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हिंदुस्तानी सनअत फ़िल्म साज़ी पर एक नज़र

सआदत हसन मंटो

हिंदुस्तानी सनअत फ़िल्म साज़ी पर एक नज़र

सआदत हसन मंटो

MORE BYसआदत हसन मंटो

     

    1913 ई. में मिस्टर डी. जी फाल्के ने हिन्दुस्तान की पहली फ़िल्म बनाई और इस सनअत का बीज बोया। दादा फाल्के ने आज से पच्चीस बरस पहले अपनी धर्म पत्नी के जे़वरात बेच कर जो ख़्वाब देखा था उनकी निगाहों में यक़ीनन पूरा हो गया होगा, मगर वो ख़्वाब जो मुल्क के तरक़्क़ी-पसंद नौजवान देख रहे हैं, अभी तक उनकी ताबीर अमली शक्ल में नज़र नहीं आई। इसकी वजह सिर्फ ये है कि मुल्क की इस लतीफ़ सनअत की बागडोर ऐसे लोगों के हाथों में है जिनके दिल-ओ-दिमाग़ पर बुढ़ापा तारी है, जो सिर्फ गर्द-ओ-पेश की छोटी छोटी चीज़ों से मुतमइन हो जाते हैं और जिनको आगे बढ़ने की ख़्वाहिश ही नहीं होती। किसी सनअत को बाम-ए-रिफ़अत तक पहुंचाने के लिए ऐसे लोगों की ज़रूरत नहीं होती, जिनका तख़य्युल ज़ंग-आलूद हो और जिनकी ज़िंदगी ठहरा पानी बन कर रह गया हो।

    नौजवान-ए-वतन, जिनकी मैं नुमाइंदगी कर रहा हूँ, मुल्क के वो नौजवान जो साज़-ए-हयात के हर तार को छोड़कर नग़मे पैदा करने चाहते हैं। वतन के वो नौजवान जो बुलंदियों में परवाज़ करना चाहते हैं। हिन्दुस्तान के बाग़ के वो परिंदे जो अपने कतरे हुए परों के बावजूद उड़ना चाहते हैं। अपने मुल्क की इस सनअत की मौजूदा रफ़्तार से मुतमइन नहीं। वो बे-अक़ल बच्चे सही, तिजारती राज़ों से नावाक़िफ़ सही, मुफ़लिस सही लेकिन जो तड़प उनके सीने में है, जो ख़्वाहिश उनके दिल में करवटें लेती है, जो इज़तिराब उनके तमतमाते हुए चेहरों पर खेलता है, यक़ीनन काबिल-ए-एहतिराम है और तमाम वज़नी जेबों वाले सरमायादारों के जो इंडियन मोशन पिक्चर कांग्रेस में अपनी तिजोरियों की नुमाइश करने आए थे। एक सेकेण्ड के लिए एहतिरामन मुल्क के उन पागल लौंडों के दीवाने जज़्बे के आगे सर झुका देना चाहिए था।

    हिन्दुस्तान के इन तरक़्क़ी-पसंद नौजवानों को बीमार कहा जाता है... वो बीमार हैं, इसमें कोई शक नहीं, पर ये बीमारी वो इश्क़ है जो उनको अपने वतन के ज़र्रे ज़र्रे से है। उनको दीवाना कहा जाता है, वो दीवाने हैं, इसलिए कि वो अपने वक़्त के क़ाइदीन की होशमन्दी से मुतमइन नहीं। वो चाहते हैं कि अपने वतन के रथ में सब के सब जुट कर उसे उस मुक़ाम पर पहुंचा दें, जहां दूसरे मुल़्क खड़े हैं और इसके लिए वो अपनी जानें क़ुर्बान करने के लिए भी तैयार हैं। सरमायादारों के हर खनखनाते हुए सिक्के के मुक़ाबले में वो अपनी जवान रगों का चमकीला ख़ून पेश करने के लिए तैयार हैं। ये दीवानापन है, मगर इस दीवानगी का एहतिराम करना चाहिए। हिन्दुस्तान की होशमन्दी, मितानत और संजीदगी, ठिठुरे हुए बदन को गरमाने के लिए दीवानगी की इस आग की हर वक़्त ज़रूरत है।

    हमें अच्छी फ़िल्म चाहिए, हमें ऐसी बुलंद फ़िल्म चाहिए, जो हम ग़ैर ममालिक की फिल्मों के मुक़ाबले में पेश कर सकें। हम लोगों को ये ख़ब्त है, इस बात की दीवानगी है कि हमारे वतन की हर शैय दूसरों के मुक़ाबले में अच्छी हो। ये ख़ब्त हमारी ज़िंदगी की असल गर्मी है और हम इस गर्मी को अलैहदा नहीं कर सकते।

