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बिन बुलाए मेहमान

सआदत हसन मंटो

बिन बुलाए मेहमान

सआदत हसन मंटो

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    ग़ालिब कहता है,

    मैं बुलाता तो हूँ उनको मगर जज़्बा-ए-दिल

    उन पे बन जाये कुछ ऐसी कि बिन आए बने

    यानी अगर उसे बिन बुलाए मेहमानों से कद होती तो ये शे’र हमें उसके दीवान में हरगिज़ मिलता। ग़ालिब कहता है मैं बुलाता तो हूँ उनको, मगर मेरा जी तो ये चाहता है कि कोई ऐसी बात हो जाये कि वो बिन बुलाए चले आएं और सच तो ये है कि बुला कर किसी के जाने में वो मज़ा कहाँ है, जो बिन बुलाए जाने में है, लेकिन समझ में नहीं आता क्यों लोगों को बिन बुलाए मेहमानों से ख़ुदा वास्ते का बैर है। आप कहेंगे कि साहब ग़ालिब ने तो माशूक़ों के मुताल्लिक़ कहा था कि उनका बिन बुलाए जाना आशिक़ों के लिए एक बहुत ही बड़ी बात है। आपने ज़बरदस्ती ये शे’र मेहमानों के साथ चिपका दिया। अच्छा साहब यूँही सही, लेकिन नफ़सियात की रोशनी तो मौजूद है। चलिए इसी में बिन बुलाए मेहमानों को देख लेते हैं।

    ये नफ़सियात का ज़माना है। हर चीज़ आजकल उसी तराज़ू में तौली और उसी कसौटी पर परखी जाती है लेकिन बिन बुलाए मेहमानों का नफ़सियाती तजज़िया करने से पहले इस बात का ख़्याल रखना बहुत ज़रूरी है कि आया हर मेहमान को बुलाना ज़रूरी है, यानी क्या वही आदमी काबिल-ए-बर्दाश्त मेहमान होता है जिसको मदऊ किया जाये, ख़त लिख कर, दावती कार्ड भेज कर, तार देकर या टेलीफ़ोन कर के अपने घर बुलाया जाये। इसका जवाब मंतिक़ की रू से यही होगा कि ऐसे बुलाए हुए मेहमान ज़रूरी नहीं कि सौ फ़ीसदी काबिल-ए-बर्दाश्त साबित हों। इसी तरह हम इस नतीजे पर भी आसानी के साथ पहुँच जाऐंगे कि बिन बुलाए मेहमान ज़रूरी नहीं कि सौ फ़ीसदी नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त साबित हूँ... वाज़ेह ये हुआ कि हर बिन बुलाए मेहमान पर नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त और नाक़ाबिल-ए-क़बूल का लेबल लगा देना बहुत बड़ी ज़्यादती है।

    और ये भी ज़्यादती है यानी आप सारी उम्र नहीं बुलाएँगे तो क्या इसका ये मतलब होगा कि आपके हाँ कोई आए ही नहीं। इसी इंतज़ार में आदमी सूखता रहे कि आप कब बुलाते हैं और बफ़र्ज़-ए-मुहाल मेहरबान हो के आपने एक दफ़ा बुला लिया तो उसके बाद आस लगाए बैठे हैं कि देखिए आप फिर कब मेहरबान हो के बुलाते हैं... ना साहब, बुलाना वुलाना कोई ज़रूरी नहीं, जब भी किसी का जी चाहे चला आए। दोस्तों में ऐसी भी क्या ग़ैरियत।

    अरबों की मेहमान नवाज़ी मशहूर है, लेकिन हमने कभी ये नहीं सुना कि उन्होंने ऊंट रवाना कर के मेहमानों को बुलाया हो। असल में वो मेहमान नवाज़ी ही क्या जो बुला कर किसी आदमी पर आइद की जाये। हम तो अरबों के मुताल्लिक़ यही सुनते आए हैं कि उनके मेहमान अक्सर बिन बुलाए ही होते थे... दिन को या रात को किसी वक़्त भी निकलते, दरवाज़े खुले पाते। हातिमताई कभी पैदा होता अगर वहाँ मेहमानों को बुला कर उनका मेज़बान बनने का दस्तूर होता।

