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महीने की पहली तारीख़

मिर्ज़ा फ़रहतुल्लाह बेग

महीने की पहली तारीख़

मिर्ज़ा फ़रहतुल्लाह बेग

MORE BYमिर्ज़ा फ़रहतुल्लाह बेग

     

    अक्सर भले आदमीयों के हालात पर ग़ौर करने के बाद मेरी ये राय क़ायम हुई है कि मियां बीवी में सबसे बड़ा झगड़े का झोपड़ा तनख़्वाह का हिसाब है। यक़ीन मानिए कि अगर गर्वनमैंट अपने मुलाज़िमों के हाथ में तनख़्वाह ना देकर ख़ुद ही अपने किसी अहल-ए-कार के ज़रीये से महीना भर का गला भरवा दे, क़साई का हिसाब करा दे, तरकारी वाले का चुकता करा दे और घर की तमाम ज़रूरीयात ख़ुद ही फ़राहम करा दे, तो जिन घरों में आए दिन दाँता कलकल रहती है वो यकक़लम मौक़ूफ़ हो जाये। हाँ ये ज़रूर है कि जो अहल-ए-कार साहिब महीना का हिसाब करने आएं, उनको दफ़्तर जाने की बजाय शायद अस्पताल पड़े।

    दुनिया में मियां दो किस्म के होते हैं। एक वो जो सारी की सारी तनख़्वाह चुपके से ला कर बीवी के हाथ में धर देते हैं। दूसरे वो जो ख़ुद हिसाब करते हैं और हिसाब से ज़्यादा एक कोड़ी बीवी को नहीं देते। और लुतफ़ ये है कि दोनों सूरतों में बीवी को मियां से शिकायत होती है और मियां को बीवी से। दिनों झगड़े चलते हैं। यहां तक कि पंद्रह तारीख़ आकर इन झगड़ों को ठंडा कर देती है। और दूसरी तनख़्वाह का इंतिज़ार इस लड़ाई की आग पर कोन्डा ढक है।

    आप कहेंगे कि जब मियां पूरी तनख़्वाह बीवी को दे देते हैं तो फिर झगड़े की कौन सी सूरत रही। जनाब-ए-आली वजह ये होती है कि मियां इस तरह जेब ख़ाली कर ख्क्क्क् हो जाते हैं। आख़िर वो भी आदमी हैं। सैकड़ों शौक़ हैं। हज़ारों ज़रूरतें हैं। लाखों काम हैं। आख़िर उनको भी रुपय की ज़रूरत है या नहीं। अब जो ये बीवी से कुछ मांगते हैं तो टिका सा जवाब मिल जाता है। आप ख़ुद ही ग़ौर कीजिए कि जो शख़्स पूरे महीना भर मेहनत कर के आँखों का तेल निकाल कर अफ़िसरों की ख़फ़गीयाँ उठा कर घर में तनख़्वाह लाए तो इस का तनख़्वाह में कोई हक़ है या नहीं।

    मैंने माना बीवी बड़ी चीज़ है। मगर साहिब मियां को बड़ी चीज़ ने ना समझो तो कम से कम छोटी चीज़ तो समझो। ये क्या बीवी तो सारी तनख़्वाह उठाने की हक़दार हूँ और मियां को इस में से एक हब्बा ना मिले। बस उन्ही बातों पर मियां को ग़ुस्सा आता है और जब मियां को ग़ुस्सा आए तो फिर बीवी को क्यों ना आए। घर-बार की मालिक है तो वो है। रुपया पैसा है तो उस के हाथ में है। खाने पकाने का इंतिज़ाम है तो उस के क़बज़े में है। अगर मियां की हुकूमत दफ़्तर में है तो इस की हुकूमत मकान में है। यहां बराबर की टक्कर है। दो कहोगे तो चार सुनोगे। ग़रज़ लड़ाई होती है और ख़ूब होती है। फ़र्क़ ये है कि शरीफ़ों में ज़रा खुसर पिसर की सूरत में होती है। मामूली लोगों में ज़रा ऊंची आवाज़ में होती है और रज़ीलों में धुआँ धौं होती है। मगर होती है सब में। हाँ नतीजा हमेशा ये होता है कि मियां के पल्ले कोड़ी नहीं पड़ती। मियां हारते हैं और बीवी हैं।

