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छेड़ खुबां से चली जाये असद

सआदत हसन मंटो

छेड़ खुबां से चली जाये असद

सआदत हसन मंटो

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    गर नहीं वस्ल तो हसरत ही सही, सो जब तक मर्दों को वस्ल नसीब नहीं होता, वो हसरत ही से अपना दिल बहलाते रहेंगे और ख़ूबाँ से छेड़-छाड़ का सिलसिला जारी रहेगा। ये सिलसिला कब शुरू हुआ। वो मर्द कौन था जिसने पहली बार किसी औरत को छेड़ा। इसके मुताल्लिक़ तारीख़ से हमें कुछ पता नहीं चलता। बहुत मुम्किन है बाग़-ए-अदन की किसी घनी झाड़ी के अक़ब में या किसी सायादार दरख़्त के नीचे हज़रत-ए-आदम ही ने ये सिलसिला शुरू किया हो क्योंकि वो जन्नत से यूं ही तो निकाले नहीं गए थे।

    अगर फ़र्ज़ कर लिया जाये कि हज़रत-ए-आदम ही ने इस दिलचस्प सिलसिले का आग़ाज़ किया था तो 'पहली छेड़' का तसव्वुर मुम्किन नहीं होगा। हो सकता है कि ये छेड़ बेहद ख़ास हो और ये भी हो सकता है कि इस छेड़ में इंतिहा दर्जे की लिताफ़त और नज़ाकत हो। दरअसल इसके मुताल्लिक़ हम कुछ भी नहीं कह सकते। क्योंकि उनके हालात-ए-ज़िंदगी और उनके किरदार-ओ-अतवार से हम क़तअन ना-आशना हैं, इसी तरह हम ये भी नहीं जानते कि अम्मा हव्वा ने इस छेड़ को किस रंग में देखा और उनके दिल-ओ-दिमाग़ में इस छेड़ ने किस क़िस्म का रद्द-ए-अमल पैदा किया... तरह तरह के तसव्वुर दिमाग़ में आते हैं। पर कोई सही तस्वीर नहीं बनती। दो बरहना साये से, एक ख़्याली बाग़ में हिलते नज़र आते हैं, इसके बाद हाल के नुक़ूश कुछ इस तरह उभरते हैं कि तसव्वुर अमरीका के किसी नंगे कलब की तरफ़ चला जाता है। बाबा-आदम, साहिब बन जाते हैं और अम्मा हव्वा उनकी मैम गर नहीं वस्ल तो हसरत ही सही।

    यूरोप में जहां तरक़्क़ी पसंदी का दौर दौरा है और तहज़ीब-ओ-तमद्दुन की चोली के बंद खुले हुए हैं। हसरतें कम हैं और वस्ल ज़्यादा हैं, लेकिन इस के बावजूद वहां छेड़-छाड़ आम देखने में आती है। नक़ाब उठने पर भी वहां की बेनक़ाब औरतें इसी तरह घूरी जाती हैं, जिस तरह यहां हिंदुस्तान की नकाब पोश औरतों के नक़ाब घूरे जाते हैं, छेड़-छाड़ भी ज़ोरों की होती है। हिंदुस्तान के मुक़ाबले में कई गुना ज़्यादा। दरअसल जिन्सी भूक कुछ इस किस्म की भूक है कि मिटाए नहीं मिट सकती। जब तक मर्द और औरत पास पास रहेंगे, ये छेड़ चली जाएगी या फिर कोई ऐसा ज़माना आए कि औरत का वजूद मर्द के लिए ग़ैर ज़रूरी हो जाये तो छेड़ का ये सिलसिला ख़ुद-ब-ख़ुद ख़त्म हो जाएगा। इस से पहले उसका ख़ात्मा मुम्किन नहीं।

    पिछले दिनों गांधी जी ने आजकल की तालीम याफता लड़कियों के बारे में इरशाद किया था। ''एक जूलियेट के सौ-सौ रोमीयो मौजूद हैं''। इस पर लाहौर में वो शोर मचा था कि ख़ुदा की पनाह। मिस मुम्ताज़ शाह नवाज़ और दूसरी ख़्वातीन ने गांधी जी के इस हमले का बड़ी शिद्दत से जवाब दिया। बहुत देर तक मसतूरात के मज़ामीन हिन्दोस्तान के उस नियम मस्तूर लीडर के ख़िलाफ़ छपते रहे। गांधी जी टस से मस ना हुए। उन्होंने एक मज़मून और लिखा और उस में तहज़ीब-ए-नौ के गिरफ़्तार लड़कों को अपने अहिंसाई तीरों का निशाना बनाया। उन नौजवानों से गांधी जी ने कहा ''तुम बाज़ार में जब चलो तो अपनी निगाहें नीची रखा करो। अगर हो सके तो... हुड पहना करो ताकि तुम्हारी निगाहें नौजवान लड़कियों पर ना पड़ सकें और तुम्हारा ईमान मुतज़लज़ल होने से बच सके।''

    हिन्दोस्तान पर गांधी जी का असर मुसल्लम है। पर उनका ये मज़मून नौजवानों के जज़्बात पर असर-अंदाज़ ना हो सका... ख़ूबाँ से छेड़ जारी रही। निगाहों पर सेंसर ना बैठ सका। जज़्बात वैसे के वैसे बेलगाम रहे। गांधी जी की ये सई वैसे ही नाकाम रही। जैसे बंबई में इम्तिना-ए-शराब के बारे में कांग्रेस गर्वनमेंट की कोशिश।

    गांधी जी की ये कोशिश अगर बार-आवर साबित होती तो ज़रा ग़ौर कीजिए कि मुआशरती ज़िंदगी में कितना बड़ा इन्क़िलाब बरपा हो जाता... गली कूचों और बाज़ारों में आपको मर्द माथे पर हुड बाँधे और निगाहें नीची किए चलते फिरते नज़र आते। ट्रैफ़िक में कई मुश्किलात पैदा हो जातीं और हर-रोज़ हादिसे वक़ूअ पज़ीर होते और उन हादिसों का शिकार सिर्फ मर्द होते। माथे पर हुड, निगाहें फ़र्श पर, सामने से तेज़-रफ़्तार मोटर रही है। इधर उधर जवान औरतें जा रही हैं। हॉर्न पर हॉर्न बजाया जा रहा है। ना जाये रफ़्तन ना पाए माँदन। एक अजीब मुश्किल में आदमी फंस जाता। हस्पताल ज़ख़्मियों से भर जाता। वहां भी बेचारे मर्दों की आँखों पर हुड चढ़ा रहता कि किसी नर्स को ना देख पाउं।