    अंग्रेज़ों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी बड़ी नपी तुली है। मिनटों और सेकेंडों का हिसाब किया जाता है। बिन बुलाए किसी के यहाँ जाना उनके नज़दीक बहुत बड़ी बदतमीज़ी है, यही वजह है कि हातिमताई के कद-ओ- क़ामत की एक भी शख़्सियत उनकी तारीख़ में नज़र नहीं आती, लेकिन यहाँ हातिमताई के क़द-ओ-क़ामत की शख़्सियतें पैदा करने का सवाल नहीं। हमें तो सिर्फ़ ये देखना है कि बिन बुलाए मेहमान को सोसाइटी क्यों ऐसी बुरी नज़रों से देखती है और मुआशरे में उसकी हैसियत क्यों एक ख़ारिशज़दा कुत्ते से भी बदतर है। मान मान मैं तेरा मेहमान... ये बिल्कुल और चीज़ है लेकिन बिन बुलाया मेहमान हरगिज़ हरगिज़ मलऊन-ओ-मतऊन नहीं होना चाहिए, बल्कि मेज़बानों को उल्टा उनका शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि ये उनमें ख़ुद एतिमादी पैदा करने के मूजिब होते हैं और ख़ुद एतिमादी जैसा कि आप जानते हैं, इंसान के किरदार में बहुत ही ज़रूरी है।

    ज़रा ग़ौर फ़रमाइए, अगर आप किसी बिन बुलाए मेहमान को बर्दाश्त नहीं कर सकते, जो ज़्यादा से ज़्यादा चार पाँच रोज़ आपके पास ठहर कर अपनी राह लेगा, तो आप एक ऐसे बड़े नागहानी हादिसे को क्योंकर बर्दाश्त कर सकेंगे जिसका रद्द-ए-अमल बरसों जारी रहता है। मुल्क की सियासत में किसी अचानक तब्दीली को आपका ज़ेहन कैसे बर्दाश्त करेगा और आप क्यों कर उस तब्दीली के साथ ख़ुद को समो सकेंगे... अगर आप बिन बुलाए मेहमान को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो माफ़ कीजिए, मौत के फ़रिश्ते का क्या कीजिएगा जो हमेशा बिन बुलाए आता है। दुनिया कुछ भी कहे लेकिन ये अमर वाक़िया है कि हर बिन बुलाए मेहमान की आमद बुलाने वाले मेज़बान में ख़ुद एतिमादी पैदा करती है। दावत का ऐलान कर के और ख़ुर्द-ओ-नोश का जुमला सामान तैयार कर के एक, दस या बीस आदमियों को मेहमान बना लेना कोई बड़ी बात तो नहीं, बड़ी बात तो उस वक़्त होगी जब आपके फ़रिश्तों को भी ख़बर होगी और तीन-चार दोस्त बयक वक़्त या यके बाद दीगरे आपके घर धमकेंगे और आपको अफ़रातफ़री में उनके खाने पीने और रहने सहने का इंतज़ाम करना पड़ेगा।

    साहब-ए-ख़ाना या मेज़बान के सलीक़े का अंदाज़ा ऐलान कर के दी हुई दावतों और बुला कर बनाए हुए मेहमानों की ख़ातिर मदारत से बतरीक़ अहसन कभी नहीं हो सकता। आपके, आपकी बेगम साहिबा के, आपके नौकरों के हुस्ने इंतज़ाम, ख़ुश सलीक़गी और रख-रखाव का सही अंदाज़ा सिर्फ़ उसी वक़्त होगा जब आप इम्तहान के लिए तैयार होंगे। इंसपेक्टर साहब बता करा स्कूलों का दौरा करते हैं कि वो फ़ुलां दिन, फ़ुलां स्कूल का मुआइना करेंगे तो उस दिन उस स्कूल का ग़लीज़ तरीन कोना भी साफ़ होता है। सही मुआइना तो असल में उस वक़्त होगा जब इंसपेक्टर SURPRISE VISIT पर निकलेगा। इंसपेक्टर तो महज़ अपने फ़राइज़ से सबकदोश होने के लिए मुआइने पर आते हैं लेकिन बिन बुलाए मेहमान ग़ैर शऊरी तौर पर मेज़बानों को अपने फ़राइज़ से सबुकदोश होने का मौक़ा बहम पहुंचाते हैं। सोसाइटी उन्हें मलऊन-ओ-मतऊन गर्दानती है, लेकिन हक़ीक़त इसके बिलकुल बरअक्स है, इसलिए कि उनका वजूद सोसाइटी के हक़ में बेहद मुफ़ीद है।

