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क्लासिकी उर्दू शायरी और मिली-जुली मुआशरत

गोपी चंद नारंग

क्लासिकी उर्दू शायरी और मिली-जुली मुआशरत

गोपी चंद नारंग

MORE BYगोपी चंद नारंग

    शायरी को मन की मौज कहा गया है यानी ये अलफ़ाज़ के ज़रिए इज़हार है दाख़िली कैफ़ियात और जज़्बात का। दाख़िली कैफ़ियतें आलमगीर होती हैं, मसलन मोहब्बत और नफ़रत, ग़म और ख़ुशी, उम्मीद और ना-उम्मीदी, हसरतों का निकलना या उनका ख़ून हो जाना। ये सब जज़्बे और तख़य्युली तजुर्बे की मुख़्तलिफ़ सूरतें हैं। जुग़राफ़ियाई या समाजी हद-बंदियों से इनका कोई तअल्लुक़ नहीं।

    शायरी ज़माँ या मकाँ की पाबंद नहीं होती। इंसान कहीं भी हो, उसका तअल्लुक़ ख़्वाह किसी मुआशरे से हो, दर्द में अगर सच्चाई और ख़ुलूस है तो वो उससे मुतास्सिर होगा। लेकिन शायरी सिर्फ़ जज़्बात ही जज़्बात नहीं, इसमें आसार-ओ-वाक़िआत का परतौ भी देखा जा सकता है। हर ज़बान की शायरी का अपना एक मिज़ाज होता है, उसकी अपनी फ़िज़ा होती है, अपना माहौल और अपना पस-ए-परदा होता है जिससे वो अपनी ज़ेहनी तस्वीरों के लिए रंग-ओ-आहंग हासिल करती है, उस फ़िज़ा और उस माहौल का तअल्लुक़ मुआशरत से है। इस लिहाज़ से किसी भी ज़बान की शायरी अपने माहौल और मुआशरत से बे-नियाज़ नहीं रह सकती।

    चुनाँचे क़दीम उर्दू शायरी से भी अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी की हिंदुस्तानी मुआशरत को समझने के लिए मदद ली जा सकती है। ग्यारहवीं सदी में जब हिन्दुओं और मुसलमानों का बाक़ायदा साबिक़ा शुरू हुआ तो बाहमी इश्तिराक-ओ-इख़्तिलात से एक नया मुआशरा वुजूद में आने लगा। मुग़लों के अहद-ए-हुकूमत में हिन्दू और मुसलमानों दोनों में मज़हब के ज़ाहिरी इख़्तिलाफ़ के बावजूद अवाम की सतह पर बातिनी यक-रंगी और अंदुरूनी वहदत पैदा हो चुकी थी और एक मिली-जुली मुआशरत वुजूद में रही थी। हमारी उर्दू शायरी उसी मख़्लूत मुआशरत की देन है।

    मुआशरत के कई पहलू हैं। रहन सहन, आदाब-ओ-अख़लाक़, रस्म-ओ-रिवाज, ख़ुराक-ओ-पोशाक, मेले-ठेले, तेज-तेहवार वग़ैरा। हम पहले तेहवारों को लेते हैं। हिंदुस्तान में मौसमों के लिहाज़ से तेहवारों के दो हिस्से किए गए हैं। पहले हिस्से के तेहवारों का आग़ाज़ रक्षा बंधन से होता है। इसका असली मुद्दआ ये था कि बरसात की तबाह-कारियों से महफ़ूज़ रहने के लिए दुआ माँगी जाए। उस रोज़ ब्रह्मन यज्ञ और रियाज़त के बाद ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की हिफ़ाज़त के लिए राखी यानी तावीज़ तक़सीम करते हैं।

    बहन की तरफ़ से भाई को राखी बाँधने का रिवाज निस्बतन नया है। ग़ालिबन इसका आग़ाज़ राजपूतों से हुआ। हिन्दुओं और मुसलमानों में इत्तिहाद-पसंदी के रिश्तों को मज़बूत करने में इस तेहवार का बड़ा हाथ रहा है। हुमायूँ के अहद-ए-हुकूमत में जब बहादुर शाह वाली-ए-गुजरात ने उदयपुर पर हमला किया तो रानी कर्नावती ने राखी भेज कर हुमायूँ से मदद की गुज़ारिश की। गो हुमायूँ के पहुँचने से पहले चित्तौड़ फ़तह हो गया था और रानी जौहर करके सती हो चुकी थी, लेकिन हुमायूँ ने बहादुर शाह का तआक़ुब करके उसे गुजरात से बाहर निकाल दिया, जिसके कुछ मुद्दत बाद वो मारा गया।