    हुड-वुड की बात छोड़िए। रोज़मर्रा की ज़िंदगी बिलकुल बे-कैफ़ हो जाती, जज़्बात का दरिया बंद पानी की तरह ठहर जाता। उमंगें, ख़याल आराई की तमाम क़ुव्वतें, जज़्बाती हैजान, ग़रज़ कि वो सब कुछ जिससे इन्सानी ज़िंदगी में हरारत पैदा होती है, फ़ना हो जाता... औरत होती, मर्द भी होते लेकिन वो चिंगारी ना होती जो इन दोनों के तसादुम से फूटती है। जवानियों के भरे हुए जाम होंटों के लम्स को तरसते रहते। शोख़ियाँ और शरारतें बिलकुल मफ़्क़ूद हो जातीं। चारों तरफ़ मितानत और संजीदगी नज़र आती। चेहरे लंबोतरे हो जाते। उनकी ताज़गी, उनकी रौनक और उनकी दमक सब ग़ायब हो जाती। ज़िंदगी के उक्ता देने वाले यक आहंग तसलसुल में आदमी बिलकुल बे-जान और मुर्दा हो के रह जाता। मुल्क की शायरी और इसके अदब का सत्यानास हो जाता। फ़ुनून-ए-लतीफ़ा सब के सब यतीम हो जाते... मगर ये ना हुआ इसलिए कि इस का होना मुम्किन नहीं था।

    हर बालिग़ मर्द और हर बालिग़ औरत को मालूम है कि ये छेड़-छाड़ क्यों होती है। इसलिए कि ये कोई ख़िलाफ़-ए-अक़्ल चीज़ नहीं। लेकिन यहां वो चंद बयानात दिलचस्पी से ख़ाली ना होंगे जो मैंने बड़ी काविश से चंद नौजवान लड़कों और लड़कियों से छेड़-छाड़ के मुताल्लिक़ हासिल किए हैं।

    मैंने पहले ज़ैल के सवालात लड़कों के लिए तैयार किए,

    (1) तुम लड़कियों या औरतों को क्यों छेड़ते हो... क्या इस की कोई वजह तुम बयान कर सकते हो?

    (2) किस किस्म की लड़कियों या औरतों को तुम ज़्यादा छेड़ते हो?

    (3) तुम्हारे छेड़ने का तरीक़ा क्या है?

    (4) क्या तुम्हारे ख़्याल में लड़कियां या औरतें ऐसी छेड़-छाड़ पसंद करती हैं?

    (5) कोई ऐसा वाक़िया बयान करो जो इस किस्म की छेड़-छाड़ से वाबस्ता हो और जिसके नक़्श तुम्हारे ज़हन पर मुर्तसिम हो चुके हो।

    मैंने ये पाँच सवाल बारह लड़कों से किए जिनकी उम्र सोलह से लेकर चौबीस बरस के दरमियान थी। उनमें से सात लड़के जो तालीम-याफता थे, मुझे पहले सवाल का ख़ातिर-ख़्वाह जवाब ना दे सके। बाक़ी पाँच लड़कों ने इसका जवाब देने की कोशिश की, लेकिन उनके जवाब एक दूसरे से मिलते जुलते थे। जो कुछ उन्होंने इस ज़माने में कहा उस का ख़ुलासा ये है।

    ’’हम लड़कियों और औरतों को इसलिए छेड़ते हैं कि हमें इसमें मज़ा आता है। ज़्यादा मज़ा हमें उन लड़कियों को छेड़ने में आता है जो हमारी दराज़ दस्तियों के ख़िलाफ़ सदा-ए-एहतिजाज बुलंद ना कर सकें। दिल ही दिल में पेच-ओ-ताब खा कर ख़ामोश हो जाएं, गालियां उनकी ज़बान की नोक पर आकर रुक जाएं। गुस्से के इस ख़ामोश इज़हार का लुत्फ़ बयान से बाहर है... हम इसलिए उनको छेड़ते हैं... कि इस छेड़ की तहरीक हमारे अंदर ख़ुद-ब-ख़ुद पैदा हो जाती है। बाज़ औक़ात बाज़ार में चलते हुए कई ख़ूबसूरत और पुर-शबाब लड़कियां हमारे पास से गुज़र जाती हैं मगर हम उनकी तरफ़ आँख उठा कर भी नहीं देखते। दरअसल छेड़ना मूड की बात है, अगर मूड ऐसा हो तो कोई लड़की हमारी छेड़ से बच कर नहीं जा सकती। बाज़ औक़ात हमें गालियां सुनना पड़ती हैं और ख़तरनाक हादसों का सामना भी करना पड़ता है। इससे हमारी ये सरगर्मी कुछ देर के लिए मंद पड़ जाती है, मगर फिर वही सिलसिला शुरू हो जाता है... इसमें शक नहीं कि औरत की बेबसी से हम नाजायज़ फ़ायदा उठाते हैं, मगर औरत की बेबसी हमें बेबसी नज़र नहीं आती, इसलिए कि हमारी पहुंच से बहुत दूर रहती है। उसके ख़्यालात-ओ-महसूसात से चूँकि हम ग़ाफ़िल हैं, इसलिए हमें वो ऊंचे दरख़्त की टहनियों से उलझी हुई पतंग दिखाई देती है जिस पर कंकर मारने का ख़्याल ख़्वाह-मख़ाह दिल में पैदा हो जाता है... आप पूछते हैं कि हम लड़कियों को क्यों छेड़ते हैं, हम आपसे पूछते हैं कि हम लड़कियों को क्यों ना छेड़ें? अगर हम उन्हें ना छेड़ेंगे तो और कौन छेड़ेगा। हमारे और उनके ताल्लुक़ात हमेशा से कुछ इस किस्म के चले आए हैं ये छेड़-छाड़ ज़रूरी है।

