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मुरीदपुर का पीर

पतरस बुख़ारी

मुरीदपुर का पीर

पतरस बुख़ारी

MORE BYपतरस बुख़ारी

    अक्सर लोगों को इस बात का ता’ज्जुब होता है कि मैं अपने वतन का ज़िक्र कभी नहीं करता। बा’ज़ इस बात पर भी हैरान हैं कि मैं अब कभी अपने वतन को नहीं जाता। जब कभी लोग मुझसे इसकी वजह पूछते हैं तो मैं हमेशा बात टाल देता हूँ। इससे लोगों को तरह तरह के शुबहात होने लगते हैं। कोई कहता है वहां इस पर एक मुक़दमा बन गया था, इसकी वजह से रु-पोश है। कोई कहता है वहां कहीं मुलाज़िम था, ग़बन का इल्ज़ाम लगा, हिजरत करते ही बनी। कोई कहता है वालिद इसकी बदउ’नवानियों की वजह से घर में नहीं घुसने देते। ग़रज़ ये कि जितने मुँह उतनी बातें। आज मैं इन सब ग़लत फ़हमियों का अज़ाला करने वाला हूँ। ख़ुदा आप पढ़ने वालों को इंसाफ़ की तौफ़ीक़ दे।

    क़िस्सा मेरे भतीजे से शुरू होता है। मेरा भतीजा देखने में आ’म भतीजों से मुख़्तलिफ़ नहीं। मेरी तमाम खूबियां उसमें मौजूद हैं और इसके अ’लावा नई पौद से ताल्लुक़ रखने के बाइस उसमें बा’ज़ फ़ालतू औसाफ़ नज़र आते हैं। लेकिन एक सिफ़त तो इसमें ऐसी है कि आज तक हमारे ख़ानदान में इस शिद्दत के साथ कभी रोनुमा नहीं हुई थी। वो ये कि बड़ों की इज़्ज़त करता है और मैं तो उसके नज़दीक बस इ’ल्म-व-फ़न का एक देवता हूँ। ये ख़ब्त उसके दिमाग़ में क्यूँ समाया है? उसकी वजह मैं यही बता सकता हूँ कि निहायत आ’ला से आ’ला ख़ानदानों में भी कभी-कभी ऐसा देखने में जाता है। मैं शाइस्ता से शाइस्ता विद्वानों के फ़रज़ंद को बा’ज़ वक़्त बुज़ुर्गों का इस क़दर एहतिराम करते देखा कि उन पर नीच ज़ात का धोका होने लगता है।

    एक साल मैं कांग्रेस के जलसे में चला गया। बल्कि ये कहना सही होगा कि कांग्रेस का जलसा मेरे पास चला आया। मतलब ये कि जिस शहर में, मैं मौजूद था वहीं कांग्रेस वालों ने भी अपना सालाना इजलास मुनअ’क़िद करने की ठान ली। मैं पहले भी अक्सर जगह ऐ’लान कर चुका हूँ और अब भी मैं ब-बांग-ए-दहल ये कहने को तैयार हूँ कि इसमें मेरा ज़रा भी क़ुसूर था। बा’ज़ लोगों को ये शक है कि मैंने महज़ अपनी तसकीन-ए-नख़व्वत के लिए कांग्रेस का जल्सा अपने पास ही करा लिया। लेकिन ये महज़ हासिदों की बद-नियती है। भांडों को मैं ने अक्सर शहर में बुलवाया है। दो एक मर्तबा बा’ज़ थिएटरों को भी दावत दी है लेकिन कांग्रेस के मुक़ाबले में मेरा रवैया हमेशा एक गुमनाम शहरी का सा रहा है। बस इस से ज़्यादा मैं इस मौज़ू पर कुछ कहूंगा।