    यहाँ तक कह चुकने के बाद मैं आपको बताना चाहता हूँ और बेझिजक बताना चाहता हूँ कि मैं बुलाने पर किसी के यहाँ आज तक नहीं गया। मुझे अच्छी तरह मालूम है कि मेरे अक्सर-ओ-बेशतर मेज़बान मुझसे नालां हैं कि मैं बिन बुलाए धमकता हूँ लेकिन इसके बावजूद मैंने अपनी आदत नहीं बदली। इसलिए कि मुझे इसमें कोई क़बाहत नज़र नहीं आती। मैं शायर मिज़ाज हूँ, ठस वाक़ियात और सपाट चीज़ों से मुझे कोई दिलचस्पी नहीं, शादी, ब्याह और सालगिरा वग़ैरा की दावतें मेरे लिए बिल्कुल बेकैफ़ हैं। वो खेल और तमाशे भी मेरी नज़रों में कोई वक़अत नहीं रखते जिनको देखने के लिए आदमी को वक़्त का पाबंद होना पड़े। मुझे उस बिस्तर पर कभी नींद नहीं सकती जो मेरे लिए ख़ासतौर पर तैयार किया गया हो। वो मेहमान नवाज़ी मुझे खटकती है जिसमें पहले की तैयारी की हल्की सी झलक भी हो।

    वो लोग जो मुझे या मेरे मिज़ाज के आदमियों को हक़ारत की नज़रों से देखते हैं उनके मुताल्लिक़ मुझे अफ़सोस से कहना पड़ेगा कि वो शे’रियत से यकसर ख़ाली हैं। ड्रामे को समझने और उससे हज़ उठाने की सलाहियत उनमें ज़रा भर नहीं। हादिसात का मुक़ाबला करने की ताब तो माफ़ कीजिए उनमें सिरे से होती ही नहीं।

    ऊंची सोसाइटी की एक ख़ातून थीं जिनके मुताल्लिक़ ऊंची सोसाइटी ही में ये मशहूर था कि वो परले दर्जे की मेहमान नवाज़ हैं। मतलब ये था कि वो हर हफ़्ते बिला नागा एक पार्टी दिया करती थीं, जिसमें शहर की तमाम ऊंची शख़्सियतों को मदऊ किया जाता था। मैं उनके यहाँ जब भी गया बिन बुलाए गया। वो मुझे बहुत ऊंचे दर्जे का बदतमीज़ समझती थीं और मैं समझता था कि वो बहुत ही ऊंचे दर्जे की ख़ातून हैं लेकिन उनके दिल का निचला हिस्सा जहाँ दर्द, मन्नतकश दवा नहीं होता, जहाँ तीर तमाम कश पर तीर नीम कश को तर्जीह दी जाती है, सिरे से मौजूद ही नहीं था। नतीजा ये हुआ कि एक रात वो एक बिन बुलाई चूहिया को देखकर बेहोश हो गईं और ये सदमा उन्हें ता दम-ए-आख़िर रहा कि उनके घर में जहाँ एक मच्छर निकाल देने पर वो दस हज़ार रुपये हार देने के लिए तैयार थीं, एक चूहिया निकल आई।

    मैं अर्ज़ कर चुका हूँ कि ऐसे लोगों में हादिसात का मुक़ाबला करने की ताब बिल्कुल नहीं होती। उस ख़ातून की जगह जिनका ज़िक्र मैंने अभी अभी किया है अगर कोई ऐसी औरत होती, जिसके दिल के निचले हिस्से में “अगर ख़्वाही हयात अंदर ख़तरज़ी” का जज़्बा मोजज़िन होता तो मैं समझता हूँ उस रात महफ़िल दरहम-बरहम होने के बजाय और जम जाती और ऐसे लतीफ़े होते जो सबको ता दम-ए-आख़िर फ़रहान-ओ-शादाँ रखते। आप यक़ीन नहीं करेंगे, मगर आप कभी ऐसे मेज़बान को जिसे बिन बुलाए मेहमानों से चिड़ हो, शेक्सपियर के ड्रामे पढ़ने के लिए दीजिए। दूसरे पढ़ पढ़ कर सर धुनेंगे मगर उस पर ज़र्रा बराबर असर नहीं होगा। इसी तरह फुनूने लतीफ़ा से भी ऐसे शख़्स लुत्फ़ अंदोज़ नहीं हो सकते क्योंकि उनमें शए लतीफ़ की कमी होती है, अगर ये कमी होती तो वो उन तमाम लताफ़तों को समझ सकते जो बिन बुलाए मेहमानों की आमद के साथ उनके घर में दाख़िल होती हैं।

