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ग़ालिब अपने कलाम के आइने में

हरी चंद अख़्तर

ग़ालिब अपने कलाम के आइने में

हरी चंद अख़्तर

MORE BYहरी चंद अख़्तर

    ‎“तन्क़ीद-ए-आलिया” का दौर दौरा है और तहक़ीक़-ओ-तदक़ीक़ की संगलाख़ ज़मीन में नए नए फूल ‎और पौदे उगा कर वीरानों को गुलज़ार बनाने की कोशिशें हो रही हैं, इस ज़िम्न में मुसन्निफ़ों और ‎शायरों की सवानिह हयात, उनके कलाम और तसानीफ़ से मुरत्तिब करने का शुग़ल आम हो चुका है। ‎बा’ज़ लोगों के ख़्याल में ये हंज़ल से इत्र निकालने की कोशिश के मुतरादिफ़ है लेकिन लिखने वालों ‎ने किताबें लिख डालीं और हम अभी इज़हार राय के गुम्बद से बाहर नहीं आ चुके,

    यारान-ए-तेज़-गाम ने मोहमिल को जा लिया 
    हम मह्व-ए-नाला-ए-जरस कारवां रहे

    पस ख़ाक अज़ तोद-ए-कलां बर्दार पर अमल करते हुए मिर्ज़ा ग़ालिब पर क़लम साफ़ करता हूँ। उनके ‎सवानिह हयात बा’ज़ हज़रात बड़ी तहक़ीक़-ओ-तफ़तीश के बाद किताबी सूरत में पेश कर चुके हैं फिर ‎भी मेरा ख़्याल है कि इन सुतूर में जो कुछ मुख़्तसिरन पेश किया जा रहा है उसे पढ़ने के बाद आप ‎मुसन्निफ़ को दुआ-ए-मग़्फ़िरत से याद फ़रमाएँगे।

    ग़ालिब के हालात 
    नाम: मिर्ज़ा का नाम तमाम तज़्किरा नवीसों ने असदुल्लाह ख़ां लिखा है, चूँकि आप ईरानी उन नस्ल ‎थे इसलिए असदुल्लाह और ख़ां के दरमियान बेग का लफ़्ज़ भी बढ़ा दिया जाता है लेकिन नए ‎मुहक़्क़िक़ों ने इस नाम के मुआमले को भी ख़ास तहक़ीक़ात का मुस्तहिक़ समझा और बड़ी काविश-‎ओ-तलाश के बाद साबित कर दिखाया कि ग़ालिब का नाम अहमद शाह अबदाली या माओज़े तुंग ‎नहीं बल्कि असदुल्लाह ख़ां था। उनके इस इन्किशाफ़ की ताईद मिर्ज़ा के इस शे’र से होती है,

    मारा ज़माना ने असदुल्लाह ख़ां तुम्हें 
    वो वलवले कहाँ जो जवानी किधर गई

    मिर्ज़ा का तख़ल्लुस कई ग़ज़लों में असद है और अक्सर में ग़ालिब। इससे पढ़े लिखे लोगों को शक ‎हो चला था कि मिर्ज़ा का दीवान दो मुख़्तलिफ़ शायरों के कलाम का मजमूआ है लेकिन हमारे नए ‎तज़्किरा नवीसों ने बज़ोर-ए-क़लम साबित कर दिया है कि ग़ालिब और असद दरअसल एक शख़्स के ‎दो तख़ल्लुस हैं। अलबत्ता उन तज़्किरा निगारों का ये ख़्याल दुरुस्त नहीं है कि मिर्ज़ा पहले असद थे ‎फिर ग़ालिब बन गए। हक़ीक़त ये है कि मिर्ज़ा ने आख़िर तक असद तख़ल्लुस तर्क नहीं किया ‎बल्कि मरने के बाद भी सब से पहला शे’र इसी तख़ल्लुस से कहा, फ़रमाते हैं,

    ये लाश बे-कफ़न असद ख़स्ता जां की है 
    हक़ मग़फ़िरत करे अजब आज़ाद मर्द था

    पैदाइश नाम और तख़ल्लुस का मसला यूं हल हो गया, लेकिन मिर्ज़ा के सन् पैदाइश और उम्र के ‎बारे में नए और पुराने तमाम तज़्किरा नवीसों ने बुरी तरह ठोकरें खाईं हैं। सबने ग़ालिब का सन् ‎पैदाइश 1212 हि. लिखा है और उम्र 73 साल लेकिन ये सरीहन ग़लत है। मिर्ज़ा ख़ुद कहते हैं,

    फ़ना तालीम दर्स-ए-बेख़ुदी हूँ उस ज़माने से 
    कि मजनूं लाम अलिफ़ लिखता था दीवार-ए-दबिस्ताँ पर

    इससे ज़ाहिर है कि मिर्ज़ा न सिर्फ़ क़ैस आमिरी के ज़माने में ज़िंदा थे बल्कि उम्र में भी उससे बड़े ‎थे क्योंकि जिन दिनों क़ैस एक मुब्तदी छोकरे की हैसियत से मकतब की दीवारों पर लाम अलिफ़ ‎ला लिखता था उस वक़्त मिर्ज़ा साहिब बेख़ुदी के प्रोफ़ेसर हो चुके थे।

    मजनूं के ज़माने में मिर्ज़ा की मौजूदगी का एक और शे’र से भी सबूत मिलता है,

    आशिक़ हूँ प माशूक़-फ़रेबी है मिरा काम 
    मजनूं को बुरा कहती है लैला मरे आगे

    इन दोनों शे’रों को मिलाकर पढ़ें तो ये भी साबित हो जाता है कि मिर्ज़ा ग़ालिब क़ैस आमिरी से ‎बहुत ज़्यादा ख़ूबसूरत थे। पहला शे’र बताता है कि आप मजनूं से उम्र में बहुत बड़े थे लेकिन दूसरा ‎शे’र कह रहा है कि लैला जो मजनूं की महबूबा होने के अलावा ख़ुद भी उस पर फ़रेफ़्ता थी। जब ‎मिर्ज़ा ग़ालिब के सामने आई तो नौजवान मजनूं को बहुत हक़ीर समझने लगी थी और उस हिक़ारत ‎का खुले लफ़्ज़ों में इज़हार कर देती थी। मिर्ज़ा ने अगरचे उसे अपनी माशूक़-फ़रेबी का करिश्मा ‎ज़ाहिर करना चाहा लेकिन ये उनकी कसर-ए-नफ़सी है। अगर मिर्ज़ा मजनूं के मुक़ाबले में सचमुच ‎यूसुफ़ न होते तो लैला पर उनकी माशूक़-फ़रेबी भी कारगर न हो सकती।

