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हज़रत-ए-आलू

शफ़ीक़ा फ़रहत

हज़रत-ए-आलू

शफ़ीक़ा फ़रहत

MORE BYशफ़ीक़ा फ़रहत

    सादगी हा-ए-तमन्ना या'नी

    फिर वो आलू-ए-बे-रंग याद आया

    और क्यों आए। आलू तो सब्ज़ियों और ज़र्दियों का ग़ालिब और इक़बाल है। खेत से लेकर Cold Storage तक ,और ठेले से लेकर खाने की मेज़ तक। या उस तेहरी इन वन झलंगा चारपाई तक जो यक वक़्त आपके ड्राइंगरूम, डाइनिंग रुम और बेडरूम के ख़ुशगवार और ना-ख़ुशगवार फ़राइज़ अंजाम देती है ,जिधर नज़र डालिए, बस वो ही वो है।

    नक़्श फ़रयादी है उसकी शोख़ि-ए-तहरीर का

    आलूई है पैरहन हर पैकर-ए-तस्वीर का

    बस आलू ही एक हक़ीक़त है। बाक़ी सब धोका...एक उसी को बक़ा है। बाक़ी सब फ़ानी...

    और सब सब्ज़ियाँ तो बिजली एक कौंद गई आँखों के आगे के, मिस्दाक़ अपनी एक-डेढ़ झलक दिखला के रु पोश हो जाती हैं।मगर मियाँ आलू हैं कि साल के बारहों महीने उसी जमाल-व-जलाल के साथ जलवा आरा होते हैं।

    ख़िज़ाँ क्या फ़सल-ए-गुल कहते हैं किसको

    वही हम हैं,आलू है और मातम-ए-माल तर का

    और साहब बारह क्या अगर साल में पंद्रह और अठारह महीने भी होते तब भी “अह्ल-ए-जहानी उसी शान से डटे रहते कि;

    दिन हुआ फिर आलू-ए-रक़्संदा का दर खुला

    इस तकल्लुफ़ से कि गोया बुतकदे का दर खुला

    जाने किस फ़रिश्ते ने धांदली करके कुछ ऐसे फ़ौलादी अ'नासिर-ए-हिज्र से आलू को तख़्लीक़ किया कि बरसता पानी, कड़कते जाड़े और झुलसती धूप भी उसका बाल बाका नहीं कर सकते और जाने किस ब्रांड का आब-ए-हयात पिया है कि हम जनों के मुक़ाबले में उम्र-ए-ख़िज़्र हासिल हो गई है। और हर दम, “मौत है उस पर दाम ”वाला मंज़र पेश करता रहता है।

    आलू हुआ हज़रत-ए-इक़बाल का मर्द-ए-कामिल, बच्चों के रिसालों का टारज़न और हिंदोस्तानी(सिफ़ारती ता'ल्लुक़ात की ख़ुशगवारी के बिना पर पाकिस्तानी भी...)फिल्मों का हीरो हो गया... सच तो ये है कि ये फ़िल्मी हीरो की तरह कारसाज़ भी है और कार-आफ़रीं भी...और मुश्किल कुशा भी...बिगड़ी को बनाने वाला...डूबते को बचाने वाला...बेकस का सहारा...बेबस का किनारा ...!

    जब बे-मौसम की बारिश और मौसम के ओलों की तरह मेहमान आपको ईसाल-ए-सवाब का मौक़ा अ'ता करते हुए अ'ज़ाब बनकर नाज़िल हो जाएं... और फ़रार के सारे रास्ते मस्दूद और बाज़ार की सारी दुकानें बंद हो जाएँ...और आपके लिए अपनी पस्मांदा इज़्ज़त और मेहमानों के लिए अपनी बाक़ी मांदा जान बचानी मुश्किल हो जाए।

    उस वक़्त यही आलू अपनी बे-रंगी से आपके दस्तरख़्वान पर रंग और मेहमानों के दिल में तरंग भर देगा। तब आपको एहसास होगा कि आलू के मुक़ाबले में आपकी अपनी हैसियत-व-शख़्सियत किस दर्जा हक़ीर है और फिर आलू से अपने सिफ़ारती ता'ल्लुक़ात ख़ुशगवार बनाने की ख़ातिर उस पर लगाए गए तमाम इल्ज़ामात सिर्फ़ वापस ले लेंगे बल्कि एक प्रेस नोट जारी करेंगे कि;