    आपकी अपनी बीवी के साथ ज़बरदस्त चख़ हुई है। वो मुसिर थी कि मैके जाएगी और ज़रूर जाएगी। आप उसके ख़िलाफ़ थे, नौबत यहाँ तक पहुँच चुकी थी कि आपने पूरा डिनर सेट ग़ुस्से में टुकड़े टुकड़े कर डाला था और आपकी बीवी नई साड़ी की चिन्दी चिन्दी कर के बैठी रो रही थी। आप तीन बार तलाक़ कहने वाले थे कि दरवाज़े पर दस्तक हुई या ज़ोर से घंटी बजी। आपने उठकर दरवाज़ा खोला और क्या देखा कि मैं अपनी बीवी बच्चों समेत खड़ा हूँ। आप चिल्लाए, “अरे, तुम कहाँ?” आपने फिर मेरी बीवी की तरफ़ देखा और अपने चेहरे पर से कुदूरत के तमाम आसार दूर करने की कोशिश करते हुए उसको आदाब अर्ज़ किया... थोड़ी देर ठिटके फिर ज़ोर से मेरे कंधे पर हाथ मारा और कहा, “चलो भई अंदर, बाहर सर्दी में क्या खड़े हो।”

    चलिए साहब, हम अंदर दाख़िल हो गए। मैंने इधर उधर देखा और पूछा, “बेगम साहिबा कहाँ हैं, सो रही हैं?” आपने खट से झूट बोला, “नहीं अंदरर हैं। ज़रा तबीयत ख़राब है।” मेरी बीवी ने झट से बुर्क़ा उतारते हुए तशवीश भरे लहजे में कहा, “हाएं, क्या हुआ दुश्मनों को?” आपकी बेगम साहिबा ने अंदर कमरे में ये बातें सुनीं तो जल्दी जल्दी नुची हुई साड़ी की चिन्दीयाँ बक्स में डालीं और आँसू पोंछती हुई बाहर निकल आईं और झट से मेरी बीवी को अपने गले लगा लिया और कुछ इस ख़ूबसूरती से अपने बचे हुए आँसू निकाले कि इस ग़रीब को भी रोना पड़ा।

    रात बहुत देर तक बातें होती रहीं। मैंने टूटे हुए डिनर सेट के मुताल्लिक़ पूछा तो आपको एक निहायत ही दर्दनाक दास्तान गढ़ के सुनाना पड़ी कि नौकर ने लाख मना करने पर भी सारे बर्तन एक ही तश्त में उठाए और अंधा धुंद मेज़ के साथ टकरा कर सब के सब फ़र्श पर गिरा दिए। ग़रीब नौकर को मैं भी आपके साथ गालियां देता रहा। हालाँकि साफ़ देख रहा था कि सीट शिकनी आप ही का काम है क्योंकि फ़र्श पर गिर कर प्लेटों के टुकड़े अलमारी तक कैसे पहुँच सकते हैं। फिर सोने के वक़्त आपकी बेगम साहिबा ने ग़लती से अपना बक्स खोला और मेरी बीवी धुनी हुई साड़ी देखकर चिल्लाई, “हाएं, बहन ये क्या?” तो आपकी बेगम साहिबा को एक फ़र्ज़ी कहानी सुनाना पड़ी, “इन कमबख़्त चूहों ने तो नाक में दम कर रखा है। पिछले महीने मेरा साटन का सूट ग़ारत हुआ। आज ये नई साड़ी, गोलियां डालीं, तोसों पर ज़हर लगा कर रखा, मगर उनसे नजात ही नहीं होती।” मेरी बीवी को अच्छी तरह मालूम था कि साड़ी को ग़ारत करने वाली ख़ुद आपकी बेगम हैं क्योंकि चूहे फाड़ते नहीं बोटीयां नोचते हैं, लेकिन वो बेचारी आपकी बेगम को चूहे मारने की कई तरकीबें समझाती रही।