    जब कांग्रेस का सालाना जलसा बग़ल में हो रहा हो तो कौन ऐसा मुत्तक़ी होगा जो वहाँ जाने से गुरेज़ करे। ज़माना भी ता’तीलात और फ़ुर्सत का था चुनांचे मैंने शग़्ल-ए-बेकारी के तौर पर उस जलसे की एक-एक तक़रीर सुनी। दिन भर तो जलसे में रहता। रात को घर कर उस दिन के मुख़्तसर से हालात अपने भतीजे को लिख भेजता ताकि सनद रहे और वक़्त-ए-ज़रूरत काम आये।

    बाद के औक़ात से मा’लूम होता है कि भतीजे साहब मेरे हर ख़त को बेहद अदब-व-एहतिराम के साथ खोलते, बल्कि बा’ज़-बा’ज़ बातों से तो ज़ाहिर होता है कि उस इफ़्तेताही तक़रीब से पेशतर वो बाक़ायदा वज़ू भी कर लेते। ख़त को ख़ुद पढ़ते फिर दोस्तों को सुनाते, फिर अख़बारों के एजेन्ट की दुकान पर मक़ामी लाल बुझक्कड़ों के हल्क़े में उसको ख़ूब बढ़ा चढ़ा कर दोहराते फिर मक़ामी अख़बार के बे-हद मक़ामी एडिटर के हवाले कर देते जो उसे बड़े इह्तिमाम के साथ छाप देता। उस अख़बार का नाम मुरीद पुर गज़ट है। उसका मुकम्मल फ़ाइल किसी के पास मौजूद नहीं, दो महीने तक जारी रहा। फिर बा’ज़ माली मुश्किलात की वजह से बंद हो गया। एडिटर साहब का हुलिया हस्ब-ए-ज़ैल है। रंग गंदुमी, गुफ़्तगू फ़ल्सफ़ियाना, शक्ल से चोर मा’लूम होते हैं। किसी साहब को उनका पता मा’लूम हो तो मुरीदपुर की ख़िलाफ़त कमेटी को इत्तिला पहुंचा दें और इंदल्लाह माजूर होँ। नीज़ कोई साहब उनको हरगिज़-हरगिज़ कोई चंदा दें वर्ना ख़िलाफ़त कमेटी ज़िम्मेदार होगी।

    ये भी सुनने में आया है कि उस अख़्बार ने मेरे उन ख़ुतूत के बल पर एक कांग्रेस नम्बर भी निकाल मारा, जो इतनी बड़ी ता’दाद में छपी कि उसके औराक़ अब तक बा’ज़ पंसारियों की दुकानों पर नज़र आते हैं। बहरहाल मुरीदपुर के बच्चे-बच्चे ने मेरी क़ाबिलियत-ए-इंशा पर्दाज़ी, सहीहुद्दिमाग़ी और जोश-ए-क़ौमी की दाद दी। मेरी इजाज़त और मेरे इ’ल्म के बगै़र मुझको मुरीदपुर का क़ौमी लीडर क़रार दिया गया। एक दो शायरों ने मुझ पर नज़्में भी लिखीं जो वक़्तन-फ़ौक़्तन मुरीदपुर गज़ट में छपती रहीं।

    मैं अपनी इस इ’ज़्ज़त अफ़्ज़ाई से महज़ बे-ख़बर था। सच है ख़ुदा जिसको चाहता है इ’ज़्ज़त बख़्शता है। मुझे मालूम था कि मैंने अपने भतीजे को महज़ चंद ख़ुतूत लिख कर अपने हम वतनों के दिल में इस क़दर घर कर लिया है और किसी को क्या मा’लूम था कि ये मा’मूली सा इंसान जो हर रोज़ चुप-चाप सर नीचा किए बाज़ार में से गुज़र जाता है, मुरीदपुर में पूजा जाता है। मैं वो ख़ुतूत लिखने के बाद कांग्रेस और उसके तमाम मुता’ल्लिक़ात को क़तअन फ़रामोश कर चुका था। मुरीदपुर गज़ट का मैं ख़रीदार था, भतीजे ने मेरी बुजु़र्गी के रोब की वजह से भी बर-सबील-ए-तज़्किरा इतना भी लिख भेजा कि आप लीडर हो गये हैं। मैं जानता हूँ कि वह मुझसे यूँ कहता तो बरसों तक उसकी बात मेरी समझ में आती बहरहाल मुझे कुछ तो मा’लूम होता कि मैं तरक़्क़ी करके कहाँ से कहाँ पहुंच चुका हूँ।