    अकबर ने राजपूतों से इज़्दिवाजी तअल्लुक़ात क़ाइम करके बाहमी मोहब्बत की इस रिवायत को फ़रोग़ दिया। चुनाँचे राखी को सलोनो (साल-ए-नौ) का नाम अकबर ही के ज़माने में दिया गया। इस तेहवार से मुग़लों की मज़ीद मोहब्बत का सबूत ब्रह्मनी राम कुंवर के शाही तअल्लुक़ात से मिलता है। उस ब्रह्मनी ने शाह आलमगीर सानी की लाश को जमुना की रेती पर पड़ा पाया था और सारी रात उसका सर अपने ज़ानू पर लिए बैठी रही थी। सलोनो के सिलसिले में हिन्दुओं और मुसलमानों के इस मेल-जोल की तस्दीक़ नज़ीर अकबराबादी की नज़्म 'राखी' से ब-ख़ूबी हो जाती है। नज़ीर मख़्लूत मुआशरत के आसार-ओ-कवाइफ़ की मंज़र-कशी में अपना जवाब नहीं रखते,

    फिरें हैं राखीं बाँधे जो हर दम हुस्न के मारे

    तो इनकी राखियों को देख जाँ चाव के मारे

    पहन ज़ुन्नार और क़श्क़ा लगा माथे उपर बारे

    नज़ीर आया है बाह्मन बन के राखी बाँधने प्यारे

    बंधा लो इससे तुम हँस कर अब इस तेहवार की राखी

    तेहवारों के इस पहले सिलसिले का ख़ातिमा दीवाली पर और दूसरे का होली पर होता है। दीवाली की हर रात चिराग़ाँ किया जाता है, होली दिन में मनाई जाती है। इस मौक़े पर ख़ुशी और कामरानी का इज़हार एक दूसरे पर रंग डाल कर किया जाता है। दीवाली की तक़रीब में मुसलमान बादशाह भी शरीक होते थे। शाह आलम आफ़ताब के हिन्दी उर्दू कलाम से साबित होता है कि क़िला-ए-मुअल्ला में दीवाली भी ईद, बक़रईद, आख़िरी चार शंबा और उर्सों की तरह बड़ी धूम-धाम से मनाई जाती थी। अमावस के रोज़ सरस्वती के पूजन का इल्तिज़ाम किया जाता था, जा-ब-जा चिराग़ जलाए जाते थे। आतिश-बाज़ी के तमाशे होते थे, औरतें सोलह सिंगार करती थीं और मंगल-गान होते थे।

    इससे ज़ाहिर है कि आज से दो सौ बरस पहले हिंदुस्तान के मक़ामी तेहवार महज़ मज़हबी मरासिम नहीं समझे जाते थे बल्कि समाजी मेल-जोल और बाहमी रवादारी का मुरक़्क़ा बन गए थे, दीवाली और शब-ए-बरात में एक हद तक यक-रंगी पैदा हो गई थी और दीवाली की तरह शब-ए-बरात की आतिश-बाज़ीयाँ भी रिवाज का हिस्सा थीं। सैयद अहमद देहलवी ने 'रुसूम-ए-दिल्ली' में लिखा है कि दिल्ली के मुसलमान रमज़ान और ईद की तरह दीवाली को भी एक तेहवार गिनते थे और उस दिन ससुराली रिश्तों में बिल्कुल हिन्दुओं की तरह लेन-देन की रस्में होती थीं।

    उस ज़माने में मिली-जुली मुआशरत में दीवाली का असर शब-ए-बरात के अलावा मेहंदी की आमद, उर्सों की रौशनी और शादी-ब्याह के जुलूसों वग़ैरा में नुमायाँ तौर पर देखा जा सकता है। आतिश-बाज़ी के बग़ैर कोई तेहवार मुकम्मल ही नहीं समझा जाता था। क़दीम उर्दू मसनवियों से इसकी ब-ख़ूबी तस्दीक़ हो जाती है। मीर तक़ी मीर की मसनवी 'शादी' और हातिम की मसनवी बहारिया में हिंदुस्तान की मिली-जुली मुआशरत का ये पहलू नुमायाँ तौर पर देखा जा सकता है। रौशनियों की जगमगाहट से मुतअल्लिक़ हातिम के ये शे'र मुलाहिज़ा हों,