    इन्क़िलाब से पहले रूस के हालात हिन्दुस्तान से बदतर थे, रूस में अदब और शायरी का नाम-ओ-निशान तक ना था, मगर उसने एक निहायत ही क़लील अर्से में वली पैदा किए। मीर और ग़ालिब पैदा किए। सनअत-ए-फ़िल्म साज़ी में भी उनकी तरक़्क़ी क़ाबिल-ए-रश्क़ है। रूस ने ऐसे ऐसे डायरेक्टर पैदा किए हैं कि उन पर फ़िक्र इन्सान हमेशा बजा तौर पर नाज़ाँ रहेगा। पर हमारे मुल्क ने इन पच्चीस बरसों में जिनके नौ हज़ार एक सौ पच्चीस दिन होते हैं, क्या किया है?

    क्या हम इन पच्चीस बरसों का हासिल उन डाइरेक्टरों की शक्ल में पेश कर सकते हैं, जो अपनी फिल्मों का मुँह मांगे हुए लुक़्मों से भरते हैं...? क्या हम उन अफ़साना नवीसों पर थोड़ी देर के लिए भी फ़ख़्र कर सकते हैं जो दूसरों की चिचोड़ी हुई हड्डियों पर टेढ़ी बांगी लकीरें खींचते हैं।

    क्या हम उन फिल्मों को दूसरे ममालिक की फिल्मों के मुक़ाबले में पेश कर सकते हैं, जो अमरीकी फिल्मों की हज़ारवें कार्बन कॉपी मालूम होती है।

    हरगिज़ नहीं। हिन्दुस्तान में ठीट हिन्दुस्तानी फ़िल्म बनने चाहिए। हमारे वो सोशल फ़िल्म जो आज कल सेकेण्ड़ो की तादाद में सिनेमाओं के पर्दों पर चलते हैं। क्या हिन्दुस्तानी तहज़ीब के आईना-दार हैं? इसका जवाब मोटे क़लम से ये होना चाहिए। 'नहीं'!! आप इन फिल्मों में कभी 'हिंदुस्तान' को अमरीकी लिबास में देखते हैं और कभी अमरीकी धोती कुर्ते में नज़र आता है, जो बेहद मज़हका-ख़ेज़ है, उनको सोशल फ़िल्म कहा जाता है, ठीक इसी तरह जिस तरह हर ऐक्टर ख़ुद को आर्टिस्ट कहता है।

    हिन्दुस्तान में अभी तक आर्टिस्ट के सही मआनी पेश नहीं किए गए। आर्ट को ख़ुदा मालूम क्या चीज़ समझा जाता है। यहां आर्ट एक रंग से भरा हुआ बर्तन है जिसमें हर शख़्स अपने कपड़े भिगो लेता है, लेकिन आर्ट ये नहीं है और ना वो तमाम लोग आर्टिस्ट हैं जो अपने माथों पर लेबल लगाए फिरते हैं। हिन्दुस्तान में जिस चीज़ को आर्ट कहा जाता है, अभी तक मैं उसके मुताल्लिक़ फ़ैसला नहीं कर सका कि क्या है?

    हिन्दुस्तानी सनअत फ़िल्म साज़ी में जिन दो लफ़्ज़ों के साथ बहुत बुरा सुलूक होता है, उनमें से एक आर्ट या आर्टिस्ट है और दूसरा शाहकार, डायरेक्टर से लेकर स्टूडियो में तख़्ते ठोंकने वाले मज़दूर तक सब के सब आर्टिस्ट हैं। 'हरीशचंद्र’ से लेकर 'सितारा' तक जितनी फ़िल्म बनी हैं, सब के सब शाहकार हैं। इससे ये हुआ है कि आर्ट अपनी क़द्र-ओ-मंजिल खो बैठा है और शाहकार शाहकार नहीं रहा।

