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ग़ालिब की महफ़िल

सय्यद आबिद अली आबिद

ग़ालिब की महफ़िल

सय्यद आबिद अली आबिद

MORE BYसय्यद आबिद अली आबिद

    ‎(मुक़ाम दिल्ली 1856 ईसवी) 

    रावी: 1850 ई. तक दिल्ली और लखनऊ की महफ़िलों पर बहार थी, हर तरफ़ शे’र-ओ-‎सुख़न का चर्चा था। इसमें कोई शक नहीं कि सियासी तौर पर आज़ाद के अलफ़ाज़ में ‎दरख़्त-ए-इक़बाल को दीमक लग चुकी थी। लेकिन अभी बर्ग-ओ-बार की शगुफ़्तगी और ‎ताज़गी को देखते हुए गुमान तक न होता था कि ये दरख़्त गिरा चाहता है। दिल्ली में ‎मोमिन, ज़ौक़, ग़ालिब, शेफ़्ता, सालिक, मजरूह और आज़ुर्दा अपनी रंगीन तवानाइयों से ‎पाबंद-ए-वज़्अ सामईन को मस्हूर कर रहे थे। उधर लखनऊ में 1847 ई. के बाद रंगीले ‎पिया जान-ए-आलम ने दरबार सजाया था और ऐसा रंग जमाया था कि लोग अंदर के ‎अखाड़े को भूल गए थे। 
    ‎ 
    ‎1850 ई. के बाद, शातिर फ़लक ने उस बिसात-ए-अदब के मोहरों को एक एक करके ‎चुनना शुरू किया। 1851 ई. में मोमिन सिधारे, 1854 ई. में ज़ौक़ ने इस दुनिया से मुँह ‎मोड़ा, 1856 ई. में रंगीले पिया जान-ए-आलम माज़ूल हुए और मटिया बुर्ज भेज दिए ‎गए। कुछ परवाने उस बुझी हुई शम्मा का तवाफ़ करने के लिए वहां भी जा पहुंचे ‎लेकिन सच पूछिए तो महफ़िल सूनी हो गई।

     

    तो फ़र्ज़ कर लीजिए कि 1856 ईसवी है। अगरचे बुझ चुकी है लेकिन ख़ाकस्तर में कुछ ‎चिनगारियां बाक़ी हैं। बिसात उठाई जा रही है लेकिन अभी शे’र-ओ-सुख़न के कुछ ‎मतवाले आँखें बंद किए हाल-ए-मस्त, महफ़िल में बैठे हैं। ये हालत है कि हम आपको ‎दिल्ली क़ासिम जान की गली में लिए चलते हैं, जहां असदुल्लाह ख़ां ग़ालिब अल-मारूफ़ ‎ब मिर्ज़ा नौशा हकीम मुहम्मद हसन ख़ां की हवेली में रहते हैं। ‎
    ‎ 
    ‎(क़दमों की चाप) 

    शेफ़्ता: (बुलंद आवाज़ से) कल्लू। 

    कल्लू: (दूर से) जी सरकार। 

    शेफ़्ता: क्यों भई मिर्ज़ा नौशा तशरीफ़ रखते हैं? 

    कल्लू: जी हुज़ूर, दीवानख़ाना में लेटे हैं। मीर मेह्दी मजरूह भी वहीं बैठे हैं। 
    ‎(वक़फ़ा)‎
    ‎ 
    तशरीफ़ ले आइए, आइए नवाब साहिब तशरीफ़ लाइए, ख़्वाजा साहिब। 
    ‎(चाप) 

    शेफ़्ता: हुज़ूर तस्लीमात अर्ज़ करता हूँ। 

    हाली: आदाब बजा लाता हूँ। 

    ग़ालिब: आहा... नवाब मुस्तफ़ा ख़ां और ख़्वाजा अलताफ़ हुसैन हाली भी साथ तशरीफ़ ‎लाए हैं। 

    शेफ़्ता: हुज़ूर, ख़्वाजा अलताफ़ हुसैन तो ज़रूर तशरीफ़ लाए हैं लेकिन नवाब मुस्तफ़ा ‎ख़ां कहां हैं? 

    ग़ालिब: (हंसकर) ईं, मीर मेह्दी, सुना तुमने। अरे भई मेरी बीनाई में इतना फ़ुतूर आ ‎गया। ज़रा देखना ये नवाब मुस्तफ़ा ख़ां नहीं हैं। 

    मेह्दी मजरूह: हुज़ूर हैं तो नवाब मुस्तफ़ा ख़ां ही। 

    शेफ़्ता: (हंसकर) कौन, नवाब मुस्तफ़ा ख़ां, वाह मीर मेह्दी ये क्या बात हुई। 

    ग़ालिब: (हंसकर) अरे भई तो आख़िर तुम फिर कौन हो जो इस तरह बेबाकाना मुझ ‎ख़ाकनशीं के घर घुसे चले आते हो। 

    शेफ़्ता: (हंसकर) हुज़ूर मैं तो आपका शेफ़्ता हूँ।

    ग़ालिब: अख़ाह, ये बात है। सुना मीर मेह्दी। अच्छा भई शेफ़्ता ख़ुदा तुम्हें जज़ाए ख़ैर ‎दे कि एक साठ बरस के बूढ़े पर शेफ़्ता हो। 

    हाली: हुज़ूर ही का शे’र है, 

    वफ़ादारी बशर्त-ए-उस्तुवारी अस्ल-ए-ईमाँ है 
    मरे बुतख़ाने में तो काबे में गाड़ो ब्रहमन को 

    ग़ालिब: (हंसकर) वाह भई हाली वाह, (वक़फ़ा) इधर आओ न शेफ़्ता मेरे पास। 

    शेफ़्ता: आज हुज़ूर मेरे हाँ मुशायरे में तशरीफ़ नहीं लाए। 

    ग़ालिब: ऐ मीर मेह्दी बोलते क्यों नहीं। 
    ‎(वक़फ़ा)‎
    ‎ 
    अरे भई शेफ़्ता इस सय्यद ज़ादे की फ़रमाइशों से नाक में दम है। 

    शेफ़्ता: हुज़ूर क्या बात हुई? 

