज़ करसके।

    सच तो ये है कि मुझे सब मुर्ग़, नौज़ाईदा बच्चे और सिख एक जैसी शक्ल के नज़र आते हैं। और उन्हें देखकर अपनी बीनाई और हाफ़िज़े पर शुबहा होने लगता है। मुम्किन है कि उनकी शनाख़्त और तशख़ीस के लिए ख़ास महारत-ओ-मलका दरकार हो। जिसकी ख़ुद में ताब पाकर अपने हवास-ए-ख़मसा से मायूस हो जाता हूँ।

    आम ख़ुशफ़हमी जिसमें तालीम याफ़्ता अस्हाब बिलउमूम और उर्दू शोरा बिलख़सूस अर्से एक से मुब्तला हैं, ये है कि मुर्ग़ और मुल्ला सिर्फ़ सुबह अज़ान देते हैं। अठारह महीने अपने आदात-ओ-ख़साइल का बग़ौर मुताला करने के बाद इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि या तो मैं जान-बूझ कर ऐन उस वक़्त सोता हूँ जो क़ुदरत ने मुर्ग़ के अज़ान देने के लिए मुक़र्रर किया है या ये अदबदा कर उस वक़्त अज़ान देता है जब ख़ुदा के गुनहगार बंदे ख़्वाब-ए-ग़फ़लत में पड़े हों। बहरसूरत हमारे महबूब तरीन औक़ात इतवार की सुबह और सह पहर हैं।

    आज भी छोटे कस्बों में कसरत से ऐसे ख़ुश अक़ीदा हज़रात मिल जाऐंगे जिनका ईमान है कि मुर्ग़ बाँग दे तो पौ नहीं फटती, लिहाज़ा किफ़ायत शिआर लोग अलार्म वाली टाइम पीस ख़रीदने के बजाय मुर्ग़ पाल लेते हैं ताकि हमसायों को सह्र ख़ेज़ी की आदत रहे।

    बा’ज़ों के गले में क़ुदरत ने वो सह्र-ए-हलाल अता किया है कि नींद के माते तो एक तरफ़ रहे, उनकी बाँग सुनकर एक दफ़ा तो मुर्दा भी कफ़न फाड़ कर उकड़ूं बैठ जाये। आपने कभी ग़ौर किया कि दूसरे जानवरों के मुक़ाबले में मुर्ग़ की आवाज़, उसकी जसामत के लिहाज़ से कम अज़ कम सौ गुना ज़्यादा होती है। मेरा ख़्याल है कि अगर घोड़े की आवाज़ भी इसी तनासुब से बनाई गई होती तो तारीख़ी जंगों में तोप चलाने की ज़रूरत पेश आती।

    अब यहां ये सवाल किया जा सकता है कि आख़िर मुर्ग़ अज़ान क्यों देता है, हम परिंदों की नफ़सियात के माहिर नहीं। अलबत्ता मोतबर बुज़ुर्गों से सुनते चले आए हैं कि सुब्ह-दम चिड़ियों का चहचहाना और मुर्ग़ की अज़ान दरअसल इबादत है। लिहाज़ा जब मिर्ज़ा अब्दुल वदूद बेग ने हमसे पूछा कि मुर्ग़ अज़ान क्यों देता है तो हमने सीधे सुभाओ यही जवाब दिया कि अपने रब की हमद-ओ-सना करता है।

    कहने लगे, साहिब अगर ये जानवर वाक़ई इबादतगुज़ार है तो मौलवी साहब इतने शौक़ से क्यों खाते हैं?

    एक दिन मूसलाधार बारिश हो रही थी। थका मांदा बारिश में शराबोर घर पहुंचा तो देखा कि तीन मुर्गे मेरे पलंग पर बाजमाअत अज़ान दे रहे हैं। सफ़ेद चादर पर जाबजा पंजों के ताज़ा निशान थे। अलबत्ता मेरी क़ब्ल अज़ वक़्त वापसी के सबब जहां जगह ख़ाली रह गई थी, वहां सफ़ेद धब्बे निहायत बदनाम मालूम हो रहे थे। मैंने ज़रा दुरुश्ती से सवाल किया, “आख़िर ये गला फाड़ फाड़ के क्यों चीख़ रहे हैं?”

