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जदीद शेरी जमालियात

शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी

जदीद शेरी जमालियात

शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी

MORE BYशम्सुर रहमान फ़ारूक़ी

    ख़ाली मैदान में अगर कुत्ता भी गुज़रे तो लोग उसकी तरफ़ मुतवज्जेह हो जाते हैं।

    (वालेरी)

    अगर क़दीम शे'री जमालियात मंसूख़ हो चुकी है तो मैदान ख़ाली है। ऐसी सूरत में इसका इम्कान बढ़ जाता है कि हर वो चीज़ जो उसकी जगह भरने के लिए मैदान में आएगी, जाली होगी और अगर जाली भी हो तो उसको अस्ली साबित होते-होते तवील अ'र्सा गुज़र जाएगा और इस अ'र्से में शे'रियात पर अगर निराज नहीं तो इंतिशार की हुक्मरानी ज़रूर होगी।

    बा'ज़ लोग मौजूदा अदबी सूरत-ए-हाल को तवाइफ़-उल-मुलूकी समझते हैं और इस तरह इस तसव्वुर की तस्दीक़ करते हैं कि क़दीम शे'री जमालियात मंसूख़ हो चुकी है और अब मिहदी-ए-मौऊ'द का इंतिज़ार करना चाहिए। लेकिन ज़ाहिर है कि ये तसव्वुर भी उन्हें क़ुबूल होगा कि क़दीम मंसूख़ हो गया और नया आने वाला है। इस तरह जदीद शे'री दुनिया में तवाइफ़-उल-मुलूकी फ़र्ज़ करने वाले दर-अस्ल ख़ुद ही एक बुनियादी फ़िक्री तज़ाद में मुब्तिला हैं।

    अगर तवाइफ़-उल-मुलूकी है तो क़दीम यक़ीनन रुख़स्त हो चुका और मैदान ख़ाली है। अगर क़दीम रुख़स्त नहीं हुआ तो मैदान ख़ाली नहीं है और तवाइफ़-उल-मुलूकी भी नहीं है। अब ये उन लोगों का दिल-ओ-दिमाग़ जाने कहा कि उन्हें कौन सा नतीजा क़ाबिल-ए-क़ुबूल होगा।

    जो लोग मौजूदा सूरत-ए-हाल को इंतिशार और बे-राह-रवी का सैद-ए-ज़बूँ बताते हैं उनमें तरक़्क़ी-पसंद हज़रात पेश-पेश हैं। लुत्फ़ ये है कि तरक़्क़ी-पसंद नज़रिया-ए-अदब ने ही सबसे पहले क़दीम तसव्वुरात-ए-हुस्न को मंसूख़ करने और हुस्न के मेया'र बदलने का दा'वा किया था। प्रेमचंद के मशहूर ख़ुत्बा-ए-सदारत के जिन हिस्सों को बहुत एहमियत दी गई (और जिनका ज़िक्र इस वक़्त भी हिन्दी-उर्दू में होता रहता है) हस्ब-ए-ज़ेल हैं,

    (1) “मुझे ये कहने में तअम्मुल नहीं है कि मैं और चीज़ों की तरह आर्ट को भी इफ़ादियत की मीज़ान पर तौलता हूँ... ऐसी कोई ज़ौक़ी, मा'नवी या रुहानी मसर्रत नहीं है जो अपना इफ़ादी पहलू रखती हो।

    (2) हमें हुस्न का मेया'र तबदील करना होगा। अभी तक उसका मेया'र अमीराना और ऐ'श-परवराना था... आर्ट नाम था महदूद सूरत-परस्ती का, अल्फ़ाज़ की तरकीबों का, ख़यालात की बंदिशों का, ज़िंदगी का कोई आईडियल नहीं, ज़िंदगी का कोई ऊँचा मक़्सद नहीं।

    (3) ये कैफ़ियत उस वक़्त पैदा होगी जब हमारी निगाह-ए-हुस्न आ'म हो जाएगी.. इसकी परवाज़ के लिए मख़्सूस बाग़ की चारदीवारी होगी... अदीब का इ'श्क़ महज़ निशात और महफ़िल-आराई और तफ़रीह नहीं है... वो वतनियत और सियासत के पीछे चलने वाली हक़ीक़त नहीं है बल्कि उनके आगे मशअ'ल दिखाती हुई चलने वाली है।

    (4) हमारी कसौटी पर वो अदब पूरा उतरेगा जिसमें तफ़क्कुर हो, आज़ादी का जज़्बा हो, हुस्न का जौहर हो, ता'मीर की रूह हो, ज़िंदगी की हक़ीक़तों की रौशनी हो...”

    लेकिन इन इक़्तिबासात से साफ़ ज़ाहिर है कि प्रेमचंद ने तो कोई नई बात कही है और हुस्न का कोई नया नज़रिया ख़ल्क़ किया है बल्कि इंसानी हुस्न के बारे में है या'नी वो दास्तानों और क़िस्सों की तरह अदब के महल और ख़ानाबाग़ को सिर्फ़ मुतमव्विल और नाम निहाद मोहज़्ज़ब ऊँचे तबक़े के किरदारों का इजारा नहीं बनाना चाहते। वो चाहते हैं कि कहानियों के हीरो-हिरोइन सिर्फ़ बादशाह, नवाब, रईस-ज़ादे और रईस-ज़ादियाँ हों बल्कि निचले तबक़े के लोग भी हूँ।

    अदब की समाजी इफ़ादियत पर इसरार और इसे हरकत-ओ-अ'मल की तब्लीग़ पर माइल करने की कोशिश अपनी-अपनी जगह पर अहम या मुस्तहसन सही लेकिन इसको किसी नई जमालियात का संग-ए-बुनियाद नहीं कहा जा सकता। ज़ियादा से ज़ियादा ये कह सकते हैं कि इन ख़यालात की रौशनी में (जो तक़रीबन सब के सब हाली या सामने के मग़रिबी मुसन्निफ़ों से मुस्तआ'र थे) तरक़्क़ी-पसंद नज़रिया-साज़ों के लिए मुम्किन था कि वो नई जमालियात की ता'मीर के लिए कोशाँ होते, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

    हुआ सिर्फ़ ये कि एक तरफ़ तो डॉक्टर अब्दुल अ'लीम और सज्जाद ज़हीर वग़ैरह जो निसबतन मुतवाज़िन ज़हन के लोग थे और जो हमारी क़दीम अदबी रिवायत से पूरी तरह आगाह थे, उन्होंने तरक़्क़ी-पसंद शो'रा को इन सरगर्मियों से रोका जो उनके ख़याल में महज़ तख़रीबी थीं और उन्हें रिवायत से वाबस्ता रह कर शाइ'री में तजुर्बे करने का मशवरा दिया। दूसरी तरफ़ अख़्तर हुसैन रायपूरी ने तन्क़ीदी और फ़लसफ़ियाना फ़िक्र के बजाए जोश-जिहाद से काम लेते हुए ‘क़ब्ल-अज़-बुलूग़ जज़्बातियत’ का मुज़ाहिरा किया और ‘जज़्बातियत और नाक़िस फ़िक्र की वज्ह से’ उनकी तन्क़ीद का एक हिस्सा ‘मज़हका-ख़ेज़ हद तक दहशत-पसंदी का शिकार हो गया।’

    अख़्तर हुसैन रायपूरी ने अदब को इंसान का ‘एक अहम मआ'शी फ़रीज़ा’ तो क़रार दिया लेकिन इस नज़रिए की रौ से अदब की ख़ूबसूरती के बारे में तसव्वुरात में क्या तब्दीलियाँ अ'मल में आएँगी, इस सिलसिले में वो ख़ामोश हैं। सरदार जा'फ़री की फ़िक्र और उस्लूब में वज़ा'हत और पुख़्तगी निसबतन ज़ियादा थी। (वो ‘नया अदब’ के शरीक मुदीर थे और इसके पहले शुमारे का इदारिया इस तंबीह के लिए अहम है कि “माना कि हर पुरानी इमारत को ढाए बग़ैर नई ता'मीर नहीं बनाई जा सकती लेकिन ऐसी तख़रीब भी किस काम की जिसके बा'द ता'मीर के लिए मसाला ही मिल सके।”) लेकिन उन्होंने भी आ'ला शाइ'री को फ़र्द नहीं बल्कि पूरी जमाअ'त का तर्जुमान बनाने के अ'लावा ये वाज़ेह नहीं किया कि जो अदब पूरी जमाअ'त का तर्जुमान नहीं है, वो ख़ूबसूरत क्यों नहीं है।

    ये कहना ग़लत होगा कि ये उक़्दा तमाम तरक़्क़ी-पसंद शे'री नज़रियात के पस-ए-मंज़र में एक Disturbing Element की तरह मौजूद रहा है कि वो शाइ'री जो तरक़्क़ी-पसंद सियासी या समाजी नज़रियात की तर्जुमान होते हुए भी ख़ूबसूरत है, उसको किस ख़ाने में रखा जाए? सरदार जा'फ़री ने अपने एक अंग्रेज़ी मज़मून में इस उक़्दे की तरफ़ इशारा भी किया है।

    डॉक्टर अब्दुल अ'लीम ने अपनी बा'ज़ तहरीरों में तब्दीली की हक़ीक़त और एहमियत पर ज़ोर ज़रूर दिया और ये कहा कि ज़माने के साथ-साथ उस्लूब-ए-बयान बदलता रहता है और बसा-औक़ात ज़बान-ओ-अदब का मेया'र इस तेज़ी से बदलता है कि लोग इस तग़य्युर का साथ नहीं दे पाते। लेकिन अक़्दारी हैसियत से वो तब्दीलियाँ क्या थीं, इस सवाल के जवाब में उनकी भी तहरीरें ख़ामोश हैं।

    ख़लील-उर-रहमान आ'ज़मी ने अपनी किताब ‘उर्दू में तरक़्क़ी-पसंद अदबी तहरीक’ का एक अहम हिस्सा इस बात की वज़ा'हत में सिर्फ़ किया है कि तरक़्क़ी-पसंद नज़रिया-साज़ों ने तब्दीली और तवाज़ुन दोनों की ताईद की मगर ये बात कहीं से साफ़ नहीं होती कि शे'र की बदली हुई ख़ूबसूरती के बारे में कोई तरक़्क़ी-पसंद नज़रिया था क्या? दर-अस्ल तरक़्क़ी-पसंद नज़रिया शे'री जमालियात से ज़ियादा शे'री तफ़ाउ'ल में उलझा हुआ था, लिहाज़ा हुस्न का मेया'र बदलने का दा'वा रखने के बा-वजूद मेया'र बदलने की नज़रियाती कोशिश तरक़्क़ी पसंदों से हो सकी।

    जो काम वो कर गए वो ब-ज़ात-ए-ख़ुद बहुत अहम था या'नी उन्होंने अदब को एक समाजी कार-गुज़ारी और इन्क़िलाब का आ'ला-ए-कार बनाकर दिखाया। अगरचे इसके नतीजे में उनका बहुत सारा अदब इफ़रात-ओ-तफ़रीत और सतहिय्यत का शिकार हो गया, लेकिन अदबी हक़ीक़त के एक अहम पहलू पर लोगों की निगाहें ज़रूर मुर्तकिज़ हो गईं। तरक़्क़ी-पसंद तहरीक इस हद तक यक़ीनन एक इस्लाही तहरीक थी, लेकिन शे'री जमालियात की दुनिया में उसे इन्क़िलाबी तहरीक नहीं कहा जा सकता।

    बा'ज़ जदीद लोगों ने भी तरक़्क़ी-पसंदों की देखा-देखी इशारतन या सराहतन ये कहा कि जदीद शाइ'री की ख़ूबसूरती क़दीम शाइ'री की ख़ूबसूरती से मुख़्तलिफ़ है, या'नी जिन मेया'रों की रौ से जदीद शाइ'री ख़ूबसूरत साबित होती है उनका इतलाक़ क़दीम शाइ'री पर नहीं हो सकता। इस नज़रिए का तजज़िया कीजिए तो मुंदरजा-ज़ेल बातें सामने हैं,

    (1) क्या जदीद शाइ'री को ख़ूबसूरत साबित करने वाले मेया'र वक़्ती और महदूद सच्चाई के हामिल हैं? अगर ऐसा है तो जदीद शाइ'री भी कल-कलाँ किसी ऐसे मेया'र से दो-चार हो सकती है जिसकी रौशनी में वो बदसूरत साबित हो। क्या ये सूरत-ए-हाल किसी भी ऐसे नक़्क़ाद या शाइ'र के लिए क़ाबिल-ए-क़ुबूल होगी जो शाइ'री को हुस्न का इज़हार मानता है? (ज़ाहिर है कि तरक़्क़ी-पसंद भी शाइ'री को हुस्न का इज़हार मानते हैं।)

    (2) वो मेया'र जिनके ए'तिबार से क़दीम शाइ'री ख़ूबसूरत है, सिर्फ़ क़दीम शाइ'री पर ही क्यों जारी किए जाएँ? वो कौन से मंतक़ी हक़ाएक़ हैं जिनकी बिना पर वो मेया'र अब ग़लत साबित हो गए?

    (3) जिन मेया'रों के ए'तिबार से क़दीम शाइ'री को ख़ूबसूरत साबित किया जाता था और जिनको अब ग़लत कहा जा रहा है, उनका इतलाक़ अब जदीद शाइ'री पर हो और नतीजे के तौर पर जदीद शाइ'री बदसूरत साबित हो तो ये क़ुसूर इन मेया'रों का ही क्यों ठहराया जाए? जदीद शाइ'री मोरीद-ए-इल्ज़ाम क्यों हो?

    (4) क्या मेया'र से कोई तरीक़-ए-कार मुराद है या कोई ऐसा फ़िक्री निज़ाम भी मेया'र की पुश्त-पनाही करता है जो बजा-ए-ख़ुद मुकम्मल हो? अगर कोई फ़िक्री निज़ाम मेया'र की पुश्त-पनाही के लिए मौजूद है तो क्या इस निज़ाम के ज़रीए' सिर्फ़ एक ही तरीक़-ए-कार को इस्तिहकाम मिल सकता है?