    ग़ालिब: जवाब दो न मीर मेह्दी, अब चुप क्यों साध ली। 
    ‎ 
    मजरूह: नवाब साहिब क़िबला, हुआ ये कि मेरे मिलने वालों में से एक साहिब का ‎लड़का बेचारा नागहां मर गया। वो मेरे सर हो गए कि मिर्ज़ा नौशा से तारीख़ कहलवा ‎दो। ख़ुशी की तक़रीब की फ़र्माइश होती तो मैं टाल भी जाता। बात ऐसी थी कि कुछ ‎कह भी न सकता था। आख़िर उन्हें लेकर हुज़ूर की ख़िदमत में हाज़िर हुआ। उन साहिब ‎को वतन वापस जाने की जल्दी थी। ज़िद करने लगे कि अभी तारीख़ कह दो। बस इसी ‎में उलझे रहे (वक़फ़ा) और फिर कुछ तबीयत भी हुज़ूर की नासाज़ थी।
    ‎ 
    हाली: ख़ैर बाशद। 

    ग़ालिब: भई परसों से पिंडलियों में और पांव में दर्द है। 

    मजरूह: मैं तो कह रहा हूँ कि हुज़ूर पांव दाब दूं। आप मानते ही नहीं। 

    ग़ालिब: ऐ मीर मेह्दी तुझे शर्म नहीं आती, तू सय्यद ज़ादा हो कर मेरे पांव दाबेगा। ‎क्यों मुझे गुनहगार करता है। 

    मजरूह: तो आप उजरत दे दीजिएगा ना। आख़िर इसमें हर्ज ही क्या है। लीजिए ज़रा ‎पांव फैलाइए।
    ‎ 
    ग़ालिब: ऐ मीर मेह्दी तू मानेगा थोड़ा ही, अच्छा जो तेरे जी में आए कर। (वक़फ़ा) हाँ ‎भई शेफ़्ता, मुशायरा कैसा रहा? 

    शेफ़्ता: आपके बग़ैर मुशायरे में क्या ख़ाक लुत्फ़ आता। 

    ग़ालिब: शेफ़्ता, सच पूछो तो अब मुशायरों में ग़ज़ल पढ़ने को मेरा जी नहीं चाहता। ‎मुशायरों की रौनक़ तो ज़ौक़ मरहूम और मोमिन मरहूम के दम से थी। हाय मोमिन की ‎जामा ज़ीबी और बांकपन याद आता है तो कलेजे पर साँप लोट जाता है और ज़ौक़ ‎मरहूम की ज़बान का लुत्फ़ ही नहीं भूलता। 

    शेफ़्ता: ये तो आपने दुरुस्त इरशाद फ़रमाया। हकीम मोमिन ख़ां की मौत ने महफ़िलों ‎को सूना कर दिया। 

    मजरूह: (हंसकर) हुज़ूर आपने सुना, नवाब साहिब ने क्या इरशाद फ़रमाया। 

    ग़ालिब: (हंसकर) हाँ मीर मेह्दी सुना, तुम भी ख़ूब समझे। क्यों शेफ़्ता, हकीम मोमिन ‎ख़ां की मौत ने तो महफ़िलों को सूना कर दिया और ज़ौक़ मरहूम का ज़िक्र ही नहीं। 

    शेफ़्ता: (हंसकर) मेरा ये मतलब ही नहीं था। 

    ग़ालिब: ख़ैर तुम कुछ ही कहो शेफ़्ता, बा’ज़ शे’र तो ज़ौक़ ने ऐसे कहे हैं कि आदमी ‎पहरों सर धुना करे। (ज़ानू पर हाथ मार के) हाय: 

    अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएंगे 
    मर के भी चैन न पाया तो किधर जाऐंगे 

    मजरूह: सुब्हान-अल्लाह क्या शे’र कहा है, और हुज़ूर ने पढ़ा भी क्या ख़ूब है। 

    ग़ालिब: और सुनो; 

    इस रू-ए-ताबनाक पे हर क़तरा अर्क़ 
    गोया कि इक सितारा है सुब्ह-ए-बहार का 

    हाय हाय क्या अछूती तशबीह है। सितारा है सुब्ह-ए-बहार का। 

    शेफ़्ता: अच्छा शे’र है। 

    ग़ालिब: शुक्र है तुमने ज़ौक़ मरहूम के किसी शे’र को अच्छा तो कहा। (वक़फ़ा)‎
    ‎ 
    हाँ भई, मुशायरे वाली बात तो वहीं की वहीं रह गई। मिस्र ए तरह क्या था, हाँ याद आ ‎गया; ‎

    रंज और रंज भी तन्हाई का।

    हाँ तो फिर किस की ग़ज़ल हासिल-ए-मुशायरा रही। 

    शेफ़्ता: ग़ज़लें कुछ कमज़ोर थीं। (हंसकर) वर्ना कुछ शे’र मुझे ज़रूर याद रह ‎जाते।(वक़फ़ा) ‎

    नवाब मिर्ज़ा दाग़ का एक मतला ख़ूब था 

    मजरूह: हाँ तो इरशाद फ़रमाईए न। क्या मतला था? 

