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दस्त-ए-ज़ुलैख़ा

मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी

दस्त-ए-ज़ुलैख़ा

मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी

MORE BYमुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी

    बाबा-ए-अंग्रेज़ी डाक्टर सेमुएल जॉनसन का यह क़ौल दिल की सियाही से लिखने के लाएक़ है कि जो शख़्स रुपे के लालच के इ'लावा किसी और जज़्बे के तहत किताब लिखता है, उससे बड़ा अहमक़ रु-ए-ज़मीन पर कोई नही!

    हमें भी इस कुल्लिए से हर्फ़-ब-हर्फ़ इत्तफाक़ है, बशर्ते कि किताब से मुराद वही है जो हम समझे हैं, या'नी चेक-बुक या रोकड़-बही! दीबाचे में यह अज़ बस ज़रूरी है कि यह किताब किस माली या इल्हामी दबाव से निढाल होकर लिखी गयी! चूनांचे जो अह्ल-ए-क़लम ज़हीन हैं, वो मुश्क़ की तरह खुद बोलते हें! जो ज़रा ज़्यादा ज़हीन हैं, वो अपने कन्धों पर दूसरों से बंदूक चलवाते हैं!

    ख़ुद दीबाचा लिखने में वही सहूलत और फ़ाएदे मुज़्मिर हैं, जो ख़ुदकुशी में होते है! या'नी तारीख़-ए-वफ़ात, आला-ए-क़त्ल और मौक़ा-ए-वारदात का इंतिख़ाब साहिब-ए-मुआ'मला ख़ुद करता है! और ता'ज़ीरात-ए-पाकिस्तान में यह वाहिद जुर्म है,जिसकी सज़ा सिर्फ़ उस सूरत में मिलती है कि मुल्ज़िम इर्तिकाब-ए-जुर्म में कामियाब हो!

    1961 में पहली नाकाम कोशिश के बाद बहम्द-उल-लिल्लाह हमें एक बार फिर यह सआ'दत बक़लम ख़ुद नसीब हो रही है। तीशे बग़ैर मर सका कोहकन असद!

    यह किताब 'चराग़ तले' के पुरे आठ साल बाद शाया हो रही है। जिन क़द्रदानों को हमारी पहली किताब में ताज़गी, ज़िन्दा दिली और जवांसाली का अ'क्स नज़र आया, मुम्किन है उनको दूसरी में कहुलत के आसार दिखलाई दें। इसकी वजह हमें तो यही मालूम होती है कि उनकी उम्र में आठ साल का इज़ाफ़ा हो चुका है।

    इंसान को हैवान-ए-ज़रीफ़ कहा गया है! लेकिन यह हैवानों के साथ बड़ी ज़ियादती है, इसलिए कि देखा जाए तो इंसान वाहिद हैवान है जो मुसीबत पड़ने से पहले मायूस हो जाता है! इंसान वाहिद जानदार है, जिसे खलाक़-ए-आ'लम ने अपने हाल पर रोने के लिए गूदूद-ए-गिरियाँ बख़्शे हैं! कस्रत-ए-इस्तेमाल से यह बढ़ जाएं तो हस्सास तंज़-निगार दुनिया से यूँ ख़फ़ा हो जाते हैं जैसे अगले वक़्तों में आक़ा नमक-हराम लौंडियों से रुठ जाया करते थे!

    लग्ज़िश-ए-ग़ैर पर उन्हें हंसी के बजाए तैश आजाता है! ज़हीन लोगों कि एक क़िस्म वह भी है जो अहमक़ों का वुजूद सिरे से बर्दाश्त ही नहीं कर सकती! लेकिन जैसा कि मार्कोस दी सय्यद ने कहा था, वह यह भूल जाते हैं कि सभी इंसान अहमक़ होते है! मौसुफ़ ने तो यह मश्वरा भी दिया है कि अगर तुम वाक़ई किसी अहमक़ की सूरत नहीं देखना चाहते तो ख़ुद को अपने कमरे में मुक़फ्फ़ल कर लो और आईना तोड़ कर फेंक दो!

    लेकिन मिज़ाह निगार के लिए नसीहत, फ़सीहत और फ़हमाइश हराम है! वह अपने और तल्ख़-हक़ाईक़ के दरमियान एक क़द-ए-आदम दीवार-ए-क़हक़हा खड़ी कर लेता है! वह अपना रु-ए-खंदां, सूरजमुखी फूल की मानिंद, हमेशा सरचश्मा-ए-नूर की जानिब रखता है और जब उसका सूरज डूब जाता है तो अपना रुख़ उस सिम्त कर लेता है, जिधर से वह फिर तुलूअ' होगा!

    हमह आफ़ताब बीनम, हमह आफ़ताब गोयम

    शबनम, शब-परस्तम कि हदीस-ए-ख़्वाब गोयम

    हिस्स-ए-मिज़ाह ही दरअसल इंसान कि छटी हिस्स है! यह हो तो इंसान हर मुक़ाम से आसान गुज़र जाता है!