    वालिदैन: ग़ालिब के बाप का नाम तमाम तज़्किरों में अब्दुल्लाह बेग दर्ज है लेकिन मिर्ज़ा के कलाम ‎से उस पर कुछ रोशनी नहीं पड़ती। ताहम मिर्ज़ा के बाप का कुछ न कुछ नाम ज़रूर था क्योंकि ‎तारीख़ से साबित है कि अब से कई सौ साल पहले भी हिन्दोस्तान में बापों के नाम हुआ करते थे। ‎मसलन जहांगीर के वालिद का नाम जलाल उद्दीन अकबर था और हुमायूँ के बाप का नाम ज़हीर ‎उद्दीन बाबर बादशाह। इस तारीख़ी इन्किशाफ़ के बाद अगर क़ाफ़िया की रिआयत से असदुल्लाह के ‎बाप का नाम अबदुल्लाह तस्लीम कर लिया जाये तो मेरे ख़्याल में कोई क़बाहत नहीं।

    मिर्ज़ा की वालिदा माजिदा का नाम किसी को मालूम न हो सका लेकिन उन्होंने अपने एक ख़त में ‎शिकायत की है कि एक शख़्स ने उनको बुढ़ापे में माँ की गाली दी। इससे साबित है कि ग़ालिब की ‎कम से कम एक माँ ज़रूर थी।

    तालीम: मालूम नहीं मिर्ज़ा ने तालीम कहाँ पाई। मजनूं के ज़माने में कोई बाक़ायदा स्कूल और ‎कॉलेज तो था नहीं। सिर्फ़ एक दबिस्ताँ था जिसकी दीवारें मजनूं ने लाम अलिफ़ लिख कर स्याह ‎कर डाली थीं। इसलिए किसी और के लिए वहां कुछ लिखने पढ़ने की गुंजाइश हैं नहीं रही। मजनूं से ‎पहले ग़ालिब ने भी यहां कुछ दिन गुज़ारे थे। ख़्याल है कि इस मकतब का नाम “ग़म-ए-दिल” था। ‎उसमें आप दाख़िल तो हुए मगर रफ़्त और बूद से आगे न बढ़ सके। उस मकतब का ज़िक्र आपने ‎अपने एक शे’र में वाज़िह तौर से कर दिया है,

    लेता हूँ मकतब-ए-ग़म-ए-दिल में सबक़ हुनूज़ 
    लेकिन यही कि रफ़्त गया और बूद था

    लेकिन इस के बाद मिर्ज़ा घर पर ही पढ़ते थे। बहरहाल ये ज़ाहिर है कि वो जाहिल नहीं थे। अगर ‎नाख़्वान्दा होते तो शे’र क्योंकर लिख सकते थे और इतनी तसानीफ़ कहाँ से आ जातीं? आब-ए-हयात ‎वाले मुहम्मद हुसैन आज़ाद ने भी सिर्फ़ बहादुरशाह ज़फ़र के अशआर को ज़ौक़ की तसनीफ़ बताया ‎है। ग़ालिब के बारे में इस हुस्न-ए-ज़न का इज़हार नहीं किया।

    ग़ालिब ने उर्दू और फ़ारसी दोनों ज़बानों में शे’र कहे हैं, पस वो थोड़ी बहुत दोनों ज़बानें जानते थे ‎अलबत्ता अपनी एक किताब का नाम “ऊद-ए-हिन्दी” रखने से ज़ाहिर है कि तहरीर-ओ-तसनीफ़ में उर्दू ‎को हिन्दी लिखा करते थे। चुनांचे मर्दुम-शुमारी के वक़्त उन्होंने अपनी मादरी ज़बान हिन्दी लिखवाई ‎थी।

    पेशा और शुग्ल: मिर्ज़ा का सबसे बड़ा और मुस्तक़िल पेशा तो आशिक़ी था जिसका सबूत उनके ‎दीवानों में जाबजा मिलता है। दूसरा शुग़ल ये था कि शे’र चुन-चुन कर रुस्वा होते रहते थे, ख़ुद ‎मानते हैं कि,

    शे’रों के इंतिख़ाब ने रुस्वा किया मुझे

    इसके अलावा बा’ज़ और अश्ग़ाल भी थे। मिर्ज़ा कोई हुनरमंद आदमी नहीं थे लेकिन इसके बावजूद ‎फ़लक ना-हंजार आपकी दुश्मनी पर तुल गया था। फ़रमाते हैं,

    हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे 
    बेसबब हुआ ग़ालिब दुश्मन आसमां अपना

    अलबत्ता फ़न-ए-मुसव्विरी में कुछ दस्तरस हासिल की थी, ऐसा क्यों किया था उसका जवाब ख़ुद देते ‎हैं,

    सीखे हैं मह-रुख़ों के लिए हम मुसव्विरी 
    तक़रीब कुछ तो बहर-ए-मुलाक़ात चाहिए

    एक मुद्दत तक ये शेवा रहा कि सुब्ह-सवेरे ज़रूरियात से फ़ारिग़ होते ही कान पर क़लम रखकर ‎निकल खड़े होते और सारा सारा दिन बिला मुआवज़ा लोगों के ख़त लिखते फिरा करते थे लेकिन ‎इसका ये मतलब नहीं कि वो किसी सोशल सर्विस लीग के मेंबर बन गए थे, मक़सद ये था कि,

    मगर लिखवाए कोई उनको ख़त तो हमसे लिखवाए 
    हुई सुबह और घर से कान पर रख कर क़लम निकले

    एक शे’र से पता चलता है कि अबनाए रोज़गार की बे-मेहरियों से तंग आकर गदागरी भी इख़्तियार ‎की लेकिन लुत्फ़ की बात ये है कि इस हालत में भी आशिक़ी को तर्क नहीं किया। कहते हैं,

    छोड़ी असद न हम ने गदाई में दिल-लगी 
    साइल हुए तो आशिक़ अह्ल-ए-करम हुए

    लड़कपन का ज़माना गुज़रा जवानी आई, सुर्ख़ सुर्ख़ और गर्म गर्म ख़ून रगों में एक तलातुम पैदा ‎करने लगा। मिर्ज़ा से न रहा गया और इश्क़ नामी एक शह-ज़ोर हरीफ़ पर फ़तह हासिल करने की ‎ठान ली। फ़रीक़ैन कील कांटे से लैस हो कर मैदान में उतरे, घमासान का रन पड़ा मगर अफ़सोस कि ‎मिर्ज़ा के पांव पर एक ज़ख़्म-ए-कारी आगया और आप शिकस्त खा गए। उस वक़्त निहायत मायूसी ‎के आलम में बेसाख़्ता पुकार उठे,

    हुए हैं पांव ही पहले नबर्द-ए-इश्क़ में ज़ख़्मी 
    न भागा जाये है मुझसे न ठैरा जाये है मुझसे