    इन पाँच नौजवानों में से एक लड़का जिसकी उम्र चौबीस बरस की थी, बहुत होशियार था। उसकी सोचने समझने की क़ुव्वत दूसरों के मुक़ाबले में ज़्यादा अच्छी थी। उसने मुझसे कहा। आप कहते हैं कि हम औरतों को क्यों छेड़ते हैं? इसका जवाब तो आपको कुछ ना कुछ मिल ही जाएगा, लेकिन इसका जवाब क्या है कि मैंने परसों बाज़ार में जाते हुए एक कुत्ते की तरफ़ देखा। एक दम ना जाने मुझे क्या हुआ कि मैंने उसे आँख मार दी। अब अगर आप मुझसे पूछें कि मैंने उस को आँख क्यों मारी तो मैं आपको ख़ातिर-ख़्वाह जवाब ना दे सकूँगा। इसलिए कि मैं उस लम्हाती जज़्बे का तज्ज़िया नहीं कर सकता जो इस अजीब-ओ-ग़रीब हरकत का बाइस हुआ।

    दूसरे सवाल का जवाब आठ लड़कों ने ये दिया कि हम उन लड़कियों को छेड़ना पसंद करते हैं या उन लड़कियों को छेड़ने के लिए हमारे अंदर उकसाहट पैदा होती है। जो जवान हो और जिन्हें अपनी जवानी पर नाज़ हो। ये नाज़ उनकी चाल-ढाल में साफ़ नज़र जाता है।

    दो लड़कों ने इसी सवाल का जवाब यूं दिया। ''हम सिर्फ उन लड़कियों को छेड़ना पसंद करते हैं जो हमें ऐन मौक़े पर पसंद जाएं। बाज़ औक़ात मामूली शक्ल-ओ-सूरत और मामूली जवानी की लड़कियों को छेड़ने को दिल चाहता है और बाज़ औक़ात ग़ैर-मामूली तौर पर हसीन और तीखी लड़कियों को ही छेड़ा जाता है। ये महज़ उकसाहट की बात है। हमारा ख़्याल है ये उकसाहट लड़कियां ख़ुद पैदा करती हैं। छेड़ने का माद्दा तो हमारे अंदर मौजूद है मगर इस बारूद को आग वही दिखाती हैं...''

    बाक़ी दो लड़कों ने कहा। ''हम सिर्फ मोटी और गोल-गप्पी लड़कियों को छेड़ते रहते हैं। दुबली पतली लड़कियों को हमने कभी नहीं छेड़ा। मोटी और भारी जिस्म की लड़की को छेड़ने में बहुत मज़ा आता है।''

    उनमें से एक ने कहा। ''बाज़ार में या गली में जहां कहीं मोटी लड़की मुझे नज़र जाये मैं आँख ज़रूर मारता हूँ। इसमें एक ख़ास लुत्फ़ आता है मुझे, जिसे मैं बयान नहीं कर सकता। मुझे ऐसा मालूम होता है कि मेरी आँख उसके नर्म नर्म जिस्म में खुभ गई है। मोटी लड़कियां यूं भी ज़्यादा शर्मीली होती हैं। उनको आँख मारी जाये तो शरम से उनके गुद-गुदे गाल जब थरथराते हैं तो एक अजीब कैफ़ियत होती है''

    तीसरे सवाल का जवाब दस लड़कों ने एक जैसा दिया। उन्होंने कहा छेड़ने के तरीक़े यूं तो बहुत से हैं, लेकिन आम तरीक़ा यही है कि राह चलती लड़की को आँख मारी जाये। आँख से छेड़ना ख़तरनाक नहीं, इसलिए कि इसमें कुर्बत की ज़रूरत नहीं होती। दूर से भी आँख मारी जाये तो निशाने पर बैठती है और अपना मक़सद पूरा हो जाता है।

    आँख महज़ शरारत के तौर पर मारी जाती है, मगर इस झपक में ये सवाल भी पोशीदा होता है। ''क्या ख़्याल है तुम्हारा?'' सिर्फ एक पलक के ज़रिये से ये सवाल जिसमें हज़ार-हा साल मुंजमिद होते हैं एक सेकण्ड से कम अर्से में कर दिया जाता है। इसका जवाब आम तौर पर एक नफ़रत- अंग्रेज़ और ख़म-आलूद घबराहट होती है जो लड़की के सारे जिस्म पर चश्म-ज़दन में फैल जाती है। आँख मारना इसलिए ज़्यादा ख़तरनाक नहीं कि इस शरारत का ठोस सबूत बहम पहुंचाना बहुत मुश्किल है। ज़रा आँख झपकाई, लड़की के चेहरे पर अँगारे से बिखरे और चल दिए।

    कभी कभी कोई लड़की मुस्करा भी देती है और ये मुस्कुराहट देर तक हमें याद रहती है, इसलिए कि इस में एक ऐसी तितली के रंग होते हैं, जो हाथ नहीं सकती। बस एक लम्हे के लिए ये मुस्कुराहट हमारी आँख की झपक से तितली के हल्के फुल्के परों की तरह छूती है और फड़फड़ा कर उड़ जाती है... आँखों को छोड़ दीजिए तो जिस्म में ज़बान के अलावा सिर्फ़ हाथ बाक़ी रह जाते हैं जिनसे छेड़ा जा सकता है, हम उनसे मदद लेते हैं, लेकिन बहुत कम, इसलिए कि हाथ अक्सर इख़्तियार से बाहर निकल जाते हैं और लेने के देने पड़ जाते हैं। भीड़-भाड़ ज़्यादा हो, कोई मेला ठेला हो, खोवे से खोवा छिल रहा हो, इस अफ़रा-तफ़री में किसी लड़की को अगर गुदगुदा दिया जाये तो इतना ज़्यादा ख़तरनाक नहीं होता। नुमाइश में रात के वक़्त उस मक़ाम पर जहां ऊंची सीढ़ी पर से बाज़ीगर को नीचे आग के कुवें में छलांग लगाना होती है काफ़ी हुजूम होता है। यहां हम अक्सर लड़कियों के गुद-गुद्दियां किया करते हैं। बाज़ औक़ात अपना जिस्म उस के जिस्म से रगड़ कर हम तेज़ी से आगे निकल जाया करते हैं। कभी कभी कांधे से हल्का सा धक्का भी दे दिया जाता है। बस हम सिर्फ यही तरीक़े इस्तेमाल करते हैं।''

