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शयातीन की कॉन्फ़्रेंस

हाशिम अज़ीमाबादी

शयातीन की कॉन्फ़्रेंस

हाशिम अज़ीमाबादी

MORE BYहाशिम अज़ीमाबादी

    इब्लीस के ए'लान के मुताबिक़ दुनिया के कोने कोने से शयातीन इकट्ठा हो रहे हैं, यहाँ तक कि पूरा पंडाल शयातीन से भर जाता है। सिर्फ़ इब्लीस की आमद का इंतिज़ार है....लीजिए! इब्लीस भी ही गए। सारे शयातीन ता'ज़ीम के लिए खड़े हो जाते हैं।

    इब्लीस, शयातीन को बैठने का इशारा करते हुए सामने जाता है। हर तरफ़ ख़ामोशी छाई है। इब्लीस शयातीन से मुख़ातिब होकर कहता है:

    “दोस्तो! मुझे बेहद ख़ुशी है कि एक मुद्दत के बाद हमें एक दूसरे से क़रीबतर होने का मौक़ा मिला है और सबसे ज़्यादा मसर्रत ये देख कर हो रही है कि मेरी सिर्फ़ एक आवाज़ पर दुनिया के गोशे-गोशे से शयातीन खींच कर इस पंडाल में इकट्ठा हो गए हैं। मुझे अभी-अभी ये बतलाया गया है कि इस अचानक तलबी पर मेरे दोस्तों में हैरत-व-इस्ति'जाब की लहर दौड़ गई है....वाक़ई ऐसा होना भी चाहिए। लेकिन क्या करूँ मेरे पास इतना वक़्त ही था कि फ़र्दन-फ़र्दन सभों को कान्फ़्रैंस की ग़रज़-व-ग़ायत से मुत्तला करता। बहर कैफ़, अब मैं अपने जानिसारों को कान्फ़्रैंस में बुलाने की वजह बतला रहा हूँ जिसके बाइ'स मेरा सुकून-ए-क़ल्ब बरबाद हो गया है और ऐसा महसूस हो रहा है कि मेरी पूरी मिशनरी मुअ'त्तल होकर रह गई है....मैं अपने दस्तों से दर्याफ़्त तलब हूँ कि क्यों उनके अंदर वो पहला सा जोश-व-ख़रोश नहीं।इसका क्या सबब है कि हफ़्तों गुज़र जाते हैं लेकिन मेरे दोस्त शयातीन मुझे कोई ऐसी ख़बर नहीं भेजते जिसको सुनकर मेरा दिल बाग़-बाग़ हो जाए। नतीजा ये है कि दफ़्तर में पड़ा ऊँघता रहता हूँ....कहीं ऐसा तो नहीं कि सारे शयातीन अपने फ़र्ज़ को फ़रामोश कर बैठे हैं। लिहाज़ा मैं चाहता हूँ कि हर ज़िला के हेड शैतान ये बतलाएँ कि ऐसा क्यों हो रहा है।”

    ये कह कर इब्लीस बैठ जाता है और एक शैतान खड़ा होकर यूँ सफ़ाई पेश करता हैः

    “हज़रत इब्लीस और मुअ'ज़्ज़ज़ हाज़िरीन!

    भला ये क्योंकर मुम्किन हो सकता है कि हम शयातीन अपने फ़र्ज़ की अदाइगी से पहलू तही करें। बल्कि इंसान को राह से बेराह करने का जो काम हमारे सपुर्द है, उसे हम शयातीन उसी जज़्बे और उसी ईमानदारी के साथ अंजाम दे रहे हैं।हाँ, इसका मुझे ज़रूर ए'तिराफ़ है कि हुज़ूर इब्लीस के पास हमारी कारगुज़ारियों की इत्तिला बहुत कम पहुंचने लगी है।जिसके बाइ'स हुज़ूर इब्लीस कुछ बरहम नज़र रहे हैं लेकिन मैं यक़ीन दिलाता हूँ कि ये सब हुज़ूर का वहम ही वहम है (चारों तरफ़ नज़र दौड़ा कर)ये नमक-ख़्वार हुज़ूर इब्लीस ये भी अ'र्ज़ करने में बेइंतिहा मसर्रत महसूस कर रहा है कि इस वक़्त दुनिया हुज़ूर के इक़बाल से जिस साँचे में ढल रही है। उसके पेशे-नज़र अब इतने स्टाफ़ की भी ज़रूरत नहीं...ही ही ही...मेरे दोस्त तो जानते ही हैं कि इस नाचीज़ के ज़िम्मे नफ़ाक़ फैलाना है। लेकिन इसे हुज़ूर इब्लीस का इक़बाल कहिए कि जिस घर में भी नफ़ाक़ फैलाने की नीयत से जाता हूँ तो मा'लूम होता है कि वहाँ तो अ'र्से से पूरा घर मर्ज़-ए-नफ़ाक़ में मुब्तिला है...साफ़ बात तो ये है कि इत्तिफ़ाक़ ही से मुझे कोई ऐसा घराना नज़र आता है जहाँ क़ब्ल ही से नफ़ाक़ की बुनियाद पड़ी हो जिधर जाइए बाप बेटे में झगड़ा, भाई भाई में दुश्मनी,ज़न-व-शौ में तू तू मैं मैं...तो ऐसी हालत में राह -ए-रास्त पर लाऊँ तो किसको और रिपोर्ट भेजूँ तो कैसी। यहाँ तो हुज़ूर के इक़बाल से दुनिया के लोग ख़ुद ही राह-ए-रास्त की तरफ़ दौड़ रहे हैं (तालियाँ)।