    अब दूसरी सूरत लीजिए कि पहली तारीख़ हुई। मियां तनख़्वाह लाए और हिसाब करने बैठे। बीवी सामने आकर बैठ गईं। काग़ज़ आया। मियां ने फोंटेन पन निकाला और लिखाई हुई।

    मियां हाँ साहिब तो अब हिसाब बोलिए।

    बीवी में क्या बोलूँ आख़िर पिछले महीने का पर्चा किया हुआ। जहां महीना हुआ, और तुमने कहा हाँ साहिब अब बोलो हिसाब। आख़िर पर्चा सँभाल कर क्यों नहीं रखते। ख़ुदा ने सन्दूकचा दिया है, मेज़ दी है, अलमारी दी है, अल्लाह के फ़ज़ल से सब चीज़ रह जाती हैऔर नहीं रहता तो मुआ ये चार उंगल का पर्चा। दस बरस से हिसाब कर रहे हो। और अब तक ये नहीं मालूम कि घर में क्या ख़र्च होता है। बताऊं तो मैं बताऊं, नहीं तो आप एक हर्फ़ ना लिखें। अच्छा लिखिए नयाज़ का एक रुपया।

    मियां नयाज़ का एक रुपया, मैंने लिख तो लिया। मगर ये बताईए कि आख़िर ये रुपया होता किया है। हमने तो कभी नहीं देखा कि तुमने किसी को हाथ उठा कर एक पैसा दिया हो। या कभी नयाज़ के लिए मिठाई आई हो। कहीं ऐसा ना करना कि रुपया लू तो नयाज़ के लिए और किसी और काम में उठा बैठो। ख़ुदा की क़सम नयाज़ के पैसे में से ख़ुद अपने पर कुछ ख़र्च करना बड़ा गुनाह है। ख़ैर मुझे इस से किया। तुम जानो और तुम्हारे अल्लाह मियां जानें। उनके रुपय में से हिस्सा बटाया तो ख़ुद जहन्नुम में जाओगी।

    बीवी बस जी बस। ऐसी बातें ना किया करो। मैं क्यों जहन्नुम में जाने लगी। जाऐंगे मेरे बुरा चाहने वाले। ऐसा ही है तो उठाओ अपनी तनख़्वाह। ख़ुद ही हिसाब करो। ख़ुद ही तक़सीम करो। कोड़ी कोड़ी का हिसाब कर के तो रुपया खिसकाते हो और ऊपर से ऐसी उल्टी सीधी बातें करते हो।

    मियां वाह बी वाह। तुम तो ख़फ़ा ही हो गईं। ख़ुदा मालूम तुम्हारी क्या हालत हो गई है कि ज़रा मज़ाक़ किया और तुम बिगड़ गईं। अच्छा आगे चलो।

    बीवी मकान का किराया बाईस रुपये।

    मियां उफ़ फुव्वा, ख़ुदा ग़ारत करे इस मकानदार को। ज़ालिम किराया तो पहली तारीख़ को आकर वसूल कर लेता है और मुरम्मत को कहो तो जवाब तक नहीं देता। सामने की दीवार को देखो, उदहर खड़ी है। अब की बरसात में ना आ पड़े तो मेरा ज़िम्मा। ख़ुदा मालूम कौन कौन उस के नीचे दब कर मरने वाला है। छतें हैं तो उनकी ये हालत है कि दिन को इस में तारे दिखाई देते हैं। ग़ुस्ल-ख़ाने हैतो माशा अल्लाह और डेयुढ़ी है तो सुब्हान-अल्लाह। कहो जी अगर ये मकान छोड़ दें तो किया। दफ़्तर की क़ुरबत की वजह से इस खन्डर में पड़े हैं। वर्ना ख़ुदा की क़सम बाईस रुपय में ऐसे चार मकान मिल सकते हैं। भई इस मकानदार से हम तो तंग आगए। ये ग़ज़ब तो देखो कि मकान की तो ये हालत और पिछले महीने से बीस के बाईस कर दिए। तो हाँ मकान के बाईस रुपय। चलो।

    बीवी अमीरन को नौ रुपये।

    मियां ये अमीरन कौन बला हैं?