    फ़िल्म और प्रोडयूसर
    हिन्दुस्तानी सनअत फ़िल्म साज़ी की दगरगों हालत के मुताल्लिक़ आए दिन अख़बारात और रसाइल में तबसरे शाया होते रहते हैं मगर प्रेस की इस आवाज़ से मुल्क की इस सनअत को कोई फ़ायदा नहीं पहुंचा। इसकी वजह ये है कि हमारे हाँ के अक्सर-ओ-बेशतर अख़बारात के पेश-ए-नज़र तरफ़ी सनअत के जज़्बे के बजाय जलब-ए-मुनाफ़त है। इसमें ऐसे अख़बारों और अख़बार नवीसों का कोई क़सूर नहीं, जिनके काग़ज़ और जिनकी फ़िल्म प्रोडयूसरों की मीज़ानों में तुलते हैं। दरअसल हर शख़्स कसाद बाज़ारी के इस ज़माने में किसी ना किसी हीले से अपनी रोज़ी कमाना चाहता है और जब फ़िल्मी दुनिया में फ़िल्मी ख़ुदाओं के आगे सर झुकाने से चांदी के सिक्के मिल जाते हैं तो कोरनिशों को मायूब नहीं समझा जाता।

    हिन्दुस्तान में सैंकड़ों की तादाद में अख़बारात-ओ-रसाइल छपते हैं मगर हक़ीक़त ये है कि सहाफ़त इस सरज़मीन में अभी तक पैदा नहीं हुई, अगर ऐसा होता तो आज हमें मुतज़क्किरा सदर अल्फ़ाज़ में अपनी कमज़ोरियों का इज़हार ना करना पड़ता। सहाफ़त अपनी फ़ित्री शक्ल ख़ुद-ब-ख़ुद इख़्तियार करेगी। जब हमारे मुल्क से जहालत दूर हो जाएगी और जहालत सिर्फ उसी सूरत में दूर हो सकती है जब दानिशगाहों के सब दरवाज़े अवाम पर खोल दिए जाऐंगे।

    अवाम को तालीम-याफ़ता बनाने के मुख़्तलिफ़ तरीक़े हैं। इन सब में से फ़िल्म को मुत्तफ़िक़ा तौर पर बहुत बा-असर तस्लीम किया गया है। सेलोलाइड के फीते के ज़रिये से हम पब्लिक तक अपना पैग़ाम ब-तरीक़-ए-अहसन पहुंचा सकते हैं। निसाब की भारी भरकम किताबें तलबा के सीने पर बोझ बन कर रह जाती हैं। स्कूल के औक़ात तालीम में हमारे अक्सर बच्चे दिल से सीखने की कोशिश नहीं करते। लेक्चर कॉलेज के बाअज़ लड़के लड़कियों के दिमाग़ पर असर करने के बजाय उनके आसाब पर असर अंदाज़ होते हैं, मगर ये देखा गया है कि फ़िल्म से बद-दिली का इज़हार बहुत कम किया जाता है। जो बात महीनों में ख़ुश्क तक़रीरों से नहीं समझाई जा सकती, चुटकियों में एक फ़िल्म के ज़रिये से ज़हन नशीन कराई जा सकती है।

    फ़िल्म के आलमगीर और हमा-रस असर के पेश-ए-नज़र हमारा ख़्याल है कि हिन्दुस्तानी अवाम के अज़हान को बेदार करने के लिए ऐसे फिल्मों की ज़रूरत है जो कोई नई बात सिखाए और जिनको देखकर तमाशाई तफ़रीह हासिल करने के साथ साथ सिनेमा हाल से बाहर निकलते वक़्त अपने दिमाग़ों की आग़ोश में ग़ौर-ओ-फ़िक्र के जरासीम भी लेते जाएं। जिस तरह जिस्मानी सेहत बरक़रार रखने के लिए कसरत की ज़रूरत है, ठीक उसी तरह ज़हन की सेहत बरक़रार रखने के लिए ज़हनी वर्ज़िश की ज़रूरत है।

    मक़ाम-ए-तास्सुफ़ है कि हमारे फ़िल्मी प्रोडयूसरों के पेश-ए-नज़र सिवाए तिजारत के और कुछ भी नहीं। ये दरुस्त है कि ताजिरों को सिर्फ हुसूल-ए-ज़र से मतलब होता है और हमें इस पर कोई एतराज़ भी नहीं, मगर हम कोर ज़ौक़ी और पस्त मज़ाक़ी का गिला किए बग़ैर नहीं रह सकते। हमारे अक्सर प्रोडयूसर अपने निगार-ख़ानों में तीसरे दर्जे की फ़िल्म बना कर पर्दे पर पेश करते हैं। सिर्फ इस ख़्याल से कि इस किस्म की लचर फ़िल्म पब्लिक की जेबों से ज़्यादा रक़म वसूल कर सकती हैं। ये ख़्याल बिलकुल ग़लत है। मज़ाक़ पैदा किया जाता है, ख़ुद-ब-ख़ुद पैदा नहीं होता, अगर पब्लिक में पस्त मज़ाक़ी के लोग मौजूद हैं तो उसके ज़िम्मेदार हमारे प्रोडयूसर हैं जो मज़ाक़ को पस्ती की तरफ़ ले जाते हैं।