    शेफ़्ता: मतला था; 

    जलवा देखा तिरी रानाई का 
    क्या कलेजा है तमाशाई का 

    मजरूह: सुब्हान-अल्लाह, सुब्हान-अल्लाह, क्या कलेजा है तमाशाई का। 

    ग़ालिब: ख़ूब कहा, देखना शेफ़्ता शागिर्द के हाँ उस्ताद से भी ज़्यादा तीखापन और ‎घुलावट है। ज़ौक़ का नाम रोशन कर दिया दाग़ ने। 

    शेफ़्ता: जी इसमें क्या शक है, लेकिन सच पूछिए तो हमारे ख़्वाजा अलताफ़ हुसैन हाली ‎की ग़ज़ल सबसे अच्छी थी। 

    ग़ालिब: (ताज्जुब से) हाँ बहुत ख़ूब। हाली, तुमने ग़ज़ल पढ़ी थी। 

    हाली: जी नहीं। 

    शेफ़्ता: हुज़ूर बात ये है कि ग़ज़ल उन्होंने कही थी पढ़ी नहीं। मैं समझा के थक रहा, ‎माने ही नहीं। और क्या अर्ज़ करूँ, क्या ग़ज़ल लिखी है।
    ‎ 
    ग़ालिब: भई हाली, मैंने तुमसे कहा नहीं था कि तुम शे’र न कहोगे तो तबीयत पर बड़ा ‎ज़ुल्म करोगे। अब शेफ़्ता ने भी क़रीब क़रीब वही बात दूसरे पैराए में बयान की। उनकी ‎बात तो शे’र के मुआमले में बावन तोले पाओ रत्ती सच हुआ करती है। (हंसकर) मेरी ‎बात सुनकर तुमने दिल में कहा होगा कि बूढ़ा सठिया गया है। अब क्या कहते हो। 

    हाली: हुज़ूर ये क्या इरशाद फ़रमाते हैं। 

    ग़ालिब: भई आख़िर फिर तुमने ग़ज़ल कही तो पढ़ी क्यों नहीं? 

    हाली: हुज़ूर... 

    शेफ़्ता: मैं अर्ज़ करता हूँ, कहते हैं कि हुज़ूर इस्लाह दें तो ग़ज़ल पढ़ता हूँ।
    ‎ 
    मजरूह: और कहते भी ठीक हैं। 

    शेफ़्ता: तो और क्या। 

    ग़ालिब: (हंसकर) तो यूं कहो कि खिचड़ी पकाकर आए हो तुम और हाली। (वक़फ़ा) भई ‎हाली, सुनो बात ये है कि शे’र कहने का जौहर फ़ित्री और तबीई होता है जिसे ये ‎नेअमत मब्दा-ए-फ़य्याज़ की तरफ़ से अता होती है उसका सोना मश्क़ से ख़ुदबख़ुद ‎कसौटी पर चढ़ता चला जाता है। बाक़ी रहा इस्लाह का मुआमला, तो भई मैंने किसी से ‎इस्लाह नहीं ली, मैं तुम्हें क्या इस्लाह दूँगा। 

    शेफ़्ता: ख़ैर, आज तो हुज़ूर, ख़्वाजा साहिब इस्लाह लिए बग़ैर न मानेंगे। 
    ‎ 
    मजरूह: नवाब साहिब क़िबला, अब हुज़ूर इस्लाह देने से बहुत इजतिनाब करने लगे हैं। ‎आप इसरार फ़रमाएं तो बात बनेगी, पिछले दिनों एक साहिब का ख़त आया कि अब ‎आप मेरे अशआर पर इस्लाह क्यों नहीं देते। आपने बसबब ज़ौक़-ए-सुख़न के अशआर ‎की इस्लाह मंज़ूर फ़रमाई थी, अब क्या बात वाक़े हुई कि आप तवज्जो नहीं फ़रमाते। ‎अब हुज़ूर ही से पूछिए कि हुज़ूर ने क्या जवाब लिखा? 

    शेफ़्ता: क्या लिखा हुज़ूर ने जवाब में? 

    ग़ालिब: (हंसकर) जल कर लिखा था कि लाहौल वला क़ुव्वा, किस मलऊन ने बसबब ‎ज़ौक़ शे’र के इस्लाह अशआर मंज़ूर की थी। अगर मैं शे’र से बेज़ार न हूँ तो मेरा ख़ुदा ‎मुझसे बेज़ार। मैंने तो ब तरीक़ क़हर-ए-दरवेश बजान दरवेश लिखा था कि जैसे अच्छी ‎जोरू बुरे ख़ाविंद के साथ मरना भरना क़बूल करती है। मेरा तुम्हारे साथ वो मुआमला ‎है। 
    ‎(तीनों मिलकर हंसते हैं) 
    ‎ 
    मजरूह: अब आप ही फ़रमाईए नवाब साहिब कि इस्लाह के लिए कोई ग़ज़ल क्या पेश ‎करे। 

    ग़ालिब: अरे भई हटाओ भी अब ये क़िस्सा। हाँ हाली सुनाओ अपनी ग़ज़ल। 

    शेफ़्ता: (हंसकर) हाय, क्या ग़ज़ल कही है हाली ने। हुज़ूर तक़सीर माफ़ हो। भई हाली, ‎अगर हुज़ूर इस्लाह देने का वादा न फ़रमाएं तो ग़ज़ल न सुनाना। 

    हाली: बहुत ख़ूब पीर-ओ-मुर्शिद। 

    शेफ़्ता: (हंसकर) ख़ूब ग़ज़ल लिखी है हाली ने। 
    ‎(मीर मेह्दी और हाली मिलकर हंसते हैं) 