    (5) अगर मैं जदीद शाइ'री के लिए कुछ मख़्सूस मेया'रों के वजूद का दा'वा रखता हूँ तो क्या शय मुझे ये कहने से माने' हो सकती है कि चूँकि इन मेया'रों का इतलाक़ क़दीम शाइ'री पर नहीं हो सकता, लिहाज़ा क़दीम शाइ'री बदसूरत है। अगर मैं ये कहूँ तो क्या आप इस नुक़्ता-ए-नज़र को क़ुबूल करेंगे? (ज़ाहिर है कि नहीं)

    मुंदरजा-बाला ख़यालात की रौशनी में ये नतीजा निकालना आसान है कि जदीद जमालियाती मेया'रों की तलाश या उनकी तख़्लीक़ का दा'वा अदब की तारीख़ी हक़ीक़त को नजर-अंदाज़ करता है और उसकी मंतक़ी वहदत से भी रू-गर्दां है। अगर हर ज़माने के अदब के लिए जमालियाती तसव्वुरात बदलते जाएँ तो इस बात के तअ'य्युन में दुश्वारी तो होगी ही कि किस ज़माने को कब शुरू' और कब ख़त्म, किस मेया'र को कब साक़ित और कब मो'तबर समझा जाए।

    इसके अ'लावा एक बहुत बड़ी मुश्किल ये होगी कि किसी अहद के तमाम मेया'रात-ओ-नज़रियात को कल-अदम क़रार दिया जाना तारीख़ी हैसियत से मुम्किन होने की वज्ह से बार-बार ये झगड़ा उठेगा कि फ़ुलाँ-फ़ुलाँ मेया'र फ़ुलाँ-फ़ुलाँ ज़मानों में मुश्तरक थे और फ़ुलाँ फ़ुलाँ मेया'र फ़ुलाँ-फ़ुलाँ वक़्तों में साक़ित हो गए। लेकिन ये भी मुम्किन होगा कि जो मेया'र एक-बार मुस्तरद हो चुके थे वो सब या उनमें से कुछ मेया'र-ओ-तसव्वुरात दोबारा राइज हो गए।

    ज़ाहिर है कि इस तरह की पेचीदगी महज़ मकतबी एहमियत नहीं रखतीं, बल्कि अगर इनको क़ुबूल किया गया तो पूरे अदब की हैसियत मुश्तबा और मशकूक हो जाएगी। तरक़्क़ी-पसंद नज़रिया-साज़ों के ज़हनों में ये बातें साफ़ नहीं थीं, लेकिन चूँकि उन्होंने एक तरह के Auto Suggestion की बिना पर जमालियाती मेया'र की तग़य्युर-पज़ीरी का नज़रिया क़ुबूल कर लिया था, इसलिए इस नज़रिए के मुतज़क्किरा-बाला मुज़्मिरात उन्हें परेशान करते रहे।

    कभी उन्होंने टैगोर और ‘इक़बाल’ को टाट बाहर किया, लेकिन बा'द में दोनों को मस्नद-ए-आ'लिया पर मुतमक्किन करने की कोशिश की और इस सिलसिले में उनके कलाम में (अलल-ख़ुसूस ‘इक़बाल’) के यहाँ वो अ'नासिर दरियाफ़्त या ईजाद किए जिनकी बिना पर उन्हें तरक़्क़ी-पसंद इन्क़िलाब का मोबल्लिग़ साबित करने में दुश्वारी हो।

    कभी उन्होंने ग़ज़ल को गर्दन-ज़दनी क़रार दिया लेकिन फिर इस बेघर की लड़की को बड़े तज़क-ओ-एहतिशाम से हिबाला अक़्द में लाकर घर की रौनक़ और शम'अ-ए-महफ़िल बनाया, कभी उन्होंने आज़ाद नज़्म को रजअ'त-परस्त ज़हनियत का आईना-दार बनाया लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता इस काफ़िरी में उन्हें इस्लाम की झलक दिखाई देने लगी। कभी उन्होंने महसूस किया कि सूफ़ियाना शाइ'री तो दर-अस्ल एक तरह की समाजी ख़िदमत है।

    ये सब पापड़ इसीलिए बेले गए कि वो क़दीम जमालियाती तसव्वुरात के जिस पहलू को दरिया-बुर्द करते, उसका भूत जल्द या ब-देर उनके दरवाज़े पर हाज़िर हो जाता। इस तमाम दर्द-ए-सरी से नजात उसी वक़्त मुम्किन है जब अदब में ख़ूबसूरती की क़द्रों को क़ाएम-ओ-दाएम मान लिया जाए। लेकिन जमालियाती मेया'र और जमालियाती तरीक़-ए-कार में इम्तियाज़ भी तन्क़ीद-ए-फ़िक्र की एक लाज़िमी कार-गुज़ारी है।

    हक़ीक़त ये है कि जमालियाती मेया'रों में तौसीअ' और पहले से मौजूद तसव्वुरात की ता'बीर-ए-नौ के ज़रीए' नए-नए तरीक़ा-हा-ए-कार की दरियाफ़्त एक तारीख़ी अ'मल है। जमालियाती तरीक़-ए-कार से मेरी मुराद ये है कि ख़ूबसूरती की मुतअ'य्यन और मौजूद ता'रीफ़ में कोई ख़लल पड़े, लेकिन ख़ूबसूरती को ख़ल्क़ करने के लिए जो तरीक़-ए-कार किसी मख़्सूस ज़माने तक या ज़माने में राइज हों, उनके अ'लावा भी बा'ज़ तरीक़-ए-कार दरियाफ़्त, ईजाद या दोबारा मुतआ'रिफ़ किए जाएँ।

    जमालियाती मेया'रों की तौसीअ' से मेरी मुराद ये हँ कि ख़ूबसूरती की मुरव्वजा ता'रीफ़ की रौशनी में मसलन दस चीज़ें ख़ूबसूरत ठहरती हों तो हम ये दिखाएँगे कि इसी ता'रीफ़ की रौशनी में इन दस के अ'लावा भी कुछ चीज़ें ख़ूबसूरत ठहरती हैं।

    जमालियाती मेया'रों में इस तौसीई' सरगर्मी से ख़ौफ़-ज़दा होना चाहिए और ना इस ख़ुश-फ़हमी में मुब्तिला होना चाहिए कि नए मेया'र वज़ा' हो रहे हैं। ख़ौफ़-ज़दा होने वाले कहते हैं कि साहब अगर इस तरह हर नस्ल या हर ज़माने के अदीब और नक़्क़ाद ख़ूबसूरत चीज़ों की फ़ेहरिस्त में इज़ाफे़ करते रहे तो एक वक़्त वो आएगा जब तमाम चीज़ें ख़ूबसूरत ठहरेंगी।

    इस सवाल के कम-अज़-कम दो जवाब मुम्किन हैं। अव्वल तो ये कि अगर ख़ूबसूरती के क़ाएम-ओ-दाएम मेया'रों की रौशनी में तमाम दुनिया की तमाम चीज़ें ख़ूबसूरत साबित हो सकती हैं तो आप कर भी क्या लेंगे? नए मेया'र आप बना नहीं सकते। (इसकी मुख़्तसर वजूह ऊपर गुज़र चुकीं, बा'ज़ मंतक़ी इस्तिदलाल मैं आइंदा पेश करूँगा) लिहाज़ा आपके पास चारा ही क्या है? अगर तमाम दुनिया ख़ूबसूरत साबित हो जाए तो होने दीजिए, आप नाराज़ क्यों होते हैं? आख़िर आपके पेश-रवों ने तस्लीम कर ही लिया कि आज़ाद नज़्म भी ख़ूबसूरत है और पाबंद नज़्म भी और दोनों की ख़ूबसूरती के सबूत भी मुश्तरक हैं। इसी तरह आप भी कुछ और चीज़ों की ख़ूबसूरती के लिए मो'तबर और मुनासिब सबूत मिलने पर उन्हें हसीन लीजिए।

    इसके जवाब में कहा जा सकता है कि मुम्किन है मंतिक़ मेरी गर्दन दबा कर कोई बात मुझसे मनवा ले लेकिन मेरी रूह और दिल भी उसे क़ुबूल कर लें, ये मंतिक़ के बस का रोग नहीं है, लेकिन इस दलील में एक नहीं बल्कि कई क़बाहतें हैं। सबसे पहली बात तो ये कि तारीख़ इस बात की शाहिद है कि अगर मंतिक़ या मुशाहिदे ने किसी बात को साबित कर दिया तो लोगों के रूह-ओ-दिल ने भी उसे क़ुबूल कर लिया। ये इस वज्ह से भी कि अक्सर अश्या की फ़हम भी उसी वक़्त हासिल होती है जब उन्हें क़ुबूल कर लिया जाए या कम से कम उन्हें रद्द नहीं किया जाए। सैंट आगस्टाइन (St. Augustine) ने बड़े पते की बात कही है कि, “मैं एतिक़ाद करता हूँ ताकि समझ सकूँ।”

    पास्कल (Pascal) ने ख़ुदा के वजूद से बहस करते हुए भी यही नुक़्ता-ए-नज़र इख़्तियार किया है कि वजूद-ए-ख़ुदावंदी के सबूत में जिन मोजिज़ात वग़ैरह को पेश किया जाता है उनके मुवाफ़िक़ दलाएल इतने मज़बूत हैं कि उन्हें क़ुबूल कर लिया जाए और इतने कमज़ोर हैं कि उन्हें रद्द कर दिया जाए, लिहाज़ा इन दलाएल का ‘इक़बाल’ या इंकार अ'क़्ल की रौशनी में नहीं हो सकता। मुराद ये है कि मंतिक़ की रौ से साबित हो जाने पर भी आपका दिल किसी हक़ीक़त को क़ुबूल करे, लेकिन उसे रद्द भी नहीं कर सकता और जब रद्द भी नहीं कर सकता तो फिर उसका ‘इक़बाल’ भी बस ज़रा ही फ़ासले पर है। ये बात ज़ाहिर है कि आज़ाद नज़्म और तरक़्क़ी-पसंद बोतीक़ा के साथ यही हुआ।

    दूसरी बात ये है कि ख़ूबसूरत चीज़ को ख़ूबसूरत मान लेने की सलाहियत हमारी एक बुनियादी सलाहियत बल्कि जिबिल्लत है। अगर कांट के नज़रियात को तस्लीम भी किया जाए (मैं तस्लीम नहीं करता) फिर भी ये बात तारीख़ी ए'तिबार से साबित है कि तमाम ख़ूबसूरत चीज़ों में एक तरह का गहरा रब्त होता है, चाहे वो मुज़्मिर रब्त हो या वाज़ेह दिखाई दे।

    चीनी और यूरपी शाइ'री से मुख़्तलिफ़ अश्या का तसव्वुर मुश्किल हो सकता है लेकिन जब एज़रा पाऊंड ने ऐडवर्ड फ़ेनोलोसा (Edward Fenollosa) के मुसव्विदात पर मबनी अपने तराजिम शाया' किए और आर्थर वेली (Arthur Waley) ने चीनी नज़्मों के तर्जुमों का सिलसिला शुरू' किया तो थोड़े ही दिनों में उनकी ख़ूबसूरती का ग़लग़ला मच गया।

    ये बात क़ाबिल-ए-लिहाज़ है कि एज़रा पाऊंड ता-हयात कोशिश के बा-वजूद इन जमालियाती नज़रियात को क़ुबूलीयत की सनद दिलवा सका जो उसने ब-ज़ो'म-ए-ख़ुद फ़ेनोलोसा के उन्हीं मुसव्विदात से बरामद किए थे। लेकिन चीनी शाइ'री को जदीद मग़रिबी शे'री रवायात का जुज़ बनने में कोई देर लगी। तीसरी बात ये है कि अगर किसी चीज़ की ख़ूबसूरती साबित हो जाए तो फिर आपके मानने मानने से कोई फ़र्क़ पड़ता।

    बहर-हाल ये तो ख़ौफ़-ज़दा लोगों के इस एतिराज़ का, कि अगर हर ज़माने में ख़ूबसूरत चीज़ों की फ़ेहरिस्त में इज़ाफ़ा होता रहा तो एक वक़्त वो आएगा, जब तमाम दुनिया की तमाम चीज़ें ख़ूबसूरत ठहरेंगी, पहला जवाब हुआ।

    दूसरा जवाब ये कि तारीख़ हमें बताती है कि ख़ूबसूरत चीज़ों की फ़ेहरिस्त में इज़ाफ़ा आसानी से नहीं होता बल्कि अक्सर तो सदियाँ गुज़र जाती हैं तब कहीं एक-आध इज़ाफ़ा होता है। उर्दू की मिसाल लीजिए कि हमारे यहाँ मरसिए की हैअत के लिए मुसद्दस को क़ुबूल किया गया। नज़्म की हैअत के लिए मु'अर्रा-नज़्म और एक तरह की आज़ाद नज़्म शाइ'री के हलक़े में दाख़िल हुई। ग़ज़ल की बहर में ‘मीर’ ने हिन्दी से मुस्तआ'र लेकर एक बहर को मुरव्वज किया। इससे ज़ियादा हमारी फ़ेहरिस्त में कुछ नहीं। शाइ'री के महासिन की ता'दाद इतनी ही इतनी है। बस ये हुआ कि बा'ज़ महासिन को बा'ज़ शो'रा ने ज़ियादा नुमायाँ किया और बा'ज़ को कम।

    दूसरी बात ये है कि बहुत सी ख़ूबसूरत चीज़ें अ'मली दुनिया में बेकार या तक़रीबन बेकार होती हैं, उनको ख़ूबसूरत मानने से कोई इंतिशार नहीं बरपा होता, मसलन ग़ुरूब-ए-आफ़्ताब के मंज़र को ख़ूबसूरत मान लेने से अ'मली दुनिया में कोई छोटा सा भी हंगामा पैदा नहीं हुआ। ख़ूबसूरत चीज़ों में अस्लन कोई फ़ित्ना-अंगेज़ी या इंतिशार-पर्दाज़ी नहीं होती, लिहाज़ा उनकी फ़ेहरिस्त में तौसीअ'-ओ-इज़ाफ़ा ख़तरनाक नहीं हो सकता।

    (ये ख़याल रहे कि ख़ूबसूरत अश्या और ख़ूबसूरत आमाल अलग अलग चीज़ें हैं। अ'मल दर-हक़ीक़त अश्या का तफ़ाउ'ल है। ये मुम्किन है कि कोई चीज़ ख़ूबसूरत हो लेकिन उसका तफ़ाउ'ल ख़तरनाक हो, या कोई चीज़ बदसूरत हो लेकिन इसका तफ़ाउ'ल ख़ूबसूरत हो या फ़ाइदे-मंद हो, ख़ूबसूरती की क़द्र-ए-आ'म अख़्लाक़ी हैसियत से बे-मअ'नी है क्योंकि वो अपना ही निज़ाम-ए-अख़्लाक़ रखती और उसकी ताबे' होती है।)

    तीसरी बात ये है कि बहुत सी ख़ूबसूरत चीज़ें अपनी ख़ूबसूरती बर-क़रार रखते हुए अपनी कार-आमदगी खो देती हैं। मरसिए के लिए मुसद्दस की हैअत या क़सीदे की शाइ'री इसकी मिसालें हैं। इसमें कोई शुबह नहीं कि मरसिए के लिए मुसद्दस निहायत ख़ूबसूरत चीज़ है और इसमें भी कोई शुबह नहीं कि अ'रबी फ़ारसी उर्दू शे'रियात के लिए क़सीदा ख़ूबसूरत शाइ'री है लेकिन आज मुसद्दस तक़रीबन और क़सीदा कुल्लियतन मतरूक है। इस तर्क के बा-वजूद उनकी ख़ूबसूरती मुसल्लम है, लिहाज़ा ख़ूबसूरत अश्या की फ़ेहरिस्त में इज़ाफे़ का ये नतीजा लाज़िमी नहीं कि ये फ़ेहरिस्त ना-मुम्किन हद तक तवील हो जाएगी और अ'मली दुश्वारियाँ पैदा करेगी। दर-अस्ल ये होगा कि बा'ज़ ख़ूबसूरत चीज़ें ख़ूबसूरत लेकिन मतरूक हो जाएँगी और बा'ज़ दूसरी चीज़ें फ़ेहरिस्त में दाख़िल हो जाएँगी।

    यहाँ ये सवाल उठ सकता है कि अगर ख़ूबसूरत अश्या की फ़ेहरिस्त में इज़ाफ़ा मुम्किन है तो इस फ़ेहरिस्त से बा'ज़ चीज़ों का इख़राज भी मुम्किन होना चाहिए। अगर ऐसा है तो फिर इस इख़राज को तौसीअ' का नाम नहीं दे सकते। ये एक तरह की तंसीख़ ही हुई और अगर तंसीख़ हुई तो फिर ये दा'वा सही हो जाता है कि ख़ूबसूरती के मेया'र बदल सकते हैं। ये बात ब-ज़ाहिर दिल को लगती हुई है लेकिन इसमें भी कई घपले हैं। सबसे पहले तो इस नुक्ते पर ग़ौर कीजिए कि इज़ाफ़ा और इख़राज, अ'मल और रद्द-ए-अ'मल की हैसियत नहीं रखते। या'नी ऐसा नहीं है कि फ़ेहरिस्त के मशमूलात की ता'दाद मुतअ'य्यन है, लिहाज़ा अगर इसमें चार इज़ाफे़ हूँ तो चार इख़राज भी हों ताकि ता'दाद बराबर रहे।

    ख़ूबसूरत अश्या की फ़ेहरिस्त राज्य सभा के मैंबरान की फ़ेहरिस्त नहीं है जिसमें से हर साल एक तिहाई नाम ख़ारिज होते हैं और कुल ता'दाद के एक तिहाई नाम इज़ाफ़ा किए जाते हैं। अगर ये मान लिया जाए तो इस बुनियादी नज़रिए से हाथ धोना पड़ेगा जिसकी रौ से ख़ूबसूरत अश्या की फ़ेहरिस्त ला-मुतनाही हो सकती है। ऐसा नहीं है कि ख़ूबसूरत अश्या की फ़ेहरिस्त से इख़राज वाक़े' नहीं होता, होता है। लेकिन ये एक ख़ुद-कार अ'मल नहीं बल्कि एक तरह की ज़बरदस्ती होती है।

    मिसाल के तौर पर हाली या हसरत मोहानी ने रिआ'यत-ए-लफ़्ज़ी को ख़ूबसूरत चीज़ों की फ़ेहरिस्त से निकाल दिया। कुछ दिन बा'द लोगों को ख़ुद ही महसूस होने लगा कि रिआ'यत-ए-लफ़्ज़ी को बिरादरी बाहर कर देने की वज्ह से शे'र में तज़ईनी पहलू कम हो गया। फिर ये भी देखा गया कि ‘ग़ालिब’ और ‘मीर’ और ‘अनीस’ क्या, ‘इक़बाल’ तक के यहाँ रिआ'यत-ए-लफ़्ज़ी के इतने पहलू मौजूद हैं कि अगर उनको ख़ूबसूरत माना जाए तो शाइ'री के बुनियादी तफ़ाउ'ल और अच्छी शाइ'री की एक दाख़िली सिफ़त से दस्त-बरदार होना पड़ेगा, या फिर ये कहना पड़ेगा कि रिआ'यत-ए-लफ़्ज़ी को मिन्हा करके भी ‘ग़ालिब’ या ‘अनीस’ वग़ैरह का कोई मुक़र्ररा शे'र पहले ही इतना ख़ूबसूरत रहेगा। ज़ाहिर है कि कौन माई का लाल कह सकता है कि,

    ‘ग़ालिब’

    हुस्न-ओ-फ़रोग़ शम्अ'-ए-सुख़न दूर है ‘असद’

    पहले दिल-ए-गुदाख़्ता पैदा करे कोई

    ‘अनीस’

    पैहम चले प' ज़ोर घटा कुछ कस गया

    जब चमके मींह सुरों का सरासर बरस गया

    इन अशआ'र का हुस्न रिआ'यत-ए-लफ़्ज़ी या'नी फ़रोग़, शम्अ', गुदाख़्ता, दिल, हुस्न, सुख़न-ए-दिल (‘ग़ालिब’) और ज़ोर, घटा, चमके, बरस, मींह, पैहम, सुरों, सरासर, ज़ोर, कस (‘अनीस’) की मुनासिबतों को मिन्हा कर देने के बा'द भी बाक़ी रहेगा?