    बीवी तुम अमीरन को नहीं जानते। और आख़िर तुम्हें रोज़ रोटियाँ ठोंक कर कौन देता है। तुम तो दिन-ब-दिन नन्हे बच्चे बनते चले जाते हो। साल भर से पकाने वाली नौकर है, इस का हिसाब करते हो और फिर पूछते हो कि अमीरन कौन है।

    मियां बीवी तुमने भी किस सड़ियल मामा को रख छोड़ है। निकालो चुड़ैल को। मुझे तो इस की सूरत देखे से घिन आती है।

    बीवी तो मैं कब मना करती हूँ। निकाल दो, और ढूंढ ढांड कर वज़्अ-दार, तरह-दार, ख़ूबसूरत मामा को ले आओ फिर देखो कि वो खाना पकाती है या अपनी कंघी चोटी में गिरफ़्तार रहती है। जहां बैरी होती है वहां पत्थर आते हैं। थोड़े दिन में खिलेगा आपकी डेयुढ़ी उस के रिश्तेदारों की बैठक हो जाती है या नहीं। कोई भाई बन कराएगा तो कोई मामूं बिन कराएगा।

    मियां ख़ैर जली कटी बातें छोड़ो। हाँ ये बताओ कि ये बी अमीरन जो आठ रोज़ घर में जा कर बैठ रही थीं उस की तनख़्वाह उनको क्यों दी जाये। हम एक दिन दफ़्तर ना जाएं तो तनख़्वाह कट जाये और ये आठ आठ रोज़ अपने घर से ना आएं और पूरी तनख़्वाह रखवा लें।

    बीवी अच्छा काट लू आठ दिन की तनख़्वाह। देख लोकल अपने घर चली जाती है या नहीं। ये तो बड़ा ग़ज़ब है कि कोई बीमार पड़े और अपने घर ना जाये। किसी के हाँ शादी ग़मी हो और घर ना जाये। नौकरी क्या हुई अज़ाब जान हो गई। कोई उसने नौ रुपय में अपने को बेच दिया है कि मरते मर जाये औरा प की दहलीज़ से बाहर क़दम रखे।

    मियां अमीरन के आठ रुपये। और फ़रमाईए

    बीवी आठ नहीं नो। किलो के चार रुपये

    मियां किलो के चार रुपये

    बीवी क्यों उस की तनख़्वाह पर कुछ नहीं कहा। मियां का चाहीता नौकर है ना। जब देखो, डेयुढ़ी ख़ाली पड़ी है। कुछ लाने भेजो तो सुबह का गया शाम का आए। सौदा लाए तो पैसे में से पवन पैसा खा जाये। जब आवाज़ दो ग़ायब और नवाब साहिब हैं कि घर से दूर दरख़्त के नीचे बैठे यार लोगों से ताश खेल रहे हैं। जुआ खेता है मुआ पकड़ा जाये तो मेरे दिल में पड़े।

    मियां तुम तो ख़्वाह-मख़ाह जिसके चाहती हो पीछे पड़ जाती हो। आजकल के ज़माने में चार रुपय पर कहीं नौकर मिलता है।

    बीवी चार रुपय तुम इस भरोसे पर ना रहना, वो इस घर से ख़ासे दस पन्दह रुपय और पैदा कर लेता है। ज़रा देखो तो सही क्या बिना ठना फिरता है। गोया दुनिया जहान की दौलत उस के हाँ आ गई है। ईद में जो उसने शेरवानी बनवाई है वो तो ज़रा जा कर देखो। दस रुपय गज़ का कपड़ा है। ऐसी शेरवानी तुमने सारी उम्र भी ना पहनी होगी। मैं ख़फ़ा होती हूँ, तुम उस की पिच करते हो। मैंने भी समझ लिया कि जब घर वाले ही घर लुटवाना चाहते हैं तो लुटवाने दो। मैं बीच में बोल कर क्यों बुरी बन्नूँ। चार रुपय क्या तुम उस के दस करोड़ दो मेरी बला से।