    कुछ अ’र्से बाद ख़ून की ख़राबी की वजह से मुल्क में जा-बजा जलसे निकल आये। जिस किसी को एक मेज़ एक कुर्सी और गुल्दान मयस्सर आया उसी ने जलसे का ए’लान कर दिया। जलसों के उस मौसम में एक दिन मुरीदपुर की अंजुमन-ए-नौजवानान-ए-हिंद की तरफ़ से मेरे नाम उस मज़मून का एक ख़त मौसूल हुआ कि “आपके शहर के लोग आप के दीदार के मुंतज़िर हैं। हर कि वमा आप के रू-ए-अनवर को देखने और आपके पाकीज़ा ख़्यालात से मुस्तफ़ीद होने के लिए बे-ताब हैं। माना मुल्क भर को आप की ज़ात-ए-बा-बरकात की अज़-हद ज़रूरत है, लेकिन वतन का हक़ सब से ज़्यादा है क्यूँकि ख़ार-ए-वतन अज़-सुंबुल-व-रेहाँ ख़ुश्तर... इसी तरह की तीन चार बराहीन-ए-क़ाते के बाद मुझसे ये दरख़्वास्त की गयी थी कि आप यहां कर लोगों को हिंदू-मुस्लिम इत्तिहाद की तलक़ीन करें।”

    ख़त पढ़ कर मेरी हैरत की कोई इंतिहा रही लेकिन जब ठंडे दिल से इस बात पर ग़ौर किया तो रफ़्ता रफ़्ता बाशिंदगान-ए-मुरीदपुर की मर्दुम-शनासी का क़ायल हो गया।

    मैं एक कमज़ोर इंसान हूँ और फिर लीडरी का नशा एक लम्हे ही में चढ़ जाता है। उस लम्हे के अंदर मुझे अपना वतन बहुत ही प्यारा मा’लूम होने लगा। अहल-ए-वतन की बे-हिसी पर बड़ा तरस आया। एक आवाज़ ने कहा कि इन बे-चारों की बहबूद और रहनुमाई का ज़िम्मेदार तू ही है। तुझे ख़ुदा ने तदब्बुर की क़ुव्वत बख़्शी है। हज़ार-हा इंसान तेरे मुंतज़िर हैं। उठ कि सैकड़ों लोग तेरे लिए मा-हज़र लिए बैठे होंगे। चुनांचे मैंने मुरीदपुर की दा’वत क़ुबूल कर ली और लीडराना अंदाज़ में ब-ज़रिया-ए-तार इत्तिला दी कि पंद्रह दिन के बाद फ़लां ट्रेन से मुरीदपुर पहुंच जाऊंगा। स्टेशन पर कोई शख़्स आये। हर एक शख़्स को चाहिए कि अपने-अपने काम में मसरूफ़ रहे। हिंदुस्तान को इस वक़्त अ’मल की ज़रूरत है।

    उसके बाद जलसे के दिन तक मैंने अपनी ज़िंदगी का एक-एक लम्हा अपनी होने वाली तक़रीर की तैयारी में सर्फ़ कर दिया। तरह-तरह के फ़िकरे दिमाग़ में सुब्ह-व-शाम फिरते रहे।