    बोलीं, “आप तो ख़्वाह-मख़ाह एलर्जिक (ALLERGIC) हो गए हैं। ये बेचारे चोंच भी खोलें तो आप समझते हैं कि मुझे चिड़ा रहे हैं।”

    मेरे सब्र का पैमाना लबरेज़ हो गया। दिल ने कहा, बस बहुत हो चुका, आओ आज दो टूक फ़ैसला हो जाए, “इस घर में अब या तो ये रहेंगे या मैं।” मैंने बिफर कर कहा।

    उनकी आँखों में सच-मुच आँसू भर आए। हिरासाँ हो कर कहने लगीं, “मेंह बरसते में आप कहाँ जाऐंगे?”

    इस जिन्स के बारे में एक मायूसकुन इन्किशाफ़ ये भी हुआ कि ख़्वाह आप मोती चुगाएं, ख़्वाह सोने का निवाला खिलायें मगर उसको कीड़े-मकोड़े, झींगुर, भुनगे, चियूंटे और केचुवे खाने से बाज़ नहीं रख सकते, और मैं ये बावर करने के लिए तैयार नहीं कि इसका असर-ओ-नफ़ूज़ अंडे में हो। फिर मोपसां के अफ़साने का हीरो अगर ये दावा करे कि वो ज़र्दी की बू से ये बता सकता है कि मुर्ग़ी ने क्या खाया था तो अचंभे की बात नहीं। ख़ुद हमारे हाँ ऐसे ऐसे लायक़ क़ियाफ़ाशनास दाल-रोटी पर जी रहे हैं जो ज़रा सी बोटी चख कर सिर्फ़ बकरी के चारे बल्कि चाल चलन का भी मुफ़स्सिल हाल बता सकते हैं।

    आपने सुना होगा कि खली और भूसे की ख़ासियत, और चौपायों की ख़सलत के पेश-ए-नज़र, बा’ज़ नफ़ासतपसंद वालियान-ए-रियासत इस बात का बड़ा ख़्याल रखते थे कि जिन भैंसों के दूध की बालाई उनके दस्तर-ख़्वान पर आए, उनको सुबह-ओ-शाम बादाम और पिसते खिलाए जाएं ताकि उसका असल ज़ायक़ा और महक बदल जाये। इससे ज़ाहिर होता है कि उस ज़माने में उम्दा दूध की ख़ूबी ये थी कि उसे पी कर कोई ये कह सके कि ये दूध है।

    एक और संगीन ग़लतफ़हमी जिसमें ख़वास-ओ-अवाम मुब्तला हैं और जिसका अज़ाला मैं रिफ़ाह-ए-आम के लिए निहायत ज़रूरी ख़्याल करता हूँ, ये है कि मुर्ग़ियां डरबे और टापे में रहती हैं। मेरे डेढ़ साल के मुख़्तसर मगर भरपूर तजुर्बे का निचोड़ ये है कि मुर्ग़ियां डरबे के सिवा हर जगह नज़र आती हैं और जहां नज़र आएं, वहां अपने वरूद-ओ-नुज़ूल का नाक़ाबिल तरदीद सबूत छोड़ जाती हैं।

    इन आँखों ने बारहा ग़ुस्ल-ख़ाने से अंडे और किताबों की अलमारी से जीते-जागते चूज़े निकलते देखे। लिहाफ़ से कुडुक मुर्ग़ी और डरबे से शेव की प्याली बरामद होना रोज़मर्रा का मामूल हो गया और यूं भी हुआ है कि टेलीफ़ोन की घंटी बजी और मैंने लपक कर रीसिवर उठाया। मगर मेरे ‘हेलो’ कहने से पेशतर ही मुर्ग़ ने टांगों के दरमियान खड़े हो कर अज़ान दी, और जिन साहिब ने अज़राह-ए-तलत्तुफ़ मुझे याद फ़रमाया था, उन्होंने ‘सॉरी राँग नंबर’ कह कर झट फ़ोन काट दिया।