    जादू के लायानी क़िस्से और परियों की फ़र्ज़ी कहानियों में इतनी दिलचस्पी नहीं है जितनी कि हमारे प्रोडयूसर समझते हैं। पब्लिक ऐसी फ़िल्म चाहती है जिनका ताल्लुक़ बराह-ए-रास्त उनके दिल से हो। जिस्मानी हिसिय्यात से मुताल्लिक़ चीज़ें ज़्यादा देर-पा नहीं होतीं मगर जिन चीज़ों का ताल्लुक़ रूह से होता है, देर तक क़ायम रहती हैं। मास्टर विट्ठल के अस्सिटेंट तमाशाइयों के ज़हन से बिलकुल निकल चुके हैं। अब वो रुहानी ख़ुराक के लिए ख़ाली हैं।

    हमें इस वक़्त ऐसी फिल्में दरकार हैं, जो हमें कुछ सिखाएं। ऐसी फिल्में नहीं चाहिए जो हमें सब कुछ भुला दें, जो हमारे अज़हान को ज़ंग-आलूद कर दें। हमें अपनी ज़बान से प्यार करना सिखाया जाये हमें अपने वतन से प्यार करने का सबक़ दिया जाये हमें मुहब्बत के हक़ीक़ी माअनों से आश्ना कराया जाये, हमारे सामने किताब इन्सानियत के औराक़ खोले जाएं। क्या हमारे प्रोडयूसर ऐसा नहीं कर सकते? क्या वो अपनी तिजारत को हमारी मांग के साथ साथ और ज़्यादा नहीं बढ़ा सकते।

    इख़्तिसार की ज़रूरत
    हमारे यहां ख़ामोश फिल्मों के ज़माने से लेकर अब तक जितनी फ़िल्मे बनी हैं। उनकी ग़ैर-मामूली तवालत देखकर ख़्याल पैदा होता है कि शायद हमारे प्रोडयूसर ये समझने लगे हैं कि पब्लिक ग़ैरमामूली तौर पर लंबी फ़िल्म पसंद करती है। मुम्किन है इसमें कुछ सदाक़त हो। मगर वाक़िया ये है कि ऐसी तूल-तवील फिल्मों की नुमाइश से जहां सनअत-ए-फ़िल्म साज़ी की तरक़्की में रुकावट पैदा हो रही है, वहां तमाशाइयों के अज़हान पर भी उसका बुरा असर पड़ रहा है। आज कल वो ज़माना है जिसमें इख़्तिसार को बहुत ज़्यादा एहमियत हासिल है। कम से कम वक़्त में मतलब हल करना आज कल हर शख़्स के पेश-ए-नज़र है, मगर हम देखते हैं कि हमारे यहां की फिल्मों में जो बात सात या आठ हज़ार फुट सेलोलाइड में कही जा सकती है। उसे पंद्रह या सोलाह हज़ार फुट लंबे फीते में फैला दिया जाता है। उसका नतीजा ज़ाहिर है।

    एक अफ़साने को जिसके सारे अबवाब आठ हज़ार फुट लंबे फ़िल्म में समा सकते हैं अगर रबड़ की तरह खींच कर सोलाह हज़ार फुट लंबा बना दिया जाएगा तो उसमें वो बात ना रहेगी जो उसकी फ़ित्री तवालत में थी। अफ़साने की हदूद से जो कोई बाहर निकलने की कोशिश करेगा, अच्छा अफ़्सानागो नहीं बन सकता। जिस तरह रबड़ का फ़ीता एक ख़ास हद तक खींचा जा सकता है। इसी तरह अफ़साने भी एक ख़ास हद तक खींच कर बड़े किए जा सकते हैं और अगर हम उस हद से गुज़र जाएंगे तो बेचारे अफ़साने की सारी हड्डियां पसलियाँ टूट जाएँगी और सब का सब मुंतशिर हो जाएगा।

    ग़ैर फ़ित्री तौर पर लंबी फ़िल्म में डायरेक्टर ख़्वाह कितना ही काबिल क्यों ना हो। अफ़साने को अपने महवर पर क़ायम रखने में कामयाब नहीं हो सकता। फ़िल्म तवील होगी तो उसमें क़ुदरती तौर पर डायलॉग भी लंबे लंबे होंगे और ऐक्टर उनकी अदायगी में यक-आहंगी बरतने लगेंगे। फ़िल्म तवील होगी तो उसके हादिसात और वाक़ियात भी तवील होंगे। जिसके बाइस फ़िल्म की रफ़्तार में लंगड़ा-पन पैदा हो जाएगा, जो आँखों को बहुत बुरा मालूम होगा।