    बाक़ी दो लड़कों में से एक ने कहा। ''मैंने आज तक किसी लड़की को आँख नहीं मारी''। मैं इतना ज़रूर जानता हूँ कि आँख मारी जाती है और मैंने कभी लड़कियों को आँख नहीं मारी। मैं इतना ज़रूर जानता हूँ कि आँख मारी जाती है और मैंने कई लड़कों को आँख मारते भी देखा है, मगर मैं कोशिश के बावजूद ये चीज़ सीख नहीं सका। मैं जब कभी एक आँख सिकोड़ने की कोशिश करता हूँ तो मेरी दूसरी आँख भी बंद हो जाती है। मैं इसी वजह से किसी को आँख नहीं मारता। मैंने हाथ से भी आज तक किसी लड़की को नहीं छेड़ा। मेरा छेड़-छाड़ का तरीक़ा सबसे जुदा और अनोखा है। मैं राह चलती लड़कियों से वक़्त पूछा करता हूं। इससे मुझे बहुत लुत्फ़ हासिल होता है। वक़्त मैं सिर्फ उन्ही से पूछता हूँ जिनकी कलाई पर घड़ी बंधी हो। आज तक किसी लड़की ने मुझे वक़्त बताने से इनकार नहीं किया, लेकिन बहुत कम लड़कियां मुझे घड़ी देखकर वक़्त बता सकती हैं। इसलिए कि एकदम जिस किसी लड़की से वक़्त पूछा जाये तो वो सख़्त घबरा जाती है। इस घबराहट में वो इनकार भी नहीं कर सकती। मैं ख़ुद अपने आपको घबराया हुआ ज़ाहिर करता हूँ जैसे मुझे एक ख़ास वक़्त पर कहीं पहुंचना है। इस किस्म की इज़तिरारी कैफ़ियत अपने ऊपर तारी कर के मैं इधर उधर परेशानी के आलम में देखा करता हूं, फिर जैसे अचानक मेरी निगाहें उस की घड़ी पर जा पड़ी हैं। मैं पूछा करता हूं। ''माफ़ फ़रामइएगा, आपकी घड़ी में क्या वक़्त है?'' बस वक़्त पूछा, जो कुछ उसने बताया सुना और तेज़ क़दमों से चल दिए। बाज़ औक़ात शुक्रिया अदा कर दिया और बाज़ औक़ात मस्नूई घबराहट में ये भी भूल गए। पाँच बरस के अर्से में एक सौ सत्तावन लड़कियों से मैं वक़्त पूछ चुका हूं। एक बार जिससे मैं वक़्त पूछता हूं। उस की शक्ल-ओ-सूरत अच्छी तरह याद रखता हूँ ताकि फिर उससे वक़्त ना पूछूँ।''

    दूसरे लड़के ने इसका जवाब यूं दिया। ''मुझे सिर्फ ज़बानी छेड़-छाड़ पसंद है। मैंने पाँच छः बार आँख भी मारी होगी, मगर ज़्यादा लुत्फ़ मुझे ज़बानी छेड़-छाड़ में आता है। बाज़ार में किसी लड़की पर ऐसा फ़िक़रा कसना कि सिर्फ वही समझे, आस-पास के लोग ना समझें यक़ीनन एक फ़न है, मगर ऐसे फ़िक़रे हर रोज़ नहीं कसे जा सकते। दिमाग़ रौशन और हाज़िर हो। कोई मुहर्रिक मिल जाये तो फ़िक़रा कसने में ऐसा लुत्फ़ आता है कि मैं बयान नहीं कर सकता।''

    चौथे सवाल का जवाब नौ लड़कों ने बिलकुल एक जैसा दिया। ''हमारा ख़्याल है कि लड़कियां हमारी छेड़-छाड़ को पसंद नहीं करतीं, इसलिए कि औरत और मर्द के दरमियान उस वक़्त तक मुफ़ाहमत का कोई रिश्ता पैदा नहीं हो सकता जब तक वो मियां बीवी ना बन जाएं। औरत मर्द की तरफ़ यूं देखती है जैसे बकरी क़साई की तरफ़... मर्द का तसव्वुर हमेशा औरतों को अस्मत के तने हुए रस्से पर खड़ा कर देता है। ऐसा हो सकता है कि बाज़ औक़ात हमारी ये छेड़-छाड़ महज़ एक मासूम तफ़रीह के लिए हो मगर औरत इस मासूम तफ़रीह को भी ख़तरनाक तौर पर गुनाह और सवाब के तराज़ू में तोलेगी... सच पूछिए तो हमारे पेश-ए-नज़र सिर्फ़ औरत होती है, जो कुछ उसके अक़ब में है हमने उस पर कभी ग़ौर नहीं किया... वो अगर ख़ुश नहीं होती है तो ना हो, अगर नाराज़ होती है तो हुआ करे हमारी ये छेड़ जारी रहेगी।

    दो लड़कों ने इस सवाल का जवाब यूं दिया। ''औरतें हमारी छेड़-छाड़ पसंद करती भी हैं और नहीं भी करतीं। दरअसल औरत हाँ और ना का एक निहायत ही दिलचस्प मुरक्कब है। यही वजह है कि हम उसे पसंदीदगी की नज़र से देखते हैं, अगर इसमें हाँ और ना का ये उलझाओ ना होता तो हम उसे कभी ना छेड़ते। इनकार और इक़रार कुछ इस तरह औरत के वजूद में ख़लत -मलत हो गया है कि बाज़-औक़ात इक़रार इनकार मालूम होता है और इनकार इक़रार... हमें तो उसी चीज़ ने मार रखा है।''