    फिर एक इतवार को शोर से आँख खुली तो देखता हूँ कि बच्चे असील मुर्ग़ को मार मार कर बैज़वी पेपर-वेट पर बिठा रहे हैं। मानता हूँ कि इस दफ़ा मुर्ग़ बेक़सूर था। लेकिन दूसरे दिन इत्तफ़ाक़न दफ़्तर से ज़रा जल्द वापस आगया तो देखा कि महल्ले-भर के बच्चे जमा हैं और उनके सरों पर चील कव्वे मंडला रहे हैं। ज़रा नज़दीक गया तो पता चला कि मेरे नए कैरम बोर्ड पर लंगड़े मुर्ग़ का जनाज़ा बड़ी धूम से निकल रहा था।

    सब बच्चे अपने अपने क़द के मुताबिक़ चार चार की टोलियों में बट गए और बारी बारी कंधा दे रहे थे। ग़ौर से देखा तो जुलूस के आख़िर में कुछ ऐसे शुरका भी नज़र आए जो घुटनियों चल रहे थे और इस बात पर धाड़ें मार मार कर रो रहे थे कि उन्हें कंधा देने का मौक़ा क्यों नहीं दिया जाता।

    और इसके कुछ दिन बाद चश्म-ए-हैराँ ने देखा कि हमसायों में शीरीनी तक़सीम हो रही है। मालूम हुआ कि “शह रुख़” (चितकबरा मुर्ग़) ने आज पहली बार अज़ान दी है। मैंने इस फुज़ूलखर्ची पर डाँटा तो मेरा तरद्दुद रफ़ा करने की ख़ातिर मुझे मुत्तला किया गया कि ख़ाली बोतलें, मेरे पहले नॉवेल का मसव्वदा और अस्नाद का पुलिंदा (जो बक़ौल उनकी दस बरस से बेकार पड़ा था) रद्दी वाले को अच्छे दामों बेच कर ये तक़रीब मनाई जा रही है।

    क़िस्स-ए-मुख़्तसर चंद ही महीनों में इस ताइर-ए-लाहूती ने घर का वो नक़्शा कर दिया कि उसे देखकर वही शे’र पढ़ने को जी चाहता था जो क़दरे मुख़्तलिफ़ हालात में हुस्ना परी ने हातिमताई को सुनाया था,

    ये घर जो कि मेरा है तेरा नहीं

    पर अब घर ये तेरा है मेरा नहीं

    अब घर अच्छा-ख़ासा पोल्ट्रीफार्म (मुर्ग़ी ख़ाना) मालूम होता था। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था कि पोल्ट्रीफार्म में आम तौर से इतने आदमियों के रहने की इजाज़त नहीं होती।

    जो हज़रात अलाम दुनियावी से आजिज़-ओ-परेशान रहते हैं, उनको मेरा मुख़लिसाना मश्वरा है कि मुर्ग़ियां पाल लें। फिर उसके बाद पर्द-ए-ग़ैब से कुछ ऐसे नए मसाइल और फ़ित्ने ख़ुदबख़ुद खड़े होंगे कि उन्हें अपनी गुज़िश्ता ज़िंदगी जन्नत का नमूना मालूम होगी।

    ये सिलसिला चल ही रहा था कि इधर एक तशवीशनाक सूरत ये रूनुमा हुई कि एक मुर्ग़ कटखन्ना हो गया। पहले तो हुआ ये करता था कि जब बच्चों को तमाशा देखना मंज़ूर होता तो दो मुर्गों के मुँह पर तवे की कलौंस लगा कर खाने की मेज़ पर छोड़ देते और लड़ाई के बाद मेज़पोश के दाग़ धब्बों को रबड़ से मिटाने की कोशिश करते।