    ग़ालिब: तुम तीनों जीते और मैं हारा। मुझ बूढ़े में अब दम कहां है कि तुम तीनों का ‎मुक़ाबला करूँ। हाँ साहिब ग़ज़ल सुनूँगा और झक मार के इस्लाह भी दूँगा। (तीनों हंसते ‎हैं) लो अब सुनाओ ग़ज़ल हाली। 

    हाली: मिस्र ए तरह पर गिरह लगा के मतला बना दिया है; 

    रंज और रंज भी तन्हाई का 
    वक़्त पहुंचा मिरी रुस्वाई का 

    मजरूह: वाह-वा, माशा अल्लाह, क्या गिरह लगाई है। 

    हाली: तस्लीमात। (वक़फ़ा) 

    उम्र शायद न करे आज वफ़ा 
    सामना है शब-ए-तन्हाई का 

    ग़ालिब: हाय क्या शे’र कहा है हाली, “उम्र शायद न करे आज वफ़ा” और दूसरा मिसरा ‎यूं पढ़ो “काटना है शब-ए-तन्हाई का।” 

    शेफ़्ता: आहा हा, क्या बरजस्ता इस्लाह दी है। हुज़ूर ने क्या मौज़ूं लफ़्ज़ रखा है, ‎‎“काटना।”  

    हाली: अपने शे’र का सही मतलब भी मेरी समझ में इस्लाह के बाद ही आया है। 

    ग़ालिब: हाँ हाली पढ़ो। 

    हाली: कुछ तो है क़दर तमाशाई की 
    ‎ है जो ये शौक़ ख़ुद-आराई का 
    ‎ 
     यही अंजाम था ऐ फ़स्ले खिज़ाँ 
    गुल-ओ-बुलबुल की शनासाई का 
    ‎ 
    मजरूह: बहुत ख़ूब, बहुत ख़ूब! 

    हाली: तस्लीम। 

    ग़ैर के घर भी न जी से उतरा 
    पूछना क्या तिरी रानाई का 

    ग़ालिब: वाह, क्या रानाई का सबूत दिया है। पहले मिसरे को यूं पढ़ो; 

    बज़्म-ए-दुश्मन में न जी से उतरा 
    पूछना क्या तिरी रानाई का
    ‎ 
    शेफ़्ता: ख़ूब इस्लाह दी हुज़ूर ने, ग़ैर का लफ़्ज़ कुछ कमज़ोर था। दुश्मन के लफ़्ज़ ने ‎शे’र में जान डाल दी और फिर बज़्म-ए-दुश्मन, अब उनकी रानाई में किस काफ़िर को ‎शक होगा कि दुश्मन की भरी महफ़िल में ख़ुद महफ़िल-ए-नज़ारा बने बैठे हैं और हाली ‎के जी से नहीं उतरते। 

    हाली: तस्लीम, मक़ता अर्ज़ करता हूँ; 

    होंगे ‘हाली’ से बहुत आवारा 
    दूर है घर अभी रुस्वाई का 

    मजरूह: अहा, हा, क्या मक़ता है, क्या तमन्ना है। दर-ए-रुस्वाई तक पहुंचने की। 

    ग़ालिब: ख़ूब ग़ज़ल कही तुमने हाली। 

    हाली: सब आप ही का फ़ैज़ है। 

    ग़ालिब: ऐ मीर मेह्दी, मुझे ज़्यादा गुनहगार न कर, अब तू मेरे पांव न दाब। 

    मजरूह: बहुत अच्छा हुज़ूर, तो लाइए मेरी उजरत दिलवाइए।
    ‎ 
    ग़ालिब: (हंसकर) वाह, उजरत कैसी? तुमने मेरी पांव दाबे, मैंने तुम्हारी उजरत दाबी। ‎हिसाब बराबर हुआ, उजरत का सवाल कहां है। 

    (तीनों हंसते हैं) 

    ग़ालिब: क्यों भई शेफ़्ता, मेरे दीवान की तबाअत का इंतज़ाम हो रहा है ना। 

    शेफ़्ता: जी हाँ, एक मतबा से बातचीत शुरू की है। तसहीह मैं ख़ुद करलूंगा। 

    ग़ालिब: तसहीह तो ख़ैर हो जाएगी। तुमने अशआर का इंतिख़ाब भी किया है या नहीं? 

    शेफ़्ता: ये हुज़ूर क्या इरशाद फ़रमाते हैं। हुज़ूर का कलाम तो सरापा इंतिख़ाब है। हाँ, ‎आपके इरशाद के मुताबिक़ उन अशआर पर निशान लगा रहा हूँ जो ख़ास तौर पर मुझे ‎पसंद हैं। 

    ग़ालिब: सुना मीर मेह्दी और सुन रहे हो हाली। हमारा कलाम सरापा इंतिख़ाब है ‎‎(हंसकर) भई शेफ़्ता, अगर तुम्हारे ख़ुलूस पर एतिमाद न होता तो मैं समझता कि तुम ‎मुझे बनाते हो। 

    शेफ़्ता: ये क्या फ़रमाते हैं आप। 
    ‎ 
    ग़ालिब: सुनो हाली, इक्कीस बरस की उम्र में मैंने एक अच्छा-ख़ासा दीवान मुरत्तिब कर ‎लिया था और उसके बाद उसमें कुछ और रतब दिया, बस मिला के एक नुस्ख़ा भोपाल ‎भेज दिया था। अब जो उन पुरानी ग़ज़लों को पढ़ता हूँ तो ख़ुद हंसी आती है। सब ‎मज़ामीन ख़्याली, बेहूदा जिगर कावी। बात ये है कि शुरू में बेदिल के कलाम पर मर-‎मिटा था। बड़ी जिगर कावी और अर्क़ रेज़ी से मज़मून तलाश करता था और ऐसी दूर ‎की कौड़ी लाता था कि कभी शे’र का मतलब आधा, और कभी पूरा ख़ब्त हो जाता था ‎और हमारे नवाब मुस्तफ़ा ख़ां कहते हैं कि आपका कलाम सरापा इंतिख़ाब है। अब ‎तुम्हीं बताओ कि हमारी इस बज़्लासंजी का क्या जवाब है। (हाली और मीर मेह्दी हंसते ‎हैं) 
    ‎ 
    शेफ़्ता: हुज़ूर के रंग-ए-क़दीम के शे’र भी अच्छे हैं। 