    आपका हथियार डालना था कि हरीफ़ ने आपको गिरफ़्तार कर लिया और पा-ब-जौलाँ अपने क़िला की ‎तरफ़ ले गया। तमाशाइयों का एक बहुत बड़ा मजमा साथ हो लिया क्योंकि ये बात ज़बान ज़द ख़ास-‎ओ-आम हो चुकी थी कि मिर्ज़ा ग़ालिब के वहां ख़ूब पुर्जे़ उड़ेंगे और ऐन मजमा में आपकी रुस्वाई ‎होगी मगर वहां कुछ भी न हुआ और तमाशाई बे नील-ए-मराम ये कहते हुए वापस लौट आए,

    थी ख़बर गर्म कि ग़ालिब के उड़ेंगे पुर्जे़ 
    देखने हम भी गए थे प तमाशा न हुआ

    मोसिक़ ज़राए से मालूम हुआ है कि हरीफ़ ने आपको जेल में क़ैद कर दिया। मगर क़ैद का अरसा ‎मालूम नहीं हो सका अलबत्ता जो ज़ुल्म आपसे रवा रखे गए उनके मुताल्लिक़ आपने हल्का सा इशारा ‎किया है। फ़रमाते हैं,

    बस कि हूँ ग़ालिब असीरी में भी आतिश ज़ेर-ए-पा 
    मूए आतशदीदा है हलक़ा मेरी ज़ंजीर का

    यानी कमबख़्त हरीफ़ ने आपके पांव के नीचे आग तक रखने से दरेग़ नहीं किया।

    इस क़ैद से आपको कई बार ज़मानत पर रहा किया गया मगर आपका दिल हर बार “फ़राग़” से ‎देरीना दुश्मनी का बना पर कोई शरारत कर देता और मा दिल-ओ-दिमाग़ धर लिए जाते। जैसा कि ‎आप फ़रमाते हैं,

    सौ बार बंद क़ैद से आज़ाद हम हुए 
    पर क्या करें कि दिल ही अदू है फ़राग़ का

    ख़्याल किया जाता है कि आख़िरी वक़्त फ़राग़ से सुलह हो गई होगी।

    मुख़्तसर हालात: आप मिर्ज़ा के मुख़्तसर सवानिह हयात सुनिए, बखौफ़-ए-तवालत सिर्फ़ चंद ‎वाक़िआत के बयान पर ही इकतिफ़ा करूँगा जो आम मुहक़्क़िक़ों और तज़्किरा नवीसों की नज़र से ‎ओझल रहे।

    मिर्ज़ा की ज़िंदगी अगरचे उस्रत में गुज़री थी लेकिन इसके लिए अल्लाह मियां ज़िम्मेदार न थे, ख़ुद ‎मिर्ज़ा को इक़रार है कि ख़ुदा ने उन्हें दोनों जहान दे दिए थे, सुनिए,

    दोनों जहान दे के वो समझे ये ख़ुश रहा 
    याँ आ पड़ी ये शर्म कि तकरार क्या करें

    सवाल पैदा होता है कि फिर वो दोनों जहां गए कहाँ? जवाब मिर्ज़ा के इस शे’र में मौजूद है,

    लो वो भी कहते हैं कि ये बेनंग-ओ-नाम है 
    ये जानता अगर तो लुटाता न घर को मैं

    पस दोनों जहान भी घर के साथ ही लुटा दिए होंगे।

    ग़ालिब का घर न सिर्फ़ वीरान था बल्कि उसमें वीरानी सी वीरानी थी। चुनांचे,

    कोई वीरानी सी वीरानी है 
    दश्त को देख के घर याद आया

    लेकिन ये घर वसीअ न था और मिर्ज़ा को वरज़िश के लिए या शायद गेंद बल्ला खेलने के लिए ‎बहुत खुली जगह की ज़रूरत थी, इसलिए जंगल में जा रहे थे, फ़रमाते हैं,

    कम नहीं वो भी ख़राबी में प वुसअत मालूम 
    दश्त में है मुझे वो ऐश कि घर याद नहीं

    जंगलों की ज़िंदगी मिर्ज़ा को बहुत अज़ीज़ थी और उन्होंने अपने घर को ताक़-ए-निस्याँ पर रखकर ‎क़ुफ्ल लगा दिया था। मिर्ज़ा के पांव में चक्कर था वो किसी जगह बैठ नहीं सकते थे। जब चलते ‎चलते पांव में छाले पड़जाते तो उस वक़्त उन्हें झाड़ झंकाड़ की तलाश होती थी। कांटों को देखकर ‎आपका दिल मुसर्रत-ओ-शादमानी के झूले में झूलने लगता था। कहते हैं,

    इन आबलों से पांव के घबरा गया था मैं 
    जी ख़ुश हुआ है राह को पुरख़ार देखकर

    मिर्ज़ा बड़े सादा-लौह और साफ़-दिल इंसान थे। अक्सर ऐसी हरकतें कर बैठते जिनका नतीजा उनके ‎हक़ में बहुत बुरा होता था। चुनांचे एक दिन महबूब की गली में बैठे-बैठे किसी ज़रा सी ग़लती पर ‎पासबान से अपनी चिंदिया गंजी कराली, इस वाक़िआ को यूं बयान किया है,

    गदा समझ के वो चुप था मिरी जो शामत आए 
    उठा और उठ के क़दम मैंने पासबाँ के लिए

    एक मर्तबा ख़ुद महबूब के हाथों से भी पिटे मगर चूँकि क़सूर अपना था इसलिए निहायत ईमानदारी ‎से एतराफ़ भी कर लिया कि,

    धूल धप्पा उस सरापा-नाज़ का शेवा नहीं 
    हम ही कर बैठे थे ग़ालिब पेश-दस्ती एक दिन

    इस सादा-लौही की बदौलत एक दिन महबूब की हद से ज़्यादा तारीफ़ करके एक राज़दार को रक़ीब ‎बना लिया, सबूत मुलाहिज़ा हो,

    ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयान अपना 
    बन गया रक़ीब आख़िर था जो राज़दां अपना

    लेकिन दीवाना बकार ख़्वेश होशयार कभी कभी रक़ीब को जुल भी दे जाते,

    ता करे न ग़म्माज़ी कर लिया है दुश्मन को 
    दोस्त की शिकायत में हमने हम-ज़बाँ अपना

    मिर्ज़ा नुजूम और जोतिश के न सिर्फ़ क़ाइल थे बल्कि मुहब्बत के मुआमलों में भी जोत्शियों से ‎पूछगछ करते रहते थे, इसीलिए कहा है,

    देखिए पाते हैं उश्शाक बुतों से क्या फ़ैज़ 
    इक ब्रहमन ने कहा है कि ये साल अच्छा है