    एक लड़के ने इस सवाल का जवाब बिल्कुल मुख़्तलिफ़ तौर पर दिया। ''अजी साहिब छोड़िए। लड़कियां इस छेड़-छाड़ को बहुत पसंद करती हैं। औरत की जवानी और मर्द की जवानी में लंबा चौड़ा फ़र्क़ ही क्या है। बस यही ना कि वो शलवार क़मीस या साड़ी पहन कर जवान होती है और हम पतलून कोट के अंदर जवान हो जाते हैं... मैं तो सिर्फ़ इसलिए लड़कियों को छेड़ता हूँ कि वो उसे पसंद करती हैं... जब हम उन्हें छेड़ते हैं तो वो तख़लिए में अपनी सहेलियों को अपने तास्सुरात ज़रूर बताती हैं। ये तास्सुरात उन सहेलियों पर अजीब-ओ-ग़रीब कपकपाहटें तारी करते हैं। आपको मालूम नहीं और ना मुझे मालूम है मगर मैं महसूस करता हूं कि हमारी फूँकों से लड़कियों के कुंवारे-पन की लौ लरज़ती है तो एक अजीब ही कैफ़ियत पैदा होती है, अगर इस हक़ीक़त का एहसास मुझे ना होता तो मैं हरगिज़ हरगिज़ किसी लड़की को ना छेड़ता।''

    अब मैं आख़िरी सवाल के जवाबात की तरफ़ आता हूं। हर लड़के ने एक वाक़िया बयान किया जो इस किस्म की छेड़-छाड़ से मुताल्लिक़ था, मगर उनमें से सिर्फ चंद इस काबिल हैं कि यहां दर्ज करूँ। अक्सर वाक़ियात कुछ इस किस्म के थे... एक लड़की को छेड़ा गया। उसने शोर मचा दिया जिसके बाइस छेड़ने वाले की बहुत बदनामी हुई। वग़ैरा वग़ैरा।

    सबसे दिलचस्प दास्तान उस लड़के ने मुझे सुनाई। जिसने एक-बार कुत्ते को आँख मारी थी। उसने कहा। ''आज से चार बरस पहले का ज़िक्र है। अमृतसर में कांग्रेस तहरीक के बाइस धड़ा-धड़ गिरफ्तारियां हो रही थीं। जलियांवाला बाग़ में तलबा और दूसरे लोगों का एक मेला सा लगा रहता था। एक रोज़ जब कि मैं उस बाग़ में जाने के लिए बाज़ार तै कर रहा था, मेरी निगाह बग़ैर किसी मतलब के ऊपर को उठी। एक साल-खुर्दा मकान की बालकोनी में मुझे एक सफ़ेद पगड़ी नज़र आई। मैंने एक लम्हे के लिए समझा कि कोई सिख होगा, पर जब वो पगड़ी ऊंची हुई तो मेरी हैरत की कोई इंतिहा ना रही, जब मैंने साँवले रंग की एक तीखे नक़्शों वाली लड़की को देखा उसने सर पर पगड़ी बांध रखी थी। आहनी जंगले में से इस का चूड़ीदार पाजामा भी मुझे नज़र आया। कम्बख़्त ने अचकन भी पहन रखी थी, जो उसके बहुत फंस कर आई थी। उसने मेरी तरफ़ जब देखा तो मैंने बुलंद आवाज़ में कहा। 'तस्लीम अर्ज़ करता हूँ।' ये सुनकर वो बौखला सी गई। एक खिसियानी सी शर्म आलूद हंसी उसके होंटों पर फैली और मेरी तेज़ निगाहों से पहलू बचा कर अंदर कमरे में चली गई।