    ख़ूबसूरती की फ़ेहरिस्त कोई सहीफ़ा-ए-ख़ुदावंदी नहीं जिसकी तंसीख़ या जिसमें से एक-आध चीज़ों का हज़्फ़ कुफ़्र हो, लेकिन चूँकि ख़ूबसूरत अश्या को इंसान अपनी फ़ितरी मुनासिबत की बिना पर पहचानता है, इसलिए जो चीज़ एक-बार ख़ूबसूरत मान ली जाए फिर उसे बदसूरत कहना मुम्किन नहीं होता। तर्क-ओ-इख़्तियार का तअ'ल्लुक़ फ़ैशन, ज़ौक़ और तिब्बी तर्जीहात से है, लिहाज़ा तर्क-ओ-इख़्तियार की दलील इस बात को साबित कर सकेगी कि ख़ूबसूरती के मेया'र या उसकी फ़ेहरिस्त में तंसीख़ मुम्किन है।

    अब यहाँ ये बात भी साफ़ कर ली जाए कि जमालियाती मेया'र को तग़य्युर-पज़ीर क्यों नहीं कहा जा सकता और फ़ैशन या ज़ौक़-ए-आ'म को जमालियाती मेया'र का दर्जा क्यों दिया जाए? दूसरे सवाल का अदाई जवाब तो यही मुम्किन है कि जब मैं जमालियाती मेया'र को ग़ैर-तग़य्युर-पज़ीर कहता हूँ तो फ़ैशन या ज़ौक़ की तब्दीली को जमालियाती मेया'र का दर्जा-ए-ला-मुहाला दूँगा, लेकिन ज़ाहिर है कि ये महज़ अ'‌क़्ली गदा है। इसकी मिसाल यूँ होगी कि मैं दा'वा करूँ कि तमाम बिल्लियों के चार कान होते हैं। अब जिस बिल्ली को आप दो कान वाली साबित कर देंगे मैं फ़ौरन कह दूँगा कि ये बिल्ली ही नहीं है।

    कार्ल पौपर (Karl Popper) ने इस इस्तिदलाल को ग़ैर-साईंसी कहा है, इसलिए नहीं कि ये तरीक़-ए-कार ग़लत है, बल्कि इसलिए कि इसकी तकज़ीब नहीं हो सकती। साईंसी इस्तिदलाल वो इस्तिदलाल है जो उस वक़्त तक सही है जब तक उसकी तकज़ीब हो। जब उसकी तकज़ीब हो जाएगी तो अगला या'नी तकज़ीबी इस्तिदलाल साईंसी माना जाएगा। अब ये इस नज़रिए से नबर्द-आज़मा होने वालों का काम है कि उसकी तकज़ीब में इस्तिदलाल लाएँ।

    मेरा कहना ये है कि फ़ैशन या ज़ौक़-ए-आ'म को जमालियाती मेया'र का ए'तिबार इसलिए नहीं मिल सकता कि जमालियाती मेया'र में कहीं कहीं, किसी किसी तरह, एक लाज़िमियत होती है। ये लाज़िमियत पहली सत्ह पर उस ज़बान का फ़ासिला होती है जिसके अदब में वो जमालियाती मेया'र जारी-ओ-सारी है और दूसरी सत्ह पर तमाम अदब का (या'नी उस तमाम अदब का जिसे आ'ला अदब कहा जाता है) ख़ासा होती है।

    ज़बान की माहियत पर जदीद ग़ौर-ओ-फ़िक्र ने ये बात बड़ी हद तक साबित कर दी है कि ज़बान की अस्ल और उसके सर चश्मे इंसानी ला-शऊ'र और इसकी हैआतियाती हक़ीक़त ही में कहीं पोशीदा हैं। ज़बान के वजूद का ब्यवहारी नज़रिया अब तक़रीबन मुस्तरद हो चुका है। इस इस्तिर्दाद का बेश्तर ए'ज़ाज़ चॉम्स्की को है जिसने ज़बान के मुख़्तलिफ़ मज़ाहिर के बारे में साबित किया है कि इंसान उन्हें अपने माहौल से नहीं बल्कि अपने बुतून से हासिल कर सकता है।

    इस तसव्वुर का आग़ाज़ बरट्रंड रसल और विटगेनस्टाइन (Wittgenstien) के अ'लावा मास्को स्कूल के माहिरीन-ए-लिसानियात के यहाँ भी ढ़ूँडा जा सकता है, लेकिन इसको मुशर्रेह और मुंज़बित शक्ल में पेश करने का सहरा नोआ'म चॉम्स्की (Noam Chomsky) के सर है। चॉम्स्की का अ'ज़ीम-तरीन कारनामा या उसकी अ'मीक़-तरीन बसीरत ये है कि उसने इस बात पर इसरार किया कि इंसान के लिसानी ब्यवहार की तौज़ीह-ओ-तफ़्सील में इस नुक्ते पर पूरा ध्यान देना ज़रूरी है कि हम सैकड़ों अल्फ़ाज़ के गिरोहों, जोड़ों और फ़िक़रों यानी Combination and sets को बे-तकान और बे-मअ'नी इस्ति'माल करते चले जाते हैं लेकिन इन फ़िक़रों या गिरोहों को हमने किसी से सीखा नहीं होता और ही हमारे माहौल में किसी ऐसे मुहीज की निशान-देही की जा सकती है जिनको इन इस्ति'मालात का सर-चश्मा क़रार दिया जा सके। जॉर्ज स्टाइनर (Goerge Steiner) ने चॉम्स्की पर जो मुफ़स्सिल मज़मून लिखा है, उस पर इज़हार-ए-ख़याल करते हुए चॉम्स्की एक जगह कहता है,

    “(मेरे ख़यालात की) सही-तर तर्जुमानी इस मफ़रुज़े से होगी कि क़वाइ'द के बुनियादी उसूल इंसानों के ज़हनों में ज़ेर-ए-सत्ह वाक़े' होने वाले या मौजूद रहने वाले स्ट्रकचरों को पैदा करते हैं और दर्जा-ब-दर्जा इन ज़ेर-ए-सत्ह स्ट्रकचरों को सत्ह पर नुमायाँ शक्ल में मुतबद्दिल कर देते हैं और सत्ह पर नुमायाँ स्ट्रकचर फिर सौतियाती इस्तेलाहों (या'नी अल्फ़ाज़) के ज़रीए' रास्त इज़हार हासिल कर सकते हैं।”

    जब ये बात मान ली गई कि ज़बान और उसका अ'मल दोनों इंसान की हैअतयाती हक़ीक़त से ज़ियादा मुतअ'ल्लिक़ और माहौल या ब्यवहार का असर उन पर कम-तर पड़ता है, तो फिर ये तस्लीम कर लेना भी मुश्किल होगा कि ज़बान के बेहतरीन इज़हार, या'नी अदब में जो जमालियाती उसूल कार-फ़र्मा होंगे, उनमें एक तरह की लाज़िमियत और अस्लियत होगी।

    उनका तअ'ल्लुक़ फ़ैशन, ज़माने की हवा, माहौल के दबाव और मज़ाक़-ए-आ'म से होगा। मज़ाक़-ए-आ'म और फ़ैशन वग़ैरह इंसान के तख़्लीक़-कर्दा मुद्रिकात हैं लेकिन ज़बान अ'मीक़-तरीन सत्ह पर जिस तरह इंसान को इज़हार पर मजबूर करती है, इन उसूलों पर इंसान का हुक्म नहीं चलता।

    ‘ग़ालिब’ का मशहूर वाक़िआ' आपको मा'लूम होगा कि उन्होंने लड़कपन में एक ग़ज़ल की रदीफ़ ‘कि चे’ ब-मअ'नी ‘या'नी चे’ रखी तो उनके मौलवी-साहब बहुत ख़फ़ा हुए कि क्या मोहमल तरकीबें और फ़िक़रे गढ़ते रहे हो। कुछ दिन बा'द ‘ग़ालिब’ को यही ‘कि चे’ ब-मअ'नी ‘या'नी चे’ ज़ुहूरी के यहाँ मिल गया और उस्ताद को क़ाइल होना पड़ा।

    वाक़िआ' ग़लत हो या सही, लेकिन इससे इंसानी ज़बान के सर-चश्मों पर रौशनी ज़रूर पड़ती है कि इंसान को अगर इज़हार से मुनासिबत हो तो ला-शऊ'र या हैअती अ'मल के ज़रीए' वो ऐसे अल्फ़ाज़ और फ़िक़रे दरियाफ़्त या इख़तिराअ' कर लेता है जिनका उसके इ'ल्म या माहौल से कोई तअ'ल्लुक़ साबित नहीं हो सकता। आख़िर लोगों ने हज़ारों तराकीब, इस्तिआ'रे, फ़िक़रे और कहावतें किस तरह बना लीं।

    अगर ब्यवहारी (Behaviorist) नज़रिया-ए-लिसान बिल्कुल दुरुस्त नहीं है तब भी ये कहना पड़ेगा कि फ़ारसी उर्दू अहल-ए-ज़बान ने जो नई तरकीबें ज़बान में दाख़िल की हैं उनका वजूद ही नहीं है। ज़ाहिर है कि मसलन ‘ख़ामा-ए-ज़रीं’ और ‘शाख़-ए-आफ़ताबी’ ब-मअ'नी ‘शुआअ'-ए-आफ़ताब’ और ‘शाख़-ए-ना शिकस्ता’ ब-मअ'नी ‘जवान मग़रूर गर्दनकश’ क़िस्म की हज़ारों इस्तिआ'राती तरकीबें जो लोगों ने पहली बार इस्ति'माल की होंगी, उन्होंने इनको मदरसों में तो पढ़ा होगा और अगर मदरसे में पढ़ा होगा तो वहाँ तो आख़िर किसी ने उन्हें पहली बार अपनी जौदत-ए-तब्अ' से इख़्तिराअ' किया होगा।

    हासिल-ए-कलाम ये कि जब ज़बान का वजूद हैअतयाती ज़ियादा है, मंतक़ी और ख़ारिजी कम, तो लिसानी इज़हार की ख़ूबसूरती के तरीक़े वक़्तन-फ़वक़्तन जब्रिया दबाव के तहत कुछ टस से मस तो नहीं हो सकते हैं लेकिन फ़ैशन और मज़ाक़-ए-आ'म के तग़य्युर से मुतअ'ल्लिक़ नहीं हो सकते। शाइ'री में लिसानी तोड़-फोड़ की कोई ऐसी मिसाल नहीं है जो कुल्लियतन नई हो। तमाम तोड़-फोड़ के इम्कानात ज़बान के साथ-साथ वजूद में आते रहते हैं। आख़िर इसकी क्या वज्ह है कि ईरानियों ने अ'रबी, तुर्की, फ़्रांसीसी अल्फ़ाज़ तो मुस्तआ'र लिए और उन पर कस्रा-ए-इज़ाफ़त का अ'मल जाएज़ क़रार दिया लेकिन अ'रबी अलिफ़-लाम फ़्रांसीसी Dela या Du को क़ुबूल नहीं किया।

    ज़ाहिर है कि अल्फ़ाज़ का मुस्तआ'र लेना एक ख़ारिजी अ'मल है लेकिन क़वाइ'द एक दाख़िली और लाज़िमी सिफ़त है, लिहाज़ा ईरानियों ने ‘शुआअ-ए-आफ़ताब’ और ‘गुल-बदन’ और ‘माशीन ची’ तो बना लिए लेकिन फ़्रांसीसी या अ'रबी क़वाइ'द मुस्तआ'र नहीं ली। उर्दू के मुल्लाओं या'नी ज़बान-दानों ने यही ग़लती की कि उन्होंने फ़ारसी से अल्फ़ाज़ के अ'लावा क़वाइ'द भी मुस्तआ'र लेना चाही, इसलिए इन्होंने देसी और बिदेसी अल्फ़ाज़ के दरमियान कस्रा-ए-इज़ाफ़त को ग़लत समझा। नतीजा ये हुआ कि ज़बान इर्तिक़ा की एक बड़ी जिहत से महरूम कर दी गई।

    दूसरा नुक्ता ये है कि अगर फ़न्नी ख़ूबसूरती के मेया'र बदलते रहते हैं तो गुज़िश्ता ख़ूबसूरतियों की फ़हम और उनसे लुत्फ़-दोज़ी की राहें मस्दूद होना चाहिएँ। ज़ाहिर है कि ऐसा नहीं है। अजनबी ज़बान का सद-सिकंदरी उ'बूर कर सकने के बा-वजूद तर्जुमे के ज़रीए' हम ग़ैर-मुल्कों, दूर-उफ़्तादा तहज़ीबों और ज़मानों के अदब से लुत्फ़-अंदोज़ होते हैं। ख़ुद अपने ही तहज़ीबी पस-ए-मंज़र के वो मज़हरात जो उस तहज़ीबी आब-ओ-हवा के मिट जाने की वज्ह से हमसे दूर हो गए हैं, हमारे लिए अब भी ज़िंदा हैं। ‘ग़ालिब’ और ‘मीर’ तो फिर भी नज़दीक हैं। वो क्या चीज़ है जो हमें मुहम्मद क़ुली क़ुतुब शाह को समझने और उससे लुत्फ़-अंदोज़ होने में मुआ'विन होती है

    अगर जमालियाती मेया'र बदलने वाले होते तो उस ज़माने से ज़ियादा मुख़्तलिफ़ और मुनक़ते' ज़माना कौन सा होगा जिसमें दस-दस पंद्रह-पंद्रह बरस के अर्से में शहरों की शक्लें बदल जाती हैं। अख़्लाक़ी उसूल बदल जाते हैं और तहज़ीब के ज़ाहिरी मज़ाहिर इतनी क़लाबाज़ियाँ खा लेते हैं कि उल्टे सीधे का पता नहीं चलता। हम लोगों ने तक़्सीम-ए-हिंद जैसा ज़लज़ला-आगीं वाक़िआ' देखा है और जानते हैं कि 1947 के बा'द कोई चीज़ वैसी नहीं जैसी कि वो 1947 पहले थी। लेकिन इसके बा-वजूद गुज़िश्ता दिनों का अदब हमारे लिए बंद किताब नहीं है। सिर्फ़ इस वज्ह से कि फ़न्नी हुस्न के मेया'र अपनी अस्लियत और दाख़िलियत में वही हैं जो थे।

    मैं पहले कह चुका हूँ कि फ़न्नी ख़ूबसूरती का मेया'र नहीं बदलता लेकिन ये मुम्किन बल्कि मुस्तहसन है कि फ़न्नी ख़ूबसूरती या शे'री जमालियात के इस मेया'र को हासिल करने के लिए नए-नए तरीक़-ए-कार को नए मेया'र का इज़हार समझ लेते हैं। लेकिन इस नुक्ते की वज़ा'हत के पहले गुज़िश्ता से मुतअ'ल्लिक़ एक नुक्ता और है और जिस पर तब्सिरा ज़रूरी मा'लूम होता है।

    हमारे यहाँ शे'री जमालियात का ज़िक्र आ'म तौर पर इस नहज से होता है कि ये जमालियात सिर्फ़ शे'र ही पर मुंतबिक़ हो सकती है। ऐसा नहीं है। शे'री जमालियात की तफ़्कीरी असास इतनी उ'मूमी होती है या इतनी उ'मूमी होनी चाहिए कि वो कम से कम लिसानी तख़्लीक़ी इज़हार के तमाम पहलुओं का अहाता कर सके। या'नी जिन शे'री जमालियाती नज़रियात का इतलाक़ शे'र पर किया जाता है उन्हीं का कम-ओ-बेश इतलाक़ दूसरे अस्नाफ़-ए-सुख़न, अलल-ख़ुसूस अफ़्साने या'नी फ़िक्शन और ड्रामे पर हो सके।

    शे'रियात की इस वहदत का एहसास मग़रिबी मुफ़क्किरों और ख़ासकर उन जर्मन मुफ़क्किरों को शिद्दत से रहा है, जिन्होंने नॉवेल की नज़रिया-साज़ी में कार-हा-ए-नुमायाँ अंजाम दिए। नॉवेल का एक जदीद जर्मन मुफ़क्किर फ़राँज़ स्तांज़ेल (Franz Stanzel) कहता है, “जब कि ग़िनाइया और ड्रामाई अस्नाफ़ अपने बारे में एक मज़बूत नज़रियाती निज़ाम के वजूद का दा'वा कर सकती हैं, नॉवेल ख़ुद को ज़रा तंग सूरत-ए-हाल में पाता है। इसकी सबसे बड़ी वज्ह ये है कि दूसरी अदबी अस्नाफ़ और हैअतों के मुक़ाबले में नॉवेल की रिवायत ये रही है कि उसको कम-तर दर्जे की सिन्फ़ माना गया..”