    क़तार ऐसे चराग़ों की बनाई

    किताबों पर हो जूँ जदवल-ए-तलाई

    दर-ओ-दीवार बाम-ओ-सेहनओ-गुलशन

    चराग़ों से हुआ है रोज़-ए-रौशन

    दीवाली के मुआशरती कवाइफ़ को नज़ीर अकबराबादी ने भी बड़ी ख़ूबी से उजागर किया है,

    हर इक मकाँ में जला फिर दिया दीवाली का

    हर इक तरफ़ को उजाला हुआ दीवाली का

    सभी के जी को समाँ भा गया दीवाली का

    किसी के दिल को मज़ा ख़ुश लगा दीवाली का

    अजब बहार का है दिन बना दीवाली का

    माघ में जब बहार कलियों को गुदगुदाने लगती है तो मसर्रत के क़ुदरती इज़हार के लिए बसंत पंचमी का तेहवार मनाया जाता है। क़दीम उर्दू शायरी से मालूम होता है कि बसंत का तेहवार मुसलमानों में भी मक़बूल था। सुल्तान मोहम्मद क़ुली क़ुतुब शाह के कुल्लियात में बसंत के तेहवार से मुतअल्लिक़ नौ नज़्में मिलती हैं जिनसे मालूम होता है कि बसंत को शाही तक़रीब का दर्जा हासिल था और उसे बड़े एहतिमाम से मनाया जाता था।

    औरंगज़ेब के जानशीनों के ज़माने में भी बसंत शाही तेहवारों में दाख़िल थी। शाह आलम आफ़ताब के कलाम से मालूम होता है कि इस तेहवार के दिन क़िल-ए-मुअल्ला में ज़र्द लिबास पहनने का रिवाज था। फूलों से खेलते थे। ज़ुलक़द्र जंग दरगाह क़ुली ख़ां ने अपनी तस्नीफ़ 'मुरक़्क़ा दिल्ली' में बसंत की तफ़सील पेश करते हुए लिखा है कि इस तेहवार पर शहर में अजब रौनक़ होती थी। क़दम शरीफ़, क़ुतुब साहब, रौज़ा शाह, हसन रसूल-नुमा और मज़ार शाह तर्जुमान पर बड़ा मजमा हो जाता था। क़व्वालों, मुजराइयों और ज़ाइरीन की टोलियाँ फूलों के गुलदस्ते और ख़ूशबुएँ हाथों में लिए गाती हुई आतीं। हसीन लोग शामिल होते और छः रोज़ तक बड़ी रंगीन महफ़िलें जमतीं, बसंत के इस मुश्तरक पहलू की अक्कासी उर्दू बारह मासों में बड़ी ख़ूबी से की गई है। बसंत का ज़िक्र मसनवियों के अलावा हमारे क़दीम ग़ज़ल-गो शायरों के हाँ भी मिलता है,