    बे नशा किसको ताक़त-ए-आशूब-ए-आगही

    यू तो मिज़ाह, मज़हब और अल्कोहल हर चीज़ में बआसानी हल होजाते हैं, बिलखुसूस उर्दू अदब में! लेकिन मिज़ाह के अपने तक़ाज़े, अपने अदब आदाब हैं! शर्त-ए-अव्वल यह कि बरहम, बेज़ारी और कुदूरत दिल में राह पाए! वर्ना यह बूमरिंग पलट-कर ख़ुद शिकारी का काम तमाम कर देता है! मज़ा तो जब है कि आग भी लगे और कोई उंगली उठा सके कि ‘यह धुआं सा कहाँ से उठता है?’ मिज़ाह निगार उस वक़्त तक तबस्सुम ज़ेरे-लब का सज़ावार नहीं, जब तक उसने दुनिया और अह्ल-ए-दुनिया से रज के (जी भर के) प्यार किया हो! उनसे ! उनकी बेमह्री कम निगही से! उनकी तर दामनी और तक़द्दुस से! एक प्यम्बर के दामन पर पड़ने वाला हाथ गुस्ताख़ ज़रूर है, मगर मुश्ताक़ आरज़ूमंद भी है! यह ज़ुलेख़ा का हाथ है! ख़्वाब को छोड़कर दिखने वाला हाथ!

    सबा के हाथ में नर्मी है उनके हाथों की

    एक साहिब-ए-तर्ज़ अदीब ने, जो सुख़न फ़हम होने के इ'लवा हमारे तरफ़दार भी हैं (तुझे हम वली समझते जो सूद ख़्वार होता... की हद तक) एक रिसाले में दबी ज़बान से यह शिकवा किया कि हमारी शोखी-ए-तहरीर मसाईल-ए-हाज़रा के अ'क्स और सियासी सोज़-ओ-गुदाज़ से आ'री है!

    अपनी सफ़ाई में हम मुख़्तस्रन इतना ही अ'र्ज़ करेंगे कि तअ'न-व-तशनीअ' से अगर दूसरों की इस्लाह हो जाती तो बारूद ईजाद करने कि ज़रुरत पेश आती!

    लोग क्यों, कब और कैसे हँसते हैं? जिस दिन इन सवालों का सही-सही जवाब मा'लूम हो जाएगा, इंसान हँसना छोड़ देगा! रहा यह सवाल कि किस पर हँसते हैं? तो इसका इन्हिसार हुकूमत कि ताब रवादारी पर है!अंग्रेज़ सिर्फ़ उन चीजों पर हँसते हैं, जो उनकी समझ में नहीं आती...पंच के लतीफ़े, मौसम, औरत, तज्रीदी आर्ट! इसके बर-अक्स, हमलोग उन चीज़ों पर हँसते हैं, जो अब हमारी समझ में आगयी हैं! मस्लन अंग्रेज़, इश्क़िया शायरी, रूपया कमाने कि तरकीबें, बुनियादी जम्हूरियत!

    फ़क़ीर की गाली, औरत के थप्पड़ और मसख़रे की बात से आज़ूर्दा नहीं होना चाहिए! यह क़ौल-ए-फ़ैसल हमारा नहीं, मौलाना ऊबैद ज़ाकानी का है! (अज़ दुश्नाम गदायाँ सैलिए ज़नाँ ज़बां शायेरां मसख़्ख़रगाँ मरंजीद) मिज़ाह निगार इस लिहाज़ से भी फ़ायदे में रहता है कि उसकी फ़ाश से फ़ाश ग़लती के बारे में भी पढ़ने वाले को यह अंदेशा लगा रहता है कि मुम्किन है, इसमें भी तफ़न्नुन का कोई लतीफ़ पहलू पोशीदा हो,जो ग़ालिबन मौसम कि ख़राबी के सबब उसकी समझ में नहीं आरहा!

    इस बुनियादी हक़ से दस्तबर्दार हुए बग़ैर, यह तस्लीम कर लेने में चंदां मुज़ाईक़ा नहीं कि हम ज़ुबान और क़वाईद कि पाबंदी को तकल्लुफ़-ए-ज़ाईद तसव्वुर नहीं करते! यह ए'तराफ़-ए-इज्ज़ इसलिए और भी ज़रूरी है कि आजकल बा'ज़ अह्ले-क़लम बड़ी कोशिश और काविश से ग़लत ज़बान लिख रहे है!

    हाँ, कभी-कभार बेध्यानी या महज़ आल्कस में सही ज़बान लिख जाएं तो और बात है! भूल-चूक किससे नहीं होती?

    स्रोत:

    ख़ाकम बदहन (Pg. 6)

    • लेखक: मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी
      • प्रकाशक: पाक पब्लिकेशन्स, कराची
      • प्रकाशन वर्ष: 1970

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