    लेकिन अब किसी एहतिमाम की ज़रूरत रही, क्योंकि वो दिनभर पड़ोसियों के मुर्गों से फ़ी सबील अल्लाह लड़ता और शाम को मुझे लड़ाता। यहां ये बताना शायद बेमहल होगा कि मुर्ग़ के मशाग़ल-ओ-फ़राइज़-ए-मंसबी के बारे में मेरा अब भी ये तसव्वुर है कि,

    मुर्ग़ा वो मुर्ग़ियों में जो खेले

    कि मुर्ग़ों में जा के डंड पीले

    मुआमला हम-जिंस तक ही रहता तो ग़नीमत था लेकिन अब तो ये ज़ालिम मुर्ग़ियों से ज़्यादा आने-जाने वालों पर नज़र रखने लगा। मिर्ज़ा अब्दुल वदूद बेग से मैंने एक दफ़ा तज़किरा किया तो कहने लगे क्या बात है। हम पर तो ज़रा नहीं लपकता।

    उनके जाने के बाद राक़िम उल-हरूफ़ क़द-ए-आदम आईने के सामने देर तक खड़ा रहा। लेकिन अक्स में बज़ाहिर कोई ऐसी बात नज़र आई जिसे देखते ही किसी अम्न पसंद जानवर की आँखों में ख़ून उतर आए।

    बहरहाल जब पड़ोसियों की शिकायतें बढ़ीं तो एक मशहूर मुर्ग़बाज़ से रुजू किया। उसने कहा कि क़ुदरत ने इस परिंद को हर लिहाज़ से हरी चुग बनाया है और ये मुर्ग़ ग़ालिबन इसलिए कटखन्ना हो गया कि आपने उसे बचा खुचा गोश्त खिला दिया।

    मैंने घर पहुंच कर तशख़ीस से आगाह किया तो कहने लगीं, “तौबा, अब हम इतने बुरे भी नहीं कि हमारा झूटा खाना खा के इस मनहूस का ये हाल हो जाए।”

    उफ़्ताद-ए-तबा के एतबार से मैं गोशा नशीन वाक़ा हुआ हूँ और अगर ये मुर्ग़ियां होतीं तो महल्ले में मुझे कोई जानता। उन दिनों डरबे वाला मकान उस इलाक़े में एक रोशन मीनार की हैसियत रखता था जिसके हवाले से हमसाये अपनी गुमनाम कोठियों का पता बताते थे।

    उन्ही के तवस्सुल से हमसायों से तआरुफ़ और ताल्लुक़ हुआ और उन्ही की बदौलत बहुत सी दूर-रस और देरपा रंजिशों की बुनियाद पड़ी। शमउन साहिब से इसलिए अदावत हुई कि मेरी मुर्ग़ी उनकी गुलाब की पौद खा गई और हारून साहिब से इस वास्ते बिगाड़ हुआ कि उनका कुत्ता उस मुर्ग़ी को खा गया। दोनों मुझी से ख़फ़ा थे। हालाँकि मंतिक़ और इन्साफ़ का तक़ाज़ा तो ये था कि दोनों हज़रात इस क़ज़िए को आपस में बाला ही बाला तय करलेते।

    जिस दिन ख़लील मंज़िल वाले एक क़वी हैकल “लाईट ससेक्स” मुर्ग़ कहीं से ले आए तो हमारे डरबों में गोया हलचल सी मच गई। जब वो गर्दन फुला कर अज़ान देता तो मुर्ग़ियां तड़प कर ही रह जातीं। ख़ुद ख़लील साहिब उसे देखकर फूले समाते।