    तवील फ़िल्म की तैयारी में ज़्यादा सेटिंग इस्तिमाल होते हैं। जिन पर काफ़ी रुपया ख़र्च आता है। इस तरह वो फ़िल्म जो अपनी सही शक्ल में साठ या सत्तर हज़ार रुपये में बन सकती है। एक लाख रुपये में तैयार होगी और नाकाम रहने की सूरत में प्रोडयूसरों की कमर तोड़ के रख देगी। तवील फ़िल्म में दिलचस्पी का उंसुर दाख़िल करने के लिए प्रोडयूसरों और डाइरेक्टरों को बे-मौक़ा और बे-महल गीत गवाने और नाच नचवाने पड़ते हैं, जो फ़िल्म को ख़ूबसूरत बनाने के बजाय निहायत भद्दा बना देते हैं। रुपया ख़र्च होता है मगर ख़ातिर ख़्वाजा नतीजा बरामद नहीं होता। इसका बाइस सिर्फ ये हक़ीक़त है कि हर शैय के लिए एक मुनासिब-ओ-मौज़ूं जगह होती है। जिससे हट कर वो अपनी तमाम ख़ूबसूरती खो देती है। तमाशाइयों को अगर ऐसी तवील फिल्मों का आदी बना दिया गया तो उनके अज़हान में तवालत पसंदी घर कर जाएगी और वो अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में भी इस आदत को दाख़िल करने की कोशिश करेंगे। जिसके नताइज बहुत तनज़्ज़ुल आफ़रीं साबित होंगे।

    मुतज़क्किरा सदर उमूर के पेश-ए-नज़र ये ज़रूरी है कि हमारे प्रोडयूसर अपनी फिल्मों की तैयारी में इख़्तिसार से काम लें।  आजकल सोलाह सतरह हज़ार फुट लंबे पर जो कुछ वो ख़र्च कर रहे हैं, अगर वही कुछ इससे निस्फ़ तवील फ़िल्म पर ख़र्च किया जाये तो मुल्क की सनअत फ़िल्म साज़ी में एक इन्क़िलाब बरपा हो सकता है और उन लोगों की तमाम शिकायतें दूर हो सकती हैं, जो इस वक़्त हमारी फिल्मों को नफ़रत की निगाहों से देख रहे हैं।

    सिनेमा हाल में तमाशाइयों के लिए दो घंटा का प्रोग्राम पेश करने के लिए हमारे प्रोडयूसरों को उन ख़ुतूत पर चलना चाहिए, जो हॉलीवुड के प्रोडयूसरों के पेश-ए-नज़र हैं। सात आठ हज़ार फुट लंबे फ़िल्म के साथ कार्टून या ख़बरों के एक चरखे या दो चरखे फ़िल्म तैयार किए जाएं जैसा कि यूरोप में किए जाते हैं। इस तरह पब्लिक जहां क़िस्से कहानियां सुनेगी और देखेगी। वहां दूसरे ममालिक के ताज़े तरीन हालात से बा-ख़बर भी रहेगी। उन लोगों के इल्म में इज़ाफ़ा होगा। अपने हमसाया ममालिक सिनेमा हाल में बैठे-बैठे देख लेंगे और उनके दिल से वो ताज्जुब दूर हो जाएगा जो आम तौर पर फ़ासिला पैदा कर दिया करता है। बीस पच्चीस साल तक हम तूल-तवील फ़िल्म देखते रहे हैं। अब वक़्त आ गया है कि इस बिद्अत  का ख़ातिमा कर दिया जाये और भारी भरकम और शैतान की आंत की तरह लंबी फिल्मों के बजाय ऐसी मुख़्तसर फ़िल्म पेश की जाएं जो हमारे दिमाग़ों पर वज़न ना डालें। वतन की इस सनअत को रिफ़अत बख़्शने के लिए इख़्तिसार की बेहद ज़रूरत है।

    सितारे या सितारा-शनास
    तीस बरस से हॉलीवुड के अरबाब-ए-फ़िक्र इस बात का फ़ैसला करने की कोशिश कर रहे हैं कि फ़िल्म साज़ी में स्टार को ज़्यादा एहमियत हासिल है या ख़ुद फ़िल्म को। इस मसअले पर इस क़द्र बहस की जा चुकी है कि अब उसके तसव्वुर ही से उलझन होने लगती है। आख़िर मुतज़क्किरा सदर सवाल का फ़ैसला-कुन जवाब क्या हो सकता है। सिवाए उसके ये सवाल सुनकर यूं कह दिया जाये। ''क्या फ़रमाया आपने?”