    मियां अजी छोड़ो। इन झगड़ों को। अच्छा आगे चलो।

    बीवी क़साई के सात रुपये।

    मियां उस को तो में एक पैसा नहीं दूँगा। बद-मआश ने सारे महीने कुत्तों का रातिब खिलाया है। ज़रा तुम ही ईमान से कहना एक दिन भी गोश्त गुला। रुपय का दो सैर गोश्त देता है और उठा कर देखो तो निरे छीछड़े होते हैं।

    बीवी ना दो मेरा किया जाता है। वो जाने और तुम जानो। तुम्हारे मियां किलो जानें।

    मियां क़साई के सात रुपय और...

    बीवी तरकारी वाली के पाँच रुपये।

    मियां तरकारी वाली के पाँच रुपये।

    बीवी बनीए के पछत्तर रुपये।

    मियां पछत्तर रुपय। ग़ज़ब ख़ुदा का। हम दो मियां बीवी और ये दो बच्चे, महीना भर में पछत्तर रुपय का अनाज खा गए। आदमी क्या हुए पेठा रथो हो गए।

    बीवी खा गए या नहीं खा गए, ये तो मैं जानती नहीं। लोया बनीए का पर्चा है। ख़ुद देख लू। पछत्तर रुपय होते हैं या नहीं।

    मियां (पर्चा देखकर गेहूँ एक मन दस सैर। दस रुपय के। क्या भाव हुए। रुपय के पान सैर हैं। तमाम दुनिया में गुल मच रहा है कि गला सस्ता हो गया। गला सस्ता हो गया। और हमारे हाँ वही पुराना भाव चला जाता है। बात ये है कि किसी एक दूकान से हिसाब रखने में यही मुसीबतें पेश आती हैं। आइन्दा महीने में हम ख़ुद बाज़ार से जा कर गला लाएँगे। घी सवा दस रुपय का। घी किया उसी को घी कहते हैं जो इस बद-मआश की दूकान से आता है। सारा बना हुआ घी होता है बस शहर के रहने में यही आफ़त है। ना घी अच्छा मिले ना गला अच्छा मिले। ना गोश्त अच्छा मिले। ना तरकारी अच्छी मिले। मुट्ठीयाँ भर भर के रुपया जाये और सामान आए तो इस शक्ल का। मैं तो अपना तबादला कहीं बाहर करा लेता हूँ। कम से कम ऐसा घी तो मिलेगा जिससे कुछ ताक़त आए। यहां किया है दस सवा दस रुपय महीने का घी खाओ, मुँह पर पानी फिरना तो कैसा उल्टा मादा ख़राब जाये।

    बीवी अच्छा आगे चलो।

    मियां आगे चलूं क्या ख़ाक। लू उठाओ अपना हिसाब पछत्तर रुपय लिखे लेता हूँ। है ये कि तुम्हें घरदारी करनी नहीं आती। जो चीज़ आती है चुपके से रख लेती हो। ये नहीं होता कि लाने वाले के मुँह पर मॉरो कि जाओ हम ऐसा माल नहीं लेते। यहां मेहनत करते करते हम मोए जाते हैं और बीवी साहिबा हैं कि माल-ए-मुफ़्त दिल बेरहम समझ कर अंधा धुंद लुटाए चली जाती हैं।