    अदब-पारे की तज्सीम के दौरान इन्फ़िरादी अल्फ़ाज़ और जुमलों का मुंतशिर मफ़हूम ही क़ारी के तख़य्युल तक नहीं पहुँचता बल्कि आवाज़ और पैकर की सत्ह पर इज़हार की क़ुव्वत भी ब-रू-ए-कार आती और अफ़सानवी दुनिया को मुतअ'स्सिर करती है। ये बात दुरुस्त है कि नॉवेल में अदब-पारे की ये दो सत्हें (आहंग और पैकर-ओ-इस्तिआरा) मुश्किल ही से उस शिद्दत को छू पाती हैं जो कलाम-ए-मौज़ूँ में मुज़्मिर होती है। लेकिन नॉवेल की निसबतन ज़ियादा ज़ख़ामत की बिना पर इसका मजमूई' असर ज़ियादा पुर-क़ुव्वत होता है और नजर-अंदाज़ नहीं किया जा सकता...।

    बहर-हाल, इन सबसे ज़ियादा जिस बात का ख़याल नॉवेल के मुफ़स्सिरीन-ओ-शुर्राह को रखना चाहिए, वो तरीक़ा और नहज है जिससे बयानिये का धागा ब-तदरीज खुलते जाने के ज़रीए' क़ारी के तख़य्युल में एक दुनिया ख़ल्क़ होती है।”

    मुंदरजा-बाला इक़्तिबास से ये बात ज़ाहिर होती है कि नॉवेल की ता'बीर-ओ-तअ'य्युन-ए-क़द्र में वही उसूल किसी किसी तरह कार-फ़र्मा होंगे जो शाइ'री में ब-रू-ए-कार आते हैं। ड्रामे का मुआ'मला तो और भी साफ़ है क्योंकि वो तो नज़्म में भी लिखा जा सकता है, लिहाज़ा शे'री नज़रिया-साज़ हज़रात या तो ये साबित करें कि शे'री ख़ूबसूरती के मेया'रों में जो तब्दीलियाँ होती या हो रही हैं वो नॉवेल और ड्रामे के नज़रिए पर भी कारगर हैं या फिर ये कहें कि मुबैयना जदीद शे'री जमालियात नॉवेल और ड्रामे को नजर-अंदाज़ करती है। मावरा तख़्लीक़ी फ़न की नौइ'यत एक होती है। स्तायंसल का मुंदरजा-बाला बयान तो इसका शाहिद है ही लेकिन इसके अ'लावा नॉवेल की तमाम इ'ल्मी शे'रियात उस नज़रिए की तौसीक़ करती है।

    चुनाँचे नॉवेल के पहले अंग्रेज़ नज़रिया-साज़ फील्डिंग (Henry Fielding) ने इसे “नस्र में मज़ाहिया-अंदाज़ का रज़्मिया” कहा था और नॉवेल का रज़्मिया-पन जदीद फ़्रांसीसी नज़रिया-साज़ों मसलन मिशेल ब्यूटर (Michel Butor) और रोलैंड बार्थेस (Roland Barthes) ने भी तस्लीम किया है। रोलैंड बार्थेस ने तो अपनी बा'ज़ तहरीरों में नॉवेल के मुक़ाबले में अलमिये की शदीद मुख़ालिफ़त का दा'वा किया है। हर-चंद कि उसके ख़यालकात की नहज दूसरी है। (या'नी वो नॉवेल को नाम-निहाद अलमियाती मा'नवियत से आज़ाद कराना चाहता है) लेकिन बुनियादी बात ये है कि वो भी नॉवेल को एक तरह का रज़्मिया समझता है। उसका बयान है कि अलमिया महज़ इंसानी बद-नसीबी को जमा' करने और फिर उसे ज़रूरी क़रार देने का तरीक़ा है। ये बात अलग है, लेकिन नॉवेल की शे'रियात शाइ'री से मुख़्तलिफ़ नहीं होती, इसका उसे पूरा एहसास है। नॉवेल भी हक़ीक़त को ख़ल्क़ करता है, इसलिए उसका तफ़ाउ'ल वही है जो शाइ'री का है। मुलाहिज़ा हो,

    “लिहाज़ा माज़ी मुत्लक़ आख़िर सूरत-ए-हाल में नज़्म-ओ-ज़ब्त और उसके नतीजे में एक तरह के सुकूत और बे-हरकती का इज़हार है। ये इसी का नतीजा है कि हक़ीक़त ना-पुर-असरार और ना-ला-यानी मा'लूम होती है, बल्कि वाज़ेह और तक़रीबन मानूस हो जाती है और हर लम्हा दोबारा ख़ल्क़ होती हुई और तख़्लीक़ी फ़नकार के हाथों में इस्तिमरार पाती हुई दिखाई देती है।”

    रोबे ग्रिललेट (Robbe۔ Grillet) ज़रूर नॉवेल के लिए नई शे'रियात बनाने का दा'वा रखता है लेकिन उसका भी दा'वा दर-हक़ीक़त तरीक़-ए-कार को महदूद है, इस पर आइंदा गुफ़्तगू होगी। जहाँ तक ड्रामे का सवाल है, अरस्तू का क़ौल-ए-फ़ैसल मौजूद ही है कि अलमिये में रज़्मिया के और तरबिया में हज्वोया के (या'नी ड्रामा में शाइ'री के) तमाम अ'नासिर मौजूद हैं। इन बातों को मद्द-ए-नज़र रखते हुए जदीद मेया'रों की तलाश में नॉवेल और ड्रामा के तक़ाज़ों को पेश रखना मुम्किन नहीं है।

    मुझे जदीद नॉवेल और ड्रामे की शे'रियात में कोई ऐसी तब्दीली नज़र नहीं आती जो नए मेया'रों के बग़ैर समझी जा सके। इसलिए मैं बार-बार कहता हूँ कि बा'ज़ हल्क़ों में जो ये ख़याल (ग़ालिबन तरक़्क़ी-पसंद हल्क़ों के ज़ेर-ए-असर या उनके अलर-ग़म) पैदा हो गया है कि जदीद शाइ'री किसी जदीद क़िस्म की जमालियात की मुतक़ाज़ी है, ये महज़ एक ग़लत-फ़हमी है। मुझे यक़ीन है कि ‘ग़ालिब’ और ‘मीर’ हमारे अहद में होते तो हमारी तरह की शाइ'री करते और अगर हम लोग उनके ज़माने में होते तो उनकी तरह की शाइ'री करते। ये नतीजा इस हक़ीक़त की रौशनी में ना-गुज़ीर है कि ‘ग़ालिब’ और ‘मीर’ से हम आज भी लुत्फ़-अंदोज़ होते हैं और उनकी बसीरतें आज भी हमारे लिए सही और कार-आमद हैं।

    जिस जमालियात या जिस जमालियाती मेया'र के पस-ए-मंज़र में हम सब काम कर रहे हैं और हमारे पेश-रौ भी गर्म-ए-कार रहे हैं, उसे चंद लफ़्ज़ों में बयान किया जा सकता है। अव्वल तो ये कि तख़्लीक़ी फ़न हक़ीक़त को दोबारा ख़ल्क़ करने का ज़रीया' है। चुनाँचे सरदार जा'फ़री ने भी कहा है कि इस ज़माने में ख़ल्लाक़ सिर्फ़ दो हैं। एक तो मज़दूर और दूसरा शाइ'र। ये और बात है कि मज़दूर और शाइ'र को शाना-ब-शाना रख देने से शाइ'री महज़ एक क्रा़फ्ट और दस्तकारी क़िस्म की चीज़ रह जाती है। लेकिन बुनियादी बात ये है कि शाइ'र ख़ल्लाक़ होता है। हक़ीक़त को दोबारा ख़ल्क़ करने का ज़रीया' या तो ये हो सकता है कि शाइ'र अपने माहौल से उसे दोबारा दरियाफ़्त करे और फिर अल्फ़ाज़ में ढाले, या वो ख़ुद को ग़ैर-जानिबदार तसव्वुर करके हक़ीक़त को इस तरह क़ुबूल कर ले जैसी कि उसे बताई गई है कि वो है।

    ये भी मुम्किन है कि दोनों तरीक़-ए-कार ब-यक-वक़्त या बारी-बारी काम में लाए जाएँ, मसलन ग़ज़ल में पहला तरीक़-ए-कार और क़सीदे में दूसरा तरीक़-ए-कार और मरसिए में दोनों का इम्तिज़ाज नज़र आता है। दूसरा नुक्ता ये है कि फ़न-पारा अपनी ख़ूबसूरती में क़ाएम बिल-ज़ात होता है या'नी उसकी अपनी ख़ूबसूरतियाँ होती हैं जो उस मुशाहिदाती या तअ'क़्क़ुलाती या तअ'स्सुराती मज़रूफ़ के अ'लावा होती हैं जो फ़न-पारे में बंद या हल किया जाए।

    तरक़्क़ी-पसंद नज़रिया-साज़ों ने भी इस हक़ीक़त का दबे या खुले लफ़्ज़ों में ए'तिराफ़ किया है। चुनाँचे मजनूँ गोरखपुरी ने एक जगह लिखा है कि शाइ'र जो कुछ सोचता और महसूस करता है वो क़ाएम- बिज़्ज़ात और मक़्सूद-बिज़्ज़ात होता है।

    मुमताज़ हुसैन कहते हैं, “तख़्लीक़ी आर्ट की एक मख़्सूस तकनीक होती है जो आर्ट के क़वानीन-ए-हुस्न को पैहम बरतने की सूरत में उभरती है।”

    तीसरा नुक्ता ये है कि फ़नकाराना इज़हार की सत्ह पर लफ़्ज़ और मअ'नी या'नी मौज़ू' और हैअत में कोई फ़र्क़ नहीं। ये बात भी तरक़्क़ी-पसंद नक़्क़ादों ने किसी किसी तरह मानी है। मजनूँ गोरखपुरी कहते हैं, “कामयाब अदब में लफ़्ज़ और मअ'नी के दरमियान कोई दुई नहीं रहती। लफ़्ज़ ही मअ'नी और मअ'नी ही लफ़्ज़ होता है। शाइ'र का काम सिर्फ़ ये है कि मअ'नी के लिए लफ़्ज़ तलाश करे बल्कि उसका सबसे बड़ा कमाल ये है लफ़्ज़ की मा'नवी कैफ़ियत को बढ़ा दे।” (नुकात-ए-मजनूँ, सफ़्हा 154)

    डॉक्टर अब्दुल अ'लीम, सज्जाद ज़हीर और मुमताज़ हुसैन ने भी कम-ओ-बेश इन ही ख़यालात का इज़हार किया है। सिर्फ़ एहतिशाम साहब बार-बार ज़ोर देते रहे हैं कि ज़वाल-पज़ीर अदब में हैअत को मौज़ू' पर तक़द्दुम हासिल होता है, वर्ना इन्क़िलाबी या तरक़्क़ी-पसंद अदब में मवाद या मौज़ू' हमेशा हैअत पर मुक़द्दम रहता है।

    हिन्दोस्तान के अ'लावा मग़रिब के भी नज़रिया-साज़ों में एहतिशाम साहब इस मक़ाम पर तन्हा हैं। बा'ज़ कम्यूनिस्ट हज़रात एर्न्स्ट फ़िशर (Ernest Fischer) को तस्लीम करेंगे। (लेकिन वो लोग तो लोकाच को भी क़ुबूल नहीं करते, इसका क्या इ'लाज) लेकिन उ'मूमी तौर पर लोग एर्न्स्ट फ़िशर को इश्तिराकी अदबी मुफ़क्किरों में मुमताज़ समझते हैं। फ़िशर इश्तिराकी हक़ीक़त-निगारी और इश्तिराकी फ़न में फ़र्क़ करता है।

    वो कहता है कि इश्तिराकी हक़ीक़त-निगारी की इस्तिलाह का बद-क़िस्मती से अक्सर ग़लत इस्ति'माल होता है और उन चीज़ों को अक्सर इश्तिराकी हक़ीक़त-निगारी का आईना-ए-दार बताया गया है जो दर-हक़ीक़त महज़ प्रोपोगैंडाई ख़यालात को आदर्शी ज़ोर-शोर से पेश करती हैं। वो इस तरह के ‘इश्तिराकी फ़न’ को इश्तिराकी हक़ीक़त-निगारी और उसके मशमूलात को मौज़ू' या'नी Content का दर्जा नहीं देता। उसका ख़याल है कि फ़न-पारे का मर्कज़ी ख़याल Subect और मौज़ू' Content अलग अलग चीज़ें हैं

    “मर्कज़ी ख़याल को मौज़ू' का दर्जा फ़नकार के रवैये ही के ज़रीए' मिल सकता है, क्योंकि मौज़ू' सिर्फ़ ये नहीं है कि क्या पेश किया गया है, बल्कि ये भी वो किस तरह पेश किया गया है, किस सियाक़-ओ-सबाक़ में और इन्फ़िरादी और समाजी शऊ'र के किस दर्जे से पेश किया गया है... हर चीज़ का इन्हिसार फ़न के नुक़्ता-ए-नज़र पर होता है।”

    लिहाज़ा फ़िशर को मर्कज़ी ख़याल या'नी Subject की एहमियत से इंकार नहीं है लेकिन वो साफ़ कहता है कि फ़न-पारे के मौज़ू' और मअ'नी, उसके मर्कज़ी ख़याल की हुदूद से आगे निकल जाते हैं।

    फ़न्नी तख़्लीक़, हक़ीक़त की तख़्लीक़-ए-नौ है, फ़न-पारा क़ाएम-ए-बिज़्ज़ात होता है और उसमें लफ़्ज़, मअ'नी की वहदत होती है।

    इन तीन तसव्वुरात की तकमील शे'री जमालियात के चौथे उसूल से होती है कि ये तीन बातें उसी वक़्त क़ाएम होती हैं जब फ़नकार अपनी बसीरत के इज़हार के लिए अ'लामत, इस्तिआ'रा, पैकर और दूसरे जदलियाती नौइ'यत के अल्फ़ाज़ का इस्ति'माल करता है। मजनूँ साहब ने कभी-कभी घबरा कर इस्तिआ'रे की एहमियत से इंकार किया है लेकिन उनकी तन्क़ीद अक्सर तज़ाद-बयानी का शिकार रही है। चुनाँचे वो जगह-जगह इस्तिआ'रे की तौसीक़ भी करते नज़र आते हैं, लेकिन मुमताज़ हुसैन के मज़मून ‘रिसाला दर-मा'रिफ़त-ए-इस्तिआ'रा’ के होते हुए कोई तरक़्क़ी-पसंद नज़रिया-ए-शे'र इस्तिआ'रे का मुनकिर नहीं हो सकता। सरदार जा'फ़री की हालिया तन्क़ीदें भी इस्तिआ'रे और दूसरे जदलियाती अल्फ़ाज़ (ख़ासकर पैकर) के तज़किरे से ममलू हैं।

    ऐसा नहीं है कि नक़्द-ए-शे'र के तमाम मसाइल इन्हीं चार नकात से वाबस्ता हैं, लेकिन ब-हैसियत-ए-मजमूई' इन नकात को नक़्द-ए-शे'र की असास बनाया जा सकता है। बा'ज़ मसाइल ऐसे हैं जिनका तअ'ल्लुक़ शे'रियात की फ़िक्री असास के साथ-साथ शे'री तरीक़-ए-कार से भी है। चुनाँचे ये सवाल लाएक़-ए-तवज्जोह है कि शाइ'री को काएनात की तख़्लीक़-ए-नौ कहा जाए या उसे काएनात-ए-नौ की तख़्लीक़ तसव्वुर किया जाए?