    हम दस दिन आपके यहाँ रहे, आपको बहुत कोफ़्त हुई, इसलिए कि हम बिन बुलाए मेहमान थे। कई दफ़ा हमने आप मियां बीवी को आपस में हमारे मुताल्लिक़ खुसर फुसर करते सुना कि ये कमबख़्त टलते क्यों नहीं, लेकिन अफ़सोस है कि आपने हमारी बरवक़्त आमद के फ़वाइद पर ग़ौर किया। मैं ऐसी हज़ारों मिसालें पेश कर सकता हूँ।

    एक साहब के यहाँ हम दस रोज़ ठहरे। उनकी बीवी, उनकी दो सालियाँ, उनके तीन बच्चे सब बला के चटोरे थे। बिल्डिंग के पास से कोई भी ख़्वांचा वाला गुज़रे, ठहरा लिया जाता था और सैकड़ों रुपये माहवार हर माह यूं बर्बाद कर दिए जाते थे। साहब-ए-ख़ाना को सख़्त शिकायत थी कि खाना कोई नहीं खाता, लेकिन अलम ग़ल्लम चीज़ें दिन भर खाई जाती हैं, हम सिर्फ़ दस रोज़ उनके यहाँ ठहरे, आप यक़ीन मानिए चौथे रोज़ उन सब का चटोरापन ग़ायब हो गया और वो बाक़ायदा घर का पका हुआ खाना खाने लगे, लेकिन मुझे अफ़सोस से कहना पड़ता है कि हमारी आमद के इस इफ़ादी पहलू को बिल्कुल नज़रअंदाज़ कर दिया गया है और हम पर बिन बुलाए मेहमान का लेबल चस्पाँ हो गया।

    बिन बुलाए मेहमानों के मुताल्लिक़ मेरा रवय्या बहुत ही अच्छा है, जो आता है बड़े शौक़ से आए, जब जी चाहे आए, एक रोज़ रहे, दस रोज़ रहे, दस महीने रहे, मजाल है जो मेरे माथे पर हल्की सी शिकन भी जाये। ज़्यादा जाऐंगे तो मैं उनसे कहूँगा, देखिए जनाब हमारे पास दो पलंग हैं, आप उन्हें अपनी अक़्ल के मुताबिक़ इस्तेमाल कर सकते हैं। हमारी फ़िक्र कीजिए, सोफा है, उस पर मैं सो जाऊँगा। गद्दा है, उस पर मेरी बीवी आराम से सो सकती है, बच्चे हैं उनका भी इंतज़ाम हो जाएगा। वो कहेंगे, नहीं नहीं, इस क़दर तकल्लुफ़ की क्या ज़रूरत है, तो मैं कहूँगा, बेहतर... आप सोफा और गद्दा सँभाल लीजिए, लेकिन देखिए, ये रेडियो मैं अपने कमरे में लिए जाता हूँ, इसलिए कि रात को अगर आप में से कोई बजाए तो मुम्किन है बाक़ीयों को नागवार मालूम हो... जिस चीज़ की ज़रूरत हो आप बाहर से ख़ुद ला सकते हैं। सिगरेट वाले की दुकान गली के नुक्कड़ पर है, दूध का शौक़ है तो दस क़दम और आगे चले जाइएगा, बड़ा अच्छा हलवाई है।

    जब तक जेब इजाज़त देगी मैं अपने मेहमानों की ख़ातिर तवाज़ो करता रहूँगा, लेकिन जब वो जवाब दे जाएगी तो मैं उनसे एक रोज़ अचानक कहूँगा, “लीजिए जनाब, आज से तस्वीर का दूसरा रुख़ शुरू होगा। हम आपके मेहमान, आप हमारे मेज़बान।” और अगर मुआमला बहुत ही नाज़ुक सूरत इख़्तियार कर गया तो हम अपने मेहमानों को वहीं घर में छोड़कर किसी दूसरे के यहाँ बिन बुलाए चले जाएंगे। अल्लाह अल्लाह, ख़ैर सल्ला, आख़िर में उन लोगों से जो कि बिन बुलाए मेहमानों से ख़ुदा वास्ते का बैर रखते हैं, मेरी दरख़्वास्त है कि वो और कुछ नहीं तो महज़ तफ़रीह के तौर पर ही महीने में एक बार किसी बिन बुलाए मेहमान को अपने हाँ ज़रूर बुलवाया करें।

    स्रोत:

    اوپر،نیچے اور درمیان

      • प्रकाशन वर्ष: (1954)

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