    बीवी ये भी अच्छी कही कि मैं आपका रुपया लुटा रही हूँ। कभी हिसाब से एक पैसा ज़्यादा भी मुझे दिया है जो ये तूफ़ान उठाए जा रहे हैं। मुझे आप ऐसे कौन से नव्वे टिके थमाए देते हैं जो सारी कमाई उठाने का इल्ज़ाम मुझ पर लगाया जा रहा है। उठाओ अपने रुपय, ख़ुद ही कमाओ और ख़ुद ही उठाओ। मैं बीच में पड़ कर मुफ़्त में बुरी बन्नूँ। अपनी नहीं कहते। ये दोस्त आए लाओ चाय, वो दोस्त आए लाओ खाना। आज थेटर चले जा रहे हैं कल सिनेमा चले जा रहे हैं। आप ही नहीं जाते दो तीन दस्तों को समेट कर ले जाते हैं। पैसा ख़र्च ना होगा तो क्या होगा। क्या किसी नफ़्फ़ाख़ते को ये भी नसीब हुआ है कि लू भई रोज़ ये हमको तमाशा में ले जाते हैं। आज हम उनको ले चलें। ख़ुद ही तो तुम्हारी हिमियानी खुली पड़ती है। मुझे क्या कहते हो। पहले अपने को देखो कि तुम रुपया लुटा रहे यामें।

    मियां सारे दिन मेहनत कर के तफ़रीह के लिए शाम को तमाशे में भी ना जाऊं तो क्या मर जाऊं। तुम कुव्वतो मेरा हर काम बुरा मालूम होता है। और तुम ही कहो जब दो एक दोस्त साथ हूँ तो ये कैसे करूँ की ख़ुद टिकट लूं और उनसे कह दूं कि मियां तुम अपने टिकट ख़ुद ख़रीदो। मुझसे तो ये बे-हयाई नहीं सकती।

    बीवी तो मैं ये कब कहती हूँ कि तुम बे-हया बनू। मेरा तो ये कहना है कि जब तुम ख़ुद रुपया ख़र्च करते हो तो इस का इल्ज़ाम मुझ पर क्यों रखते हो। तुम्हारा रुपया है जिस तरह चाहो रखू। जिस तरह चाहो उठाओ, अगर में कुछ कहूं तो जो चोर का हाल वो मेरा हाल।

    मियां अच्छा आगे चलो।

    बीवी धोबी के तीन रुपये।

    मियां क़सम ख़ुदा की धोबी से तो मेरी जान बे-ज़ार हो गई। मेरी हुकूमत होती तो सबसे पहले उस को फांसी पर लटका देता। अब यही देखो कि मैं जो करता पहने बैठा हूँ उस का क्या हाल है। दो धूप में नामाक़ूल ने धज्जियाँ कर दिया है। ये जो कपड़े फाड़ता है आख़िर तुम उस की तनख़्वाह में से काट क्यों नहीं लेतीं। मैं फिर वही कहता हूँ कि तुम में मुसावाती हद दर्जा की है। दो दफ़ा तनख़्वाह काट लू, तो बेटा ठीक हो जाते हैं।

    बीवी लकड़ियाँ छः रुपये की।

    मियां क्या कहा। लकड़ियाँ छः रुपय की। एक महीना में इकट्ठी छः रवी की लकड़ियाँ जला डालें। रुपय की चार मन तो लकड़ियाँ आती हैं, और माशा अल्लाह आपके हाँ छे रुपय की जल हैं।


    बीवी रुपय की चार मन लकड़ियाँ आपके घर में आती होंगी। बड़ी मुश्किल से पौने दो मन की मिलती हैं। और आप जानें ना बूझें चिट एतराज़ कर बैठते हैं। ख़ुदा झूट ना बुलवाए सुबह के चार बजे से जो चूल्हा सुलगता है तो कहीं रात को बारह बजे जा कर ठंडा होता है। आप हैं कि मुँह धोईं तो गर्म पानी से। वुज़ू करें तो गर्म पानी से, नहाईं तो गर्म पानी से। दिन में कुछ नहीं कुछ नहीं तो बीस पच्चीस चिलिमें ज़रूर भरी जाती हैं। जब सारे दिन चूल्हा धर धर जलेगा तो लक्कड़ी ना उट्ठेगी तो क्या होगा।