    इब्लीस (उठकर)...“भाइयो! जहाँ तक मुम्किन हो मुख़्तसर अल्फ़ाज़ में कारगुज़ारी पेश करें। अब किसी दूसरे ज़िला के हेड शैतान माइक पर आएँ।

    एक गुरू घंटाल खड़ा होता है।

    हुज़ूर इब्लीस और मुअ'ज़्ज़ज़ हाज़िरीन!

    जहाँ तक मेरी कारगुज़ारियों का तअ'ल्लुक़ है, इसके पेशे नज़र कोई वजह नहीं कि हुज़ूर इब्लीस को मेरी जानिब से किसी तरह की कोताही का एहतिमाल हो, मैंने जो कर दिखाया है वो एक अ'र्से के लिए काफ़ी है। मैंने सबसे पहला अ'मली क़दम जो उठाया तो कसीर ता'दाद में मौलवी मुल्लाओं को बे-अ'मल बना कर छोड़ा। जी हाँ! मैंने जड़ ही काट देनी मुनासिब समझी। क्योंकि मुझे डर था कि इस जमाअ'त के अंदर इ'ल्म के साथ अ'मल का भी माद्दा बाक़ी रहा, तो फिर ग़ज़ब ही ग़ज़ब है। मैंने ऐसी तर्कीब की कि ये हज़रात अपने इ'ल्म-व-सलाहियत के ज़रिए दूसरों पर अच्छा असर ही डाल सकें। या'नी मैंने उनके कानों में फूँक दी कि मियाँ घर बैठे तस्बीह हिलाया करो, वा'ज़, तक़रीर या दूसरों को अच्छी राह बतलाने की कोशिश फ़ुज़ूल है। हाँ कभी-कभी कोई मीलाद शरीफ़ पढ़वाने को बुलाए तो चले जाया करो और वो भी ऐसी जगह जहाँ शीरनी के अलावा पुलाव मिलने की उम्मीद हो।(ठहर कर)....गद्दी नशीं शाह साहिबान को भी मैंने पट्टी पढ़ा दी कि दीनी तब्लीग़ की कोशिश और जाहिल और अनपढ़ लोगों को अल्लाह रसूल की बातें बतलाने के चक्कर में पड़ना फ़ुज़ूल है...बस हुजरे में बैठे अल्लाह-अल्लाह किया करो...जी हाँ, हुज़ूर इब्लीस ये सुन कर झूम उठेंगें कि मेरी इस कोशिश का ख़ातिर ख़्वाह असर हुआ है। या' नी जिसका जी चाहे मौलवियों,आ'लिमों और शाह साहिबान के अड़ोस-पड़ोस में घूम-फिर कर देख ले। बहुतेरे ऐसे मिलेंगे, जो कल्मा तक सही नहीं पढ़ सकते। नमाज़ और रोज़ा तो रहा कोसों दूर।अजी साहब! अगर मैं उस जमा'त की तरफ़ से ज़रा भी ग़फ़लत बरतता, तो आज सोम-व-सलात के पाबंदों ,नमाज़ियों और परहेज़गारों का शुमार मुश्किल होता। ऐसी हालत में किस क़दर सुबकी थी हमारी...और हाँ ये तो अ'र्ज़ ही नहीं किया।स्कूलों और कॉलेजों में मख़्लूत-ए-ता'लीम का इंतिज़ाम क्या कम क़ाबिल-ए-ता'रीफ़ बात है। बल्कि इस कारनामे पर मैं जितना भी फ़ख़्र करूँ कम है और यही वजह है कि इन कारनामों और ख़िदमात-ए-आ'लिया के पेशे नज़र मैं इस क़दर मुतमइन हूँ कि अब चंदाँ दौड़ धूप की भी ज़रूरत नहीं समझता। जी हाँ, जी हाँ....मुझे ज़्यादा कुछ अ'र्ज़ करना नहीं है।या'नी आगे बात ख़त्म।”

