aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

मियाँ नज़ीर

शमीम हनफ़ी

मियाँ नज़ीर

शमीम हनफ़ी

MORE BYशमीम हनफ़ी

    मियाँ नज़ीर शायद उर्दू के तन्हा शाइ’र हैं जिन्होंने किसी मसअले से सरोकार नहीं रखा, सो पढ़ने वाले के लिए भी मसअला बन सके। एक मुद्दत तक उनके तईं जो बे-नियाज़ी आ’म रही, उसका बुनियादी सबब यही है कि उन्होंने अपने पढ़ने या सुनने वालों से कभी कोई ऐसा मुतालिबा नहीं किया जो उसे किसी शर्त को क़ुबूल करने का तजरबा दे सके। नज़ीर के अल्फ़ाज़, उनके अल्फ़ाज़ में घिरी हुई रंगा-रंग दुनिया और उस दुनिया के हर दयार और दाएरे से गुज़रता हुआ, हर लफ़्ज़ के रौज़न से झाँकता हुआ आदमी इतना आ’म, मानूस और मा’मूली दिखाई देता है कि उसके बारे में सोच-बिचार की ज़रूरत बड़ी मुश्किल से सर उठाती है।

    वो गए-बीते शाइ’र भी, जिनके पास बिल-उ’मूम कहने को कुछ नहीं होता था और जो सिर्फ़ लफ़्ज़ों के दाँव-पेच पर गुज़रान करते थे, घुमा-फिरा कर ज़बान का एक मसअला पैदा कर लिया करते थे। नज़ीर की क़लंदरी इस लिसानी जमा-ख़र्च की मुतहम्मिल भी हुई। उन्होंने जो कुछ देखा, बरता और महसूस किया, उसे जूँ का तूँ एक जाने बूझे लिसानी ख़ाके में समो दिया और ये सब कुछ उन्होंने इस तमानियत, सुकून और सादगी के साथ अंजाम दिया कि एक लम्हे के लिए भी, क्या जज़्बा-ओ-फ़िक्र और क्या ज़बान-ओ-बयान, किसी के हाथों परेशान हुए। जो जैसा कुछ जी में आया, बे-झिजक कह दिया और कभी अपनी सादाकारी पर पशेमान हुए। अपने आप में ऐसी बे-हद-ओ-हिसाब गुम-शुदगी उर्दू के बड़े से बड़े शाइ’र के इक्का-दुक्का, दस-बीस या ज़ियादा से ज़ियादा सौ पचास अश’आर में तो दिखाई देती है, लेकिन एक मीर साहिब के इस्तिसना के साथ किसी के पूरे कलाम का मिज़ाज नहीं बनी।

    कहने को तो आदमी-नामा मियाँ नज़ीर की सिर्फ़ एक नज़्म है लेकिन दर-अस्ल उनके तमाम-तर कुल्लियात पर इस एक उ’नवान का इतलाक़ होता है। वो उ’म्र-भर उस आदमी की सरगुज़िश्त बयान करते रहे जो राह-ओ-मुक़ाम की क़ैद से आज़ाद, बे-इरादा और बे-इंतिख़ाब चारों खूँट मारा-मारा फिरता रहा और जिसने अ’क़ाइद-ओ-अक़दार, रुसूम-ओ-रवायात, अफ़कार-ओ-आसार, मज़ाहिर और मनाज़िर के किसी मख़्सूस और मुअ’य्यना इ’लाक़े को अपनी आख़िरी हद के तौर पर क़ुबूल किया।

    ऐसा होता तो नज़ीर के तजरबों और वारदात में बुलंद-ओ-पस्त के इज्तिमा’ की इस दर्जा गुंजाइश निकलती।