    कोयल ने कूक के सुनाई बसंत रुत

    बर आए ख़ास-ओ-आम कि आई बसंत रुत

    आबरू

    बैठे वो ज़र्द-पोश झलक से बना बसंत

    चारों तरफ़ से आज उठी जगमगा बसंत

    आबरू

    खींच लाई है चमन में क्योंकर इस मग़रूर को

    तूने क्या सरसों हथेली पर जमाई है बसंत

    सोज़

    इस अदा-ओ-नाज़ से आई है जो तू मजलिस में

    क्या मिरे यार से सीखे है तू रफ़्तार बसंत

    सना उल्लाह फ़िराक़

    तूने लगाई के ये क्या आग बसंत

    जिससे कि दिल की आग उठी जाग बसंत

    इंशा

    मज़ा बसंत का जब है कि वो बसंती पोश

    ख़ुशी से बैठ के पहलू हमारे गाए बसंत

    शहीद

    चमन में गई क्या सूरत-ए-बहार बसंत

    कि शाख़-शाख़ पे है नग़मा-ए-हज़ार बसंत

    अहमद अली रौनक़

    बसंत की तरह होली की रंगीनियाँ भी महज़ हिन्दुओं तक महदूद नहीं थीं। 'क़िला-ए-मुअल्ला' में होली की तक़रीब भी ज़ौक़-ओ-शौक़ से मनाई जाती थी। शाह आलम आफ़ताब से मुतअद्दिद होलियाँ मनसूब हैं। 'क़िला-ए-मुअल्ला' में फाग गाने और फाग खेलने का आम रिवाज था। नील और केसर रंग की पिचकारियाँ भरी जाती थीं। एक दूसरे पर अबीर और गुलाल छिड़कते थे और फूलों की गेंदों से खेलते थे। सैयद अहमद देहलवी का बयान है कि मुसलमानों में शादी-ब्याह के मौक़े पर एटना खेलने की रस्म बहुत कुछ होली से मिलती-जुलती है। उर्दू शायरी में हमारी मख़्लूत मुआशरत के इन पहलूओं को निहायत ख़ूबी से पेश किया गया है,

    सबके तन में है लिबास-ए-केसरी

    करते हैं सद-बर्ग-ए-सूँ सब हमसरी

    चाँद जैसा है शफ़क़ भीतर अयाँ

    चेहरा सबका अज़ गुलाल-ए-आतिश-फ़िशाँ

    फ़ाइज़

    गुलाल-ए-अबरक से सब भर-भर के झोली

    पुकारे यक-ब-यक होली है होली

    लगी पिचकारियों की मार होने

    हर इक सू रंग की बौछार होने

    कोई है साँवरी कोई है गोरी

    कोई चंपा बदन उम्रों में थोड़ी

    खुले बालों में है अबरक की अफ़्शाँ

    कि जैसे रात को तारे हों रख़्शाँ

    तमाशा सा तमाशा हो रहा है

    कि हर इक बात से जी धो रहा है

    शाह हातिम

    क़ुमक़ुमे जो गुलाल के मारे

    महविशाँ लाला रुख़ हुए सारे

    ख़्वान भर-भर अबीर लाते हैं

    गुल की पत्ती मिला उड़ाते हैं

    जश्न-ए-नौरोज़-ए-हिंद होली है

    राग रंग और बोली ठोली है

    मीर तक़ी मीर

    इन शायरों के अलावा होली का ज़िक्र सौदा, क़ायम चाँदीपुरी, जुरअत, मुसहफ़ी, क़ुदरत उल्लाह क़ासिम, सह्र लखनवी, हातिम अली बेग मेहर और नज़ीर अकबर आबादी के यहाँ भी मिलता है। रवादारी के ये जज़्बात यक-तरफ़ा नहीं थे। जिस तरह मुसलमान हिन्दुओं के तेहवारों में दिलचस्पी लेते थे, उसी तरह हिन्दू भी इस्लामी रवायात और नज़रियात का एहतिराम करते थे। अहद मुग़लिया के अक्सर हिन्दू मुसन्निफ़ीन अपनी तसानीफ़ की इब्तिदा बिस्मिल्लाहिर रहमानिर्रहीम और या फ़त्ताह जैसे इस्लामी कलिमात से करते थे। उर्दू के बेशतर शो'रा ने अपने दवावीन वग़ैरा के आग़ाज़ में हम्द, ना'त और मुनाजात के बाक़ायदा उनवान क़ाइम किए हैं। हिन्दुओं में मुतअद्दिद ऐसे शायर हुए हैं जो निहायत एहतिराम-ओ-अक़ीदत से ना'त कहते थे। उनमें से हरगोपाल तफ़ता, बृंदा बिन आसी, बाल मुकुंद बेसब्र, दल्लू राम कौसर, शिव प्रशाद वहबी ख़ास तौर पर क़ाबिल-ए-ज़िक्र हैं।