    मुर्ग़ी पहले पैदा हुई या अण्डा...? अगर इसका जवाब कुछ हो सकता है तो यक़ीनन इस सवाल का जवाब भी मिल जाएगा कि स्टार ज़्यादा एहमियत रखता है या ख़ुद फ़िल्म।

    फ्रैंक कैप्रा कोलंबिया, फ़िल्म कंपनी के माहिर-ए-फ़न डायरेक्टर ने हाल ही में इस मसले पर अपने अफ़्क़ार अंग्रेज़ी अख़बारात में शाया किए हैं। मिस्टर कैप्रा कहते हैं। 'मैं उन लोगों का हम-ख़याल हूँ जो फ़िल्म को सबसे अहम समझते हैं। फ़िल्म स्टार बनाती हैं और दरख़्शां से दरख़्शां सितारा कमज़ोर या बुरी फ़िल्म को नाकामी से बचाने में कामयाब नहीं हो सकता।'

    तजुर्बे से यही ज़ाहिर होता है कि फ़िल्म सितारा साज़ है और सितारे कमज़ोर फ़िल्म को ताबानी नहीं बख़्श सकते, मगर हमारे या मिस्टर कैप्रा के ख़्याल से सब मुत्तफ़िक़ नहीं हो सकते। ऐसे सैंकड़ों असहाब मौजूद होंगे जो अपने नज़रिए के जवाज़ में और मिस्टर कैप्रा के नज़रिए के इबताल में ठोस दलायल-ओ-बराहीन पेश कर सकते हैं।

    इस ज़माने में सबसे ज़्यादा काबिल-ए-ग़ौर बात ये है कि सितारे क्योंकर बनते हैं या वो कौन सी चीज़ है जो सितारे बनाती है?

    मिस्टर कैप्रा ने इस सवाल का जवाब निहायत दिलचस्प अंदाज़ में दिया। आप कहते हैं,

    ’अगर दुनिया के तमाम प्रोडयूसर अपना सरमाया जमा करके मेरे हवाले कर दें (जो यक़ीनन काफ़ी-ओ-वाफ़ी होगा) और मुझसे ये कहें कि हमारे फ़िल्मी आसमान के लिए तीन सितारे चुन कर ला दो, तो मैं यक़ीनन ख़ाली-उज़-ज़हन हो जाऊँगा। इसलिए कि मुझे वो जगह मालूम ही नहीं। जहां से ये सितारे मिल सकते हैं।'

    ख़ामोश फिल्मों के ज़माने में हॉलीवुड के आसमान-ए-फ़िल्म के लिए सितारे आम तौर पर होटलों कारख़ानों और दफ़्तरों वग़ैरा से आते थे, लेकिन अब की फिल्मों की ख़ामोशी तकल्लुम में तब्दील हो चुकी है और इस सनअत को काफ़ी फ़रोग़ हासिल हो चुका है। सितारों की सप्लाई बहुत कम हो गई है। हमारे यहां सनअत-ए-फ़िल्म साज़ी के आग़ाज़ में क़हवाख़ाने, थियेटर और चकले सितारे मुहैय्या किया करते थे और अब कि हमारी सनअत को किसी क़दर फ़रोग़ हासिल हुआ है, इल्मी तबक़े ने भी हमारे फ़िल्मी आसमान के लिए सितारे पेश करने शुरू किए हैं और मुस्तक़बिल बईद या मुस्तक़बिल क़रीब में एक ऐसा वक़्त आएगा। जब हॉलीवुड की तरह यहां भी सितारों की सप्लाई कम हो जाएगी।

    मगर हम ये सोच रहे थे कि वो कौन सी शैय है जो सितारे बनाती है?

    मिस्टर फ्रैंक कैप्रा की (जिनकी डायरेक्शन में हॉलीवुड के बड़े बड़े नामवर सितारे काम कर चुके हैं राय है कि किरदारों की सही तक़्सीम (यानी मौज़ूं-ओ-मुनासिब कास्ट) सितारे बनाती है।

    उनके नज़रिए के एतबार से चीनी आदमी का रूप सिर्फ चीनी ही ब-तरीक़-ए-अहसन धर सकता है और लंगड़े या कुबड़े आदमी का पार्ट सिर्फ़ लंगड़ा या कुबड़ा आदमी ही ख़ूबी से अदा कर सकता है।