    ग़ालिब का दिल आम लोगों की तरह ख़ून का क़तरा या गोश्त का लोथड़ा न था बल्कि आफ़त का ‎एक बड़ा सा टुकड़ा था। उसमें कई जगह टेढ़ मेढ़ थे और वो हर वक़्त शोर-ओ-गुल मचाए रखता था। ‎मिर्ज़ा भी उसकी आवारगी के हमेशा शाकी रहते थे। इरशाद होता है,

    मैं और इक आफ़त का टुकड़ा वो दिल-ए-वहशी कि है 
    आफ़ियत का दुश्मन और आवारगी का आश्ना

    मिर्ज़ा कभी कभी अपने इस दिल से काम भी ले लिया करते थे। मसलन एक दफ़ा महबूब की ‎तमन्ना कहीं आपके हत्थे चढ़ गई। आपने जी भर के इंतिक़ाम लिए और दल के शोर-ओ-गुल के ‎ज़रिये उस बे-चारी के कानों के पर्दे फटे जाते थे। रात-दिन दिल में चक्कर काटती मगर बाहर ‎निकलने का रास्ता नहीं मिलता। आख़िर एक दिन ख़ुद उस पर तरस खाकर महबूब से दरख़्वास्त ‎की है,

    है दिल शोरीदा-ए-ग़ालिब तिलिस्म पेच-ओ-ताब 
    रहम कर अपनी तमन्ना पर कि किस मुश्किल में है

    लेकिन ख़ुदा के फ़ज़ल-ओ-करम से मिर्ज़ा को जल्द ही इससे रिहाई मिल गई। एक दिन बैठे-बैठे ‎सोज़-ए-निहाँ का दौरा हुआ और सारे का सारा दिल बे महाबा जल गया। इस हादिस-ए-फ़ाजिआ का ‎ज़िक्र मिर्ज़ा ने यूं किया है,

    दिल मिरा सोज़-ए-निहां से बेमुहाबा जल गया 
    आतिश-ए-ख़ामोश की मानिंद गोया जल गया

    बदक़िस्मती से मिर्ज़ा के नाख़ुन बहुत जल्द जल्द बढ़ते थे। चुनांचे दिल का ज़ख़्म अभी भरने भी न ‎पाता था कि नाख़ुनों के खुरपे फिर तेज़ होजाया करते थे, फ़रमाते हैं,

    दोस्त ग़म ख़्वारी में मेरी सई फ़रमाएँगे क्या 
    ज़ख़्म के भरने तलक नाख़ुन न बढ़ आएँगे क्या

    ग़ालिब का ज़माना: ग़ालिब के ज़माने में दिल्ली में ग़म-ए-उल्फ़त का क़हत पड़ गया था, फ़रमाते हैं,

    है अब इस मामूरा में क़हत ग़म-ए-उल्फ़त असद 
    हमने ये माना कि दिल्ली में रहें खाएँगे क्या

    अफ़सोस के सारे दीवान में ये कहीं वज़ाहत नहीं की गई कि ग़म-ए-उलफ़त बादशाह के तोशा ख़ाना ‎में मौजूद था या वहां भी झाड़ू फिर गई थी। नीज़ ये कि राशन की दुकानों पर किस भाव बिकता ‎था। अलबत्ता ये साफ़ ज़ाहिर है कि मिर्ज़ा की ख़ुराक ग़म-ए-उलफ़त थी या कम अज़ कम ग़म-ए-‎उलफ़त उनकी ख़ुराक का जुज़्व-ए-आज़म था।

    लेकिन इस क़हतसाली में बा’ज़ चीज़ों की अर्ज़ानी भी थी। मसलन दिल और जान बाज़ार में बिका ‎करते थे और हर शख़्स जब और जितने चाहे ख़रीद सकता था। मिर्ज़ा को एतराफ़ है,

    तुम शहर में हो तो हमें क्या ग़म जब उठेंगे 
    ले आएँगे बाज़ार से जाकर दिल-ओ-जां और

    ग़ालिब के ज़माने में पूरे सात आसमान थे। आजकल नौ आसमान बताए जाते हैं जिसका मतलब ये ‎हुआ कि बाक़ी दो आसमान 1857 ई. के बाद अंग्रेज़ी अह्द में विलाएत से बन कर आए। मिर्ज़ा के ‎ज़माने के सातों आसमान एक लहज़ा भी सुकून-ओ-क़ियाम की लज़्ज़त से आश्ना न होते बल्कि रात-‎दिन घूमते रहते थे। मिर्ज़ा लिखते हैं,

    रात-दिन गर्दिश में हैं सात आसमां 
    हो रहेगा कुछ न कुछ घबराएँ क्या

    उस ज़माने की एक अजीब-ओ-ग़रीब ख़ुसूसियत ये थी कि किसी को महबूब का मुँह मालूम न हो ‎सके तो उसकी हेचमदानी खुल जाती थी। एक मर्तबा मिर्ज़ा पर भी ये कैफ़ियत गुज़र गई। एतराफ़ ‎फ़रमाते हैं,

    दहन उसका जो न मालूम हुआ 
    खुल गई हेचमदानी मेरी

    मिर्ज़ा ग़ालिब ख़ूबसूरत मजनूं के मुक़ाबले में तो थे जैसा कि पहले ज़िक्र आ चुका है मगर कुछ ‎ज़्यादा ख़ूबसूरत न थे, यानी क़ज़ा-ओ-क़दर की तरफ़ से उन्हें हुस्न का कोई वाफ़र हिस्सा नहीं मिला ‎था। इस का एहसास ख़ुद उन्हें भी था। अपनी सूरत और हसीनों की चाहत के बारे में फ़रमाते हैं,

    चाहते हैं ख़ूबरूयों को असद
    आपकी सूरत तो देखा चाहिए

    लेकिन किसी मस्लिहत के तहत एक अदद महबूब के आशिक़ बन बैठे थे।

    मिर्ज़ा का महबूब बैन-उल-अक़वामी शोहरत का मालिक था। उसका नाम सारे जहान को मालूम था ‎लेकिन किसी मुल़्क किसी शहर और किसी थाने में कोई शख़्स उसका नाम सितमगर कहे बग़ैर न ‎लेता था,

    काम उससे आ पड़ा है कि जिसका जहान में 
    लेवे न कोई नाम सितमगर कहे बग़ैर

    उस महबूब के आदात-ओ-ख़साइल भी अजीब थे। मसलन गालियां बहुत देता था। मिर्ज़ा पूछते हैं,

    वां गया में भी तो उनकी गालियों का क्या जवाब 
    याद थीं जितनी दुआएं सर्फ़-ए-दरबाँ हो गईं

    इसी तरह अगर मिर्ज़ा कभी शिकवे-शिकायत करें तो वो फ़ौरन उठकर भागता और बल्लीमारान से ‎बाड़ा हिंदू राव तक मिर्ज़ा के जितने रक़ीब होते उन सबको जमा कर लेता। मिर्ज़ा झुँझला कर कहते ‎हैं,