    हालाँकि मेरी नाक़िस राय में किसी मुर्ग़ को देखकर इस क़दर ख़ुश होने का हक़ सिर्फ़ मुर्ग़ियों को पहुंचता है। मैं तो इसी वजह से अपने से बेहतर नस्ल का जानवर पालने के सख़्त ख़िलाफ़ हूँ। बहरहाल ये अपने अपने ज़र्फ़ और ज़ौक़ का सवाल है, जिससे मुझे फ़िलहाल कोई सरोकार नहीं।

    कह ये रहा था जिस रोज़ से उसका हमारे यहां आना-जाना हुआ मुझे अपने ताल्लुक़ात ख़राब होते नज़र आए। आख़िर एक दिन उसने हमारी बकाओली (स्याह मुनारका) मुर्ग़ी की आँख फोड़ दी। रात-भर अपनी तक़रीर का रीहर्सल करने के बाद में दूसरे दिन ख़लील साहिब को डाँटने गया। जिस वक़्त मैं पहुंचा तो वो अपनी हथेली पर एक अंडा रखे हाज़िरीन को इस तरह इतरा इतरा कर दिखा रहे थे जैसे वो उनकी ज़ाती मेहनत और सब्र का फल हो।

    मुलाक़ात की रूदाद दर्ज जैल है,

    मैंने अपना तआरुफ़ कराते हुए कहा, “मैं डरबे वाले मकान में रहता हूँ।”

    बोले, “कोई हर्ज नहीं।”

    मैंने कहा, “कल आपके मुर्ग़े ने मेरी मुर्ग़ी की आँख फोड़ दी।”

    फ़रमाया, “इत्तिला का शुक्रिया, दाईं या बाईं?”

    हाफ़िज़े पर बहुत ज़ोर दिया मगर कुछ याद आया कि कौन सी थी, “इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है।” मैंने झुँझला कर कहा।

    कहने लगे, “आपके नज़दीक दाएं बाएं में कोई फ़र्क़ नहीं होता?”

    “मगर ये ग़लत बात है।” मैंने असल वाक़िया की तरफ़ तवज्जो दिलाई।

    “जी हाँ,सरीहन ग़लत बात है, इसलिए कि आपकी मुर्ग़ी दोगली है और...”

    “और आपका मुर्ग़ा राज हंस है।” मैंने बात काटी।

    तड़प कर बोले, “आप मुझे बुरा-भला कह लीजिए। मुर्ग़ तक क्यों जाते हैं (ज़रा दम लेकर) लेकिन क़िबला अगर वो राज हंस नहीं है तो आपकी मुर्ग़ी यहां क्यों आई?”

    “आख़िर जानवर ही तो है, इंसान तो नहीं जो मुँह बाँधे पड़ा रहे।” मैंने समझाया।

    इरशाद हुआ, “आप अपनी पद्मिनी को बांध के नहीं रख सकते तो बंदा भी इसकी चोंच पर ग़लाफ़ चढ़ाने से रहा।”

    ग़रज़ कि ज़ुल्म-ओ-ज़्यादती के ख़िलाफ़ जब भी आवाज़ उठाई, इसी तरह अपनी रही सही औक़ात ख़राब कराई।

    अगरचे बारहा रानी खेत की वबा आई और आन की आन में डरबे के डरबे साफ़ कर गई, लेकिन अल्लाह की रहमत से हमारी मुर्ग़ियां हर दफ़ा महफ़ूज़ रहीं। मगर आए दिन की रक़ाबतें और रंजिशें रानी खेत से ज़्यादा जान-लेवा साबित हुईं और क़ज़ीया रफ़्ता-रफ़्ता यूं तय हुआ कि कुछ मुर्ग़ियां तो पड़ोसियों के कुत्ते खा गए और जो उनसे बच रहीं, उनको पड़ोसी ख़ुद खा गए।

    अल्लाह बस बाक़ी हवस।

    स्रोत:

    Charagh Tale (Pg. 110)

    • लेखक: मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी
      • प्रकाशक: हुसामी बुकडिपो, हैदराबाद
      • प्रकाशन वर्ष: 1984

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