    वो जिस क़लंदराना इस्तिग़्ना के साथ ज़िंदगी की ने’मतों का और उसके अल्ताफ़ का ज़िक्र करते हैं, इसी फ़क़ीराना शान के साथ उसके दुख-दर्द की रूदाद भी बयान करते हैं, जिस इस्तिग़राक़ के साथ मज़ाहिर के शोर में छुपे हुए सन्नाटे और हक़ीक़त के फ़रेब का हिजाब उठाते हैं, उसी सरमस्ती और लज़्ज़त के साथ दुनिया की दिल-फ़रेबियों पर नज़र डालते हैं, और हैरत इस बात पर होती है कि तजरबे के इन दोनों मंतिक़ों पर उनकी ज़ात महफ़ूज़ दिखाई देती है।

    ये कसरत में वहदत से ज़ियादा, वहदत की बुल-अ’जबी और उसके फ़ितरी और मा-गुज़ीर अंदरूनी तज़ादात का इर’फ़ान है जो फ़त्ह-ओ-शिकस्त, नेक-ओ-बद और अँधेरे-उजाले को यकसाँ तौर पर उनके लिए क़ाबिल-ए-तवज्जोह बनाता है। वो सुख से मग़ुरूर होते हैं दुख से मग़्लूब और एक सच्चे खिलाड़ी की तरह जो खेल के आदाब से ब-ख़ूबी वाक़िफ़ हो, और हार जीत दोनों को एक सी ख़ंदा-पेशानी के साथ क़ुबूल कर सके, काएनात के तमाशे से दो-चार, कामयाबी और नाकामी के मुख़्तलिफ़ मराहिल से गुज़रते हैं।

    उनके लिए बुनियादी हक़ीक़त तमाशा है, जिसमें निशात-ओ-अलम, ब-यक वक़्त दोनों के पैवंद लगे हुए हैं... आ’म सूफ़ी शाइ’रों की तरह नज़ीर यहाँ मुक़द्दर-परस्त और मजबूर नज़र नहीं आते कि इस तरह तमाशे में ख़ुद उनका इश्तिराक बे-जवाज़ हो जाता और एक हज़ीमत ज़दा ला-तअ’ल्लुक़ी, ख़ुद-निगरी और दुनिया बे-ज़ारी उनका मिज़ाज बन जाती।

    उनका रवैया अज़-अव्वल-ता-आख़िर ईजाबी है, सो वो हर रंग और हर रस के जूया भी हैं, मज़ाहिर के हर महवर से अपने आसाब-ओ-हवास की तमाम-तर बेदारी के साथ मुतअ’ल्लिक़ और उनकी हक़ीक़तों में आलूदा भी हैं और इसी के साथ-साथ अपनी बे-नियाज़ी का भरम भी क़ाएम रखते हैं। ये बे-नियाज़ी, उनकी दुनिया-ए-आगही का अ’तिय्या है, जो बिल-आख़िर एक ख़ुद-आगही का रूप इख़्तियार कर लेती है। एक अ’जीब बात ये है कि मियाँ नज़ीर अपनी दुनिया के हर ज़ाविए और तमाशे से यकसाँ दिलचस्पी रखते हैं और उनके नज़्ज़ारे की प्यास किसी मोड़ पर बुझती नहीं। उकताहट, बे-दिली, थकन का एहसास या सब कुछ जान लेने का ग़ुरूर, उन्हें एक लम्हे के लिए भी कभी अपनी दुनिया से अलग या उससे ऊपर नहीं ले जाता। इसके बा-वजूद उनके यहाँ हैरत का उं’सुर कम-ओ-बेश है।