    जमा करते हो क्यों रक़ीबों को 
    इक तमाशा हुआ गिला न हुआ

    जब कभी वो रक़ीब की बग़ल में सोता तो मिर्ज़ा के ख़्वाब में आकर पिनहां तबस्सुम किया करता, ‎इसी लिए कहा है,

    बग़ल में ग़ैर की आप सोए हैं कहीं वर्ना 
    सबब क्या ख़्वाब में आकर तबस्सुम हाय पिनहां का

    ये माशूक़ तख़्त कुर्सी मोंढे या चारपाई पर बैठना पसंद न करता था। हमेशा बोरिए पर बैठता और ‎अगर बोरिया न मिले तो खड़े खड़े चल देता, मिर्ज़ा रो रहे हैं कि,

    है ख़बर गर्म उनके आने की 
    आज ही घर में बोरिया न हुआ

    यूं भी वो अच्छा-ख़ासा अहमक़ था, इश्क़-ओ-मुहब्बत के सीधे सादे मुआमलात भी न समझ सकता ‎था। मिर्ज़ा शाकी हैं कि,

    उनके देखे से जो आजाती है मुँह पर रौनक़ 
    वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है

    आख़िर में वो बेतलब बोसे भी देने लगा था, मिर्ज़ा की बदगुमानी भरी शहादत हाज़िर है,

    सोहबत में ग़ैर की न पड़ी हो कहीं ये खो 
    देने लगा है बोसे बग़ैर इल्तिजा किए

    माशूक़ की सोहबत अच्छी न थी अक्सर रअशा वग़ैरा का शाकी रहता था। एक दिन बड़ी मिन्नतों के ‎बाद मिर्ज़ा के क़त्ल पर राज़ी हुआ। नोक-ए-शमशीर से दो-चार कचोके देने के बाद कारी ज़ख़्म लगाने ‎के लिए हाथ उठाया ही था कि फ़ालिज गिरा और भला चंगा हाथ पैर तस्मा पाकी टांग बन कर ‎लटकने लगा। मिर्ज़ा की रंज-ओ-ग़म के मारे चीख़ निकल गई,

    हाथ ही तेग़-आज़मा का काम से जाता रहा 
    दिल पे इक लगने न पाया ज़ख़्म-ए-कारी हाय हाय

    लेकिन कुछ अर्से के बाद फ़ालिज का असर ख़त्म हो गया और हाथ पहले की तरह काम करने लगा।

    उसके मज़हब के मुताल्लिक़ सिर्फ़ ये पता चला है कि ग़ैरमुस्लिम था, जभी तो कहा है कि,

    दिल दिया जान के क्यों उसको वफ़ादार असद 
    ग़लती की कि जो काफ़िर को मुसलमाँ समझा

    बैन-उल-अक़वामी शोहरत के बावजूद शुरू शुरू में उसका घर घाट कहीं नहीं था बल्कि एक ख़ेमे में ‎ज़िंदगी के दिन काट रहा था। मिर्ज़ा फ़रमाते हैं,

    कहाँ तक रोऊँ उसके खे़मे के पीछे क़ियामत है 
    मरी क़िस्मत में या रब क्या न था दीवार पत्थर की

    लेकिन बाद में उसे कोई मकान अलाट कर दिया गया था जिसमें संग-ए-दरोदीवार थे और एक ‎पासबान भी।

    मिर्ज़ा की बड़ी ख़्वाहिश थी कि आपको भी महबूब के दरवाज़े पर थोड़ी बहुत जगह मिल जाये। ‎चुनांचे एक दिन बातों ही बातों में निहायत मायूसी के आलम में महबूब से कहा,

    दाइम पड़ा हुआ तिरे दर पर नहीं हूँ मैं 
    ख़ाक ऐसी ज़िंदगी पे कि पत्थर नहीं हूँ मैं

    महबूब ने कमाल-ए-नवाज़िश से आपको दरवाज़े पर रहने की इजाज़त दे दी लेकिन इसके बाद फ़ौरन ‎ही जब कि आप अपना बिस्तर खोल रहे थे साफ़ इनकार कर दिया और अपनी ज़बान वापस ले ली। ‎हो सकता है कि मिर्ज़ा ने कोई चुभती हुई शरारत कर दी हो। इस वाक़िआ को इन अलफ़ाज़ में ‎बयान किया है,

    दर पे रहने को कहा और कह के कैसा फिर गया 
    जितने अर्से में मिरा लिपटा हुआ बिस्तर खुला

    लेकिन मिर्ज़ा ऐसे न थे कि उठ जाते। आप धरना देकर बैठ गए और तमाशाइयों को मुख़ातिब करते ‎हुए कहा,

    इस फ़ित्ना-खू के दर से तो उठते नहीं असद 
    इसमें हमारे सर पर क़ियामत ही क्यों न हो

    इस पर महबूब ने ज़ुल्म-ओ-तशद्दुद में इज़ाफ़ा कर दिया और नए तरीक़ों से दरपे आज़ाद हो गया, ‎यहां तक कि आपकी क़ुव्वत-ए-बर्दाश्त ने जवाब दे दिया। अपना बिस्तर लपेटा और महबूब के रास्ते ‎पर डेरा जमा दिया। मगर वहां भी उस ज़ालिम ने पीछा न छोड़ा और उठ जाने पर मुसिर हुआ। ‎चूँकि मुआमला अब नाज़ुक सूरत इख़्तियार कर गया था, लिहाज़ा आप मुहल्ला की पंचायत की तरफ़ ‎रुजू हुए और बड़ी इनकिसारी के साथ पूछा,

    दैर नहीं हरम नहीं दर नहीं आस्तां नहीं 
    बैठे हैं रहगुज़र पे हम कोई हमें उठाए क्यों

    क़राइन से ज़ाहिर होता है कि पंचायत ने निहायत सितम ज़रीफ़ी से काम लिया और इस मुआमले में ‎आपके महबूब की तरफ़दारी की। इस तरह आपको वहां से बिस्तरा गोल करते ही बनी। रोते धोते उठे ‎और संगदिल महबूब की तरफ़ इशारा करते हुए कहा,

    इन परी-ज़ादों से लेंगे ख़ुल्द में हम इंतिक़ाम 
    क़ुदरत-ए-हक़ से यही हूरें अगर वां हो गईं

    इसके बाद आप घर लौट आए मगर घर में भला जी कब लगता और इस पर तुर्रा ये कि हमसायों ने ‎तंग करना शुरू कर दिया। वाक़िआ दरअसल ये है कि अकेले आदमी को कोई शरीफ़ अपने हमसाया ‎में भी नहीं रहने देता।

    बड़ी टोह लगाई गई मगर ये पता न चल सका कि मिर्ज़ा का परीज़ाद भी ख़ुल्द में हूर बना, या न ‎बना।