    एक और शैतान सफ़ाई पेश करता है।

    “हुज़ूर इब्लीस! मुझे अगर क़ब्ल से इत्तिला होती कि ये कान्फ़्रैंस इस मक़सद के तहत बुलाई गई है तो मैं अपना रजिस्टर लिए आता, ख़ैर कोई बात नहीं। हुज़ूर इब्लीस के पास तो मेरी कार्वाइयों की रिपोर्ट बराबर पहुंचती ही रहती है।रहा ये सवाल कि हुज़ूर इब्लीस के ख़याल में हमारी सरगर्मी पहले से कम क्यों नज़र आने लगी है, तो इसके मुतअ'ल्लिक़ अभी-अभी मेरे दोस्तों ने काफ़ी रोशनी डाली है और बहुत मुम्किन है कि हुज़ूर-ए-वाला मुतमइन हो गए हों।

    मेरा तो काम ये है कि अल्लाह के बंदों को ऐसा बहकाऊँ कि नमाज़ की तरफ़ तबीयत ही माइल हो क्योंकि ये दुनिया जानती है कि मह्शर में

    अव्वलीं पुरशिश नमाज़ बूद

    ये हुज़ूर इब्लीस का इक़बाल है कि मैं अपनी कोशिश में कामयाब रहा हूँ। मेरे इस दा'वे की दलील में जिसका जी चाहे देख ले। शायद ही कोई हक़ीक़ी मअ'नों में नमाज़ पढ़ रहा होगा।

    मेरा ये दा'वा सुनकर मेरे अहबाब कह सकते हैं कि शायद की भी एक रही। सैकड़ों क्या हज़ारों नमाज़ पढ़ रहे होंगे, अजी तौबा कीजिए! नमाज़ तो ज़रूर पढ़ रहे होंगे लेकिन मेरा दा'वा है कि ख़ुशू और ख़ुज़ू का फ़ुक़दान होगा। जिसके मुतअ'ल्लिक़ मौलवी साहिब कहते हैं कि ऐसी नमाज़ मुँह पर फेंक मारी जाएगी। चलो छुट्टी हुई।

    और लगे हाथ ये भी सुन लीजिए कि जिसे मैं अपने सालहा-साल के ठोस तजुर्बे के बाद बयान कर रहा हूँ। या'नी ज़्यादा ता'दाद ऐसे नमाज़ियों की है जो किसी के डर से या किसी के दिखाने या किसी लालच से नमाज़ पढ़ते हैं। अल्लाह वास्ते तो बहुत थोड़े ही...इस लफ़्ज़ थोड़े पर किसी इंसान का एक शे'र याद गया;

    शैख़ को थोड़ा जानो जानो ये बड़ा मक्कार है

    सारी दुनिया छोड़ बैठा है ख़याल-ए-हूर में

    नमाज़ भी कैसी, मौक़ा मिला दो ट्क्कड़ें मारली। अजी साहब अल्फ़ाज़ भी मुँह से अदा नहीं होते। सजदा भी ऐसा करेंगे जैसे मुर्ग़ दाना टोंग रहा हो और वो भी इस क़दर जल्दी-जल्दी जैसे रेल छूट जाने का डर हो।

    नमाज़ से मैंने लोगों का दिल किस क़दर फेर दिया है, इसका अंदाज़ा करना हो तो हुज़ूर इब्लीस किसी सिनेमा घर के पास खड़े हो कर देख लें। उधर मुअज़्ज़िन पुकार रहा है। हय्या अलस्सलाह (नमाज़ के लिए आओ) और लोग पिले हैं टिकट कटाने के लिए। उधर मुअज़्ज़िन चीख़ रहा है हय्या अललफ़लाह (फ़लाह की तरफ़ आओ) और लोग घुसे जा रहे हैं सिनेमा देखने के लिए और मज़ा तो है कि यही इंसान कहता फिरता है कि हम को फ़लाह नहीं। बेवक़ूफ़! ही ही ही ही....