    उन्हें कोई जुस्तजू बेचैन नहीं करती और ग़म-आलूद तजरबों से गुज़रते और उनकी कहानी सुनाते वक़्त भी नज़ीर अपनी तबीअ’त के सुकून को बर-क़रार रखते हैं और जज़्बे की तंज़ीम पर हर्फ़ नहीं आने देते। वो अपने ख़ल्वत-कदे में दुनिया की बे-सबाती, मौत की हक़ीक़त, मुफ़लिसी, बंदगी और बेचारगी पर ध्यान में मस्त हों या आगरे के बाज़ारों में ख़्वांचा-फ़रोशों के बीच और तैराकी या बलदेव जी के मेले में मगन हूँ, उनकी निगाह-ए-तवज्जोह और तबीअ’त के ठहराव में फ़र्क़ नहीं आता। वो जिस आसूदा-ख़ातिरी के साथ फ़ना और बक़ा की गुत्थियाँ सुलझाते हैं, जिस हैजान से यकसर आ’री लहजे में कारोबार-ए-दुनियावी की मज़म्मत करते हैं, उसी इन्हिमाक और बेलौसी के साथ बे-ज़ारी के ज़रा से शाइबे के बग़ैर मक्खियों और कन-ख़जूरों पर भी शे’र कहते हैं।

    बरसात की बहारें और बरसात की उमस दोनों में वो मज़ाक़ और मज़े के एक से पहलू निकाल लेते हैं। जवानी का जोश और बुढ़ापे की थकन दोनों में वो एक सी दिलचस्पी के बहाने ढूँढ लेते हैं। ज़ोहद-ओ-इ’बा’दत का ज़िक्र हो या औ’रतों की हमजिंसी का, नज़ीर के लब-ओ-लहजे और रवैये में कोई तब्दीली या उनके रद्द-ए-अ’मल में शिद्दत की कोई लहर भी नुमूदार नहीं होती, नफ़रत, घिन, ग़ुस्से और ना-पसंदीदगी का कोई ग़ुबार उनके आईना-ए-शऊ’र की हमवार, साफ़ और मुनज़्ज़ह सत्ह को एक आन के लिए भी धुँदलाता नहीं।

    अस्ल में नज़ीर हमारे अदबी कल्चर के शायद सबसे बड़े तमाशा-बीं हैं। ज़माँ का हर लम्हा और मकान का हर गोशा उनकी नज़र में मुतहर्रिक, सर-गर्म और तवज्जोह-तलब है। इस मुआ’मले में वो किसी इंतिख़ाब के क़ाइल हैं किसी मे’यार को रवा रखते हैं। मे’यार और इंतिख़ाब का मसअला वहीं पैदा होता है जहाँ अक़दार का कोई बँधा==टिका तसव्वुर या कोई बैरूनी या ज़ाती शर्त आड़े जाए और जैसा कि शुरू’ में अ’र्ज़ किया जा चुका है कि नज़ीर ने हक़ीक़त को अपना मसअला नहीं बनाया, इसलिए नज़ीर के यहाँ क़द्र और मे’यार का कोई सवाल भी सर नहीं उठाता। उनके तजरबों में जैसी शश्दर कर देने वाली बू-क़लमूनी मिलती है, उसकी मिसाल उर्दू से क़त’-ए-नज़र दूसरी ज़बानों के बड़े से बड़े शाइ’र के यहाँ मुश्किल से दिखाई देगी। इस हमागीरी और तनव्वो’ की असास इसी वाक़िए’ पर क़ाएम है कि नज़ीर ने किसी भी मसअले के दाएरे को अपनी हद-ओ-इंतिहा जाना और सुपुर्दगी के तमाम मक़ामात से आसान गुज़र गए।

    अ’ज़्मत बेशतर सूरतों में इख़्तिसास का सिला होती है और इख़्तिसास इस अम्र का मुतक़ाज़ी कि शे’र कहने वाला कही जाने वाली बातों के साथ-साथ कही जाने वाली बातों का शऊ’र भी रखता हो और किसी भी ऐसे ख़याल, तजरबे और इज़्हार के साँचे को मुँह लगाए, जिससे आ’मियानापन या उ’मूमियत-ज़दगी की बू आती हो। बड़ी हद तक ये रवैया लिखने वाले को एक नफ़सियाती ख़ौफ़ में मुब्तिला रखता है और इस ख़ौफ़ के नतीजे में वो तवाज़ुन, एहतियात, लिसानी महारत और तजरबात के मुआ’मले में सत्ह और जिहत के इंतिख़ाब के सहारे तलाश करता है। मियाँ नज़ीर कभी अ’ज़्मत के चक्कर में पड़े, इस मसअले में उलझे कि उनके अगलों ने जो शे’र कहा उससे मे’यार की सूरतों मुतअ’य्यन होती हैं। ही उन्होंने कभी इस क़िस्म का कोई दा’वा किया कि उनकी तर्ज़-ए-सुख़न उनके बा’द आने वालों की ज़बान ठहरेगी।