    चंद मुतफ़र्रिक़ वाक़िआत: एक मर्तबा मिर्ज़ा ने उड़ने की भी कोशिश की लेकिन हवाई जहाज़ वग़ैरा से ‎काम नहीं लिया किसी और तरीक़े से उड़े जिसका नुस्ख़ा और तरकीब-ए-इस्तेमाल वग़ैरा सीना ब ‎सीना उन तक पहुंच कर उनके साथ ही दफ़न हो गए।

    बहरहाल उड़े तो सही लेकिन फिर ज़मीन पर आरहे। कुछ अर्से के बाद बुरे आमाल की पादाश में ‎उन्हें जानवर बना दिया गया। उस ज़माने में आपको अपना आबाई घर-बार छोड़कर लहलहाते अश्जार ‎पर घोंसला बनाना पड़ा। मगर शोमि-ए-क़िस्मत से आपके घोंसले के क़रीब ही सय्याद ने जाल ‎बिछाई। मिर्ज़ा घोंसला बनाते बनाते थक गए थे और कई दिन से एक खील भी मुँह में उड़ कर नहीं ‎गई थी। इसलिए भूके और प्यासे निढाल तो थे ही, दाने को देखकर झट नीचे उतरे और उतरने के ‎साथ ही गिरफ़्तार हुए और फड़फड़ाकर वहीं रह गए। फिर मुज़्महिल सी आवाज़ में कहा,

    पिनहां था दम-ए-सख़्त क़रीब आशियाने के 
    उड़ने न पाए थे कि गिरफ़्तार हम हुए

    सय्याद ने आपको पकड़ा और घर लाकर पिंजरा में क़ैद कर दिया। न मालूम कितने अर्से तक वहां ‎अकेले ही गलते सड़ते रहे कि एक दिन सय्याद एक और जानवर पकड़ लाया और मिर्ज़ा के साथ ही ‎क़फ़स में बंद कर दिया। मामूली अलैक सलैक के बाद आपने उससे चमन का हाल अहवाल दरयाफ्त ‎किया। वो बेचारा फूट फूटकर रोने लगा और रुँधी हुई आवाज़ में बहारों की दास्तान बयान करने लगा ‎और मिर्ज़ा साहिब बड़े इन्हिमाक से सुनते रहे।

    आख़िर वो कहने लगा कि गुलशन में एक आशियाने पर बिजली... इससे आगे वो कुछ न बोल सका ‎और उसके अलफ़ाज़ हिचकियों में तब्दील हो कर रह गए। उसकी आँखों से आँसू इस तरह जारी थे ‎जैसे सावन भादों की झड़ी लगी हुई हो। काफ़ी ज़ार-ओ-क़तार रोने के बाद जब उसे ज़रा कुछ होश ‎आया तो मिर्ज़ा ने उससे कहानी जारी रखने को फ़रमाया मगर वो सहम गया और अपनी नज़रें ‎मिर्ज़ा के चेहरे पर गाड़ दीं। आप सारा मुआमला समझ गए और उसे दिलासा देते हुए बोले,

    क़फ़स में मुझसे रूदाद-ए-चमन कहते न डर हमदम 
    गिरी है जिस पे कल बिजली वो मेरा आशियां क्यों हो

    मिर्ज़ा का एक दरबान भी था। जब मिर्ज़ा का घर वीरान हो गया तो उसके लिए कोई काम न रहा ‎मगर था वफ़ादार। मिर्ज़ा का साथ न छोड़ा और घर में घास खोद खोद कर गुज़र-औक़ात करता रहा। ‎मिर्ज़ा फ़रमाते हैं,

    उगा है घर में हर-सू सब्ज़ा वीरानी तमाशा कर 
    मदार अब खोदने पर घास के है मेरे दरबाँ का

    ग़ालिब ने कई मर्तबा बहिश्त की भी सैर की। एक मर्तबा वहां से वापस आए तो महबूब से कहने ‎लगे,

    कम नहीं जलवागरी में तिरे कूचे से बहिश्त 
    यही नक़्शा है वले इस क़दर आबाद नहीं

    ख़्वाजा ख़िज़्र से भी मिर्ज़ा की अक्सर मुलाक़ातें हुईं। नुसरत उल-मुल्कक के क़सीदे में इरशाद होता ‎है,

    तू सिकन्दर है मिरा फ़ख़्र है मिलना तेरा 
    गो शरफ़ ख़िज़्र की भी मुझको मुलाक़ात से है

    लेकिन दूसरे मिसरे में शरफ़ का लफ़्ज़ महज़ दोस्ताना मुरव्वत के बारे में कहा है वर्ना दरअसल वो ‎ख़िज़्र को रहनुमाई के क़ाबिल न समझते थे। सबूत हाज़िर है,

    लाज़िम नहीं कि ख़िज़्र की हम पैरवी करें 
    माना कि इक बुज़ुर्ग हमें हमसफ़र मिले

    मिर्ज़ा बुज़दिल भी बहुत थे। एक मर्तबा सड़क पर राहज़न का सामना हो गया तो उसे देखते ही दुम ‎दबा कर भाग निकले लेकिन दौड़ धूप के बावजूद पकड़े गए। अब सितम ज़रीफ़ बट मार ने डाँट कर ‎कहा, “कम्बख़्त हमें इस क़दर दौड़ाया है, ले अब ज़रा पांव दाब।” इस वाक़िआ को यूं नज़्म किया है,

    भागे थे हम बहुत सो उसी की सज़ा है ये 
    हो कर असीर दाबते हैं राहज़न के पांव

    जब उनकी थकावट दूर हो गई तो उन्होंने मिर्ज़ा से कहा कि हमें अपने घर लेकर चल। मिर्ज़ा ने ‎ऐसा ही किया। वहां पहुंच कर उन लोगों ने मिर्ज़ा का सारा असासा उड़ा लिया और चम्पत हो गए। ‎मिर्ज़ा उनके इस बरताव से बहुत ख़ुश हुए और चादर में मुँह लपेट कर सो रहे। सुबह बिस्तर से ‎उठते ही ये शे’र गुनगुनाने लगे,

    न लुटता दिन को तो कब रात को यूं बेख़बर सोता 
    रहा खटका न चोरी का दुआ देता हूँ रहज़न को

    मिर्ज़ा अपने रक़ीब के दरवाज़े पर एक कम न एक ज़्यादा पूरे हज़ार मर्तबा गए। शे’र से मालूम होता ‎है कि महबूब भी उतनी ही बार वहां गया,

    जाना पड़ा रक़ीब के दर पर हज़ार बार 
    ऐ काश जानता न तिरी रहगुज़र को मैं

    कुछ मुद्दत मिर्ज़ा की उस्रत ने ये शिद्दत इख़्तियार कर रखी थी कि बेचारे दिल्ली की गलियों में ‎बिल्कुल नंग धड़ंग फिरते रहे। एक दिन उसी हालत में बादशाह बहादुर शाह के दरबार में जा पहुंचे ‎और बहादुरशाह ज़फ़र से शिकवा किया,