    फ़्रांसीसी अ'लामत निगारों अलल-ख़ुसूस बोदलियर, रिमबाड और मलारमे की बेश्तर तवज्जोह इस नज़रिए की बुनियाद मज़बूत करने पर सर्फ़ हुई है कि शाइ'री काएनात-ए-नौ की तख़्लीक़ है, लेकिन अपनी इंतिहा की मंज़िल पर पहुँच कर काएनात की तख़्लीक़-ए-नौ भी एक तरह की नई दुनिया ख़ल्क़ करती है और इसीलिए शे'र को क़ाएम-ए-बिज़्ज़ात कहा जाता है

    इसी तरह ये मसअला भी दिल-चस्प है कि ख़ूबसूरत अश्या की ता'रीफ़ और ख़ूबसूरती की ता'रीफ़ दर-अस्ल एक ही शय है या ये अलग अलग हैसियत रखती हैं? एक तरफ़ तो ये कहा जा सकता है कि हम ख़ूबसूरत अश्या ही को देखकर ख़ूबसूरती की ता'रीफ़ मुतअ'य्यन करते हैं। लेकिन जवाब में ये कहना भी मुम्किन है कि अगर दुनिया में कोई भी ख़ूबसूरत शय बाक़ी रही तो भी ख़ूबसूरती का तसव्वुर बाक़ी रहना चाहिए, ब-शर्ते कि आप ख़ूबसूरती को काएनाती हक़ीक़त का एक हिस्सा मानें, या'नी ये फ़र्ज़ करें कि ख़ूबसूरती इज़ाफ़ी नहीं बल्कि एक मुतलक़ क़द्र है। अगर इस नज़रिए से इंकार किया जाए तो शे'री जमालियात की बुनियादें मुनहदिम होती नज़र आती हैं क्योंकि ख़ूबसूरत शाइ'री का वस्फ़ ये होना चाहिए कि वो फ़ी-नफ़्सिही ख़ूबसूरत हो, चाहे उसको पढ़ने वाला कोई भी शख़्स मौजूद हो। वो ख़ूबसूरती जो तमाम कमाल देखने या पढ़ने वाले की मोहताज हो, अस्लन ख़ूबसूरती नहीं बल्कि मज़ाक़-ए-आ'म या फ़ैशन का है।

    यहाँ पर ये सवाल उठ सकता है कि फिर उस तन्क़ीदी नज़रिए की वाक़इ'य्यत क्या है कि हर शख़्स के लिए शे'र अपना अलग हुस्न और अपनी अलग मा'नवियत रखता है। इस मसअले को सुलझाने में मुश्किल ये पड़ती है कि हम अक्सर मा'नवियत और हुस्न को एक ही चीज़ समझ बैठते हैं, और ज़ाती तजुर्बे, माहौल, तर्बियत या उफ़्ताद-मिज़ाज की रौशनी में शे'र के जो मअ'नी दरियाफ़्त करते हैं, उसे शे'र के हुस्न से ता'बीर करते हैं।

    वाक़िआ' ये है कि शे'र की मा'नवियत और हुस्न में एक बारीक सा फ़र्क़ है। चूँकि ख़ूबसूरत शे'र तक़रीबन हमेशा मअ'नी-ख़ेज़ या मा'नवियत से भरपूर भी होता है, इसलिए इस फ़र्क़ का नजर-अंदाज़ हो जाना कोई हैरत-अंगेज़ बात नहीं है। वर्ना वाक़िआ' ये है कि मअ'नी की कसरत शे'र की ख़ूबसूरती में हारिज नहीं होती। लेकिन कसीर-उल-मा'नवियत के बग़ैर भी शे'र ख़ूबसूरत हो सकता है।

    चीनी शाइ'री में मअ'नी की वो कसरत नहीं जो ‘ग़ालिब’ या शेक्सपियर के यहाँ है लेकिन चीनी शाइ'री की ख़ूबसूरती में किसे कलाम हो सकता है? (इस तहसीन में मासी तंग की शाइ'री भी शामिल है।) शे'र की मा'नवियत उसकी ख़ूबसूरती का महज़ एक हिस्सा है, इंतिहाई सत्ह पर मुम्किन है कि शे'र बे-मअ'नी हो लेकिन फिर भी ख़ूबसूरत हो (मलारे की बा'ज़ नज़्में मिसाल में पेश की जा सकती हैं।) नुक्ता दर-अस्ल ये है कि शे'र की मा'नवियत या शे'र के मअ'नी महज़ वो मअ'नी नहीं होते जिन्हें अल्फ़ाज़ में बयान किया जा सके। बहुत सी शाइ'री में मअ'नी का वो मज़रूफ़ बहुत कम होता है जिसे अलग करके दिखाया जा सके कि लीजिए साहब इस शे'र के ये मअ'नी हैं, मुसहफ़ी का ये शे'र ले लीजिए,

    चले भी जा जरस-ए-ग़ुंचे की सदा पे नसीम

    कहीं तो काफिला-ए-नौ-बहार ठहरेगा

    इस शे'र में ऐसे कोई मअ'नी नहीं जिनको अल्फ़ाज़ के ज़रीए' ज़ाहिर किया जा सके। ख़ैर यहाँ तो पूरा शे'र ही महज़ एक मुबहम कैफ़ियत या ख़्वाब-आमेज़ मंज़र का इज़हार करता है। हाफ़िज़ के मुंदरजा-ज़ेल अशआ'र में लफ़्ज़ी मफ़हूम बिल्कुल वाज़ेह है, लेकिन मअ'नी बिल्कुल समझ में नहीं आते, या ना-पैद हैं,

    गेसू-ए-चंग ब-बुरीद ब-मर्ग-ए-मय-ए-नाब

    ता-हमा मुग़-बचगाँ ज़ुल्फ़-ए-दूता बख़्शायंद

    नाम-ए-ताज़ियत दुख़्तर-ए-रज़ बेनवीसीद

    ता हरीफ़ाँ हमा ख़ूँ-अज़-मज़ाहा बख़्शायंद

    मर्ग-ए-मय-ए-नाब और दुख़्तर-ए-रज़ की मौत पर ताज़ियत-नामे, ये महज़ कैफ़ियात हैं जिनकी तफ़्सील-ओ-तौज़ीह ना-मुम्किन है। ज़ुल्फ़-ए-दूता खोलें (या काटें) और गेसू-ए-चंग काटे जाएँ (मुराद ग़ालिबन ये है कि चंग के तार तोड़ जाएँ) इनमें क्या रिश्ता है और दोस्तों को ताज़ियत नामा-ए-दुख़्तर-ए-रज़ के बा'द ही क्यों रोना आए, उसके मरने पर क्यों आए और दुख़तर-ए-रज़ या मय-ए-नाब की मौत ही क्यों हुई? इन मसाइल को हल करने के लिए इबहाम का सहारा नहीं लिया जा सकता। अगर इबहाम फ़र्ज़ करते हुए इन सवालों के जवाब तलाश किए जाएँगे तो मायूसी होगी, बल्कि ये अशआ'र मोहमल ठहरेंगे। हक़ीक़त ये है कि ये बातें जवाब-तलब हैं ही नहीं। मुझे इन दोनों अशआ'र में सख़्त मातमी और तल्ख़ मायूसी की कैफ़ियत महसूस होती है बस।

    कहने का मतलब ये है कि शे'र की ख़ूबसूरती को इसलिए क़ाएम-बिज़्ज़ाता क़रार देना चाहिए कि वो अपनी अस्ल हैसियत में किसी क़ारी या सामे' की मोहताज नहीं होती। इसकी दलील ये है कि क़ारी या सामे' जिस क़िस्म का मफ़हूम शे'र से उ'मूमन बरामद करता है, ऐसा मफ़हूम अगर मौजूद हो तब भी शे'र ख़ूबसूरत हो सकता है, लिहाज़ा ये नज़रिया कि हम शे'र की बहुत सी मा'नवियत ख़ुद ख़ल्क़ करते हैं, शे'र के हुस्न को मुतलक़ ठहराने में माने' नहीं होता। शे'र की मा'नवियत का मसअला दर-अस्ल इ'ल्म-ए-मअ'नी का मसअला है। शे'र में एक तो बुनियादी मअ'नी होते हैं जिन पर सब का इत्तिफ़ाक़ होता है और दूसरे मअ'नी या मआ'नी वो होते हैं जो अपनी रफ़्तार, मिज़ाज, माहौल, तर्बियत, ज़ाती तजुर्बे और तहज़ीबी पस-ए-मंज़र की रौशनी में उससे बरामद होते हैं।

    शे'र जितने ही ज़ियादा मआ'नी का मुतहम्मिल होगा उतना ही अच्छा होगा लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि जिस शे'र में मा'नवियत कम होगी या जिसके मअ'नी को हम-रोज़मर्रा के अल्फ़ाज़ में बयान कर सकेंगे, वो ला-मुहाला बदसूरत होगा। शे'र की ख़ूबसूरती और मा'नवियत एक दूसरे की तकज़ीब नहीं करते, ये अलग-अलग वजूद रखते हैं। बेहतरीन शे'र ज़ाहिर है कि वही होगा जिसमें ख़ूबसूरती और मा'नवियत दोनों मौजूद हों और एक दूसरे की पुश्त-पनाही करते हों। रिआ'यत-ए-लफ़्ज़ी का यही सबसे बड़ा जवाज़ है।

    दूसरा नुक्ता ये है कि माना शे'र की बहुत सारी मा'नवियत नक़्क़ाद या क़ारी की हैसियत से हम ख़ल्क़ करते हैं, लेकिन इस मा'नवियत की दलील उसका वजूद ही है, या'नी अगर वो मा'नवियत शे'र में होती तो हम उसे कहाँ से तलाश कर लाते? चुनाँचे नक़्क़ाद या क़ारी की ख़ल्क़-कर्दा मा'नवियत भी दर-अस्ल शे'र में मुज़्मिर होती है, लिहाज़ा वो अपने वजूद के लिए नक़्क़ाद या क़ारी की मोहताज नहीं होती। मिसाल के तौर पर किसी बिल्कुल ही नए रंग का फूल अगर कहीं जंगल में खिले और कोई उसे देखे तो इसका मतलब ये तो नहीं हो सकता कि वो फूल और रंग बने ही नहीं।

    ज़ियादा से ज़ियादा आप कह सकते हैं कि हम ऐसी अश्या का वजूद साबित नहीं कर सकते जिन्हें किसी ने देखा हो या जिन्हें कोई देख सके (देखना ब-मअ'नी-ए-इदराक करना) ये इ'ल्म-ए-वजूद का एक मसअला है जिसे यहाँ छेड़ना फ़ुज़ूल होगा। लेकिन बुनियादी बात ये है कि मफ़रुज़े की हद तक ऐसा फूल तसव्वुर किया जा सकता है जो बिल्कुल ही नए रंग का हो और ये कहा जा सकता है कि चाहे उस फूल को किसी ने भी देखा हो लेकिन अगर उसका वजूद है तो फिर है। इसी तरह अगर शे'र में हुस्न या मा'नवियत है तो फिर है, चाहे उसको सामे' या क़ारी मयस्सर हो या हो।

    ख़ूबसूरती अश्या का अपना वस्फ़ होती है। उसकी ता'रीफ़ें जितनी भी और जैसी भी बनाई जाएँ, वो सब किसी किसी तरह इस क़ाएम-ए-बिज़्ज़ात वस्फ़ की तिबाअ' होंगी। ख़ूबसूरती की ता'रीफ़ और ख़ूबसूरत अश्या की ता'रीफ़ में यही फ़र्क़ है। एरिक न्यूटन (Eric Newton) ने बड़े पते की बात कही है कि ख़ूबसूरती के तमाम क़वानीन को वज़ा' करना और बयान करना ज़रूरी नहीं है। बस ये यक़ीन काफ़ी है कि ऐसे क़वानीन मौजूद हैं। काएनात के मुक़ाबले में इंसानी तजुर्बा बहर-हाल मौजूद है। लेकिन तजुर्बे की रौशनी में ऐसे क़वानीन नहीं वज़ा' हो सकते जो तमाम काएनाती मज़ाहिर का अहाता कर सकें। यही एक दलील इस दा'वे के लिए काफ़ी है कि ख़ूबसूरती के मेया'र बदले नहीं जा सकते।

    ख़ूबसूरती की ता'रीफ़ें इसलिए बदल सकती हैं कि तरीक़-ए-कार या नुक़्ता-ए-नज़र किसी चीज़ में कोई शख़्स नया पहलू दिखा सकता है, या किसी पुराने पहलू को नए ढंग से पेश कर सकता है। लेकिन ये ता'रीफ़ें भी उसी हद तक दुरुस्त होंगी जिस हद तक उनका इतलाक़ ख़ूबसूरत अश्या पर मुम्किन होगा।

    शे'री जमालियात की तारीख़ में कभी-कभी ऐसे मक़ाम आए हैं जब ख़ूबसूरती की ता'रीफ़ मुतअ'य्यन करने की कोशिशें अज़-सर-ए-नौ हुई हैं लेकिन तक़रीबन हमेशा या तो मेया'रों को नए ढंग से बयान कर दिया गया है या ख़ूबसूरत अश्या की फ़ेहरिस्त में एक-आध इज़ाफ़ा हो गया है। अहद-ए-जदीद में शे'री ख़ूबसूरती को अख़्लाक़ियात या मा'नवियत से अलग करने की पहली संजीदा कोशिश एडगर ऐलन पो (Edgar Allen Poe) के यहाँ मिलती है। चुनाँचे वो कहता है,

    (1) मेरी राय में नज़्म किसी साईंसी तहरीर या कारनामे से इसलिए मुख़्तलिफ़ है कि नज़्म काफ़ूरी मुद्दआ-ए-लुत्फ़ है, सच्चाई नहीं। (एक ख़त का इक़्तिबास, 1826)

    (2) नज़्म उस हद तक नज़्म कहलाने की मुस्तहिक़ होती है जिस हद तक वो रूह को बरांगेख़्त और मुरतफ़े करती है... मैं कहता हूँ कि वो लुत्फ़ जो ब-यक-वक़्त ख़ालिस-तरीन सबसे ज़ियादा मुर्तफ़े' करने वाला और शदीद-तरीन होता है, ख़ूबसूरती को देखने और उसका तसव्वुर करने से हासिल होता है।

    (3) हम लोगों ने ये समझ रखा है कि महज़ नज़्म की ख़ातिर नज़्म कहना और ये ए'तिराफ़ करना कि हमने नज़्म की ख़ातिर नज़्म कही है, इस बात का ए'तिराफ़ करने के बराबर है कि हममें हक़ीक़ी शाइ'राना वक़ार और क़ुव्वत का फ़ुक़्दान है, हालाँकि हम अगर अपनी रूह में झाँक कर देखें तो फ़ौरन दरियाफ़्त कर लेंगे कि आसमान-ओ-ज़मीन में किसी ऐसी चीज़ का वजूद नहीं है और हो सकता है जो इस महज़ नज़्म-बराए-नज़्म से, जो सिर्फ़ नज़्म है और कुछ नहीं और जो महज़ शाइ'री की ख़ातिर लिखी गई है, उससे ज़ियादा बा-वक़ार और शराफ़त के बेहतरीन दर्जे पर फ़ाइज़ हो।

    आख़िरी दो इक़्तिबासात पो के मशहूर मज़मून ‘उसूल-ए-शे'र’ (1844) से लिए गए हैं। इसी मज़मून में वो आगे चल कर कहता है कि शाइ'री और सच्चाई तेल और पानी की तरह हैं। उनको मिलाने की कोशिश करने वाला नज़रिए के जुनून का शिकार होगा। ज़ाहिर है कि पो सिर्फ़ एक बुनियादी हक़ीक़त को बा-ज़ोर बयान कर रहा है कि शाइ'री अगर ख़ूबसूरत नहीं है तो वो अपने मक़सद में नाकाम है।