    ग़ालिब: अच्छे तो क्या हैं, हाँ ये पता चलता है कि शायर पुराने ढर्रे पर नहीं चलता। ‎‎(वक़फ़ा) बेदिल के ततब्बो ने जहां मुझे नुक़्सान पहुंचाया है वहां फ़ायदा भी ख़ास्सा हुआ ‎है। पेश पाउफ़्तादा मज़ामीन से गुरेज़, पामाल ख़्यालात से इजतिनाब, मज़मून की ‎जुस्तजू में जिगर कावी, अलफ़ाज़ की नशिस्त में अर्क़ रेज़ी बेदिल ही का फ़ैज़ान है। ‎इख़तिरा तराकीब फ़ारसी का गुर, और इस्तिआरात-ओ-तशबीहात की तुर्फ़गी का सबक़ ‎मैंने बेदिल ही से सीखा है। 

    शेफ़्ता: हुज़ूर की बा’ज़ तशबीहात और इस्तिआरात तो लाजवाब हैं, सुनो हाली; 

    ख़ूँ दर जिगर निहुफ़ता ब ज़र्दी रसीदा हूँ 
    ख़ुद आशियाने ताइर-ए-रंग पुरीदा हूँ 
    ‎ 
    दौरान-ए-सर से गर्दिश-ए-साग़र है मुत्तसिल 
    ख़ुम ख़ाना-ए-जुनूँ में दिमाग-ए-रसीदा हूँ 
    ‎ 
    मैं चश्म-ए-वा कुशादा-ओ-गुलशन नज़र फ़रेब 
    लेकिन अबस कि शबनम-ए-ख़ुरशीद दीदा हूँ 
    ‎ 
    सर पर मिरे वबाल-ए-हज़ार आरज़ू रहा 
    या-रब मैं किस ग़रीब का बख़्त-ए-रसीदा हूँ 
    ‎ 
    हूँ गर्मि-ए-निशात-ए-तसव्वुर नग़मा संज 
    मैं अंदलीब गुलशन-ए-ना-आफ़्रीदा हूँ 
    ‎ 
    पानी से सग गज़ीदा डरे जिस तरह असद 
    डरता हूँ आईने से कि मर्दुम गज़ीदा हूँ 
    ‎ 
    हाली: सुब्हान-अल्लाह, एक से एक बढ़कर तशबीयह है। सारी ग़ज़ल मुरस्सा है। 

    मजरूह: ऐसी तरकीबें और ऐसे तशबीहात-ओ-इस्तिआरात कि एक दरयाए-मआनी को ‎मुख़्तसर से लफ़्ज़ों के कूज़े में बंद कर दें और कहाँ मिलेंगी। 

    ग़ालिब: (हंसकर) ऐब मै जुमला बगफ़ती हुनरशि नीज़ बगो, तुम तो क्यों बयान करोगे। ‎मुझसे ख़ुद अपने इब्तिदाई दौर की बेहूदगियां सुनो। देखो ये शे’र भी मेरे ही हैं: 

    जुनूँ गर्म इंतज़ार-ओ-नाला बेताबी-ए-कमंद आया 
    सुवैदा ता ब-लब ज़ंजीर से दूद सिपंद आया 
    ‎ 
    मह-ओ-अख़तर फ़िशां की बहर-ए-इस्तिक़बाल आँखों से 
    तमाशा किशवर-ए-आईना में आईना बंद आया 
    ‎ 
    अदम है ख़ैर ख्वाह-ए-जलवा को ज़िंदान-ए-बेताबी 
    ख़िराम-ए-नाज़, बर्क़-ए-ख़िरमन-ए-सई पसंद आया 
    ‎ 
    ‎(हंसकर) क्यों जी हमारा कलाम सरापा इंतिख़ाब है ना? 

    (तीनों हंसते हैं, क़दमों की चाप) 
    ‎ 
    कल्लू: हुज़ूर, बेगम साहिबा ज़नान ख़ाने में तशरीफ़ ले जाना चाहती हैं। मकान देखकर ‎वापस तशरीफ़ लाई हैं। 

    ग़ालिब: अच्छा लीजिए, आप सब साहिब ज़रा इस साथ वाले कमरे में होजाएं। 

    (क़दमों की चाप, वक़फ़ा) 

    (क़दमों की चाप, ग़ालिब क़हक़हा लगाता है) 