    आपका बंदा और फिरूँ नंगा 
    आपका नौकर और खाऊं उधार

    इस पर बादशाह ने आपको एक बड़ा सा कुरता सिलवा दिया जिसका दामन इतना बड़ा था कि उसका ‎एक सिरा धोने में ही पूरा दरिया ख़ुश्क हो गया। इस पर इरशाद हुआ,

    दरिया-ए-मआसी तुनुक-आबी से हुआ ख़ुश्क 
    मेरा सर-ए-दामन भी अभी तर न हुआ था

    उस ज़माने में दरिया-ए-जमुना का नाम दरिया-ए-मआसी था और मिर्ज़ा वहीं कपड़े धोने जाया करते ‎थे।

    दरया-ए-गंगा के बारे में कहा जाता है कि पहले ये स्वर्गलोक में बहता था और सिरी राम चन्द्र जी ‎के एक बुज़ुर्ग महाराजा भागीरथ तपस्या के ज़ोर से उसे ज़मीन पर लाए थे। अब दरिया-ए-जमुना के ‎ज़हूर का हाल मिर्ज़ा से सुन लीजिए। कहते हैं कि मेरी वहशत के लिए अरसा-ए-आफ़ाक़ भी तंग हो ‎गया तो ज़मीन को बड़ी शर्म आई, हत्ता कि इसकी पेशानी पर बड़े ज़ोर का पसीना आगया, बस वही ‎दरिया बन गया,

    वहशत पे मेरी अरसा-ए-आफ़ाक़ तंग था 
    दरिया ज़मीन को अर्क़-ए-इंफ़िआल है

    मिर्ज़ा का महबूब कहीं काबा के गर्द-ओ-नवाह में सुकूनत पज़ीर था। चुनांचे जब कभी मिर्ज़ा को ‎दरिया-ए-यार पर डाँट डपट हुई तो वो काबे की जानिब चल देते, कहा है,

    अपना नहीं ये शेवा कि आराम से बैठें 
    इस दर प नहीं बार तो काबे ही को हो आये

    इस तरह आए दिन महबूब के घर और काबतुल्लाह जाने आने से साबित होता है कि उस ज़माने में ‎काबा दिल्ली से बहुत क़रीब था। बाद में गर्मी की शिद्दत से ज़मीन फैल गई तो दिल्ली और मक्के ‎का दरमियानी फ़ासिला भी बढ़ गया या फिर मिर्ज़ा को कोई बहुत ही तेज़-रफ़्तार सवारी मिल गई ‎होगी।

    मजनूं उम्र में तो मिर्ज़ा से छोटा था ही मगर उसका इंतिक़ाल भी मिर्ज़ा के सामने ही हुआ। मिर्ज़ा ‎मजनूं के मरने के बाद का नक़्शा इस तरह खींचते हैं,

    हर इक मकान को है मकीं से शरफ़ असद 
    मजनूं जो मर गया है तो जंगल उदास है

    मिर्ज़ा की मौत का मुआमला ज़रा पेचीदा है। मुख़्तलिफ़ लोगों ने उनके अशआर से मुख़्तलिफ़ ‎मतालिब अख़्ज़ किए हैं। कुछ का कहना है कि आख़िर में मिर्ज़ा के दोस्तों ने उन्हें मश्वरा दिया कि ‎अब जीने से क्या हासिल? बेहतर यही है कि आप मर जाएं और इस दारुलमहन् के झमेलों से नजात ‎पाएं, लेकिन मिर्ज़ा ने उल्टा उनको बेवक़ूफ़ बनाया और फ़रमाया,

    नादाँ हैं जो कहते हैं कि क्यों जीते हो ग़ालिब 
    क़िस्मत में है मरने की तमन्ना कोई दिन और

    मगर न जाने एक दिन क्या सर में समाई कि ख़ुदबख़ुद इस कार-ए-ख़ैर के लिए कमर-बस्ता हो गए ‎और बावजूद मुफ़लिसी के एक तलवार और कफ़न भी ख़रीद लिया। कफ़न को सिर पर बांध लिया ‎और तलवार बग़ल में लटकाई और दहलीज़ से बाहर क़दम रखते हुए फ़रमाने लगे,

    आज वां तेग़-ओ-कफ़न बाँधे हुए जाता हूँ मैं 
    उज़्र मेरे क़त्ल करने में वो अब लाएंगे क्या

    इस मुजाहिदाना शान से जब महबूब की बारगाह में दाख़िल हुए और अपनी अर्ज़दाश्त पेश की तो वो ‎बहुत बरहम हुआ। पेच-ओ-ताब खाकर ताली बजाई, फ़ौरन मुसल्लह सिपाही हाज़िर हो गए, हुक्म हुआ ‎निकाल दो इसे। कहीं और जाकर क़िस्मत आज़माई करे क्योंकि हमने आजकल तलवार उठाना छोड़ा ‎हुआ है। (शायद मुहर्रम का महीना होगा) मुसल्लह सिपाही मिर्ज़ा पर पिल पड़े और धक्के दे देकर ‎दरबार बदर कर दिया। आप महबूब की तरफ़ मुख़ातिब हुए और दोनों हाथ बांध कर गिड़गिड़ाने लगे,

    हम कहाँ क़िस्मत आज़माने जाएं 
    तू ही जब ख़ंजर आज़मा न हुआ

    मगर वो ऐसा संग-ए-दिल इंसान वाक़ा हुआ था कि मिर्ज़ा की एक न सुनी। आपके लिए ये कोई कम ‎सदमा नहीं था। सोचा सारे शहर में धूम मची हुई है कि मिर्ज़ा ग़ालिब आज महबूब के हाथों क़त्ल ‎होने को गए हैं। वापस जाकर उन्हें क्या मुँह दिखाऊँगा। चुनांचे महबूब की महलसरा की दीवारों के साथ ‎‎(जहां आप पहले भी अक्सर आ बैठते थे) टक्करें मारना शुरू कर दीं और इसी तरह अपनी जान शीरीं ‎जां आफ़रीं के सपुर्द कर दी।

    कुछ लोग कहते हैं कि ये वाक़िआ ग़लत है क्योंकि मिर्ज़ा बेचारे की मौत तो ग़रीब-उल-वतनी की ‎हालत में हुई थी। उन्होंने ख़ुद कहा है,

    मारा दयार-ए-ग़ैर में मुझको वतन से दूर 
    रख ली मरे ख़ुदा ने मरी बेकसी की शर्म

    मर्ज़-ए-मौत के बारे में ख़्याल है कि आख़िर उम्र में वहशत के दौरे पड़ने लगे थे और उसी हालत में ‎एक दिन सर फोड़ फोड़ कर मर गए, मरते ही ये इरशाद हुआ,