    हमें मिस्टर कैप्रा के इस नज़रिए से इत्तिफ़ाक़ है। स्क्रीन पर किसी कैरेक्टर की अदायगी के लिए उतना ही ज़्यादा उन्हें कामयाबी का मौक़ा मिलेगा। जिस आसानी से हम और आप अपने आप यानी अपने असल को पेश कर सकते हैं। इस आसानी से हम किसी और की नक़ल नहीं कर सकते जहां तसना और बनावट को दख़ल होगा वहां असलियत बरक़रार नहीं रह सकती।

    इस नज़रिए के जवाज़ में मिस्टर फ्रैंक कैप्रा ने बहुत सी मिसालें पेश की हैं, जिनमें से एक गैरी कूपर की है। आप कहते हैं। गैरी कूपर स्क्रीन पर अपने आपको असली रंगों में पेश करता है और चूँकि वो एक ख़ुश-ज़ौक़, आली ख़्याल और साहिब-ए-फ़हम इन्सान है, इसीलिए वो अपनी कोशिशों में कामयाब रहता है।

    हम ये कह रहे थे कि मौज़ूं-ओ-मुनासिब कास्ट सितारे बनाती है, मगर ये क़तई और आख़िरी फ़ैसला नहीं है। इसलिए कि सिर्फ कास्ट का मौज़ूं-ओ-मुनासिब होना ही किसी फ़िल्म को कामयाब नहीं बना सकता। फ़िल्म की कामयाबी के लिए और बहुत सी चीज़ों की ज़रूरत है जिनको आप ब-ख़ूबी समझते होंगे। मुख़्तसर अलफ़ाज़ में यूं कहा जा सकता है कि जब तक मशीनरी के सब पुर्जे़ अपनी अपनी जगह पर अच्छा काम ना करेंगे। फ़िल्म कामयाब नहीं हो सकती।

    किरदारों और टेक्निशयनों का बाहमी इत्तिहाद पिक्चर की सेहत के लिए बहुत ज़रूरी है जिस तरह क़ीमती से क़ीमती घड़ी एक टिक करने से भी इन्कार कर देती है। इसलिए कि उसके किसी पुर्जे के साथ मिल का एक नन्हा सा ज़र्रा चिमटा होता है। ठीक इसी तरह क़ीमती से क़ीमती फ़िल्म, एक हक़ीर और मामूली सी फ़ुरो-गुज़ाश्त या ग़लती के बाइस फ़ेल हो जाती हैं।

    सही कास्ट सितारे बनाने में दीगर अनासिर से कहीं ज़्यादा मुमिद-ओ-मुआविन है। आप थोड़ी देर के गौर-ओ-फ़िक्र के बाद यक़ीनन हमारे हमनवा हो जाएंगे, चुनांचे फिल्मों को कामयाब बनाने और सितारे पैदा करने के लिए हमें सितारा-शनास निगाहों की ज़रूरत है।

    अहल-ए-तर्ज़ डायरेक्टर
    हिन्दुस्तानी फिल्मों की बेजानी का सबसे बड़ा सबब ये भी है कि हमारे हाँ अहल-ए-तर्ज़ यानी स्टाइलिस्ट डायरेक्टरों की कमी है। अफ़साना निगारी और शेर-गोई के लिए एक स्टाइल की ज़रूरत है जो अदब के जुमला लवाज़मात में इमतियाज़ी हैसियत रखता है। स्टाइल ही एक अफ़्साना-निगार की कहानी को दूसरे क़िस्सा नवीस के अफ़साने के मुक़ाबले में एक जुदागाना हैसियत बख़्शता है। इसी तरह फिल्मों के डायरेक्टर के लिए स्टाइल की बहुत ज़रूरत है, अगर डायरेक्टरों का अपना अपना स्टाइल ना होगा तो फ़िल्म मुतहर्रिक तसावीर के यक-आहंग फीते बन कर रह जाएंगी।

    हिन्दुस्तानी फ़िल्म एक अर्से से स्क्रीन पर पेश हो रही हैं। उनमें से गिनती की चंद फ़िल्म ऐसी हैं, जिनमें हमें डायरेक्टरों का स्टाइल नज़र आता है। इसी स्टाइल के ज़रिए से हम उनके तशख़्ख़ुस के बारे में कुछ जान सके हैं, मगर दूसरी फ़िल्मे देखकर हमें एक ही तरीक़े से जोड़ी हुई और एक ही निगाह से देखी हुई चीज़ें नज़र आती हैं। उनके मुशाहिदे से हम सिर्फ इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि पब्लिक की मांग पर प्रोडयूसरों ने चंद ना-अहल डायरेक्टर पकड़ कर अपने सेलोलाइड के ऊपर बेमानी नक़्श बनवा लिए हैं, जिनको ना वो ख़ुद समझ सके और ना पब्लिक ही समझ सकी।