    जलियांवाला बाग़ में स्टूडेंट यूनियन कैंप के अंदर जा कर मैंने अपने चंद दोस्तों को ये वाक़िया सुनाया तो मुझे मालूम हुआ कि वो लड़की एक कांग्रेस वर्कर की बीवी है जो तीन-चार रोज़ से क़ैदख़ाने में है। लड़की की शादी को मुश्किल से चार पाँच महीने हुए थे। ख़ाविंद की गिरफ़्तारी के बाद अब वो अकेली उस मकान में रहती थी। ये तमाम बातें जब मुझे मालूम हो गईं तो मैं सीधा अपने घर रवाना हुआ जो वहां से दूर नहीं था। घर जाकर अपने कमरे को बंद कर के मैंने बलाउज़ पहना। बलाउज़ के नीचे मैंने रबड़ की गेंद के दो टुकड़े कर के सीने पर जमा लिए। पेटीकोट पहना, फिर साड़ी पहनी। उस ज़माने में मेरे बाल बहुत लंबे थे। सीधी मांग निकाल कर मैंने चंद लटें इधर और उधर छोड़ दीं। उन दिनों औरतों में चप्पल पहनने का रिवाज आम था, चुनांचे मैंने अपना चप्पल ही पांव में रहने दिया। ये सब कुछ करने के बाद जब मैंने आईने में अपने आपको देखा तो मुझे ख़ुद पर औरत का धोका होने लगा। लिबास आदमी को कितना तब्दील करता है... ख़ैर, बहन का बुर्क़ा ओढ़ कर मैं चला। गली में कई बार मुझे ठोकरें लगीं। इसलिए कि बुर्क़ा पांव में उलझ उलझ जाता था। औरतों की चाल भी मुझसे नहीं चली जाती थी। इसके अलावा ये ख़्याल भी दामनगीर था कि कोई रास्ते में भाँप लेगा तो बहुत ख़फ़ीफ़ होना पड़ेगा। बहरहाल इन तमाम मुश्किलात के होते हुए मैंने तीन बाज़ार तै किए और उस मकान पर पहुंच गया। हलवाई की दुकान के साथ ही उस मकान की सीढ़ियां थीं मैंने मुँह पर से बुर्क़ा ज़रा ऊंचा किया और ऊपर चढ़ गया। दिल मेरा धक-धक कर रहा था। ऐसा मालूम होता था कि बस कोई दम में सीने से निकल कर सीढ़ियों पर पड़ेगा लेकिन शरारत का तसव्वुर इस कमज़ोरी पर ग़ालिब आया। मैंने दस्तक दी और दस्तक देते ही सोच लिया, अगर कोई मर्द सामने गया तो मैं कुछ कहे सुने बग़ैर नीचे चला आऊँगा और अगर ज़रूरत पड़ी तो आवाज़ में बारीकी पैदा कर के कह दूँगा। माफ़ कीजिएगा, मैं ग़लती से इधर चली आई... चुनांचे ये सोचते ही मैंने एक बार और दरवाज़ा खटखटाया। क़दमों की चाप सुनाई दी। मुझे ऐसा मालूम हुआ कि मेरा दिल पहलू से निकल कर अंदर कमरे के फ़र्श पर चल रहा है। मैंने सोचा कि भाग जाऊं, पर अंदर से कुंडी खुल चुकी थी। मैंने उठा हुआ बुर्क़ा नीचे छोड़ लिया। दरवाज़ा खुला। वो लड़की मेरे सामने थी। मुझसे ज़्यादा बौखलाई हुई। सर के बाल परेशान हो रहे थे। मर्दाना क़मीज उसने पहन रखी थी। पाजामा वही था चूड़ीदार। कांधे पर उसने दुपट्टा बड़ी बे-तरतीबी से डाल रखा था। बुर्क़ा पोश औरत को देखकर उसके होश बजा हुए। मेरे भी सांस में सांस आया। उसने कहा 'अंदर जाइए' मैं बेधड़क अन्दर चला गया। एक बड़ा कमरा था। उस को तै कर के हम दूसरे कमरे में पहुंचे जो बहुत ही छोटा था। उसमें दो कुर्सियाँ और एक चारपाई पड़ी थी। उस चारपाई पर मुझे वो अचकन दिखाई दी जिसको उसने पहन रखा था। उसकी एक आसतीन उलटी हुई थी। पास ही सफ़ेद पगड़ी धरी थी। उसने कई बार मुझे सर-तापा देखा। मेरी आमद उसके लिए एक मुअम्मा बनी हुई थी। उस छोटे कमरे में पहुंचकर उसने मुझसे कहा 'तशरीफ़ रखिए' और ये कह कर उसने कुर्सी पर से चंद किताबें उठा कर चारपाई पर रख दीं। मैं उस कुर्सी पर बैठ गया। अब मेरी परेशानी किसी हद तक दूर हो गई थी मगर मेरा ध्यान दरवाज़े की तरफ़ था जो वो खुला छोड़ आई थी। बेशुमार ख़्यालात मेरे दिमाग़ में रहे थे। जब मैं कुर्सी पर बैठ गया तो उसने मेहमान नवाज़ाना अंदाज़ में कहा। 'बुर्क़ा उतार लीजिए, मैंने उसके जवाब में इधर उधर देखा तो उसने मुझे यक़ीन दिलाते हुए कहा। ''यहां मेरे सिवा कोई नहीं''। मैं दिल ही दिल में इरादा कर चुका था कि कोई बात ना करूँगा, मगर ये अलफ़ाज़ ग़ैर इरादी तौर पर मेरे मुँह से निकल गए। “आप बाहर का दरवाज़ा बंद कर दीजिए।'' लहजा मेरा अपना था, मगर उसे शक ना हुआ। वो फ़ौरन उठी और दरवाज़ा बंद करने चली गई। मैंने इस दौरान में हालात पर ग़ौर किया और चेहरे पर से नक़ाब हटा ली। सर मेरा बुर्के की टोपी में था। दोनों कान भी उसमें छिपे हुए थे। चेहरा बालों से बे-नियाज़ था। इसलिए मैंने सोचा कि इसको सदमा अचानक नहीं पहुँचेगा। दरवाज़ा बंद करके वो आई। मैंने मुँह दूसरी तरफ़ मोड़ लिया। वो चारपाई पर बैठी और बैठते ही उठ खड़ी हुई जैसे भिड़ ने उसे काट खाया है। मेरी तरफ़ देखकर उसके मुँह से मद्धम सी चीख़ निकली... अंग्रेज़ी ज़रब-उल-मसल के मुताबिक़ बिल्ली बैग में से निकल चुकी थी। मैंने बुर्क़ा उतार दिया। उसकी टांगें चूड़ीदार पाजामे में काँप काँप गईं। मेरी जुरर्त बढ़ गई। मुस्करा कर मैंने कहा। 'आदाब अर्ज़ करती हूं।' वो मुझे पहचान गई थी और ख़ौफ़ ने उसको झंजोड़ दिया था। मैंने उसकी ख़ौफ़ज़दा आँखों में आँखें डाल कर कहा। ''आपको मर्दाना लिबास ख़ूब सजता है, क्या मेरे बदन पर आपका ये लिबास अच्छा नहीं लगता'' उसकी समझ में नहीं आता था कि क्या करे, अगर छत नीचे रहती या आसमान से नागहानी तौर पर बिजली गिर पड़ती तो उसको इतना ख़ौफ़नाक ताज्जुब कभी ना होता जितना कि मेरी आमद पर उसे हुआ। उसकी ज़बान बिल्कुल गूंगी हो गई थी, अगर वो चीख़ना भी चाहती तो नाकाम रहती। उसकी ये हालत देखकर मुझे तरस आया चुनांचे मैंने अपना बुर्क़ा उठा कर कहा।

    ''घबराइए नहीं, मैं अब चलता हूँ। मज़ाक़ ख़त्म हो गया।'' जब मैंने वहां से चलने का क़सद किया तो उसने लरज़ा आवाज़ में कहा।

    ''ज़रा ठहरिए।''

    उसने मेरे बलाउज़ की तरफ़ देखा जिसमें से गेंद के टुकड़े नीचे ढलक आए थे। शरम से उसके कान की साँवली लवें सुर्ख़ी माइल हो गईं, लेकिन बे-इख़्तियार उसको हंसी गई। मैं भी हंस पड़ा। इससे उसका ख़ौफ़ कुछ दूर हुआ, चुनांचे उसने ग़ैर लरज़ां आवाज़ में कहा। ''आप इस लिबास में घर वापिस जा सकेंगे।''

    मैंने जवाब दिया। ''क्यों नहीं...? आया भी तो इसी लिबास में था।''

    लेकिन ये कहते ही एकदम अंदरूनी तौर पर मुझे महसूस हुआ कि मैं इस लिबास में हरगिज़ हरगिज़ एक क़दम भी ना उठा सकूँगा।

    उसने मेरा जवाब सुनकर कहा। ''आप सोच लीजिए।''