    हिंदू और मुस्लिम भाई-भाई हैं।

    हिंदू-मुस्लिम शीर-व-शकर हैं।

    हिंदुस्तान की गाड़ी के दो पहिए। मेरे दोस्तो! हिंदू और मुसलमान ही तो हैं।

    जिन क़ौमों ने इत्तिफ़ाक़ की रस्सी को मज़बूत पकड़ा, वो इस वक़्त तहज़ीब के निस्फ़ुन-निहार पर हैं। जिन्हों ने निफ़ाक़ और फूट की तरफ़ रुजू किया, तारीख़ ने उनकी तरफ़ से अपनी आँखें बंद कर ली हैं। वग़ैरा वग़ैरा।

    बचपन के ज़माने में किसी दर्सी किताब में सुना है कि दो बैल रहते थे एक जा वाला वाक़िया पढ़ा था, उसे निकाल कर नए सिरे से पढ़ा और उसकी तमाम तफ़सीलात को नोट कर लिया। फिर याद आया कि एक और कहानी भी पढ़ी थी, जिसमें एक शख़्स मरते वक़्त अपने तमाम लड़कों को बुला कर लाकड़ियों का एक गट्ठा उनके सामने रख देता है और उनसे कहता है कि इस गट्ठे को तोड़ो। वह तोड़ नहीं सकते। फिर उस गट्ठे को खोल कर एक-एक लकड़ी उन सबके हाथ में दे देता है जिसे वो आसानी से तोड़ लेते हैं, इस तरह वो इत्तिफ़ाक़ का सबक़ अपनी औलाद के ज़हन-नशीन कराता है। उस कहानी को भी लिख लिया। तक़रीर का आग़ाज़ सोचा। सो कुछ इस तरह की तमहीद मुनासिब मा’लूम हुई कि

    प्यारे, हम वतनो!

    घटा सर पे अदबार की छा रही है

    फ़लाकत समां अपना दिखला रही है

    नहूसत पस-व-पेश मंडला रही है

    ये चारों तरफ़ से निदा रही है

    कि कल कौन थे आज क्या हो गये तुम

    अभी जागते थे अभी सो गये तुम

    हिंदुस्तान के जिस माया-ए-नाज़ शायर या’नी अल्ताफ़ हुसैन हाली पानीपती ने आज से कई बरस पेश्तर ये अशआ’र क़लम-बंद किए थे, उसको क्या मा’लूम था कि जूँ-जूँ ज़माना गुज़रता जाएगा उसके ये अलमनाक अल्फ़ाज़ रोज़-ब-रोज़ सही तर होते जाएँगे। आज हिंदुस्तान की ये हालत है... वग़ैरा वग़ैरा।”

    उसके बाद सोचा कि हिंदुस्तान की हालत का एक दर्दनाक नक़्शा खींचूँगा। इफ़्लास, ग़ुर्बत, बुग़्ज़ वग़ैरा की तरफ़ इशारा करूँगा और फिर पूछूँगा कि इसकी वजह आख़िर क्या है? इन तमाम वुजूह को दोहराऊँगा जो लोग अक्सर बयान करते हैं। मसलन ग़ैर मुल्की हुकूमत, आब-व-हवा, मगरिबी तहज़ीब,लेकिन उन सबको बारी-बारी ग़लत क़रार दूँगा और फिर अस्ली वजह बताऊँगा कि अस्ली वजह हिंदूओं और मुसलमानों का निफ़ाक़ है। आख़िर में इत्तिहाद की नसीहत करूँगा और तक़रीर को इस शे’र पर ख़त्म करूँगा कि,

    अंदलीब मिल के करें आह-व-ज़ारियाँ

    तू हाय गुल पुकार मैं चिल्लाऊँ हाय दिल

    दस-बारह दिन अच्छी तरह ग़ौर कर लेने के बाद मैंने इस तक़रीर का एक ख़ाका सा बना लिया और उस को एक काग़ज़ पर नोट कर लिया ताकि जलसे में उसे अपने सामने रख सकूँ। वो ख़ाका कुछ इस तरह का था,

    (1) तमहीद: अशआ’र-ए-हाली (बुलंद और दर्दनाक आवाज़ से पढ़ो)