    हिन्दुस्तान में रोज़ाना सैंकड़ों फिल्मों की नुमाइश होती है, मगर मक़ाम-ए-तास्सुफ़ है कि उनमें से बहुत कम फ़िल्म, फ़िल्म होती हैं। दरअसल जो डायरेक्टर ये फ़िल्म तैयार करते हैं, तख़य्युल से बिल्कुल आरी होते हैं। वो स्टोरी को सामने रखकर सिर्फ क्लोज़-अप, मिड शॉट और लॉंग शॉट में कैमरा रखने का हुक्म देना जानते हैं और बस वो कैमरे को हीरोइन के चेहरे के क़रीब बार-बार ले आते हैं, मगर उनको क्लोज़-अप की एहमियत क़तई तौर पर मालूम नहीं होती ऐसे डायरेक्टर उन नाम निहाद अदीबों के मुतरादिफ़ हैं जो बे-रब्त इबारत लिखते हैं और जिन्हें अल्फ़ाज़ की नशिस्त व बर-ख़ास्त का कोई सलीक़ा नहीं होता। एर्न्स्ट कीव बश की फ़िल्म अगर उसके नाम के बग़ैर पर्दे पर आए तो आप इसमें ठोस मज़ाह के टच और मामूली सी मामूली इश्याअ के मौज़ूं-ओ-मुनासिब इस्तिमाल को देखकर फ़ौरन कह देंगे, एर्न्स्ट कीव बश पर्दे पर चल फिर रहा है, दिलकश बेरूनी मुनाज़िर और फूलों में हीरोइन को तैत्तरीय की तरह फड़फड़ाता देखकर आपको फ़ौरन मालूम हो जाएगा कि पर्दे के पीछे डी. डब्ल्यू ग्रिफिथ का दिल धड़क रहा है, जो नेचर की सहर-कारियों का दिलदाद है। इसी तरह एरिक ख़ान मिस्टर अहीम की हक़ीक़त पसंदी छुपाए नहीं छुप सकती। इस जवाज़ में और बहुत सी मिसालें पेश की जा सकती हैं। हॉलीवुड के क़रीब क़रीब हर डायरेक्टर का एक तर्ज़ या स्टाइल है और यही उनकी कामयाबी का राज़ है, मगर यहां हिन्दुस्तान में अहल-ए-तर्ज़ डायरेक्टरों का फ़ूक़दान है। इस वक़्त सिर्फ दो डायरेक्टर ऐसे हैं, जिन्हें साहब-ए-तर्ज़ कहा जा सकता है। देवकी बोस और शांताराम, देवकी बोस की मसलेहत ही एक ऐसी चीज़ है, जो उसे दूसरे डाइरेक्टरों पर इम्तियाज़ बख़्शती है। राज रानी मीरा, पूर्ण भगत, आफ़ड़दी अर्थ को एक और विद्यापति में आप देवकी बोस... ख़्वाब देखने वाले देवकी बोस को सीलो लाउड के हर इंच में देख सकते हैं। उसका स्टाइल ओरिजनल है और इसी वजह से वो कामयाब है।

    ईशारियत और अज़मत पसंदी, शांताराम के स्टाइल के दो बड़े जुज़ हैं, जिस फ़िल्म में भी आप ये दो चीज़ें पहलू-ब-पहलू देखेंगे, आपका ख़्याल फ़ौरन प्रभात फ़िल्म कंपनी के शांताराम की तरफ़ चला जाएगा। वो अपने स्टाइल में और कोई सानी नहीं रखता और यही वजह है कि उसे हिन्दुस्तान के डायरेक्टरों की सफ़-ए-अव्वल में मुमताज़ हैसियत हासिल है।

    नीतिन बोस के नाम का यहां इसलिए ज़िक्र नहीं किया गया कि वो अहल-ए-तर्ज़ डायरेक्टर नहीं। वो एक निहायत अच्छा 'नुमाइश कार' है। उसको अपने ख़्यालात और अफ़्क़ार की नुमाइश करने का ढंग बहुत अच्छी तरह याद है और यही उस की काबिल-ए-रश्क कामयाबी का बाइस है।

     

    स्रोत:

    Manto Ke Mazameen (Pg. 110)

    • लेखक: सआदत हसन मंटो
      • प्रकाशक: साक़ी बुक डिपो, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1997

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