    मियां अच्छा साहिब तुम सच्ची और हम झूटे। लू लिखे लेते हैं, लकड़ियाँ छे रुपय की।

    बीवी मिहतर का एक रुपये।

    मियां मिहतर का एक रुपया। मगर हाँ अब ये दो-वक़्ती को नहीं आता। ज़रा इस से कह देना कि अब की ऐसा किया तो आठ आने काट लूँगा। ग़रज़ यूं ही हिसाब का सिलसिला चलता रहा। और तान यूं टूटी कि,

    बीवी कर्जे़ के अठारह रुपये।

    मियां ख़ुदा के लिए बीवी तुम सब कुछ करो। मगर लिल्लाह क़र्ज़ा ना करो। कर्जे़ के नाम से मेरा दम निकलता है। आख़िर में भी तो सुनूँ क्या क़र्ज़ा हुआ काहै में?

    बीवी तुम बहुत दिन से कह रहे थे कि मुझे चिकन के कृत्य बना दो। परसों राम लाल बज़्ज़ाज़ आया था इस से दो कुर्तों की चिकन ले ली कहो तो वापिस कर दूं।

    मियां तो क्या दो कुर्तों की चिकन अठारह रुपय की होगी। ज़्यादा से ज़्यादा होगी कोई रुपय सवा रुपय की।

    बीवी रुपया सवा रुपया क्यों कहते हो तीन चार आने कहो। पूरे साढे़ सात रुपय की है। साढे़ सात रुपय की।

    मियां अच्छा साढे़ सात सही और बाक़ी।

    बीवी बाक़ी का मैंने पेजामों का कपड़ा लिया।

    मियां क्यों पिछले पेजामे क्या हुए, दो ही महीने तो हुए कि छे पेजामों का कपड़ा ला कर दिया था तुम्हें। तो हौका गया है। ना ये देखती हो कि ज़रूरत है। ना ये देखती हो कि घर में पैसा है। जहां कोई चीज़ देखी और लौट गईं। ज़रूरत हो या ना हो। तुमको ख़रीद लेना ज़रूर है। मैंने किलो से कह दिया था कि इन बद-मआश घुटे वालों को दरवाज़े में ना घुसने दिया कर। मगर जब घर की बीवी ही रुपया लुटाने पर आमादा हूँ तो वो बेचारा क्या करे। बेगम साहिब तुमको मालूम भी है कि ये फेरी फिरने वाले किया करते हैं। बड़ी बड़ी दूकानों पर जो पुराना धराना, सड़ा बसा माल होता है वो ले आते हैं और तुम जैसी घर वालियों से पैसे के दो पैसे खरे कर लेते हैं। और फ़रमाईए। क्या उस के इलावा और भी किसी को कुछ है।

    बीवी हाँ रामू की के चालीस रुपय हैं। दस रुपय इस महीने में दे दो बाक़ी फिर थोड़े थोड़े कर के दे देना।

    मियां रामू कौन है। वही सोई पोथ वाली 1 देखो बीवी कान खोल कर सन लू। मुझे इस औरत का घर में आना बुरा मालूम होता है। इस से से उल्टी सीधी चीज़ें ख़रीद कर तुम्हें क़र्ज़ा लेने की आदत पड़ी है। ज़रा में भी तो देखूं कि इस से आपने ऐसी कौन सी चीज़ ख़रीदी है जो मेरे काम आई है। या आपके काम आई हो। ख़ैर अब तक तो मैंने नहीं कहा था। हाँ अब कहता हूँ कि तुमने अपने जहेज़ का सारा गोटा कनारी उधेड़ उधेड़ कर इसी के नज़र कर दिया है और इस के बदले में लिया किया है कि बारह आने दर्जन की चीनी की रकाबियॉं, झूटे मोतीयों की लड़ियाँ, जापान की बनी हुई ट्रमही, गुड़ियाँ ग़रज़ ऐसी एही इल्ला बिल्ला ख़रीद कर सारा जहेज़ नेग लगा दिया। और इस पर भी बी रामू के चालीस रुपय हैं।