    छुन्नू लाल तरब की ना'तों और मनक़बत का एक मख़तूता किताब ख़ाना रज़ाईया रामपुर में महफ़ूज़ है। रूप चंद नामी शागिर्द साक़ी सिकंदराबादी की ग़ज़लों में एक शे'र ना'तिया ज़रूर होता था। कामता प्रशाद नादान और बिहारी लाल समर, दुर्गा सहाय सरवर, बिशन नरायन हामी, राजा मक्खन लाल, सर किशन प्रशाद, प्रभु दयाल आशिक़, राम बहादुर लाल जोया, कँवर महिंद्र सिंह सह्र बेदी और हरी चंद अख़्तर ने भी रसूल-ए-अरबी की शान में एहतिराम के जज़्बात का इज़हार किया है। महफ़ूज़ुर्रहमान ने एक मजमूआ 'हिन्दू शो'रा दरबार-ए-रसूल में' 25 बरस पहले शाए किया था, ऐसा ही एक और मजमूआ 'हिन्दू शो'रा का ना'तिया कलाम' भी शाए हो चुका है।

    यही आलम इस्लामी तक़रीबात का था। मरहटे मोहर्रम बड़े एहतिराम के साथ मनाया करते थे, ग्वालियार का मोहर्रम आज भी मशहूर है। शरर ने 'गुज़श्ता लखनऊ' में लिखा है कि लखनऊ में हज़ारहा हिन्दू सिद्क़-ए-दिल से ताज़िया-दारी इख़्तियार करते थे और सोज़-ख़्वानी में शरीक होते थे। शहीदान-ए-करबला और अहलेबैत का जो एहतिराम हिन्दुओं के दिलों में था, उसकी तस्दीक़ हिन्दुओं के लिखे हुए मरासी से होती है। लेकिन शायर रामा राव ने शहादत-ए-इमाम हुसैन पर एक किताब लिखी थी जो नापैद है।

    लखनऊ में मर्सिए की इब्तिदा एक हिन्दू शायर छुन्नू लाल तरब ही से हुई। राजा उलफ़त राय, द्वारका प्रशाद उफ़ुक़, प्यारे लाल रौनक़, चंदी प्रशाद शैदा के मरासी दर्द-ओ-सोज़ में डूबे हुए हैं। सर किशन प्रशाद के दो मजमुए 'मातम-ए-हुसैन' और 'नौहा-ए-शाद' के नाम से शाएअ् हो चुके हैं। दौर-ए-जदीद के तक़रीबन तीस हिन्दू शायरों के मरासी किताबी सूरत में 'हमारे हुसैन' के नाम से शाएअ् हुए हैं।

    ग़रज़ उर्दू शायरी से मालूम होता है कि हमारे सियासी ज़वाल के बावजूद मोहब्बत और रवादारी के रिश्ते मज़बूत थे। ये असरात यक-तरफ़ा नहीं थे बल्कि दोनों ने एक दूसरे को मुतास्सिर किया और मुआशरती सतह पर एक हम-आहंगी पैदा हो गई थी। तेहवारों के अलावा मक़ामी मेले ठेलों और खेल तमाशों में भी यही रंग नुमायाँ था। इनमें फूल वालों की सैर, छड़ियों का मेला, ऐश बाग़ का मेला, क़ैसर बाग़ का मेला, जश्न बे-नज़ीर वग़ैरा का तज़्किरा मुतअद्दिद शायरों के हाँ मिल जाता है।

    मख़्लूत मुआशरत की ये यक-रंगी उस ज़माने के रस्म-ओ-रिवाज में भी देखी जा सकती है। मज़हबी रुसूम अलग-अलग हैं लेकिन आम रिवाज एक जैसे हैं। बरात लड़के के घर से लड़की के घर जाती है। शादी के कुछ रोज़ पहले मुसलमानों में 'माइयों बिठाना' एक रस्म है, इसमें दुल्हन को माँझे बिठाया जाता है। माँझा पंजाबी लफ़्ज़ है यानी पलंग या चारपाई। शरर लिखते हैं, ये एक ख़ालिस हिन्दी रस्म है जिसे अरब से तअल्लुक़ है अजम से। इसलिए कि माँझे और इसके साथ कँगने खेलने की इब्तिदा हिंदुस्तान के सिवा किसी और जगह साबित नहीं होती।