    जुज़ आलू और कोई आया बरु-ए-कार

    और एक प्रेस कान्फ़्रेंस बुलाके आलू चिप्स, आलू टिकिया, आलू छोला खिलाते और खाते हुए ये फ़ैसला सादिर करेंगे कि;

    आलू से तबीयत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया

    और ये कि;

    हवस को है निशात-ए-कार क्या-क्या

    हो आलू तो जीने का मज़ा क्या

    वैसे आफ़ दी प्रेस हक़ीक़त ये कि मैंने आज तक किसी को सिवाए आलू फ़रोशों के आलू से दिलचस्पी लेते नहीं देखा...!मगर ख़ैर ...ये आपका इश्क़ है। और इश्क़ बेज़ोर नहीं...लिहाज़ा अगर आपका ये इश्क़ उसी फ़िल्मी और क़लमी रफ़्तार से बढ़ता रहा तो मुम्किन है किसी दिन आप बड़ी मस्जिद के मुल्ला जी के पास नंगे पैर या बाथरूम स्लीपर सटकाए, दौड़े चले जाएँ और उनकी शुमालन-जुनुबन और शरक़न-ग़ुरबन लहराती हुई बुर्राक़ दाढ़ी की क़सम दे के पूछें कि...

    सताइश गर है ज़ाहिद इस क़दर तो जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का

    तो क्या उस बाग़ उर्फ़-ए-जन्नत में आलू की क्यारियाँ और बोरियाँ भी हैं या नहीं...?वर्ना हम मुफ़्त में क्यों पारसाई के इतने पापड़ बेलें...!

    वैसे आलूयात के सही और असल मराकिज़ होटल और हॉस्टल हुआ करते हैं...ये चाहे खिलन मर्ग और सनबर्ग में हों या कन्याकुमारी में, मेघालय में हों या गुजरात में। माहिर-ए-आलूवियात अपनी आलू शनासी के ऐसे-ऐसे नमूने पेश करेंगे कि हर खाने वाला ब-रक़्क़त-व-दिक़्क़त ये शे'र पढ़ता हुआ डाइनिंग हॉल से निकलेगा;

    हाल में फिर आलू ने एक शोर उठाया ज़ालिम

    आह जो बर्तन उठाया सो उसमें आलू निकला

    उन मक़ामात आह-व-फ़ुग़ां में बशर्त इस्तवारी हर दिन हर रात का मीनू आलू ही होता है...! या'नी आलू पराठा। आलू पुलाव।आलू चलाव। आलू गोभी। आलू मटर। आलू टमाटर। आलू बैगन। आलू सेम। आलू गोश्त। आलू मछली। आलू मुर्ग़ या फिर आलू -आलू। मसलन आलू दम। आलू बे-दम। आलू रायता। आलू हलवा। आलू खीर वग़ैरा,वग़ैरा,वग़ैरा,वग़ैरा।

    और इन जनाब नन्हे मुन्ने, गोल-सुडौल आलूओं का क्या कहना जो हरी धनिया की चटनी के हरे-हरे तालाब में बड़े इत्मिनान से डुबकूँ डुबकूँ कर रहे हों...!

    उनकी अब तक की कारगुज़ारियों से ये अंदाज़ा बख़ूबी हो गया होगा कि आप दल बदलने में अपना सानी नहीं रखते। और बहरूपिया तो ऐसा है कि मैदान-ए-सियासत के पहुंचे हुए बुज़ुर्गों की बुजु़र्गी ख़तरे में पड़ जाए...!