    शाइ'राना सच्चाई और साईंसी या अख़्लाक़ी सच्चाई में फ़र्क़ यही है कि शाइ'राना सच्चाई की ख़ूबसूरती उसका जवाज़ होती है। इस तरह पो के नज़रियात से ख़ौफ़-ज़दा या इस पर चीं-ब-जबीं होने वाले हज़रात ग़लत-फ़हमी में मुब्तिला हैं कि इन ख़यालात में कोई इंतिशार या तख़रीबी प्रोग्राम मुज़्मिर है। शाइ'री के अख़्लाक़ी और ता'लीमाती पहलू को ख़ूबसूरती के मसले से ख़ारिज करके पो (Poe) ने फ़्रांसीसी अ'लामत-निगारों को बल्कि सरियलिस्ट नज़रिये के बानियों के लिए मिशअ'ल-ए-राह का काम किया।

    बोदलियर ने शाइ'री को काएनात-ए-नौ की तख़्लीक़ इसीलिए कहा है कि वो हुस्न का इज़हार करती है। हुस्न की ता'रीफ़ उसने यूँ की है, “इसमें शदीद, पुर-जोश एहसास और रंजीदगी का शाइबा होता है। हुस्न कुछ मुबहम सा होता है और इसमें थोड़ी बहुत ज़न-ओ-तख़मीन (Conjecture) की गुंजाइश होती है... इसरारियत और महज़ूनी भी हुस्न के ख़वास हैं।”

    इस ता'रीफ़ को मुकम्मल नहीं कहा जा सकता लेकिन इसे ग़लत भी नहीं कह सकते क्योंकि बोदलियर से बहुत मुख़्तलिफ़ शाइ'र वर्ड्ज़वर्थ ने भी फ़ितरत की सरगोशियों में “इंसानियत की रंजीदगी-आमेज़ और ख़ामोश मौसीक़ी” सुन सकने का दा'वा किया था।

    सरियलिज़्म के नज़रिया-साज़ आंद्रे ब्रेटन (Andre Breton) ने दा'वा किया कि, “अ'जूबा और हैरत-अंगेज़ हमेशा ख़ूबसूरत होता है। कोई भी चीज़ जो अ'जूबा और हैरत-अंगेज़ हो ख़ूबसूरत होती है, बल्कि सच तो ये है कि सिर्फ़ अ'जूबा और हैरत-अंगेज़ ही हसीन होता है।”

    इस तसव्वुर की अस्ल भी सिर्फ़ बीसवीं सदी के शुरू' में फलने वाले अपोलिनेयर (Guillaume Apolloniare) के ख़यालात में, बल्कि कीट्स के यहाँ भी मिल सकती है, जब वो कहता है कि, “शाइ'री को लाज़िम है कि वो हमें एक उ'म्दा बे-क़ाएदगी और कसरत के ज़रीए' मुतहय्यर कर दे।”

    दूसरी तरफ़ चेस्टरटन (G. K. Chesterton) ने डिकेन्स (Charles Dickens) के भोंडे और भयानक किरदारों का दिफ़ाअ' करते हुए कहा कि अगर हज़ार-पाया या गैंडा इसलिए ख़ूबसूरत है कि उसके अपने तर्ज़-ए-हयात के लिए उससे बेहतर कोई शक्ल मुम्किन थी तो डिकेन्स के ये किरदार भी ख़ूबसूरत हैं। एरिक न्यूटन (Eric Newton) ने इसी नुक्ते को अपनाते हुए कहा है कि,

    “ये कहना फ़ुज़ूल है कि फ़ुलाँ चीज़ के मुक़ाबले में फ़ुलाँ चीज़ ज़ियादा मुतनासिब या बनावट में ज़ियादा हम-आहंग या बेहतर रंगों वाली है। तनासुब, बनावट और रंग के मेया'रात आख़िर हमने कहाँ से हासिल किए हैं? और अगर किसी ऐसे मेया'र का हवाला ना-मुम्किन हो तो हम ये कहने का क्या हक़ रखते हैं कि ख़िंज़ीर की टाँगें बहुत छोटी होती हैं? किस चीज़ के लिए बहुत छोटी? ख़िंज़ीर के लिए ज़ाहिर है कि नहीं, वर्ना उसने इर्तिक़ा के तवील सफ़र में अपनी टाँगें लंबी कर ली होतीं, ख़ूबसूरती के लिए? लेकिन अलमारियों के पाए तो और भी छोटे होते हैं लेकिन कोई नहीं कहता कि अलमारियों के छोटे पाए अस्लन ख़ूबसूरत होते हैं।”

    इस बहस का नतीजा ये निकला कि शे'री जमालियात की मम्लुकत में इज़ाफे़ मुम्किन हैं लेकिन ख़ूबसूरत अश्या की ता'रीफ़ और ख़ूबसूरती की ता'रीफ़ अलग अलग चीज़ें हैं। शे'री जमालियात या किसी भी जमालियात में जो भी इज़ाफे़ होंगे वो ख़ूबसूरत अश्या की ता'रीफ़ के तहत होंगे, ख़ूबसूरती की ता'रीफ़ (या यूँ कहिए कि ख़ूबसूरती का तसव्वुर) एक मुतलक़ हक़ीक़त है और ख़ूबसूरत अश्या की कोई ता'रीफ़ ऐसी नहीं हो सकती जो इस मुतलक़ हक़ीक़त से मुतबाइन हो। जब ये बात मान ली गई तो शे'री जमालियात के फ़ुरूई' मसाइल, जिनका ज़िक्र ऊपर हुआ, ख़ुद-ब-ख़ुद राह पर जाते हैं।

    शे'री जमालियात के चार उसूलों की रौशनी में ये सवाल उठ सकता है कि क्या शाइ'री में इन जज़्बात का कोई जमालियाती मक़ाम नहीं जिनसे शे'र इबारत होता है? या'नी रंजीदगी, ग़ुस्सा, मसर्रत, तल्ख़ी, मायूसी, रिजाइयत वग़ैरह की जमालियाती हैसियत किया है?

    ये सवाल वही लोग उठाएँगे जो शे'र में अख़्लाक़ी और ता'लीमाती अक़्दार की तलाश में सर-गर्दां रहते हैं। वो जानते हैं कि शे'र से फ़लसफ़ियाना और नज़रियाती सेहत या सेहत-मंदी का तक़ाज़ा ग़लत और ना-मुनासिब है। लेकिन उनके दिल में ये चोर भी रहता है कि शाइ'री को जुज़वीस्त-अज़-पैग़ंबरी बिल्कुल कहा जाए तो समाजी और सियासी ज़िम्मेदारी के नाम पर शाइ'री की गर्दन क्यूँ-कर पकड़ी जा सकेगी? ऐसे नक़्क़ादों और मुफ़क्किरों की मुश्किल ये है कि एक तरफ़ तो वो शाइ'र को समाजी कामों में मसरूफ़ देखना चाहते हैं और दूसरी तरफ़ वो ये भी चाहते हैं कि शाइ'र को शाइ'र समझा जाए, समाजी कार-कुन नहीं।

    लिहाज़ा वो फ़लसफ़ियाना और नज़रियाती सच्चाई या सेहत मंदी का बराह-ए-रास्त ज़िक्र नहीं करते बल्कि उसको जज़्बात की नक़ाब उढ़ाकर पेश करते हैं। वो कहते हैं कि शाइ'री में ऐसे जज़्बात का इज़हार होना चाहिए जो रिजाइयत और निशात-अंगेज़ी से भरपूर हों। रिजाइयत और निशात-अंगेज़ी की जमालियाती हक़ीक़त है कि नहीं, इस सवाल से वो आँखें चुराते हैं लेकिन फ़र्ज़ी तारीख़ी हवालों के ज़रीए' ये साबित करने की कोशिश करते हैं कि आ'ला शाइ'री में निशात-अंगेज़ी ज़रूरी होती है। चुनाँचे मजनूँ साहब कहते हैं,

    “किसी मुल्क की अदबी तारीख़ उठा कर देखिए तो मा'लूम होता कि जिन शाइरों में तल्ख़ी, तंज़, यास, तश्कीक या बग़ावत की फ़रावानी रही है, वो उन शाइरों के मुक़ाबले में कम-मर्तबा समझे गए हैं जो निशात-ओ-इंबिसात का पैग़ाम रखते हैं और जिस दौर में अदबियात का आ'म लहजा हुज़्न-ओ-मलाल रहा है उसको अदबी इंहितात का दौर क़रार दिया गया है और फिर अवाम तो यास-अंगेज़ शाइ'री के मुतहम्मिल ही नहीं हो सकते। अगर शाइ'र ने अपने लब-ओ-लहजा, अपने तेवर, अपने अंदाज़-ए-बयान से यास-ओ-हिरमान को निशात-ओ-इब्तिहाज से बेहतर नहीं बनाया... तो अ'वामुन्नास उसकी ताब ला सकते हैं और उससे मुवानसत पैदा कर सकते हैं।”

    इस बात से क़त’-ए-नज़र कि किसी बड़े (बल्कि बड़े क्या, अच्छे शाइ'र) के बारे में ये हुक्म लगाना मुम्किन ही नहीं है कि वो महज़ यक-तर्फ़ा शाइ'र है और इस बात से भी क़त’-ए-नज़र कि उर्दू-फ़ारसी अ'रबी के बेश्तर क़सीदे “तल्ख़ी, तंज़, यास, तश्कीक या बग़ावत” से आरी हैं और इन्हीं क़साइद के मुसन्निफ़ों ने तल्ख़ी वग़ैरह से भरपूर ग़ज़ल भी लिखी है, सबसे बड़ी धाँदली इस बयान में ये है कि तमाम दुनिया की अदबी तारीख़ को इस तरह बयान कर दिया गया है गोया वो किसी गली के ज़ुग़राफ़िए की तरह यक-रंग और मुख़्तसर हो। बड़े शाइ'र के यहाँ हर तरह का रंग मिलता है और बड़े अदब में हर रंग की तहरीर ब-यक वक़्त मौजूद रहती है। ये फ़ैसला कि तमाम मुल्कों के अदब में ऐसे शाइरों को कम मर्तबा मिला जो निशात-अंगेज़ नहीं थे, कई वजहों से ग़लत है।

    अव्वल तो कोई बड़ा शाइ'र ऐसा हुआ ही नहीं जिसका रंग सरासर यास-ओ-अलम या निशात-ओ-इब्तिहाज से इबारत हो। दूसरे ये कि बड़ी शाइ'री के बारे में इस तरह का सफ़ेद-ओ-सियाह क़िस्म का हुक्म लगाना मुम्किन नहीं है। नज़्म या शे'र ब-यक वक़्त निशातिया और अलमिया हो सकता है। तीसरे ये कि शाइ'राना ख़ूबी और ख़राबी का तअ'ल्लुक़ उन जज़्बात से नहीं है जो शे'र में बयान किए गए हैं। अगर ऐसा हो तो फिर बा'ज़ जज़्बात को शाइ'राना, बा'ज़ को ग़ैर-शाइ'राना, बा'ज़ को ख़ूबसूरत और बा'ज़ को बदसूरत कहना पड़ेगा।

    ज़ाहिर है कि सिर्फ़ वही शख़्स इस काम का बीड़ा उठा सकता है जो मजनूँ साहब की तरह जज़्बात के बारे में मुब्तदियाना मा'लूमात भी रखता हो। वर्ना कौन ये फ़ैसला कर सकता है कि ग़ुस्सा या ग़म या मायूसी या ख़ुशी या मुहब्बत के जज़्बात अस्लन ख़ूबसूरत हैं या बदसूरत?

    जज़्बात की अगर कोई शाइ'राना हैसियत है तो वही जो मअ'नी की है। मअ'नी की ख़ूबी या ख़राबी उसके अख़्लाक़ी या इफ़ादी पहलू के ताबे' नहीं होती। अगर ऐसा होता तो बहुत सारी इ'श्क़िया और रिसाई शाइ'री मिन-हैस-उल-अस्ल ख़राब क़रार दी जाती। फिर जज़्बात की शाइ'राना ख़ूबी या ख़राबी को तय करके चलने में वही क़बाहत है जो नज़रियात की शाइ'राना ख़ूबी या ख़राबी को तय करके चलने में है। बा'ज़ जज़्बात को हम ख़राब समझते हैं लेकिन जब उन्हीं जज़्बात को हम ऐसी शाइ'री में देखते हैं जो हमें अच्छी मा'लूम होती है तो फिर उस शाइ'री की तावीलें या जज़्बात की ताबीरें शुरू' कर देते हैं।

    लिहाज़ा जब मजनूँ साहब को ‘मीर’ की शाइ'री के हुस्न का ए'तिराफ़ करना हुआ तो उन्होंने ये मफ़रूज़ा गढ़ लिया कि ‘मीर’ की अलम-नाकी, क़ाएम चाँदपुरी की अलम-नाकी से इसलिए मुख़्तलिफ़ है कि ‘मीर’ के ग़म में निशात-अंगेज़ी और उम्मीद-अफ़्ज़ाई है। उनकी मुंदरजा-ज़ेल राय में किसी नौ-ख़ेज़ क़ारी की सी मासूमियत क़ाबिल-ए-दीद-ओ-दाद है, “ज़िंदगी में जिन बातों से हम मायूस हो जाते हैं, ‘मीर’ उन्हीं बातों के नए हौसला-ख़ेज़ और निशात-अंगेज़ इम्कानात हम पर मुन्कशिफ़ कर देते हैं, और हमको उनके कलाम से ढारस बंध जाती है। हम अपने दिल को ये समझाने लगते हैं कि जब तक ‘मीर’ और उनकी शाइ'री दुनिया में मौजूद है हमको बहुत हारने की ज़रूरत नहीं... इसी का नाम रूमानियत है।”

    मजनूँ गोरखपुरी जैसे पढ़े-लिखे और तजरबा-कार नक़्क़ाद के क़लम से ऐसे अल्फ़ाज़ उसी वक़्त निकल सकते हैं जब वो इस कश्मकश में बुरी तरह गिरफ़्तार हों कि एक तरफ़ ‘मीर’ का जवाज़ पैदा करना है तो दूसरी तरफ़ अलमिया बसीरत का बुतलान भी करना है। अगर वो इस कश्मकश की जराहत और ज़ीक़ के नतीजे में ये बात समझ लेते कि शाइ'री का अच्छा बुरा होना एक जमालियाती मुआ'मला है और शाइ'री को इस बात से कोई लेना-देना नहीं कि वो निशात-अंगेज़ है या अलम-नाक, बल्कि उसका मुआ'मला सिर्फ़ ये है कि वो शाइ'री है कि नहीं, तो उन्हें ‘मीर’ के जवाज़ के लिए इतने पापड़ बेलने पड़ते। बरट्रंड रसल ने इसीलिए कहा है कि किसी नतीजे को महज़ इसलिए क़ुबूल कर लेना कि वो हमें जज़्बाती तौर पर पसंद आता है, सबसे बड़ी बद-दियानती है।

    हमारे यहाँ बेश्तर तन्क़ीद निगार ऐसी ही बद-दियानती के मुर्तकिब हुए हैं। लेकिन जहाँ-जहाँ जज़्बाती पसंदीदगी को बाला-ए-ताक़ रखकर ठंडी फ़िक्र से काम काम लिया गया है, वहाँ सच्ची फ़लसफ़ियाना शान भी इन तन्क़ीद-निगारों में नज़र आती है, लिहाज़ा मजनूँ साहब ने ही ये भी कहा है कि “जब तक इंसान इंसान है, इसके अंदर इन्फ़िरादियत बाक़ी रहेगी।”

    ज़ाहिर है कि जब आप अदीब को इन्फ़िरादियत का हक़ देते हैं तो फिर इन जज़्बात पर पाबंदी लगाने या उन्हें मतऊन करने का हक़ आपको नहीं है जिन्हें आप महबूब नहीं रखते या जिन्हें आप अपनी जज़्बाती पसंद की बिना पर ग़लत समझते हैं।

    जज़्बाती तौर पर पसंदीदा होने की बिना पर किसी नतीजे को क़ुबूल कर लेने की मिसाल एहतिशाम साहब के यहाँ भी देखिए, जब वो ये कहते हैं कि आज़ादी और इश्तिराकिय्यत की जद्द-ओ-जहद को आगे बढ़ाने वाली शाइ'री जिन लोगों के ख़िलाफ़ पड़ती है वो उसे प्रोपेगैंडा कहते हैं, लेकिन ऐसी शाइ'री जिन लोगों के हाथों में जहद-ओ-अ'मल के हर्बे का काम करती है, उन्हें इसी प्रोपीगंडाई शाइ'री में तवानाई और हुस्न-ए-नज़र है।