    और जब मैंने सोचना शुरू किया तो ये एहसास और ज़्यादा पुख़्ता होता गया। मैंने सोचा कि साड़ी उतार दूं, लेकिन बलाउज़ और पेटीकोट में बिलकुल स्टेज का मस्ख़रा बन जाता, फिर ख़्याल आया कि सब कुछ उतार दूं और साड़ी का तहमद बना लूं, मगर यूं लोगों की निगाहें और भी मेरी तरफ़ उठतीं। फिर सोचा कि जैसे आया था वैसे ही चलूं, मगर बुर्के का तसव्वुर अब एक बहुत बड़ा बोझ महसूस होने लगा। मैंने घबरा कर उससे कहा, अगर आप इजाज़त दें तो यहां थोड़ी देर बैठ जाऊं।

    उसने मेरी दरख़ास्त रद्द ना की। ''तशरीफ़ रखिए'' लेकिन फ़ौरन ही उसे कोई ख़्याल आया और वो मुज़्तरिब हो गई। ''आप अब तशरीफ़ ले जाइए। मेरे फ़ादर इन ला आने वाले हैं। मैं भूल ही गई थी। जाइए, यहां से जल्दी चले जाइए।''

    मैं इस क़दर घबरा गया कि मुझे महसूस हुआ कि मेरे सारे कपड़े उतार कर किसी ने मुझे नंगा कर दिया है। मैं बजाय उठने के और जम कर कुर्सी पर बैठ गया। ये देखकर उसने मुझसे ज़्यादा घबरा कर कहा। “मेरे फ़ादर इन ला आने वाले हैं... बस अब वो आते ही होंगे... आप चले जाइए।”

    मुझे अपने आप पर गु़स्सा रहा था, उसी गुस्से में उससे मैंने तेज़ लहजे में कहा। “तो मैं क्या करूँ। इस लिबास में मुझसे एक क़दम भी नहीं उठाया जाएगा।”

    मौक़ा की नज़ाकत के बावजूद उसे हंसी गई, लेकिन मेरी संजीदगी वैसी की वैसी क़ायम रही। उसने चंद लम्हात ग़ौर किया और फिर कहा। “आप ये अचकन पहन लीजिए। मैं आपको क़मीज और पाजामा निकाल देती हूँ, मगर परमात्मा के लिए जल्दी कीजिए। अब कुछ सोचिए नहीं।”

    उसने मेरे जवाब का इंतिज़ार ना किया। चारपाई के नीचे से एक ट्रंक खींच निकाला, उसमें से जल्दी जल्दी उसने एक क़मीस निकाली। पाजामा वो देर तक ढूंढती रही मगर उसे ना मिला। मैं इस दौरान में बलाउज़ उतार कर क़मीज़ पहन चुका था। जब पाजामा ना मिला तो उसने कहा। “आप यहीं ठहरिए, मैं ये पाजामा उतार कर आपको दे देती हूँ।” ये कह कर वो फुर्ती से दूसरे कमरे में चली गई। दो मिनट शदीद किस्म के इज़तिराब में गुज़रे। उसके बाद वो आई। पाजामा देकर वो बाहर चली गई। ''अब जल्दी पहन लीजिए।''

    मैंने अफ़रा-तफ़री में ये पाजामा पहना। चूँकि चूड़ियां काफ़ी ज़्यादा थीं। इसलिए खींच-तान कर पूरा ही गया। इतने में आवाज़ आई। ''पहन लिया?''

    मैंने कहा। ''हाँ पहन लिया''

    ये सुनकर वो अंदर आई और कहने लगी। “परमात्मा के लिए यहां से चले जाइए... मुझे डर है कि वो कहीं ना जाएं।”

    मैंने अचकन पहनी। बुर्क़ा हाथ में लिया और वहां से चलने ही वाला था कि उसने कहा। “ये साड़ी वग़ैरा तो लेते जाइए।”

    मैंने बलाउज़, साड़ी, पेटीकोट और रबड़ की गेंद के दोनों टुकड़ों की तरफ़ देखा और बाहर निकलते हुए कहा। “ये सब चीज़ें यहीं पड़ी रहे।” उसने इसके जवाब में कुछ ना कहा। मैं दरवाज़े तक पहुंच गया। वो मेरे साथ साथ आई जब दरवाज़ा खोल कर मैं बाहर निकला तो उसने मुस्कुरा कर कहा। ''आदाब अर्ज़ करता हूँ...” इसके बाद मेरी उससे मुलाक़ात ना हुई, क्योंकि वो दूसरे रोज़ ही कहीं चली गई, ना मालूम कहाँ। मैंने उसकी बहुत खोज लगाई मगर कुछ पता ना चला, उसकी अचकन और पाजामा अभी तक मेरे पास महफ़ूज़ पड़ा है। शायद मेरी साड़ी, बलाउज़ और पेटीकोट भी उसके पास अभी तक महफ़ूज़ हो और गेंद के वो दो टुकड़े भी। मैं इस बारे में कुछ नहीं कह सकता। मगर ये वाक़िया ऐसा नहीं कि हम दोनों में से कोई भूल सके।

    उस लड़के ने जिसको राह चलती लड़कियों से वक़्त पूछने में मज़ा आता था। ज़ैल का वाक़िया बयान किया।

    “मैं जब बंबई गया तो वहां सड़कों पर अनगिनत लड़कियां देखकर मेरी तबियत बहुत ख़ुश हुई। क्योंकि उनमें से अक्सर अपनी कलाइयों पर घड़ी बांधती थीं। एक रोज़ का ज़िक्र है, नाग पाड़ा में जहां यहूदियों की आबादी है, फुटपाथ पर मैंने एक पारसी लड़की देखी। जो बड़ी तेज़ क़दमों से सामने बाटली वाले हस्पताल की तरफ़ बढ़ रही थी। उसकी गोरी गोरी कलाई पर काले तस्मे के साथ घड़ी बंधी थी। उसके और मेरे दरमियान क़रीबन एक फ़र्लांग का फ़ासला था जो मैंने चुटकियों में तै कर लिया। उससे दो क़दम आगे निकल कर मैं दफ़्फ़ातन मुड़ा। ''तुम्हारी घड़ी माकटलावा गा?' मैंने उससे गुजराती ज़बान में वक़्त पूछा। उसने अपनी कलाई ऊंची की तो घड़ी नदारद। मारी घड़ियाँ काँ छे।' उसने घबरा कर कहा। मेरी गुजराती ख़त्म हो गई। मैंने उसे हिन्दुस्तानी में जवाब दिया। “आपकी घड़ी मुझे क्या मालूम कहाँ है।” साहब उसने तो चिल्लाना शुरू कर दिया। एक तो गुजराती ज़बान, इस पर उस पारसी लड़की का चीख़ चीख़ कर बोलना, मेरे औसान ख़ता हो गए। घड़ी मैंने चंद मिनट पहले उस की कलाई पर देखी थी, पर अब एकदम ख़ुदा मालूम कहाँ ग़ायब हो गई थी। वो बराबर कहे जा रही थी। ''तुमे इज लेदी हिस्से।'' यानी तुमने ही ली है और मैं उसे बेसूद यक़ीन दिलाने की कोशिश कर रहा था। मैंने आपकी घड़ी नहीं ली है, अगर मैंने आपकी घड़ी ली होती तो आपसे वक़्त ही क्यों पूछता... उस को भी छोड़िए मैंने घड़ी आपकी कलाई से कैसे उतार ली।