    यूँ भी उस बे-गुण में पेशावर नेताओं के सारे गुण मौजूद हैं। ऊपर से खद्दर धारी अंदर से कारोबारी। वही मिस्कीनी,वही ख़ाकसारी और उन्हीं की तरह हर मुआ'मले में दख़ल और हर जगह पहुंच रखते हैं।

    पर भाई साहब तहसील कचहरी के फाटक के बाहर ख़्वांचे में भी बड़ी कसरत से पाए जाते हैं और बड़ी फ़राख़ दिली से मुफ़लिस नादार पर देसी गवाहों की शिकमपुरी के फ़राइज़ अंजाम देते हैं और अशोका होटल की झिलमिल-झिलमिल मेज़ों पर गज़क बन के...

    तो भाई जान...ये ख़्वांचा नशीं आलू...इश्तिराकी आलू हैं...और पूरी भंडार में पूरी के साथ मुफ़्त में मिलने वाले जम्हूरी आलू...और अशोका की मेज़ पर जलवा अफ़रोज़ शाही आलू...आलू चाहे शाही हो या इश्तिराकी, एक किरकिराहट उसकी अदा-ए-ख़ास है।जिसके लिए उसमें हर ख़ास-व-आ'म गले-गले डूब जाता है...!

    ये तो हुज़ूर...सारे के सारे वो आलू हैं जिन्हें हम आप(और आलू फ़रोश भी) मैदानी और पहाड़ी कहते हैं।

    और जिस तरह किसी ज़माने में ख़रबूज़े को देख-देखकर ख़रबूज़ा रंग पकड़ा करता था...उसी तरह आज उन मैदानी और पहाड़ी आलूओं की हमागीर आलूवियत को देखकर कुछ शहरी आलू भी सिर्फ़ पैदा होने लगे हैं...बल्कि रंग भी पकड़ते जाते हैं और ढंग भी...!

    शहरी आलू...चाहे मैदानी और पहाड़ी आलू की तरह गोल मटोल हों मगर लुढ़कते उन्हीं की तरह हैं...इधर भी...उधर भी...थाली के अंदर भी...और थाली के बाहर भी...!

    जिस तरह तिलिस्म-ए-होश-रुबा की परियोँ और देवों की जान किसी तोते, किसी मैना में बंद होती थी। उसी तरह आज के बाज़ीगरों की जानें भी इन्हीं आलुओं में अटकी रहती हैं। फिर वो उन्हें मोहब्बत-ए-पाश और मोहब्बत-ए-बाश नज़रों से देखता है।फिर इशारे-कनाए होते हैं। नज़्र-ओ-नियाज़ होती है...और ये ब-ज़ाहिर बेनियाज़ी का सबूत देते हैं। मगर दिल ही दिल में अपने ग़ैर अहम वजूद की अहमियत के एहसास से ख़ुश होते हैं और बात के बात बिगड़ते अकड़ते रहते हैं। आख़िरकार मुनासिब तौर से किसी गोभी, किसी टमाटर किसी मटर के साथ मिलकर हंडिया पकाते हैं और दस्तरख़्वान सजाते हैं। वैसे ये कुछ भी नहीं। मगर गोभी टमाटर मटर के साथ सब कुछ हैं और गोभी टमाटर मटर भी इस राज़ से बख़ूबी वाक़िफ़ हैं कि आलू के बगै़र बहुत कुछ बनना मुश्किल है। इसीलिए तो;

    शुमार-ए-आलू मर्ग़ूब-ए-बुत मुश्किल पसंद आया

    लिहाज़ा दोनों तरफ़ का जज़्बा-ए-बे-इख़्तियार शौक़ देखा जाए...!

    आलुओं की ये क़िस्म बड़ी अ'क़लमंद...ख़ुदशनास और जहाँ दीदा है...इसीलिए भाव बढ़े हैं...और रावी उनकी क़िस्मत में तहसीन-ए-बहुरूफ़, सुनहरी-व-रुपहली लिखता है...!