    वो अपने मा’मूलीपन पर क़ाने’ रहे कि इस तरह उनकी आज़ादगी का तहफ़्फ़ुज़ भी हो और उनकी दुनिया भी अच्छे बुरे या अहम और ग़ैर-अहम के ख़ानों में तक़्सीम होने से बच गई। अदब के संजीदा, तरबियत-याफ़्ता और आ’लिम-फ़ाज़िल, क़ारी के वजूद से ऐसी बे-नियाज़ी और मुसल्लमात की हक़ीक़त से मुकम्मल गुरेज़ की ये सूरत नज़ीर के बा’द हमारी अदबी रवायत में देखने को नहीं मिलती, ही मुजर्रदात की मक़बूलियत और बरतरी के दौर में अब इसका कोई इम्कान रह गया है।

    इस सिलसिले में क़ाबिल-ए-क़द्र बात ये है कि नज़ीर अपने क़ारी पर भी किसी किसी मे’यार या किसी नई बोतीक़ा का हुक्म नहीं लगाते। उन्होंने बड़ी ख़ामोशी और आहिस्तगी के साथ ख़याल और माद्दे का फ़र्क़ मिटा दिया। अश्या, मौजूदात और अस्मा की तर्तीब में मअ’नी की एक ग़ैर-माद्दी दुनिया का सुराग़ लगाया और भांत-भांत की जिन फ़िकरों से उनका ज़हन भरा हुआ था, उनके इज़्हार की ख़ातिर मज़ाहिर के तमाशे की सैर करते रहे जभी तो उनके शे’र फ़क़ीरों ने भी गाए और कारोबार-ए-दुनिया में गर्दन तक डूबे हुए अहल-ए-बाज़ार ने भी। मीर साहिब की तरह नज़ीर भी दर-अस्ल कुल्लियात के शाइ’र हैं, इस फ़र्क़ के साथ कि मीर साहिब अपनी ख़वास-पसंदी के अस्बाब-ओ-अ’नासिर की ख़बर भी रखते थे और नज़ीर अपने आप में इतने मगन रहे कि अपने तज्ज़िये का उन्हें कभी ख़याल आया। उन्होंने अपना तआ’रुफ़ कराया भी तो इस तरह कि,