    (2) हिंदुस्तान की मौजूदा हालत

    (अलिफ़) इफ़्लास

    (ब) बुग़्ज़

    (ज) क़ौमी रहनुमाओं की ख़ुदग़र्ज़ी

    (3) इसकी वजह

    क्या ग़ैर-मुल्की हुकूमत है? नहीं।

    क्या आब-ओ-हवा है? नहीं।

    क्या मग़्रिबी तहज़ीब है? नहीं।

    तो फिर क्या है? (वक़्फ़ा, जिसके दौरान में मुस्कुराते हुए तमाम हाज़िरीन-ए-जलसा पर एक नज़र डालो)

    (4) फिर बताओ, कि वजह हिंदुओं और मुसलमानों का निफ़ाक़ है। (ना’रों के लिए वक़्फ़ा) उसका नक़्शा खींचो। फ़सादात वग़ैरा का ज़िक्र रिक़्क़त-अंगेज़ आवाज़ में करो।

    (उसके बाद शायद फिर चंद नारे बुलंद होँ, उनके लिए ज़रा ठहर जाओ)

    (5) ख़ातिमा। आम नसाएह। ख़ुसूसन इत्तिहाद की तल्क़ीन (शे’र)

    (उसके बाद इन्किसार के अंदाज़ में जा कर अपनी कुर्सी पर बैठ जाओ और लोगों की दाद के जवाब में एक-एक लम्हे के बाद हाज़िरीन को सलाम करते रहो)

    उस ख़ाके के तैयार कर चुकने के बाद जलसे के दिन तक हर रोज़ उस पर एक नज़र डालता रहा और आईने के सामने खड़े हो कर बा’ज़ मार्का आरा फ़िकरों की मश्क़ करता रहा। उसके बाद की मुस्कुराहट की ख़ास मश्क़ बहम पहुंचाई। खड़े हो कर दाएँ से बाएँ और बाएँ से दाएँ घूमने की आ’दत डाली ताकि तक़रीर के दौरान आवाज़ सब तरफ़ पहुंच सके और सब इत्मिनान के साथ एक-एक लफ़्ज़ सुन लें।

    मुरीदपुर का सफ़र आठ घंटे का था। रस्ते में सांगा के स्टेशन पर गाड़ी बदलनी पड़ती थी। अंजुमन-ए-नौजवानान-ए-हिंद के बा’ज़ जोशीले अरकान वहां इस्तक़बाल को आये हुए थे। उन्होंने हार पहनाए और कुछ फल वग़ैरा खाने को दिये। सांगा से मुरीदपुर तक उनके साथ अहम सियासी मसाइल पर बहस करता रहा। जब गाड़ी मुरीदपुर पहुंची तो स्टेशन के बाहर कम-अज़-कम तीन हज़ार आदमियों का हुजूम था जो मुतवातिर ना’रे लगा रहा था। मेरे साथ जो वालनटियर थे उन्होंने कहा, सर बाहर निकालिए। लोग देखना चाहते हैं। मैंने हुक्म की ता’मील की। हार मेरे गले में थे। एक संगतरा मेरे हाथ में था। मुझे देखा तो लोग और भी जोश के साथ ना’रा-ज़न हुए। बमुश्किल तमाम बाहर निकला। मोटर में मुझे सवार कराया गया और जलूस जलसा-गाह की तरफ़ चला।

    जलसा-गाह में दाख़िल हुए तो हुजूम पाँच छः हज़ार तक पहुंच चुका था। जो एक आवाज़ हो कर मेरा नाम ले लेकर नारे लगा रहा था। दाएँ-बाएँ, सुर्ख़-सुर्ख़ झंडों पर मुझ ख़ाक्सार की ता’रीफ़ में चंद कलिमात भी दर्ज थे। मसलन “हिंदुस्तान की निजात तुम्हीं से है, मुरीदपुर के फ़र्ज़न्द ख़ुश-आमदीद, हिंदुस्तान को इस वक़्त अ’मल की ज़रूरत है।

    मुझको स्टेज पर बिठाया गया। सदर-ए-जलसा ने लोगों के सामने मुझसे दोबारा मुसाफ़ा किया और मेरे हाथ को बोसा दिया और फिर अपनी तआ’रुफ़ी तक़रीर यूँ शुरू की,

    हज़रात! हिंदुस्तान के जिस नामी और बुलंद लीडर को आजके जलसे में तक़रीर करने के लिए बुलाया गया है...