    उस का शोर-सुनकर कर फुटपाथ पर कई यहूदी और क्रिस्चन जमा हो गए। मैं उनमें घिर गया। भांत भांत की बोलियाँ शुरू हो गईं। कभी मैं अंग्रेज़ी में अपनी बेगुनाही साबित करता कभी हिन्दुस्तानी में। मगर सब उसी के तरफ़दार थे। मैं सख़्त घबरा गया। क़रीब था कि मैं उन सबसे कह दूं। “तुम जाओ जहन्नुम में। नहीं मानते तो ना मानो।” कि मेरी निगाह सड़क पर एक छोटे से बच्चे पर पड़ी उसके हाथ में मुझे काला फ़ीता नज़र आया। काले फीते के साथ घड़ी भी लटक रही थी मैं चिल्लाया। ''वो देखो, उस बच्चे के हाथ में क्या है?''

    सबसे पहले उस लड़की ने बच्चे की तरफ़ देखा और कहा, ''मेरी घड़ी।”

    बच्चे के हाथ में घड़ी उसी की थी। एक बूढी यहूदन ने बढ़कर उस बच्चे से घड़ी ली और उस पारसी लड़की को दे दी। मैंने कोई बात करनी मुनासिब ना समझी इसलिए कि उस वक़्त मैं अपने आपको हीरो समझ रहा था।

    उस लड़के ने जिसका ये कहना था कि लड़कियां छेड़-छाड़ पसंद करती हैं। ये वाक़िया बयान किया।

    जैसा कि मैं अर्ज़ कर चुका हूँ कि लड़कियां हमारी छेड़-छाड़ पसंद करती हैं बल्कि बाज़-औक़ात तो वो हमें दावत देती हैं कि हम उन्हें छेड़ें। इस वाक़िये से जो मैं अब बयान करने वाला हूँ, आप उसकी तस्दीक़ कर सकेंगे। आज से अढ़ाई बरस पहले का ज़िक्र है जब मेरे ख़्यालात आज से मुख़्तलिफ़ थे। उन दिनों मुझ पर किसी से इश्क़ करने की धुन सवार थी। चुनांचे हर वक़्त उदास उदास रहता था। ऐसा मालूम होता था कि मेरे सारे वजूद पर एक ना-क़ाबिल-ए-बयान इज़मेहलाल तारी है। ये उदासी और ये इज़मेहलाल उस रोज़ बहुत ही ज़्यादा बढ़ गया जब मुझे अपने एक दोस्त से मालूम हुआ कि वो गली में एक लड़की से इश्क़ लड़ा रहा है। उसके इश्क़ की दास्तान सुनकर मुझे बेहद अफ़सोस हुआ। इस क़दर शक आया कि मेरी आँखो में आँसू भर आए। अब मैंने इरादा कर लिया कि हर रोज़ उस गली से गुज़रा करूँगा और उसी लड़की से राब्ता करने की कोशिश करूंगा। ये इरादा मैंने इसलिए किया कि मेरी नज़र में कोई ऐसी लड़की थी ही नहीं जिससे इस किस्म का रिश्ता पैदा किया जा सकता हो।

    सो जनाब, मैं पंद्रह बीस रोज़ तक मुतवातिर एक ही वक़्त पर उस गली में से गुज़रता रहा। वो लड़की इस दौरान में मुझे कई बार नज़र आई। हर मर्तबा उसने मेरी तरफ़ देखा, मगर बात उस से ज़्यादा ना बढ़ सकी।

    एक रोज़ दोपहर को जब कि गली बिल्कुल ख़ाली थी, मैं उधर से गुज़रा। जब मैं मोड़ मुड़ा तो मस्जिद के पास दफ़्फ़अतन एक बुर्क़ा पोश औरत मुझे नज़र आई। मैं जब उसके पास से गुज़रा तो उसने बुर्के से हाथ निकाल कर मेरा बाज़ू पकड़ लिया और बुलंद आवाज़ में कहा।

    ’’क्यों वे गश्तेआ, तूं हर रोज़ ईधर दे फेरे क्यों करना ईं।''

    उसका मतलब ये था कि आवारागर्द कहीं के तू हर रोज़ यहां के फेरे क्यों करता रहता है... मेरे औसान ख़ता हो गए। ब-ख़ुदा, मेरी टांगें काँपने लगीं। मेरा हलक़ ख़ुश्क हो गया। मैं बमुश्किल ये कह सका। ''मैं... मैं... मैं तो कभी इधर से नहीं गुज़रता।”

    वो हंसी, बुर्के की जाली में से उसकी आँखें मुझे नज़र आईं। मेरा ख़ौफ़ दूर हो गया। मैंने अपना बाज़ू छुड़ा लिया और उसके कूल्हे पर इस ज़ोर से चुटकी भरी कि वो बिल-बिला उठी। ''अल्लाह कर के मर जाएं... तेरा कुछ ना रहे” इस का मतलब ये था कि ख़ुदा करे तू मर जाये... तेरा कुछ बाक़ी ना रहे। मेरा सब कुछ बाक़ी रहा, वो भी बाक़ी रही इसलिए कि मेरा ख़ौफ़ दूर हो गया था और उसकी ख़फ़गी ना रही।''

    स्रोत:

    Manto Ke Mazameen (Pg. 9)

    • लेखक: सआदत हसन मंटो
      • प्रकाशक: साक़ी बुक डिपो, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1997

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