    मुसलमानों में शादी से पहले दुल्हन से सेहनक यानी हज़रत फ़ातिमा की नियाज़ दिलवाई जाती है। इस रस्म की ईजाद शाहजहाँ की माँ जोधा बाई से मंसूब है। मुसलमानों ने साचिक़ और मेहंदी की रस्में भी हिंदुस्तान में आने के बाद अपनाई हैं। सुहाग पुड़े की चीज़ें यकसर हिंदुस्तानी हैं। हिन्दू और मुसलमान दोनों में दूल्हा को दस्तार और सहरे से आरास्ता किया जाता है। दुल्हन की पहली दफ़ा माँग भरी जाती है। टीका ख़ालिस हिन्दुआना चीज़ है। सोलह-सिंगार से दोनों वाक़िफ़ हैं। मसनवी सहरुल-बयान से दुल्हन की ये तस्वीर मुलाहिज़ा हो,

    खजूरी गूँधी वो पाकीज़ा चोटी

    कि सब अहल-ए-नज़र की जान लोटी

    पहन कर नथ ख़ुशी से रंग दमका

    वो मुखड़ा चाँद सा घूँघट में चमका

    अगर हाथों में हीरे के कड़े थे

    ज़र-ए-ख़ालिस के ज़ेब-ए-पा छिड़े थे

    जो टीका उसके माथे पर लगाया

    क़मर ने अपने दिल पर दाग़ खाया

    बरात की पेश्वाई के बाद औरतों की रीत रस्में भी दोनों में कम-ओ-बेश एक हैं। नबात चुनवाना, नेग, रुख़्सती वग़ैरा अरब-ओ-ईरान की रस्में नहीं। अँगूठे में लहू लगवाना, काले तिल चटवाना, खीर खिलाने और जूती पर काजल पारने का ज़िक्र मसनवियों में मिलता है,

    इक परस्तार, चुलबुली अचपल

    लाई जूती पे पार कर काजल

    कान से इक लगा गई चूना

    छेड़ती एक-एक से दूना

    मसनवी सईदैन

    मंढ़ाने गाने का रिवाज दोनों के यहाँ है। मीर हसन के अश्आर देखिए,

    सह्र का वो होना वो नोने का वक़्त

    वो दुल्हन की रुख़्सत वो रोने का वक़्त

    चले ले के चेंडोल जिस दम कहार

    किया दो तरफ़ से ज़र उस पर निसार

    खड़े थे जो वाँ चश्म को तर किए

    सो मोती उन्होंने निछावर किए

    इस मख़्लूत मुआशरत का असर हमारे मरासी पर भी हुआ है। मरासी में अहलेबैत का ज़िक्र करते हुए जो मुआशरती पस-ए-मंज़र दिखाया गया है, वो सरासर अरब नहीं है बल्कि बहुत सी हिंदुस्तानी रस्में भी अहलेबैत से मंसूब कर दी गई हैं। शैख़ चाँद ने सही लिखा है,

    हिंदुस्तानी मर्सिया-निगारों ने एक अजीब बिद्अत की है कि जंग करबला के अरब-नज़ाद मज़लूमीन को हिंदुस्तानी रंग में पेश किया है। लिबास, वज़ा-क़ता, रफ़्तार-गुफ़्तार, तर्ज़-ए-मुआशरत, रुसूम-ओ-आदाब सब हिंदुस्तानी हैं हत्ता कि ख़्यालात-ओ-मोतक़िदात वग़ैरा भी हिंदुस्तानी हैं। गुजरात और दक्कन के मर्सियों पर एक नज़र डालने से मालूम होता है कि वहाँ के लोगों ने बिला लिहाज़ ज़बान-ओ-मकाँ अरब शख़्सियतों को अपने ज़माने और मक़ाम के माहौल में ढ़ाल कर पेश किया है। सौदा ने क़दीम मर्सियों की पैरवी की है। उसने अपने मर्सियों में हिंदुस्तानी मुआशरत के अनासिर बड़ी आज़ादी से दाख़िल किए हैं।

    सौदा के बाद भी यही अंदाज़ रहा और मीर तक़ी मीर, मीर ज़मीर, अनीस-ओ-दबीर वग़ैरा सबने अरब किरदारों को हिंदुस्तानी रंग में पेश किया है। चंद मिसालें मुलाहिज़ा हों,