    निगाह आलू शनास इनके अलावा भी क़िस्म-क़िस्म के आलू देख लेती है। आलू की तरह गोल मटोल। आलू ही की तरह मरनज-व-मरनजाँ और मिस्कीं। ये औरों से बे-तअ'ल्लुक़। अपने से बे-ख़बर। किसी का हिसाब चुकाना किसी को हिसाब देना। दोस्ती दुश्मनी। लॉग लगाओ। चेहरे पर ऐसी मलकूती हिमाक़त(जिसे मोहज़्ज़ब ज़बान में हिमाक़त भी कहा जाता है ...!)जैसे अभी-अभी किसी मुल्क की बादशाहत का ताज-ए-मुरस्सा आपके सर-ए-मुबारक पर रखा जाने वाला हो! सियासत के Super Bazaar में उनकी क़ीमत एक सूत की अंटी से ज़्यादा नहीं लगती कि उनके हाथ में नफ़ा नुक़्सान का तराज़ू नहीं...!लिहाज़ा उन्हें महज़ आलू के बजाए अबला आलू कहना ज़्यादा मुनासिब होगा...!

    शहरी आलुओं में, समाजी आलू को भी बड़ी अहमियत हासिल है। उनके बगै़र अंदरून-ए-शहर बैरून-ए-शहर की कोई तक़रीब मुकम्मल नहीं। वो चाहे इंडो-बर्मी मुशायरा हो या मुज़ाकिरा...इकनॉमिक कान्फ़्रेंस हो या मुर्ग़ी कान्फ़्रेंस...क़ुतुब-ए-शुमाली के इटेस्टकी बर्फ़ से बनाई तस्वीरों की नुमाइश हो या कांगो का क़ौमी नाच...चीनी मौसीक़ी की महफ़िल हो या कहीं अदीबों की नशिस्त। या ताज-उल-मसाजिद से टूल वाली मस्जिद तक किसी का भी,“माबैन असर-व-मग़रिब” वाला प्रोग्राम हो। आप आलू की तरह सिर्फ़ वहाँ मौजूद होंगे बल्कि दाद, बे-दाद, इंतिज़ाम, इंतिशार हर एक का पूरा पूरा हक़ अदा करेंगे...!

    और मोअज़्ज़िज़ीन-ए-शहर में से चाहे जिसका इंतिक़ाल पुर मलाल हुआ हो। वहाँ भी आप अपने चमकीले सजीले आँसूओं समेत नज़र आएंगे। और तजहीज़-व-तकफ़ीन के सारे इंतिज़ामात अपने हाथ में ले लेंगे और यूँ जज़्बा-ए-बे-इख़्तियार शौक़ के साथ ज़िंदा और मुर्दा दोनों की आ'क़िबत और आ'फ़ियत तबाह करेंगे गोया मरहूम के अस्ल वारिस आप ही हैं...!

    यूँ इन्हें किसी बुलावे की हाजत नहीं। मगर दस्त-ए-ग़ैब से वो हर जगह के दावत नामे हासिल कर लेते हैं। हर शहर में उनकी बोहतात है और शायद टके सेर भी महंगे हों। बिला सुरमा-ए-मुफ़्त नज़र की तरह चशम-ए-ख़रीदार पर ही एहसान होगा। मगर ये हैं बड़े काम की चीज़।

    हाल की ख़ाली कुर्सियाँ उनके वजूद से ब-आसानी छुप जाती हैं और वो ऑल इंडिया कान्फ़्रेंसें जिनमें सामईन की ता'दाद मुक़र्ररीन और मुंतज़मीन की मजमूई ता'दाद से एक नफ़र भी ज़्यादा हो...और वो ऑल इंडिया के बजाए ऑल मोहल्ला भी मा'लूम होती हों...वहाँ इन्हीं के दम से (दस्तरख़्वानी आलुओं की तरह) रौनक़ लाई जाती है...! और कहीं-कहीं तो फ़तह-व-शिकस्त के फ़ैसले भी इन्हीं की ज़ात बे-बरकात से होते हैं लिहाज़ा यही कहना पड़ता है;

    आप बे-बहरा है जो मो'तक़िद-ए-आलू नहीं।

    स्रोत:

    Lo Aaj Hum Bhi (Pg. 77)

    • लेखक: शफ़ीक़ा फ़रहत
      • प्रकाशक: मध्य प्रदेश उर्दू अकादमी, भोपाल
      • प्रकाशन वर्ष: 1981

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