    एहतिशाम साहब का ये नज़रिया शे'री जमालियात या शे'र की ख़ूबसूरती के बारे में दिलचस्प सवाल ज़रूर उठाता है कि अगर कोई शख़्स किसी शाइ'री के बारे में दा'वा करे कि वो ख़ूबसूरत है और दलील ये दे कि उसका इन्फ़िरादी फ़ैसला है, तो इसका जवाब क्या होगा? ये सवाल उस वक़्त और भी टेढ़ा हो जाता है जब वो शख़्स ये कहे कि चूँकि फ़ुलाँ शाइ'री उसके जज़्बाती और फ़िक्री रुजहानात से हम-आहंग है, लिहाज़ा वो उसे पसंद करने और अच्छा कहने में हक़-ब-जानिब है।

    एक तरह से देखिए तो ये दा'वा और दलील, दोनों ही इन्फ़िरादी फ़ैसले और पसंद की पुश्त-पनाही करते हुए मा'लूम होते हैं। लेकिन जिन लोगों की तरफ़ से ये दा'वा और दलील पेश किए जा रहे हैं वो इन्फ़िरादी फ़ैसले और पसंद के मुनकिर भी हैं। ऐसी सूरत में दा'वा और दलील ख़ुद-ब-ख़ुद पा दर हुआ साबित हो जाते हैं। इस इल्ज़ामी जवाब से क़त’-ए-नज़र, बुनियादी बात ये है कि जिन अफ़्क़ार या जज़्बात को हम महबूब या मज़मूम समझते हैं, हमें उनकी तब्लीग़ या तरदीद का पूरा हक़ है, लेकिन जब तक हम ये साबित कर दें कि इन जज़्बात-ओ-अफ़्क़ार में कोई ज़ाती हुस्न या बदसूरती है, हम उन्हें शाइ'री के हुस्न-ओ-क़ुब्ह का मेया'र नहीं क़रार दे सकते। दूसरी मुश्किल ये है कि बहुत से जज़्बात-ओ-अफ़कार ऐसे हैं जिन पर किसी क़िस्म का लेबल या उ'नवान नहीं लग सकता, हम उन्हें रजअ'त-पसंदाना, तरक़्क़ी-पसंदाना, सेहत-मंद, ग़ैर-सेहत-मंद, तख़रीबी, ता'मीरी, कुछ नहीं कह सकते, ये कुछ बिल्कुल सामने के शे'र हैं,

    ‘ग़ालिब’

    नहीं ज़रीया-ए-राहत जराहत-ए-पैकाँ

    वो ज़ख़्म-ए-तेग़ है जिसको कि दिल-कुशा कहिए

    ‘इक़बाल’

    वो नुमूद-ए-अख़्तर-ए-सीमाब-पा हंगाम-ए-सुब्ह

    या नुमायाँ बाम-ए-गर्दूं पर जबीन-ए-जिबरईल

    ‘आतिश’

    नाग़ुफ़्तनी है इश्क़-ए-बुताँ का मुआ'मला

    हर हाल में है शुक्र-ए-ख़ुदा कुछ पूछिए

    ‘मीर’

    जब जुनूँ से हमें तवस्सुल था

    अपनी ज़ंजीर-ए-पा ही का ग़ुल था

    ‘फ़ैज़’

    किसी का दर्द हो करते हैं तेरे नाम रक़म

    गिला है जो भी किसी से तिरे सबब से है

    ज़ाहिर है कि ये अशआ'र महज़ अशआ'र हैं। इनकी ख़ूबी का सहरा किसी फ़िक्री या जज़्बाती निज़ाम के सर नहीं बंध सकता। जब ये बात मान ली गई कि बा'ज़ अच्छे अशआ'र ऐसे भी होते हैं जिनमें बयान-कर्दा जज़्बात, अफ़्क़ार या तजुर्बात-ओ-महसूसात को हम महमूद या मज़मूम कुछ नहीं कह सकते, तो ये भी साबित हो गया कि जज़्बात-ओ-अफ़कार या तजुर्बात-ओ-महसूसात का ख़ूब या ना-ख़ूब होना शे'र की ख़ूबसूरती के लिए क़द्र-ए-वाजिब नहीं है, जो चीज़ शे'र के हुस्न के लिए वाजिब हो, उसे किसी जमालियाती निज़ाम की असास नहीं क़रार दिया जा सकता। वो चीज़ अपनी जगह पर कितनी ही अच्छी क्यों हो, लेकिन उससे मेया'र साज़ी में मदद नहीं मिल सकती।

    अब आख़िरी मसअला ये रह जाता है कि अगर शे'री हुस्न के मेया'र तग़य्युर-पज़ीर नहीं हैं तो फिर इसकी क्या वज्ह है कि बा'ज़ शाइ'री बा'ज़ से बहुत मुख़्तलिफ़ नज़र आती है? मुसव्विरी की दुनिया से मिसाल दी जाए तो ये कहा जा सकता है कि अगर ख़ूबसूरती हर जगह यकसाँ है तो पिकासो (Pablo Picasso) या पाल क्ली (Paul Klee) और रैम्ब्रान्ट (Rembrandt) या कांस्टेबल (John Constable) की तस्वीरों में इतना फ़र्क़ क्यों है? इस सवाल के कई जवाब मुम्किन हैं। सबसे पहले तो ये देखिए कि एक ज़माने में रैम्ब्रान्ट या कांस्टेबल को भी हद दर्जा बदसूरत कहने वाले लोग मौजूद थे। आहिस्ता-आहिस्ता नक़्क़ादों और मुसव्विरी-पसंदों को महसूस हुआ कि उनमें भी एक तरह की ख़ूबसूरती है और शायद ये ख़ूबसूरती भी उसी तरह की है जैसी तिशिया (Tiziano Titian) की Portraits जारजिओन (Giorgio Giorgione) के Landscapes में थी।

    फ़र्क़ सिर्फ़ मुसव्विर के और हमारे नुक़्ता-ए-निगह का है। दूसरी बात ये है कि पिकासो और पाल क्ली दोनों ने क़दीम अफ़्रीक़ी आर्ट से इस्तिफ़ादा किया है। ये क़दीम आर्ट जब पहले पहले यूरोप में पहचाना गया तो ख़ास-ओ-आ'म सब हल्क़ों ने महसूस किया कि हुस्न को पेश करने का एक तरीक़ा ये भी है। तिशिया (Titian)، रैम्ब्रान्ट (Rembrandt)، वैन गोग (Van Gogh)، गोगें (Gauguin) और पिकासो सब एक बारीक मगर मज़बूत रिश्ते में पिरोए हुए हैं।

    मुम्किन है तन्हा पिकासो की तस्वीरों को देखने पर आपको धचका सा लगे, लेकिन अगर मशरिक़-ओ-मग़रिब की मुसव्विरी के आ'ला नमूनों के तनाज़ुर में रखिए तो आपको पिकासो (या कोई भी जदीद-तर मुसव्विर मसलन मार्क शागाल Marc Chagall) आपको बेज़ार-कुन मा'लूम होगा। ज़ाहिरी इख़्तिलाफ़ात के बा-वजूद शागाल की बा'ज़ ज़नाना तस्वीरों में वही लतीफ़ हरकत और नाज़ुक नसाइयत है जो सोलहवीं सदी के इतालवी मुसव्विर बौतीचली (Boticelli) की बा'ज़ तस्वीरों में नज़र आती है।

    शे'र की दुनिया में मुआ'मला उतना सादा इस वज्ह से नहीं है कि मुख़्तलिफ़ तस्वीरों में ख़ुतूत और रंगों का टकराव ब-यक वक़्त और फ़ौरन नज़र जाता है जबकि शे'र को सुनने और पढ़ते रहने के बा-वजूद आप एक वक़्त में एक ही शे'र पढ़ या सुन सकते हैं, तक़ाबुली मुताले' के लिए आपको हाफ़िज़े का सहारा लेना पड़ता है। रंग और मौसीक़ी की सबसे बड़ी क़ुव्वत ये है कि उन्हें तर्जुमे की ज़रूरत नहीं पड़ती, जब कि अपनी भी ज़बान का शे'र समझने के लिए हमें अपने अल्फ़ाज़ में ज़हनी तर्जुमा करना पड़ता है।

    ऐसा बहुत कम होता है ज़हनी Paraphrase के अ'मल से गुज़रे बग़ैर शे'र आपकी समझ में जाए।

    गुज़िश्ता ज़माने की शाइ'री के दिल-दादा क़ारी Paraphrase का वही मख़्सूस तरीक़ा इस्ति'माल करते हैं जो उन्हें उस शाइ'री को समझने में मुआ'विन होता है। कोई ज़रूरी नहीं कि वही तरीक़ा मुआ'सिर शाइ'री या किसी भी मुक़र्ररा ज़माने की शाइ'री पर भी यकसाँ कार-आमद साबित हो। ये मुआ'मला ज़बान-फ़हमी का नहीं बल्कि ज़बान को अपने अंदर जज़्ब करने का है और ज़बान-फ़हमी से पहले ही पेश जाता है, मिसाल के तौर पर ये तीन शे'र हैं,

    ‘ग़ालिब’

    आए है बेकसी-ए-इश्क़ पे रोना ‘ग़ालिब’

    किस के घर जाएगा सैलाब-ए-बला मेरे बा'द

    ‘मोमिन’

    तू कहाँ जाएगी कुछ अपना ठिकाना कर ले

    हम तो कल ख़्वाब-ए-अदम में शब-ए-हिज्राँ होंगे

    ‘नासिर’ काज़मी

    इस शहर-ए-बे-चराग़ में जाएगी तू कहाँ

    शब-ए-फ़िराक़ तुझे घर ले चलें

    इन अशआ'र में ज़बान-फ़हमी की कोई शक्ल नहीं है। (मोमिन के दूसरे मिसरे में ‘शब-ए-हिज्राँ’ के पहले ‘ए’ मुक़द्दिर है, लेकिन फ़ौरी तौर पर कोई झटका नहीं महसूस होता।) इन अशआ'र की मा'नवियत और तीनों शो'रा के मुख़्तलिफ़ रवैय्ये का एहसास उसी वक़्त मुम्किन है जिनParapharse का ख़ुद-कार अ'मल ‘बे-कसी-ए-इ'श्क़’, ‘शब-ए-हिज्राँ’ और ‘शहर-ए-बे-चराग़’ को ज़हन के पर्दे पर मुतशक्किल कर दे। ये मुम्किन बल्कि अग़्लब है कि ‘बे-कसी-ए-इ'श्क़’ और ‘शब-ए-हिज्राँ’ से मानूस ज़हन ‘शहर-ए-बे-चराग़’ को क़ुबूल करने से इंकारी हो जाए। ये एक सादा सूरत-ए-हाल थी। अब ज़रा पेचीदा मिसाल देखिए,

    ‘मीर’

    चश्म हो तो आईना-ख़ाना है

    मुँह नज़र आते हैं दीवारों के बीच

    ‘ग़ालिब’

    गर्म-ए-फ़रियाद रखा शक्ल-ए-निहाली ने मुझे

    तब अमाँ हिज्र में दी बर्द-ए-लयाली ने मुझे

    आदिल मंसूरी

    जो चुप-चाप रहती थी दीवार पर

    वो तस्वीर बातें बनाने लगी

    आदिल मंसूरी का तो ज़िक्र क्या, इस ज़माने में ऐसे लोग मौजूद हैं जो ‘ग़ालिब’ के शे'र का मज़ाक़ उड़ाते हैं कि इन साहब को फ़र्श पर बनी हुई तस्वीरें देखकर रोना आता है। ‘मीर’ के शे'र में सूफ़ियाना और असरारी मा'नवियतें हैं। आदिल मंसूरी के यहाँ मुनक़सिम शख़्सियतSchizophrenia की कैफ़ियत है। इन बातों से बहस नहीं।

    नुक्ता ये है कि ‘आईना-ख़ाने’ और ‘दीवारों’ का ज़हनी तर्जुमा आसान है लेकिन ‘शक्ल-ए-निहाली’ को ‘गर्म-ए-फ़रियाद’ और ‘बर्द-ए-लयाली’ से मुतअ'ल्लिक़ करना और बोलती हुई तस्वीर को पहले ग़ाइब, फिर मौजूद, फिर बोलती हुई फ़र्ज़ करना मख़्सूस क़िस्म की ज़हनी जस्त का तक़ाज़ा करता है, लिहाज़ा ये भी कहा जा सकता है कि हर अच्छा शे'र या अच्छी नज़्म अपने मख़्सूस ज़हनी तर्जुमे की तलबगार होती है।

    ऊपर की मुख़्तसर बहस से अंदाज़ा हो गया कि नई तरह की ख़ूबसूरतियाँ दर-अस्ल इतनी नई नहीं होतीं जितना उनको बनाने का तरीक़ा नया होता है। तमाम ख़ूबसूरत चीज़ों में एक तारीख़ी तसलसुल और एक दाख़िली रब्त होता है। मैं शुरू' में कह चुका हूँ कि हुस्न के नए मेया'र नहीं बनते बल्कि हुस्न ख़ल्क़ करने का तरीक़-ए-कार बदलता रहता है और ख़ूबसूरत अश्या की फ़ेहरिस्त में इज़ाफ़ा होता रहता है। तरीक़-ए-कार की तब्दीली और उसकी ज़रूरत की तरफ़ सबसे पहले मुतवज्जेह करने वाला मशहूर मूसीक़ार वागनर (Wagner) था जिसके तसव्वुरात ने जदीद जमालियाती फ़िक्र को नई राहें दिखाईं। वागनर ने अपने तौर पर शे'र और मौसीक़ी की वहदत के तसव्वुर को आ'म किया और फ़्रांसीसी अ'लामत-निगारों पर असर अंदाज़ हो कर शे'र ब-हैसियत-ए-मौसीक़ी और ब-राह-ए-रास्त इ'ल्म, शाइ'र ब-हैसियत-ए-ख़ल्लाक़-ए-नौ और शाइ'र ब-हैसियत एक आज़ाद सर-गर्मी के नज़रियात को इस्तिहकाम बख़्शा।

    वागनर ने कहा कि शाइ'र को चाहिए कि वो ज़बान को बराह-ए-रास्त महसूसात की तख़्लीक़-ओ-तज़्किरा के लिए इस्ति'माल करे। इस नज़रिए ने मलारमे के अफ़्क़ार को किस दर्जा मुतअ'स्सिर किया, उसकी वज़ा'हत शायद चंदाँ ज़रूरी हो। वागनर ने सबसे पहले इस नुक्ते को बयान किया कि शाइ'री ज़बान का इज़हार होने की वज्ह से तर्जुमे की पाबंद होती है जब कि मौसीक़ी हम पर बराह-ए-रास्त असर-अंदाज़, और तर्जुमे से बे-नियाज़ होती है, लिहाज़ा शाइ'री और मौसीक़ी का इदग़ाम बेहतरीन जमालियाती हैअत ख़ल्क़ कर सकता है। वो कहता है,

    (1) ऐसी हैअत की पैमाइश ना-पज़ीर ग़ैर-मा'मूली एहमियत यक़ीनन इस बात में होगी कि तंग क़ौमी असरात से बेगाना होने की वज्ह से ये आफ़ाक़ी तौर पर समझ में आने वाली और हर नस्ल-ओ-क़ौम के लिए खुली होगी।

    (2) अगर यूरपी ज़बानों के इख़्तिलाफ़ अदब के दाएरे में इस हैअत की तशकील के लिए सद्द-ए-राह हैं तो यक़ीनन मौसीक़ी में ही वो अज़ीम मुसावात-साज़ क़ुव्वत पाई जा सकेगी जो अफ़्क़ार की ज़बान को महसूस की ज़बान में मुनक़लिब करते हुए फ़नकाराना तसव्वुर के अ'मीक़-तरीन असरार को आम-फ़हम बना सकेगी..