    मर गया फोड़ के सर ग़ालिब वहशी हे हे 
    बैठना आके वो उसका तिरी दीवार के पास

    मिर्ज़ा की रूह के परवाज़ करने से पहले ही उनके रक़ीबों ने जाकर माशूक़ से कह दिया कि मिर्ज़ा ‎जाँ-कनी के आलम में हैं। उसको जब ये हाल मालूम हुआ तो मुरव्वत ने जोश मारा और वो दौड़ा ‎हुआ मिर्ज़ा के पास आया। लेकिन उस ग़रीब में एक नज़र देखने की सकत भी बाक़ी नहीं रही थी। ‎चुनांचे ये शे’र पढ़ा और हमेशा की नींद सो गए,

    मुंद गईं खोलते ही खोलते आँखें ग़ालिब
    ख़ूब वक़्त आए तुम इस आशिक़-ए-बीमार के पास

    इन्ना लिल्लाह व इन्ना इलैहे राजेऊन

    ये ख़बर आग की तरह सारे शहर में फैल गई। लोग बाज़ारों और गलियों में एक दूसरे से कहते जा ‎रहे थे,

    असदुल्लाह ख़ां तमाम हुआ 
    ऐ द़रीग़ा वो रिंद-ए-शाहिद बाज़

    ये “रिंद-ए-शाहिद बाज़” होने ही की वजह थी कि नाश कई घंटे तक बे गोर-ओ-कफ़न पड़ी रही। किसी ‎ने तजहीज़-ओ-तकफ़ीन का इंतज़ाम न किया। आख़िर आपके महबूब को तरस आगया और वो पूरी ‎तमकिनत से उठा और नाश के पास खड़े हो कर कहा,

    ये नाश बेकफ़न असद ख़स्ता जां की है 
    हक़ मग़फ़िरत करे अजब आज़ाद मर्द था

    कफ़न दफ़न का इंतज़ाम करके जब मिर्ज़ा को कफ़नाया गया तो आप झट बोल उठे,

    ढाँपा कफ़न ने दाग़ उयूब-ए-बरहनगी 
    मैं वर्ना हर लिबास में नंग-ए-वजूद था

    महबूब ने अपनी गली के ऐन दरमियान आपकी क़ब्र खुदवाना शुरू कर दी लेकिन आप भी कोई ‎कच्ची गोलियां खेले हुए नहीं थे। झट ब-आवाज़-ए-बुलंद उस नामाक़ूल हरकत पर पुरज़ोर एहतिजाज ‎करते हुए फ़रमाने लगे,

    अपनी गली में दफ़न न कर मुझको “बाद मर्ग” 
    मेरे पते से ख़ल्क़ को क्यों तेरा घर मिले

    महबूब बहुत सिटपिटा या और उसे ख़ुदा झूट ना बुलवाए मिर्ज़ा पर ग़ुस्सा आगया। कहने लगा, ‎अजीब क़िस्म का आदमी है। ज़िंदगी में भी आराम का सांस नहीं लेने दिया और अब मरने पर भी ‎इसके वही तौर अत्वार हैं। लेकिन चूँकि मिर्ज़ा साहिब मरने के बाद वसीयत फ़रमा गए थे इसलिए ‎उनकी बात को रद्द करना मुनासिब न समझा और क़ब्रिस्तान में ले जाकर दफ़ना दिया।

    मिर्ज़ा के बाद शहर वालों की अजीब हालत थी। वो आठ आठ आँसू रोते थे और सर दीवारों से ‎पटखते थे, हाय हाय की सदाओं से कानों के पर्दे फटे जाते थे। मगर यकायक उनमें कुछ ऐसी ‎तब्दीली हुई कि वो सब के सब कहने लगे,

    ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन से काम बंद हैं 
    रोईए ज़ार ज़ार क्या कीजिए हाय हाय क्यों

    मगर ख़ुदा लगती तो ये है कि मिर्ज़ा ग़ालिब को ये लोग हज़ारों कोशिश के बाद भी न भूल सके ‎और आपकी हँसने हंसाने वाली बातें उन्हें अक्सर याद आतीं, उस वक़्त वो बोल उठे,

    हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया पर याद आता है 
    वो हर इक बात पर कहना कि यूं होता तो क्या होता

    मिर्ज़ा ने मरने के बाद भी बहुत से शे’र कहे और किसी न किसी तरह अपने शागिर्दों को पहुंचाते रहे ‎जो उन्होंने दीवान में शामिल कर लिए,

    ‎“हुस्न ग़म्ज़े की कशाकश से छुटा मेरे बाद”

    ये सारी ग़ज़ल मरने के बाद लिखी गई, इससे क़ब्ल के दो शे’र और हाज़िर हैं,

    अल्लाह-रे ज़ौक़ दश्त-नवर्दी कि बाद-ए-मर्ग 
    हिलते हैं ख़ुदबख़ुद मरे अंदर कफ़न के पांव 

    आता है दाग़ हसरत-ए-दिल का शुमार याद 
    मुझसे मिरे गुनह का हिसाब ऐ ख़ुदा न मांग

    मिर्ज़ा ग़ालिब के कलाम पर सैकड़ों बल्कि हज़ारों तब्सिरे हो चुके हैं। मगर ये बात आज तक किसी ‎के ज़ेहन में नहीं आई कि मिर्ज़ा के कलाम में गर्मी बहुत है और ये गर्मी आप इसलिए पैदा करते थे ‎कि जो शख़्स आपके शे’र पर उंगली रखे फ़ौरन शे’र की हिद्दत से उंगली जल जाये और दुबारा उसे ‎जुर्रत न हो सके। चुनांचे ख़ुद इरशाद फ़रमाया है,

    लिखता हूँ असद सोज़िश-ए-दिल से सुख़न-ए-गर्म 
    ता रख न सके कोई मिरे हर्फ़ पे अंगुश्त

    आपके कलाम की दूसरी बड़ी ख़ुसूसियत ये है कि इसमें मज़ा बहुत है और ये मज़ा इसलिए पैदा हो ‎गया था कि आप एक “ख़ुसरो शीरीं-सुख़न” नामी शख़्स के पांव की मैल धो धो कर पिया करते थे ‎जिसका उन्हें ख़ुद एतराफ़ है, फ़रमाते हैं,

    ग़ालिब मिरे कलाम में क्योंकर मज़ा न हो 
    पीता हूँ धो के ख़ुसरो शीरीं-सुख़न के पांव

    स्रोत:

    Azadi Ke baad Delhi Mein Urdu Tanz-o-Mizah (Pg. 99)

      • प्रकाशक: उर्दू अकादमी, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1990

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