aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

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तजल्ली-ए-तूर / बर्क़-ए-तूर

तूर पहाड़ पर हज़रत मूसा दो बार गए थे। पहली बार पवित्र घाटी में आग की तलाश में, जब ईश्वर से उनकी वार्तालाप हुई थी और उन्हें ईश्वर ने चमत्कार प्रदान किए थे। वादी-ए-ऐमन, शजर-ए-ऐमन, आग, वादी-ए-मुक़द्दस, शोला-ए-सीना आदि तलमीह / संकेत इसी ओर इशारा करते हैं। दूसरी बार तब जब मूसा अपनी क़ौम को फ़िरऔन के अत्याचार से मुक्ति दिला कर वादी-ए-सीना में ठहरे थे। उस वक़्त मूसा को अपने क़ौम की रह-नुमाई के लिए शरीअ'त (वो क़ानून जो भगवान ने अपने बंदों के लिए निर्धारित किया) प्रदान करने को तूर पर बुलाया गया था। पहले उन्हें 30 रातों के लिए बुलाया गया था फिर 10 रातों का इज़ाफ़ा कर दिया गया। 40 दिन पूरा होने पर मूसा को शरीअत प्रदान की गई और सीधे ईश्वर से वार्तालाप करने का गौरव प्राप्त हुआ। कहते हैं मूसा को ईश्वर के दर्शन का शौक़ हुआ तो उन्हों ने निवेदन किया कि “रब्ब-ए-अर्नी-उन्ज़ुर-इलैक”( मेरे रब आप अपना दर्शन मुझे करवा दीजिए ताकि मैं आप को एक नज़र देख लूँ ) जवाब में ईश्वर ने कहा “लन-तरानी” (तुम मुझे हरगिज़ नही देख सकते) जब मूसा ने ज़िद की तो इरशाद हुआ “हम अपनी तजल्ली (महिमा) तूर पर करेंगे अगर ये पहाड़ अपनी जगह स्थिर रहा तो तुम मुझे देख सकोगे”। इस प्रकार तूर पर ईश्वर की तजल्ली हुई लेकिन वो पहाड़ इस तजल्ली को सहन कर सका और टुकड़े-टुकड़े हो गया। मूसा भी बे-होश हो कर गिर पड़े और अपनी बे-बसी को स्वीकार किया। बर्क़-ए-तूर, अरनी, लनतरानी ,साएक़ा-ए-तूर, बर्क़-ए-तूर आदि तलमीह / संकेत इसी दूसरे प्रसंग से संबंधित हैं।

क्या फ़र्ज़ है कि सब को मिले एक सा जवाब

आओ हम भी सैर करें कोह-ए-तूर की

ग़ालिब

गिरनी थी हम पे बर्क़-ए-तजल्ली तूर पर

देते हैं बादा ज़र्फ़-ए-क़दह-ख़्वार देख कर

ग़ालिब

हर संग में शरार है तेरे ज़ुहूर का

मूसा नहीं जो सैर करूँ कोह-ए-तूर का

सौदा

तूर तो है रब्ब-ए-अरिनी कहने वाला चाहिए

लन-तरानी है मगर ना-आश्ना-ए-गोश है

फ़ानी बदायूनी

देख सकता जो तजल्ली-ए-रुख़-ए-जानाँ को

लन-तरानी का सज़ा-वार मूसा होता

ज़ौक़

दिल ही निगाह-ए-नाज़ का एक अदा-शनास था

जलवा-ए-बर्क़-ए-तूर ने तूर को क्यूँ जला दिया

फ़ानी बदायूनी

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