    (3) मैंने देखा कि शाइ'र की फ़ितरी ख़्वाहिश ये है कि तसव्वुरात और हैअत दोनों में ज़बान या'नी मुजर्रिद ख़यालात की माद्दी तज्सीम को इस तरह इस्ति'माल करे कि वो ख़ुद महसूसात पर फ़ौरी तौर पर असर-अंदाज़ हो। ये रुजहान चूँकि शे'री मौज़ू' की ईजाद में भी माद्दी हैसियत रखता है और इंसानियत की वही तस्वीर-ए-हयात शाइ'राना कही जा सकती है जिसमें तजरीदी फ़िक्र के तमाम मक़सूदात ग़ाइब हो कर ख़ालिस इंसानी महसूसात की नुमाइंदगी को राह दें, इस शे'री बयान के इज़हार और हैअत का यही एक मेया'र और पैमाना है। शाइ'र अपनी (या'नी शे'री ज़बान) में अल्फ़ाज़ के तजरीदी, रुसूमियाती मआ'नी को उनके अस्ली और मअ'नी-ख़ेज़ मआ'नी का ताबे' कर देता है और उनकी पुर-आहंग तर्तीब बल्कि उन्हें मौज़ूँ करने के अ'मल में उन पर मौसीक़ी का पर्दा डाल कर अपनी लिसानी तर्तीब में ऐसी असरियत पैदा करने की कोशिश करता है जो महसूसात को सिर्फ़ मुतअ'स्सिर करे बल्कि उन पर इस तरह मुस्तूली भी हो जाए गोया वो अफ़्सूँ-गरी हो।

    (4) शाइ'राना अ'मल के इस सफ़र के दौरान (जो उसकी अपनी फ़ितरत के लिए इस क़दर वाजिब है।) हम शाइ'र को अपने फ़न की आख़िरी हुदूद तक पहुँचते हुए देखते हैं, जहाँ वो मौसीक़ी को छूता हुआ महसूस होता है, लिहाज़ा हमारे लिए कामयाब-तरीन शे'री फ़न-पारा वही होगा जो अपनी तकमीलियत में पूरी तरह मूसीक़ाना हो..

    (5) ऐसा लगता है कि ख़ालिस इंसानी महसूसात जो रुसूमियाती तहज़ीब के मैदान में दब जाने की वज्ह से मज़बूत-तर हो गए हैं, उन्होंने ज़बान के बा'ज़ ऐसे क़वानीन ब-रू-ए-कार लाने की कोशिश की है जो सिर्फ़ महसूसात के साथ मुख़तस हैं और जिनके ज़रीए' वो ख़ुद को क़ाबिल-ए-फ़हम तौर पर और मंतक़ी फ़िक्र की बंदिशों से आज़ाद हो कर ज़ाहिर कर सकते हैं..

    (6) इस ना-गुज़ीर ए'तिराफ़ की रौशनी में शाइ'री के इर्तिक़ा के लिए बस दो रास्ते रह जाते हैं। या तो महज़ ख़ालिस तजरीद के मैदान में दाख़िल हो कर मआ'नी की तराकीब और फ़िक्र के मंतक़ी क़वानीन के ज़रीए' अश्या की नुमाइंदगी करे (और अपनी फ़लसफ़ियाना शक्ल में ये ऐसा करती ही है) या फिर ये मौसीक़ी से मुंसलिक हो जाए, ऐसी मौसीक़ी से जिसकी बेहद-ओ-निहायत क़ुव्वत बीतोवन (Beethoven) की सिम्फ़नी में हम पर मुनकशिफ़ होती है।

    (7) लेकिन इस मुहिम में वही शाइ'र कामयाब हो सकता है जो मौसीक़ी के मैलान और उसकी ग़ैर-मुख़्ततम क़ुव्वत-ए-इज़हार को ब-ख़ूबी समझता है और इसलिए अपनी नज़्म को इस तरह तर्तीब देता है कि वो मौसीक़ियाती बाफ़्त के बारीक-तरीन तारों में पैवस्त हो जाए और बोले हुए अफ़्क़ार को महसूसात की शक्ल में पूरी तरह मुतशक्किल कर दे।”

    ये कहने की चंदाँ ज़रूरत नहीं कि वागनर ने अफ़कारी शाइ'री और महसूसाती शाइ'री की जो दो क़िस्में बयान की हैं और महसूसाती शाइ'री को बराह-ए-रास्त मुतअ'स्सिर करने वाली मौसीक़ी से मुशाबेह करने की जो दावत शो'रा को दी है, इसका असर क़रीब-ओ-दूर के तमाम शो'रा पर किसी किसी नहज से अब तक देखा जा सकता है। रिल्के, येट्स, माया कानसकी इन सब के लिए शाइ'री और मौसीक़ी के नए रिश्तों की तलाश और शाइ'री में मुंज़बित मअ'नी के बजाए अश्या की इस तरह नुमाइंदगी की कोशिश कि बजाए अश्या के उनका तअ'स्सुर सामने जाए, ज़िंदगी का मक़सद बन गया। ख़ुद ‘इक़बाल’ के यहाँ वागनर की बाज़गश्त मिलती है

    शाइ'री को मौसीक़ी बना देने की कोशिश एक नए तरीक़-ए-कार की दरियाफ़्त का तक़ाज़ा करती है। दूसरी तरफ़ ये कोशिश शाइ'री की माहियत पर नई तफ़्कीरी सरगर्मी की भी दावत देती है, क्योंकि अगर शाइ'री ज़बान से मावरा हो सकती है तो इसमें बराह-ए-रास्त इ'ल्म, अफ़्सूँ या शाइ'र ब-हैसियत काहिन-ओ-आरिफ़ का तसव्वुर भी मुज़्मिर होगा।

    ये तसव्वुर बोदलियर (Charles Baudelaire) और रिमबाड (Arthur रिमबाड) से होता हुआ मलारमे (Stephane Mallarme), वालेरी (Paul Valery), इलियट (T. S. Eliot), येट्स (W. B. Yeats) और वालेस स्टीवनज़ (Wallace Stevens) तक देखा जा सकता है। शाइ'री ख़ूबसूरती की तख़्लीक़ है। इस नज़रिए को बयान करने के लिए मैंने एडगर ऐलन पो का हवाला दिया है। अब देखिए बोदलियर अपने अल्फ़ाज़ में पो का तक़रीबन तर्जुमा करते हुए कहता है,

    “अक्सर लोग फ़र्ज़ करते हैं कि शाइ'री का मक़सद किसी क़िस्म की ता'लीम है और ये कि शाइ'री को ज़रूर है कि वो कभी ज़मीर को मुस्तहकम करे, कभी मुख़्तसरन किसी कार-आमद बात को ज़ाहिर करे, लेकिन अगर कोई अपने अंदर ज़रा सा भी उतर जाए, अपनी रूह से पूछे, अपने पुर-जोश लम्हात को दोबारा ख़ल्क़ करे तो शाइ'री अपना मक़सद आप होने के सिवा कुछ भी नहीं... मैं ये नहीं कहता कि शाइ'री इंसानी ब्यवहार को शरीफ़-तर नहीं बनाती या उसका आख़िरी नतीजा ये होगा कि वो इंसानों को आ'म ख़ुद-ग़र्ज़ियों की सत्ह से ऊँचा उठा दे। ये तो खुली हुई बे-मअ'नी बात होगी। मैं सिर्फ़ ये कहता हूँ कि अगर शाइ'र ने जान-बूझ कर किसी अख़्लाक़ी मक़सद के हुसूल की कोशिश की है तो उसने अपनी शाइ'राना क़ुव्वतों का ख़ुसरान किया है... शाइ'री के ज़रीए' और शाइ'री के आर-पार मौसीक़ी के ज़रीए' और मौसीक़ी के आर-पार इंसानी रूह और रफ़ीअ'-उल-शान नज़ारों की एक झलक देखनी है जो क़ब्र के उस पार वाक़े' हैं…”

    शाइ'र ब-हैसियत-ए-आरिफ़ और शाइ'री ब-हैसियत-ए-मौसीक़ियाती इ'रफ़ान के उस तसव्वुर को पुर-ज़ोर तरीक़े से बयान करने की वज्ह से जदीद शाइ'री का ज़ाहिरी नक़्शा रिवायती से मुख़्तलिफ़ और एक नई जमालियात का इल्तिबास पैदा करता है, वर्ना ज़ाहिर है कि वागनर या फ़्रांसीसी अ'लामत-परस्तों या सरियलिस्टों के ये नज़रियात क़दीम शे'र ही के बत्न से अख़ज़ किए गए थे। एक तरफ़ बोदलियर तमाम काएनात को शाइ'र की मीरास मान कर कहता है कि,

    “दूर नज़दीक की तमाम अश्या महज़ इशारे हैं जो उसे फ़िक्र की दुनिया में दाख़िल होने के लिए बरांगेख़्त करते हैं और तमाम अश्या को पहले से भी ज़ियादा शोख़ रंगों वाली, वाज़ेह और लतीफ़ मअ'नी से भरपूर बनाकर अफ़्सूनी रंग में मलबूस करके पेश करते हैं।

    वो ख़ुद से कहता है कि ये अज़ीमुश्शान शहर जिनकी बा-रौनक़ उ'म्दा इमारत इस तरह खड़ी हैं गोया कोई स्टेज सजा हुआ हो, वतन की याद से भरी हुई बे-हरकत बे-ख़ुदी में बंदरगाह के पानियों पर लहराते हुए जहाज़ मुझे इस ख़याल का ही इज़हार करते मा'लूम होते हैं कि हम हुसूल-ए-मसर्रत के सफ़र पर कब रवाना होंगे।

    ये अ'जाइब-घर जिनमें बोलती तस्वीरें और नशा-आवर रंग ठसा-ठस भरे हुए हैं, ये कुतुब-ख़ाने जिनमें साईंस के कारनामे और फ़न की देवियों के ख़्वाब इकट्ठा हैं, ये सब मुख़्तलिफ़ साज़-ओ-आहंग जो आवाज़ में मुत्तहिद हैं, ये दिल को मोह लेने वाली औरतें जो अपनी निगाह-ए-इश्वा-तराज़ और तर्ज़-ए-आराइश के फ़न की बिना पर और भी दिलकश मा'लूम होती हैं, ये तमाम चीज़ें मेरे लिए बनी हैं, मेरे लिए, मेरे लिए।”

    और दूसरी तरफ़ सरियलिज़्म का बानी आंद्रे ब्रेटन (Andre Breton) कहता है कि आने वाला शाइ'र अ'मल और ख़्वाब के दरमियान वाक़े' मुरम्मत ना-पज़ीर इफ़्तिराक़ के तसव्वुर पर फ़त्ह पा लेगा। उसने सरियलिस्ट मंशूर में कहा, “मैँ इस बात में यक़ीन रखता हूँ कि मुस्तक़बिल में ये दो ब-ज़ाहिर मुतज़ाद हालतें या'नी ख़्वाब और अ'मल एक तरह की मुतलक़ हक़ीक़त या यूँ कहिए कि मावरा हक़ीक़त (Surreality) में बदल जाएँगी।

    लिहाज़ा हम देखते हैं कि जदीद शाइ'री दर-अस्ल इस फ़ौक़ वाक़इ'य्यत (Superrealism) की तलाश में है जिसका ख़्वाब वागनर और बोदलियर ने देखा था। ये ब-ज़ाहिर दुनिया से बे-तअल्लुक़ या इंतिशार-आमेज़ मा'लूम होती है लेकिन इसकी जड़ें उन्हीं हक़ाएक़ में पोशीदा हैं जहाँ से तमाम शाइ'री जन्म लेती है। ये ज़रूर हुआ कि सरियलिज़्म का ख़्वाब वो आख़िरी ख़्वाब था जो जदीद शाइ'र ने देखा कि वो इंसानी हुस्न और क़ुव्वत का वारिस है। शाइ'र की साहिराना या आ'रिफ़ाना हैसियत पर इसरार ने शे'र की दुनिया में एक नई लहर या नई थरथराहट (ह्यूगो Victor Hugo ने ये लफ़्ज़ बोदलियर से कहे थे कि तुमने शे'र की दुनिया एक नई थरथराहट और लहरFrission पैदा कर दी है।) तो डाल दी, लेकिन माद्दा-परस्त दुनिया जो शाइ'र की क़ुव्वत को ज़बानी ख़िराज पेश करती है मगर दर-अस्ल उसे समाजी कार-कुन बनाना चाहती है, शाइ'र को काहिन और आरिफ़ मानने पर तैयार हुई, लिहाज़ा जदीद शाइ'री में फ़रेब-शिकस्तगी और इंतिशार की कैफ़ियत पैदा हो गई। इसका एहसास नीत्शे (Nietzche) को बहुत पहले हो चुका था, चुनाँचे वो कहता है,

    “हालाँकि मौजूदा रजाई फ़िक्र की रौ से काएनात दानिस्तनी और शनाख़्ती है। लेकिन कांट Emmanue (Kant) ने दिखा दिया है कि अबदी सच्चाइयों, मकाँ, ज़माँ और इ'ल्लत के बारे में ये मफ़रूज़ा कि ये मुतलक़ और आफ़ाक़ी दुरुस्ती रखने वाले क़वानीन हैं, महज़ ज़वाहिर या'नी माया को सच्ची हक़ीक़त के दर्जे पर बिठा दिया जाता है और इस तरह उस हक़ीक़त की अस्ल फ़हम को ना-मुम्किन बनाते हुए शोपेनहावर (Schopenhauer) के अल्फ़ाज़ के ख़्वाब देखने वाले को और गहरी नींद में बांध देता है। इस इदराक ने एक ऐसी तहज़ीब का इफ़्तिताह किया है जिसे अलमियाती कहने की जुरअत करता हूँ..

    हमारा फ़न इस काएनाती कर्ब की वाज़ेह मिसाल है। हम बे-फ़ाइदा अ'ज़ीम तख़्लीक़ी अदवार और असातिज़ा की नक़्ल करते हैं। बे-फ़ाइदा सारे जदीद इंसान को आ'लमी अदब से घेर देते हैं और तवक़्क़ो' करते हैं कि वो उसके मुख़्तलिफ़ अदवार और असालीब को इस तरह नाम देगा जिस तरह हज़रत-ए-आदम ने हैवानात को नाम दिए थे। वो हमेशा-हमेशा भूका रहता है। एक नक़्क़ाद जिसमें क़ुव्वत है मसर्रत, एक सिकंदरियाई इंसान जो दर-अस्ल महज़ लाइब्रेरियन और शरह-नवीस है और जो बेचारगी के साथ गर्द-आलूद किताबों और किताब की ग़लतियों में ख़ुद को अंधा करता रहता है।”

    वागनर और बोदलियर से नीत्शे तक ज़मानी फ़स्ल बहुत नुमायाँ है। यही इस बात का सबूत है कि जदीद अदब की कशाकश और इसकी जिद्दत दोनों ब-यक वक़्त एक हक़ीक़त के दो पहलू हैं। नई जमालियात ने शाइ'र के किरदार को ख़ालिस शाइ'राना हैसियत में पेश करने की कोशिश की है, लेकिन माद्दी दुनिया कुछ और चाहती है। ये कशाकश तमाम जदीद अदब में जारी-ओ-सारी है। इस नुक्ते को समझे बग़ैर और इस बात का एहसास किए बग़ैर कि जदीद शे'री जमालियात सिर्फ़ उन चीज़ों का इस्तिहकाम करती है जो ख़ूबसूरती की मुतलक़ क़द्र का इनइ'कास हैं और हमें नई शाइ'री इसलिए अनोखी या कम ख़ूबसूरत मा'लूम होती है कि हमने हुस्न के तारीख़ी तसव्वुर पर माद्दियत के पर्दे डाल दिए हैं, जदीद अदब बल्कि किसी भी अदब का मुताला' मुम्किन नहीं।

    शे'री ख़ूबसूरती के मेया'र सहीफ़ा-ए-आसमानी की तरह नहीं हैं कि उन्हें किसी किताब या शरह में बयान किया जा सके लेकिन ख़ूबसूरत शाइ'री के लिए इंसान एक जिबिल्ली पहचान का रुजहान रखता है। ख़ूबसूरती के बा'ज़ मज़ाहिर को बा'ज़ ज़मानों में ज़ियादा एहमियत मिलती है और बा'ज़ में कम। जदीद शे'रियात ने ख़ूबसूरती को परखने और ख़ल्क़ करने के नए तरीक़े ज़रूर दरियाफ़्त किए हैं। लेकिन यहाँ भी ज़ियादा-तर दर्जे का नहीं, नौ' का नहीं। नई जमालियात बनाने का दा'वा अपना तज़ाद अपने ही अंदर रखता है। जदीद शाइ'री तो बस ये कर रही है कि आप में पुरानी ख़ूबसूरती की फ़हम दोबारा पैदा करे और इस तरह अपनी ख़ूबसूरतियों को उजागर करे।

    स्रोत:

    Tanqeedi Afkar (Pg. 51)

    • लेखक: शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी
      • प्रकाशक: डायरेक्टर क़ौमी कौंसिल बरा-ए-फ़रोग़-ए-उर्दू ज़बान, नई दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 2004

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