    तक़रीर का लफ़्ज़ सुनकर मैंने अपनी तक़रीर के तमहीदी फ़िकरों को याद करने की कोशिश की। लेकिन उस वक़्त ज़हन इस क़दर मुख़्तलिफ़ तास्सुरात की आमाज-गाह बना हुआ था कि नोट देखने की ज़रूरत पड़ी। जेब में हाथ डाला तो नोट नदारद। हाथ पांव में यक-लख़्त एक ख़फ़ीफ़ सी खुन्की महसूस हुई। दिल को सँभाला कि ठहरो, अभी और कई जेबें हैं घबराओ नहीं। रअ’शे के आ’लम में सब जेबें देख डालीं लेकिन काग़ज़ कहीं मिला। तमाम हॉल आँखों के सामने चक्कर खाने लगा। दिल ने ज़ोर-ज़ोर से धड़कना शुरू कर दिया। होंट ख़ुश्क होते महसूस हु-। दस बारह दफ़ा जेबों को टटोला लेकिन कुछ भी हाथ आया। जी चाहा कि ज़ोर-ज़ोर से रोना शुरू कर दूँ। बे-बसी के आ’लम में होंट काटने लगा। सदर-ए-जलसा अपनी तक़रीर बराबर कर रहे थे,

    मुरीदपुर का शहर इन पर जितना भी फ़ख़्र करे कम है। हर सदी और हर मुल्क में सिर्फ़ चंद ही आदमी ऐसे पैदा होते हैं जिनकी ज़ात नौ-ए-इंसान के लिए...

    ख़ुदाया! अब मैं क्या करूँगा? एक तो हिंदुस्तान की हालत का नक़्शा खींचना है। उससे पहले ये बताना है कि हम कितने नालायक़ हैं। नालायक़ का लफ़्ज़ ग़ैर मौज़ूँ होगा। जाहिल कहना चाहिए। ये ठीक नहीं, ग़ैर मुहज़्ज़ब।

    इनकी आ’ला सियासत-दानी, इनका क़ौमी जोश और मुख़्लिसाना हमदर्दी से कौन वाक़िफ़ नहीं। ये सब बातें तो ख़ैर आप जानते हैं लेकिन तक़रीर करने में जो मल्का इन को हासिल है...

    हाँ वो तक़रीर कहाँ से शुरू होती है? हिंदू-मुस्लिम इत्तिहाद पर तक़रीर, चंद नसीहतें ज़रूर करनी हैं लेकिन वो तो आख़िर में हैं। वो बीच में मुस्कुराना कहाँ था?

    मैं आप को यक़ीन दिलाता हूँ कि आप के दिल हिला देंगे और आप को ख़ून के आँसू रुलाएंगे...

    सदर-ए-जलसा की आवाज़ नारों में डूब गई दुनिया मेरी आँखों के सामने तारीक हो रही थी। इतने में सदर ने मुझसे कुछ कहा मुझे अल्फ़ाज़ बिल्कुल सुनाई दिय। इतना महसूस हुआ कि तक़रीर का वक़्त सर पर आन पहुंचा है और मुझे अपनी नशिस्त पर से उठना है। चुनांचे एक नामा’लूम ताक़त के ज़ेर-ए-असर उठा। कुछ लड़खड़ाया, फिर सँभल गया। मेरा हाथ काँप रहा था। हॉल में शोर था। मैं बेहोशी से ज़रा ही वरे था और ना’रों की गूँज उन लहरों के शोर की तरह सुनाई दे रही थी जो डूबते हुए इंसान के सर पर से गुज़र रही हों। तक़रीर शुरू कहाँ से होती है? लीडरों की ख़ुदग़र्ज़ी भी ज़रूर बयान करनी है और क्या कहना है? एक कहानी भी थी, “बगुले और लोमड़ी की कहानी। नहीं ठीक है दो बैल...