    क्या करूँ बेटी की शादी से सुख़न

    भर के लहू से धरी गोया लगन

    नथ सुहाग अपने की कहला कर दुल्हन

    तख़्त चढ़ते ही उतारी या रसूल

    सौदा

    क़िस्सा-ए-कोताह मीर कहाँ तक आल-ए-अबा के दुख सुनिए

    रोइए, कुढ़िए, मातम करिए, कूटिए छाती सर धुनिए

    मीर

    नथ मेरी उतारी है ज़रा आँख तो खोलो

    गर दो तसल्ली तो ज़रा मुँह से तो बोलो

    ज़मीर

    मीर अनीस के मरासी का मुताला करते हुए गुमान होता है कि कर्बला का मैदान गोया लखनऊ के मज़ाफ़ात में ही वाक़ेअ् है। उनके मरासी में लखनऊ की फ़िज़ा है। लखनऊ ही के घरों की रस्में हैं। लखनवी लिबास और वज़ा-क़ता है। बैन का अंदाज़ भी लखनवी है। हत्ता कि बातचीत का लहजा और मामूली मुआशरत कवाइफ़ भी हिंदुस्तानी हैं,

    बोले ये हाथ जोड़ के अब्बास-ए-नामवर

    ख़ेमा कहाँ बपा करें या शाह-ए-बहर-ओ-बर

    बानूए नेक-नाम की खेती हरी रहे

    संदल से मांग बच्चों से गोदी भरी रहे

    ग़ज़ल रज़मिया-सिन्फ़ सुख़न है। इसमें मुआशरत की तस्वीर वाज़ेह तौर पर सामने नहीं आती, अलबत्ता कहीं-कहीं इशारे ज़रूर मिल जाते हैं। हिन्दुओं में रिवाज है कि एक दूसरे को मिलते वक़्त नमस्ते या राम-राम करते हैं। राम-राम करने से तौबा करना भी मुराद लिया जाता है। वली का शे'र है,

    क्या वफ़ादार हैं कि मिलने में

    दिल सूँ सब राम-राम करते हैं

    अगर आँख फड़के तो समझा जाता है कि कोई ख़ुशी नसीब होने वाली है।

    खोवा फड़के आवेगे मन हरना

    लगूँगी आज पिया के चरना

    मोहम्मद क़ुली क़ुतुब शाह

    कौन दीदार मुझे के दिखाएगा जो

    दिन में सौ बार मिरी आँख फड़क जाती है

    शेर अली अफ़सोस

    सौदा का एक शे'र है,

    दिल ये किस से बिगड़ी कि आती है फ़ौज-ए-अश्क

    लख़्त-ए-जिगर की लाश को आगे धरे हुए

    आब-ए-हयात में मोहम्मद हुसैन आज़ाद ने लिखा है, हिंदुस्तान का क़दीम दस्तूर है जब सिपह-सालार लड़ाई में मारा जाता था तो उसकी लाश को आगे लेकर तमाम फ़ौज के साथ धावा कर देते थे। सरहिंद पर जब दुर्रानी से फ़ौज-शाही की लड़ाई हुई और नवाब क़मरुद्दीन ख़ाँ मारे गए तो मीर ममनून के बेटे ने यही किया और फ़तहयाब हुआ।

    कव्वे के बोलने से परदेस से ख़त पहुँचना या घर में मेहमान आना मुराद लिया जाता है,

    शगुन लेते हैं किस ख़ुश-बयाँ की आमद

    सफ़ीर-ए-तूती-ए-जन्नत सदाए ज़ाग़ में है

    सौदा

    ब्रह्मनों के हाथ देखने का ज़िक्र यक़ीन ने किया है (हाथ दिखाना मुहावरा भी है जिससे शे'र का लुत्फ़ बढ़ गया है),

    पड़ता है पाँव उस बुत-ए-काफ़िर के बार-बार

    क्या ब्रह्मन को मोह लिया है दिखा के हाथ

    सफ़र के लिए रवाना होते हुए या किसी काम का आग़ाज़ करते हुए छींक आना या छींक सुनना मनहूस ख़्याल किया जाता है,

    रूए वतन देखा तूने जो मुसहफ़ी फिर

    शायद कि छींक के तू अपने वतन से निकला

    बा'ज़ फ़िर्क़ों में साँप के काटे को तीसरे दिन दरिया में बहा देने का रिवाज था। इंशा का शे'र है,