    है ये कि तुमने घर का ख़ूब घिरवा हा किया है। मियां को तनख़्वाह तो है सवा दो सौ और बीवी महीना भर में उठाएं पौने तीन सौ। आख़िर ये घर चलेगा तो कैसे चलेगा। कोई मेरे बाप दादा जागीर तो छोड़ नहीं गए हैं कि क़र्ज़ा होता है तो होने दो। फ़सल पर रुपया आएगा तो उतार देंगे। यहां तो उसी सवा दो सौ में मरना जीना सब कुछ होना है। और तुम हो कि हर महीने कुछ ना कुछ क़र्ज़ा ज़रूर कर बैठती हो।

    बीवी तो मैंने कब कहा कि ख़ुदा के लिए ये घरदारी मेरे सपुर्द करो। ऐसा ही है तो ख़ुद ही तनख़्वाह लाओ, ख़ुद ही उठाओ ग़ज़ब ख़ुदा का कि घर के ख़र्च तो ख़ुद बढ़ाईं और बीवी पर आँखें निकालें। जाओ मैं तुम्हारा रुपया दो रुपया नहीं लेती। तुम जानो और तुम्हारा जाने।

    लीजिए चली गई। मगर जनाब आप समझे भी कि आख़िर इस गड़बड़ की वजह किया है। वजह ये है कि मियां हूँ या बीवी बे-ज़रूरत अख़राजात बढ़ा लेते हैं। तनख़्वाह आने पर जब जमा-ओ-ख़र्च पर नज़र डाली जाती है। इस वक़्त ख़्याल आता है कि हैं ये क़र्ज़ा कैसे अदा होगा। मियां को बीवी पर और बीवी को मियां पर ग़ुस्सा आता है। एक तरफ़ से हिसाब पर जाऐ-ओ-बेजा एतराज़ होते हैं। दूसरी तरफ़ से जले कटे जवाब दिए जाते हैं। बात बढ़ जाती है। शराफ़त फिर बीच में पड़ कर सफ़ाई करा है।

    दूसरे महीने फिर यही मुसीबत पेश आती है। मगर कोई अल्लाह का बंदा ख़्याल नहीं करता कि लाओ कुछ इस तरह ख़र्च करें कि तनख़्वाह में पूरी पड़ जाये। मैं आपको यक़ीन दिलाता हूँ कि अगर हम लोग ''जितनी चादर देखो इतने फैलाओ''अलिफ पर अमल करें और बे-ज़रूरत ख़र्च से हाथ रोकें तो तनख़्वाह में पूरी पढ़नी कैसी इंशाअल्लाह कुछ बचत ही हो कर ये जो आए दिन के झगड़े हैं ख़ुद बख़ुद रफ़ा हो जाएं। मगर भई हमारी सुनता कौन है। ख़ैर हम तो अपनी सी कहे देते हैं। आइन्दा तुम जानो और तुम्हारा जाने।

    मन आंचे शरफ़ बलाग़ अस्त बा तो मेगवीम
    तो ख़ाह अज़ सख़नम पंद गीर ख़ाह मलाल


    हाशीए
    * अल्लाह के फ़ज़ल से ये हर भले आदमी के घर का नक़्शा है। पढ़ कर हर शख़्स दिल में क़ायम होगा। लेकिन इंशाअल्लाह इस्लाह हाल की एक भी कोशिश ना करेगा। (मुसन्निफ़)
    (1) हैदराबाद की ये घुटे वालियाँ हैं। हर किस्म का सामान ख़ुदा जाने कहाँ कहाँ से ख़रीद कर लाती हैं और मन-माने दामों पर घरों पर बीच जाती हैं। उनके कर्जे़ का वो फेर है कि मरते दम तक इस से पीछा छूटना मुश्किल है।

     

    स्रोत:

    Mirza Farhatullah Beg Ke Mazameen (Pg. 224)

    • लेखक: मिर्ज़ा फ़रहतुल्लाह बेग
      • प्रकाशक: उर्दू अकादमी, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1997

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