    इतने में हॉल में सन्नाटा छा गया। सब लोग मेरी तरफ़ देख रहे थे। मैं ने अपनी आँखें बंद कर लीं, और सहारे के लिए मेज़ को पकड़ लिया। मेरा दूसरा हाथ भी काँप रहा था। वह भी मैंने मेज़ पर रख दिया। उस वक़्त ऐसा मा’लूम हो रहा था जैसे मेज़ भागने को है और मैं उसे रोके खड़ा हूँ। मैंने आँखें खोलीं और मुस्कुराने की कोशिश की। गला ख़ुश्क था। बड़ी मुश्किल से मैंने ये कहा कि,

    प्यारे हम वतनो!

    आवाज़ ख़िलाफ़-ए-तवक़्क़ो बहुत ही बारीक और मुनहनी सी निकली। एक दो शख़्स हंस दिये। मैंने गले को साफ़ किया तो और कुछ लोग हंस पड़े। मैंने जी कड़ा करके ज़ोर से बोलना शुरू किया। फेफड़ों पर यक-लख़्त जो यूँ ज़ोर डाला तो आवाज़ बहुत ही बुलंद निकल आयी। इस पर बहुत से लोग खिलखिला कर हंस पड़े। हंसी थमी तो मैंने कहा,

    प्यारे हम-वतनो!

    उसके बाद ज़रा दम लिया और फिर कहा, कि

    प्यारे हम-वतनो!

    कुछ याद आया कि उसके बाद क्या कहना है। बीसियों बातें दिमाग़ में चक्कर लगा रही थीं लेकिन ज़बान तक एक आती थी।

    प्यारे हम-वतनो!

    अब के लोगों की हंसी से मैं भन्ना गया। अपनी तौहीन पर बड़ा ग़ुस्सा आया। इरादा किया कि इस दफ़ा जो मुँह में आया कह दूंगा। एक दफ़ा तक़रीर शुरू कर दूँ तो फिर कोई मुश्किल रहेगी।

    प्यारे हम वतनों! बा’ज़ लोग कहते हैं कि हिंदुस्तान की आब-ओ-हवा ख़राब है या’नी ऐसी है कि हिंदुस्तान में बहुत से नुक़्स हैं... समझे आप? (वक़्फ़ा) नुक़्स हैं, लेकिन ये बात या’नी अम्र जिसकी तरफ़ मैं ने इशारा किया है गोया चंदाँ सही नहीं। (क़हक़हा)

    हवास मुअ’त्तल हो रहे थे। समझ में आता था कि आख़िर तक़रीर का सिलसिला क्या था। यक-लख़्त बैलों की कहानी याद आयी और रास्ता कुछ साफ़ होता दिखाई दिया।

    हाँ तो ये बात दरअस्ल ये है कि एक जगह दो बैल इकट्ठे रहते थे। जो बा-वजूद आब-ओ-हवा और ग़ैर- मुल्की हुकूमत के। (ज़ोर का क़हक़हा)

    यहाँ तक पहुंच कर महसूस किया कि कलाम कुछ बे-रब्त सा हो रहा है। मैंने सोचा चलो वो लकड़ी के गट्ठे की कहानी शुरू कर दें।

    मस्लन आप लकड़ियों के एक गट्ठे को लीजिए, लकड़ियाँ अक्सर महंगी मिलती हैं। वजह ये है कि हिंदुस्तान में इफ़्लास बहुत है। क्यूँकि अक्सर लोग ग़रीब हैं इसलिए गोया लकड़ियों का गट्ठा या’नी आप देखिए कि अगर... (बुलंद और तवील क़हक़हा)