    छोड़ मत ज़ुल्फ़ के मारे को तू दरिया में हनूज़

    साँप के काटे को देते हैं बहा तीसरे दिन

    दफ़्अ-ए-चश्म-ए-बद के लिए जो चीज़ें इस्तेमाल होती हैं, उनके नाम सुनिए,

    सोने का छल्ला मोर का पर ही फ़क़त नहीं

    इक ज़र्द पोटली में भी थोड़ा सपंद बाँध

    इंशा

    ज़ख़्म-ए-चश्म से महफ़ूज़ रहने के लिए नीला डोरा बाँधते हैं या पलकों का एक-आध बाल जलाते हैं,

    नीले डोरे तोड़ भी डाल अपने दोनों पाँव के

    क्या भले मोटे कड़े सोने के तोड़े उड़ गए

    इंशा

    हर रोज़ जलाता हूँ कि इसको नज़र हो

    बाक़ी मिरी अब आँखों में दो-चार पलकें हैं

    इश्क़ी

    इंतिहाई ख़ुशी के मौक़े पर घी के चिराग़ जलाए जाते हैं,

    आँखें मिरी करे जो मुनव्वर जमाल-ए-यार

    घी के चिराग़ तूर के ऊपर जलाऊँ मैं

    हिन्दुओं में रस्म है कि घी के चिराग़ जला के गंगा में बहा देते हैं,

    दिन-रात फूल बहते हैं तो रात भर चिराग़

    फ़िरदौस में भी याद रहेगी बहार-ए-गंग

    नासिख़

    बीमार का सदक़ा चौराहे पर रखवाते हैं (नरगिस बीमार की मुनासिबत भी ग़ौर तलब है),

    आँखें जो हुईं चार तो बीमार हुआ मैं

    चौराहे में रखवाइए सदक़ा मिरे दिल का

    ज़मीर शिकोहाबादी

    हथेली खुजलाने से दौलत हाथ आने का शगुन लिया जाता है,

    शायद कि गंज-ए-हुस्न-ए-बुताँ हाथ आएगा

    खुजलाती हैं जो आज हमारी हथेलियाँ

    सैफ़ (ख़ल्फ़ फ़ाख़िर मकीं)

    ताज़ियत के लिए नंगे सर जाना मायूब ख़्याल किया जाता है,

    कौन ये आज मुआ, किसका मुक़द्दर जागा

    सोग में जिसके वो डाले हुए आँचल आए

    रौनक़ (शागिर्द नासिख़)

    दर्द-ए-सर की शिकायत हो तो सर का उतारा सदक़ा करते हैं,

    दर्द-ए-सर की है शिकायत आपको

    ग़ैर के सर का उतारा दीजिए

    दाग़

    पान हिंदुस्तान की ने'मत है। यहाँ मेहमान की ख़ातिर तवाज़ो फूल-पान से की जाती है,

    तुम्हारी बज़्म में भूले से मैं चला आया

    करो मेरे लिए फूल-पान की तकलीफ़

    दाग़

    पान का हमारी रोज़मर्रा ज़िंदगी में बड़ा अमल-दख़ल है। ये तरह-तरह का बनता है और तरह-तरह से पेश किया जाता है। पान रुख़्सती के लिए भी मशहूर हैं। दाग़ का शे'र है,

    पर्दा उठा के मुझसे मुलाक़ात भी की

    रुख़्सत के पान भेज दिए बात भी की

    ये चंद अशआर यूँही इधर-उधर से लिए गए हैं। हिंदुस्तानी मुआशरत से मुतअल्लिक़ इस क़िस्म के हवाले अगर जमा किए जाएं तो पूरा दफ़्तर मुरत्तब हो जाए। ये वाक़िआ है कि हमारी मुआशरत एक मख़्लूत मुआशरत है और इसकी तस्वीरें जगह-जगह उर्दू शायरी में नज़र आती हैं। हिंदुस्तान सदियों से मुख़्तलिफ़ मज़हबों, नस्लों और फ़िर्क़ों का गहवारा रहा है। हमारी मुआशरत में रंगा रंग मज़हबी और तहज़ीबी असरात कार-फ़रमा रहे हैं। इसमें एक बुनियादी हम-आहंगी और यक-जहती मिलती है। उसी हम-आहंगी और यक-जहती की बा'ज़ ला-ज़वाल तस्वीरें हमारी क्लासिकी उर्दू शायरी में महफ़ूज़ हैं।

    स्रोत:

    Kaghaz-e-Aatish Zada (Pg. 137)

    • लेखक: गोपी चंद नारंग
      • प्रकाशक: एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 2011

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