    ग़ालिब: भई लतीफ़ा हो गया, इस वक़्त तो (फिर हँसता है) । 

    शेफ़्ता: इरशाद, इरशाद। 
    ‎ 
    ग़ालिब: भई बात ये है कि बरसात में इस मकान में बहुत तकलीफ़ होती है। ख़ुदा का ‎क़हर है। मेंह घड़ी-भर बरसे तो छत घंटा भर बरसती है। आख़िर बेगम ने तक़ाज़ा किया ‎कि मकान बदलो। मैं मरी। में दिल्ली आज नया मकान देखने गई थीं। अब जो वापस ‎आईं तो मैंने पूछा कि मकान पसंद आया तो फ़रमाया कि मकान तो अच्छा है लेकिन ‎लोग उसमें बला बताते हैं। ये सुनकर मैंने कहा कि दुनिया में आपसे बढ़कर भी कोई ‎बला है। 
    ‎(चारों हंसते हैं) 
    ‎ 
    ग़ालिब: हाँ भई हाली, अगर बेदिल का रंग मुझ पर छाया रहता तो उर्दू में तर्ज़-ए-बेदिल ‎न निभती। बस यूं समझ लो कि बेहूदा गो होकर रह जाता। वो तो यूं कहो कि मबदाए ‎फ़य्याज़ ने मुझे गुमराह न होने दिया। मीर की सादगी ने चश्मनुमाई की। सहल मुम्तना ‎कलाम ने मुझे मुतनब्बा किया। रफ़्ता-रफ़्ता मैं सीधे ढर्रे पर आगया। शेफ़्ता की सोहबत ‎ने मेरे जौहर को और भी चमका दिया। अब देख लो ग़ज़ल का क्या रंग है। 
    ‎ 
    शेफ़्ता: ये तो हुज़ूर की ज़र्रा नवाज़ी है। (हंसकर) परसों लतीफ़ा हुआ। मेरे मकान पर ‎अहबाब जमा थे कि कोई साहिब हैं अफ़सोस तख़ल्लुस फ़रमाते हैं, वो तशरीफ़ ले आए। ‎आपका ज़िक्र आगया तो उन्होंने आपकी ग़ज़ल उम्मीद बर नहीं आती, नज़र नहीं आती ‎के कुछ शे’र पढ़े और फिर जब ये शे’र पढ़ा, आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हंसी, अब ‎किसी बात पर नहीं आती, तो फ़रमाया कि इस शे’र में क्या बात है। पामाल मज़मून है ‎और तर्ज़-ए-अदा में भी कोई जिद्दत नहीं। ताज्जुब है कि मिर्ज़ा नौशा ने ऐसा शे’र ‎कहा, मैं तो समझता हूँ कि ये शे’र उनका है ही नहीं। 

    ग़ालिब: (हंसकर) सुख़न-फ़हमी आलम-ए-बाला मालूम शुद, फिर... 

    शेफ़्ता: मैंने मतानत से कहा कि क़िबला, शे’र तो ये मिर्ज़ा नौशा ही का है लेकिन माफ़ ‎कीजिएगा, आप शे’र का हुलिया बिगाड़ के इस तरह पढ़ते हैं कि मिर्ज़ा नौशा का शे’र ‎नहीं रहता। 

    ग़ालिब: बहुत ख़ूब। 

    शेफ़्ता: फिर मैंने शे’र पढ़के सुना दिया और मज़े की बात ये है कि शे’र का मतलब ‎फिर भी न समझे। फिर जो अहबाब ने खोल के मतलब समझाया तो बहुत झेंपे और ‎फ़ौरन उठकर चल दिए। 

    मजरूह: ज़रा पढ़ीएगा तो शे’र नवाब साहिब क़िबला, किस तरह शे’र पढ़ने से मतलब ‎साफ़ होना चाहिए। 

    शेफ़्ता: सुनिए आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हंसी, अब किसी बात पर नहीं आती (बात ‎पर-ज़ोर देकर पढ़ा जाये।) 

    हाली: वाह, नवाब साहिब क्या पहलू बदला है शे’र के मज़मून ने। मतलब ये हुआ कि ‎दीवानगी का सा आलम तो पहले भी था कि अपने दिल के हाल पर ख़ुद ही हंस लिया ‎करते थे। यहां तक तो ख़ैरियत लेकिन अब तो ये आलम है कि हंसी किसी बात पर ‎नहीं आती, बेवजह भी हंस देते हैं। 

    मजरूह: वाह, ख़्वाजा साहिब, आपने ख़ूब मतलब समझा शे’र का। 

    (दूर से एक मर्दाना आवाज़, जिसमें रस और सोज़ है, सुनाई देती है, ये गाती हुई, ‎‎“मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए।” आवाज़ क़रीब आती जाती है।) 

    ग़ालिब: ज़रा सुनना शेफ़्ता। 

    शेफ़्ता: जी सुन रहा हूँ। 

    ग़ालिब: ये एक दरवेश सिफ़त आदमी है जिसे मेरे बहुत से शे’र याद हैं। पिछले दिनों ‎उसने मेरी ग़ज़ल गाकर सुनाई थी। दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है। 

    शेफ़्ता: तो दीवानख़ाने में बुला लें।
    ‎ 
    ग़ालिब: नहीं आएगा और लुत्फ़ ये है कि कुछ लेता भी नहीं। पिछली बार मैंने कुछ देना ‎चाहा तो ख़फ़ा हो गया। बस चुप-चाप बैठे सुना करो। ग़ज़ल गाएगा और चला जाएगा। 

    (अब आवाज़ साफ़ आती है और ये ग़ज़ल गाई जाती है) 

    मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए 
    जोश-ए-क़दह से बज़्म-ए-चराग़ां किए हुए 
    ‎ 
    फिर चाहता हूँ नाम-ए-दिलदार खोलना 
    जां नज़र दिलफ़रेबी-ए-उनवाँ किए हुए 
    ‎ 
    मांगे है फिर किसी को लब-ए-बाम पर हवस 
    ज़ुल्फ़-ए-सियाह रुख़ पे परेशां किए हुए 
    ‎ 
    चाहे है फिर किसी को मुक़ाबिल में आरज़ू 
    सुरमे से तेज़ दुशना-ए-मिज़्गाँ किए हुए 
    ‎ 
    इक नौबहार-ए-नाज़ को ताके है फिर निगाह 
    चेहरा फ़रोग़-ए-मय से गुलिस्ताँ किए हुए 
    ‎ 
    जी ढूंढता है फिर वही फ़ुर्सत कि रात-दिन 
    बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानां किए हुए 
    ‎ 
    ग़ालिब हमें न छेड़ कि फिर जोश-ए-अश्क से 
    बैठे हैं हम तहय्या-ए-तूफ़ाँ किए हुए 