    हज़रात! अगर आपने अ’क़्ल से काम लिया तो आपकी क़ौम फ़ना हो जाएगी। नहूसत मंडला रही है। (क़हक़हे और शोर-व-ग़ोगा... इसे बाहर निकालो। हम नहीं सुनते)

    शेख़ सा’दी ने कहा है कि

    चू अज़ क़ौमे यके बैदानशी कुरद

    (आवाज़ आयी क्या बकता है?) ख़ैर इस बात को जाने दीजीए। बहरहाल इस बात में तो किसी को शुबहा नहीं हो सकता कि

    अंदलीब मिल के करें आह-ओ-ज़ारियाँ

    तू हाय दिल पुकार मैं चिल्लाऊं हाय गुल

    इस शे’र ने दौरान-ए-ख़ून को तेज़ कर दिया। साथ ही लोगों का शोर भी बहुत ज़्यादा हो गया। चुनांचे मैं बड़े जोश से बोलने लगा,

    जो क़ौमैं इस वक़्त बेदारी के आसमान पर चढ़ी हुई हैं उनकी ज़िंदगियाँ लोगों के लिए शाहराह हैं और उनकी हुकूमतें चार दांग-ए-आ’लम की बुनियादें हिला रही हैं। (लोगों का शोर और हंसी और भी बढ़ती गई।) आपके लीडरों के कानों पर ख़ुदग़र्ज़ी की पट्टी बंधी हुई है। दुनिया की तारीख़ इस बात की शाहिद है कि ज़िंदगी के वह तमाम शो’बे...

    लेकिन लोगों का गोगा और क़हक़हे इतने बुलंद हो गये कि मैं अपनी आवाज़ भी सुन सकता था। अक्सर लोग उठ खड़े हुए थे और गला फाड़-फाड़ कर कुछ कह रहे थे। मैं सर से पांव तक काँप रहा था, हुजूम में से किसी शख़्स ने बारिश के पहले क़तरे की तरह हिम्मत करके सिगरेट की एक ख़ाली डिबिया मुझ पर फेंक दी। उसके बाद चार-पाँच काग़ज़ की गोलियां मेरे इर्द-गिर्द स्टेज पर गिरीं लेकिन मैंने अपनी तक़रीर का सिलसिला जारी रखा।

    हज़रात! तुम याद रखो। तुम तबाह हो जाओगे!

    तुम दो बैल हो...

    लेकिन जब बौछाड़ बढ़ती ही गई तो मैंने इस नामा’क़ूल मजमा से किनारा-कशी ही मुनासिब समझी। स्टेज से फलांगा और ज़क़ंद भरके दरवाज़े में से बाहर का रुख़ किया। हुजूम भी मेरे पीछे लपका। मैं ने मुड़ कर पीछे देखा। बल्कि सीधा भागता गया। वक़्तन फ़ौक्तन बाज़ ना-मुनासिब कलमे मेरे कानों तक पहुंच रहे थे। उनको सुन कर मैंने अपनी रफ़्तार और भी तेज़ कर दी और सीधा स्टेशन का रुख़ किया। एक ट्रेन प्लेटफार्म पर खड़ी थी मैं बे-तहाशा उसमें घुस गया। एक लम्हे के बाद वो ट्रेन वहाँ से चल दी।

    उस दिन के बाद आज तक मुरीदपुर ने मुझे मद्ऊ किया है मुझे ख़ुद वहां जाने की ख़्वाहिश पैदा हुई है।

    स्रोत:

    Patras Ke Mazameen (Pg. 81)

    • लेखक: पतरस बुख़ारी
      • प्रकाशक: डायरेक्टर क़ौमी कौंसिल बरा-ए-फ़रोग़-ए-उर्दू ज़बान, नई दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 2011

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