    (इब्लीस से दो मिनट और वक़्त लेकर) मैं इंसान पर इस क़दर हावी हो गया हूँ कि वो मेरे इशारे पर नाचने लगे हैं। इंसान जानता है कि ख़ुदा ही दरअस्ल परवरदिगार-ए-आलम है, वही सारे जहाँ का राज़िक है। उसी के इशारे पर काइनात के निज़ाम का इन्हिसार है। लेकिन ये इंसान मेरे ताबे होकर दौड़ता है तो अपने हाकिम से। हाकिम भी कौन, जो ख़ुद उसी की तरह मोहताज है वो राज़िक समझता है, तो अपने अफ़्सर-ए-आ'ला को इस सिलसिले में मेरे इशारे पर सबसे ज़्यादा चलने वाले ये कराई बाबू और क्लर्क लोग हैं। हाय, ये बेचारे किस क़दर मासूम होते हैं। ख़ुदा के हुक्म की ख़िलाफ़ रोज़ी हो जाए सो क़ुबूल, मगर क्या मजाल कि अफ़्सर-ए-आ'ला का हुक्म टल जाए, मैंने उन कलर्कों के दिल में बैठा दिया है कि तुम्हारे अफ़्सर ही तुम्हारे लिए सब कुछ हैं। कहीं बिगड़ गए, तो फिर रिज़्क का दरवाज़ा हमेशा के लिए बंद है। अल्लाह मियाँ भी कुछ कर सकेंगे...माफ़ कीजिएगा। मेरी तक़रीर बहुत लंबी होती जा रही है, इसलिए अब बैठ जाता हूँ।

    एक और हेड शैतान सामने आता है।

    मुअ'ज़्ज़ज़ हाज़िरीन!

    मैंने जो कठिन काम अंजाम दिया है उसके मुक़ाबले में सारे कारनामे, हेच हैं और यही वजह है कि मैं उसकी ज़रुरत ही नहीं समझता कि रोज़-रोज़ की रिपोर्ट हुज़ूर इब्लीस की ख़िदमत में भेजा करूँ। मैंने इरादा कर लिया था कि हरमाह के बजाए अब अपनी कारगुज़ारियों की सालाना रिपोर्ट भेजा करूँगा। लेकिन इसी दरमियान में तलबी हुई। ख़ैर कोई बात नहीं;

    आँ रा कि हिसाब पाक अस्त अज़ मुहासिबा चह बाक

    जी हाँ! मैंने बड़ी कोशिशों के बाद इंसान को राह-ए-रास्त पर लाया है अब कसीर ता'दाद इंसानों की मुश्किल ही से ख़ुदा के वजूद की क़ाइल है। इंसान हर चीज़ का सबब नेचर को बताता है। अपने वजूद और अपनी पैदाइश को भी नेचर ही से मंसूब करता है। अल्लाह की राह बतलाने वालों का मुँह चुराता है। ख़ुदा और रसूल के तज़किरे को तज़ीअ' औक़ात समझता है...तो ये सब कैसे हो। क्या इंसान ख़ुद ब-ख़ुद राह-ए-रास्त पर गए। जी, हर्गिज़ नहीं। ये मेरा ही रस्ता दिखलाया हुआ है...इसके अलावा...

    “बस इतना ही काफ़ी है,” इब्लीस चीख़ उठता है। “मेरी तशफ़्फी हो गई। मैं कुछ ग़लत फ़हमी में मुब्तिला हो गया था।लेकिन इन दो-चार हेड शैतानों की तक़रीर ने पूरी कैफ़ियत का इज़हार कर दिया। मेरे बदन का बोझ हल्का हो गया। वही सुकून और वही फ़रहत मेरे दिल में पैदा हो गई...मेरे दोस्त जिस तनदही और जाँफ़िशानी के साथ अपने फ़राइज़ अदा करने में मुनहमिक हैं वो क़ाबिल-ए-सताइश है। बल्कि मैं ये कहने में मसर्रत महसूस कर रहा हूँ कि अगर इंसानों को राह से बेराह करने की यही रफ़्तार रही, तो क्या अ'जब है कि ख़ुदावंद-ए-क़ुद्दूस को एक और जहन्नम का इंतिज़ाम करना पड़े (तालियाँ), तो अब जलसे की कार्रवाई ख़त्म की जाती है।

    स्रोत:

    Confrencen (Pg. 43)

    • लेखक: हाशिम अज़ीमाबादी
      • प्रकाशक: लेथो प्रेस, पटना
      • प्रकाशन वर्ष: 1983

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