    (आख़िरी शे’र के साथ आवाज़ दूर होती चली जाती है, ग़ज़ल के गाने के दौरान में ‎शेफ़्ता, मजरूह और हाली मौक़ा ब मौक़ा दाद देते हैं।) 

    शेफ़्ता: क्या मुरस्सा ग़ज़ल है ये हुज़ूर की, हर शे’र लाजवाब है। (हंसकर) “हर चह अज़ ‎दिल ख़ेज़द बर्दिल रेज़द” वाला मुआमला है। 

    ग़ालिब: तुम भी क्या बातें ले बैठे शेफ़्ता, बुढ़ापे में हमें ये तज़्किरे नापसंद हैं। 
    ‎(वक़फ़ा) 

    लो मैं अभी आया। 

    (क़दमों की चाप)‎
    ‎ 
    शेफ़्ता: (सरगोशी में लेकिन इस तरह कि आवाज़ साफ़ सुनाई दे) मीर मेह्दी ये ग़ज़ल ‎सुनकर मिर्ज़ा नौशा की नज़रों में अगले वक़्तों की तस्वीर फिर गई। इस वाक़िया की ‎कसक अब तक उनके दिल से गई नहीं। 

    मजरूह: (उसी तरह सरगोशी में कि आवाज़ साफ़ सुनाई दे) आपकी मुराद है कि ये उसी ‎का ज़िक्र है, जिसने (आवाज़ साफ़ सुनाई नहीं देती सिर्फ़ खुसर पिसर की आवाज़ आती ‎है।) 

    शेफ़्ता: (सरगोशी में) अरे एक क़त्ताल-ए-आलम थी वो आफ़त का टुकड़ा। हई हई वो ‎हुस्न वो रागदारी और फिर मिर्ज़ा नौशा ने।(आवाज़ सुनाई नहीं देती, खुसर फुसर की ‎आवाज़ आती है।) 

    मजरूह: उसके मरने का बड़ा सदमा हुआ था उनको। मैं देखता था... (आवाज़ सुनाई ‎नहीं देती) 

    शेफ़्ता: और उसका मर्सिया भी कैसा दर्दनाक लिखा है, मिर्ज़ा नौशा ने, 

    किस तरह काटे कोई शब हाय तार-ए-बर्शगाल 
    है नज़र ख़ू कर्द-ए-अख़्तर-शुमारी हाय हाय 
    ‎ 
    गोश महजूर-ए-पयाम-ओ-चश्म महरूम-ए-जमाल 
    एक दल तिस-पे ये ना उम्मीदवारी हाय हाय 
    ‎ 
    मजरूह: और मक़ता तो मुलाहिज़ा हो; 

    गर मुसीबत थी तो ग़ुर्बत में उठा लेते ‘असद’ 
    मेरी दिल्ली ही में होनी थी ये ख़्वारी हाय हाय 

    शेफ़्ता: (हंसकर) जो दीवान छपने के लिए जा रहा है, उसमें मक़ता को यूं बदल दिया ‎है; 

    इश्क़ ने पकड़ा न था ग़ालिब अभी उलफ़त का रंग 
    रह गया था दिल में जो कुछ ज़ौक़-ए-ख़्वारी हाय हाय 
    ‎(क़दमों की चाप) 

    ग़ालिब: हाँ भई शेफ़्ता। 

    कल्लू: हुज़ूर, मतबा समर हिंद से, एक आदमी आया है। कहता है दीवान-ए-सुख़न ‎देहलवी पर जो कुछ आपको लिखना था वो लिख लिया हो, तो इनायत फ़र्मा दीजिए। 

    ग़ालिब: भई उससे कह दो कि शाम तक वो काग़ज़ पहुंच जाएगा। 

    कल्लू: बेहतर हुज़ूर। 

    शेफ़्ता: सुख़न देहलवी अपना कलाम छपवा रहे हैं और आप तक़रीज़ लिख रहे हैं। 

    ग़ालिब: हाँ भई शेफ़्ता, मैंने तो बहतेरा उसे समझाया कि भाई मुझसे तक़रीज़ न ‎लिखवाओ। एक तो मैं जो कुछ लिख के देता हूँ, लोग उससे ख़ुश नहीं होते, दूसरे मेरी ‎तक़रीज़ और तारीफ़, किसी को रास नहीं आती। लेकिन वो मानता ही नहीं। 

    शेफ़्ता: जी हाँ, लोग ये शिकायत तो करते हैं कि आप मुसन्निफ़ की सताइश में ‎मज़ाइक़ा करते हैं और तक़रीज़ में इधर उधर की बातें लिख कर टाल देते हैं। 

    ग़ालिब: सच है शेफ़्ता, कि मुझे हिंदुस्तानी फ़ारसी लिखने वालों की रविश नहीं आती, ‎कि बिल्लकुल भाटों की तरह बकना शुरू कर दूं, मेरे क़सीदे उठाकर देख लो, तश्बीब के ‎शे’र बेशतर, और मदह के कमतर पाओगे। 

    मजरूह: तो हुज़ूर ने इस तक़रीज़ में क्या लिखा है? 
    ‎ 
    ग़ालिब: कुछ इधर उधर की बातें हैं, तारीफ़ में तो ये दो फ़िक़रे हैं कि “इस सेहरकार ‎जादू निगार ने परीज़ादान-ए-मआनी को अलफ़ाज़ के शीशों में इस तरह उतारा है, जैसे ‎आबगीन-ए-मय से रंग-ए-मय नज़र आए। लफ़्ज़ से जल्वा-ए-मअनी आश्कारा है, चश्म-‎ए-बद्दूर आग़ाज़-ए-जवानी और नौ-बहार बाग़ ज़िंदगानी है, उम्र के लिए दफ़्तर क़ज़ा-‎ओ-क़दर में हुक्म-ए-दवाम लिखा गया है।”  

    मजरूह: सुब्हान-अल्लाह, क्या मोती पिरोए हैं। हुज़ूर तो मजमा उलबहरीन हैं। नज़्म ‎चश्म-ए-बद्दूर, नस्र नूरू अली नूर। 

    हाली: हज़रत सुख़न के अशआर हुज़ूर को याद हों तो सुनाइए। 

    ग़ालिब: मेरे हाफ़िज़े का हाल तो तुम जातने ही हो। शे’र किस मलऊन को याद रहता ‎है। 

    शेफ़्ता: एक-आध शे’र शायद याद आजाए। 

    ग़ालिब: हूँ (वक़फ़ा) ख़ूब याद आया। एक ताज़ा ग़ज़ल के कुछ शे’र आज एक पुर्जे़ पर ‎लिख कर दे गया था। वो शायद यहीं कहीं पड़ा होगा पुर्ज़ा, (वक़फ़ा) ये रहा। सुनो भई ‎शेफ़्ता। 

    मिले न दर्द भी साक़ी शराब के बदले 
    जले न क्योंकर मिरा दिल कबाब के बदले 

    मजरूह: ख़ूब, बहुत ख़ूब। 

    ग़ालिब: नहीं भई, मतला मामूली है, जभी शेफ़्ता चुप रहे, अब दो शे’र और सुनो; 

    शबीह-ए-यार को बदलूँ शबीह-ए-यूसुफ़ से 
    वर्क़ ग़ुलाम का लूं आफ़ताब के बदले 
    ‎ 
    सँभाला होश तो मरने लगे हसीनों पर 
    हमें तो मौत ही आई शबाब के बदले 
    ‎ 
    शेफ़्ता: सुब्हान-अल्लाह, मौत का लफ़्ज़ क्या ज़ू मानी रखा है, अच्छा शे’र कहा है। 

    ग़ालिब: ख़्वाजा अलताफ़ हुसैन साहिब। 

    हाली: जी इरशाद। 

    ग़ालिब: अब आप कानों में उंगलियां दे लें ज़रा। 

    मजरूह: (हंसकर) वो क्यों? 

    ग़ालिब: ऐ मीर मेह्दी, ये ठेरे मौलवी। मुझे शे’र पढ़ना हैं शराब की तारीफ़ में, जो ये ‎बिगड़ गए तो। 

    हाली: आप यूं मुझे शर्मसार करते हैं हुज़ूर। 

    ग़ालिब: तो सुनो भई। 

    वो बादाकश हूँ कि ग़फ़लत हुई तो साक़ी ने 
    दिया शराब का छींटा गुलाब के बदले 

    शेफ़्ता: सुब्हान-अल्लाह, शागिर्द का शे’र सुनकर उस्ताद का एक शे’र याद आ गया। 

    ग़ालिब: यानी मेरा? 

    शेफ़्ता: जी हाँ। 

    आसूदा बाद ख़ातिर-ए-ग़ालिब कि खूए ओस्त 
    आमेख़्तन ब बादा-ए-साफ़ी गुलाब रा 

    वाह वाह, रिन्दी के मज़ामीन बांधना ख़ास हुज़ूर का हिस्सा है, हाय। 

    फिर देखिए अंदाज़-ए-गुल अफ़शाई गुफ़्तार 
    रख दे कोई पैमाना-ए-सहबा मिरे आगे 

    शेफ़्ता: और वो शे’र; 

    जाँफ़िज़ा है बादा जिसके हाथ में जाम आ गया 
    सब लकीरें हाथ की गोया रग-ए-जां हो गईं 
    ‎ 
    ग़ालिब: हंसकर भई मुझे तो अपना ये शे’र पसंद है; 

    कल के लिए कर आज न ख़िस्त शराब में 
    ये सूए ज़न है साक़ी-ए-कौसर के बाब में 
    ‎ 
    हाली: ख़ूब, हुज़ूर ने क्या हीला-ए-शरई निकाला है। 
    ‎(तीनों हंसते हैं) 

    ग़ालिब: सुना भई शेफ़्ता, नहीं चौके न मौलवी हाली, दाद भी फ़िक़हियों और मौलवियों ‎की इस्तिलाह में दी। 

    शेफ़्ता: ये सब आपका फ़ैज़ है (वक़फ़ा) अब इजाज़त मर्हमत हो। आज वापस जाने का ‎इरादा है। 

    हाली: मुझे भी इजाज़त मर्हमत हो। 

    ग़ालिब: भई जी तो नहीं चाहता कि तुम दोनों चले जाओ लेकिन अब मजबूरी है, हाँ भई ‎अब दीवान की तबाअत का काम तुम्हारे ज़िम्मे है। 

    शेफ़्ता: आप इतमीनान रखें, मैं ख़ुद तसहीह करलूंगा। अच्छा, तस्लीमात। 

    हाली: ख़ुदा-हाफ़िज़। 

    ग़ालिब: फ़ी अमान अल्लाह।

    स्रोत:

    Chhed Ghalib Se Chali Jaay (Pg. 46)

      • प्रकाशक: किताब कार पब्लिकेशन्स, रामपुर
      • प्रकाशन वर्ष: 1965

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