    कहते हैं जिसको नज़ीर, सुनिए टुक उसका बयान

    था वो मुअ’ल्लिम ग़रीब, बुज़दिल-ओ-तरसिंदा-जाँ

    कोई किताब उसके तईं, साफ़ थी दर्स की

    आए तो मअ’नी कहे, वर्ना पढ़ाई रवाँ

    फ़हम था इ’ल्म से कुछ अ’रबी के उसे

    फ़ारसी में हाँ मगर समझे थे कुछ ईन-ओ-आँ

    लिखने की ये तर्ज़ थी कुछ जो लिखे था कभी

    पुख़्तगी-ओ-ख़ामी के, उसका था ख़त दरमियाँ

    शे’र-ओ-ग़ज़ल के सिवा, शौक़ था कुछ उसे

    अपने इसी शग़्ल में रहता था ख़ुश हर ज़माँ

    सुस्त रविश, पस्ता-कद, साँवला, हिंदी-नज़ाद

    तन भी कुछ ऐसा ही था क़द के मुवाफ़िक़-अ’याँ

    माथे पे इक ख़ाल था, छोटा सा, मस्से के तौर

    था वो पड़ा आन कर, अबरुओं के दर्मियां

    वज्अ’ सुबुक उसकी थी तिस-पे रखता था रेश

    मूँछें थीं और कानों पर पट्टे भी थे पुंबा-साँ

    पीरी में जैसी कि थी उसको दिल-अफ़्सुर्दगी

    वैसी ही थी उन दिनों, जिन दिनों में था जवाँ

    जितने ग़रज़ काम हैं, और पढ़ाने सिवा

    चाहिए कुछ उसे हों, इतनी लियाक़त कहाँ

    फ़ज़्ल से अल्लाह ने उसको दिया उ’म्र-भर

    इ’ज़्ज़त-ओ-हुरमत के साथ पारचा-ओ-आबनाँ

    या’नी कि कोई तअल्ली नहीं, शेख़ी-बाज़ी, किसी इम्तियाज़ी वस्फ़ की नुमाइश। सीधी-सादी दो टूक बातों में उ’म्र-भर का हिसाब सामने रख दिया। अब इस फ़ख़्र-ओ-मुबाहात और इन्किसार-ओ-आ’जिज़ी से ब-यक-वक़्त आ’री तआ’रुफ़ के मुक़ाबले में जोश साहिब की मा’रूफ़ नज़्म “प्रोग्राम” के अश’आर याद कीजिए तो हँसी आती है। जोश साहिब सुब्ह से शाम तक मशाग़िल और मसाइल के जितने मैदान फ़त्ह कर जाते हैं, मियाँ नज़ीर एक भरी-पूरी ज़िंदगी के हिसाब-नामे में भी इन्फ़िरादियत-ओ-फ़ौक़ियत का कोई निशान पा सके और अपनी इस बे-बिज़ाअ’ती पर मुतअस्सिफ़ भी नहीं। जवानी से बुढ़ापे तक रिफ़ाक़त का हक़ अदा करती हुई एक अफ़्सुर्दगी की जानिब इशारे के सिवा मियाँ नज़ीर मजमूई’ तौर पर मुतमइन, क़ाने’ और शाद-काम नज़र आते हैं। रहा ज़हनी वारदात और तजरबों का मुआ’मला तो नज़ीर ने उन्हें क़ाबिल-ए-ज़िक्र समझा कि ये उनके नज़दीक शायद कोई बड़ी बात थी।

    मियाँ नज़ीर ये भेद पा गए थे कि ज़िंदगी की दिलचस्पियों को अपना आसेब बनाए बग़ैर कुछ ख़ुश-वक़्ती और दिल-लगी की फ़िज़ा में भले-मानसों की ज़िंदगी गुज़ार देना भी बजा-ए-ख़ुद ऐसी गई-गुज़री बात नहीं कि किसी और बात की तमन्ना की जाए। वो उस आदमी की दास्तान सुनाते हैं जो मुहय्यिर-उल-उ’क़ूल कुव्वतों का मालिक या किसी अ’ज़ीमुश्शान मंसब का अमीन नहीं, फिर भी इस क़िस्से का मर्कज़ी किरदार है; जो ख़ुशी-ओ-ना-ख़ुशी, ने’मतों की फ़रावानी और उनके फ़ुक़दान, मेलों-ठेलों की चहल-पहल, और “हंसनामा” के बेचारे हंस की मानिंद तन्हा और मलूल आदमी की अफ़्सुर्दगी, जराइम और नेकियों, क़हक़हों आँसुओं से लबा-लब भरी हुई दुनिया का मुस्तक़िल और कलीदी हवाला है। ये आदमी अपनी ज़ात को दुनिया नापने का पैमाना नहीं बनाता बल्कि दुनिया से अपने रवाबित और दोस्ताना-ओ-हरीफ़ाना रिश्तों की रौशनी में ख़ुद को जानता और अपनी हस्ती के रम्ज़ को पहचानता है।

    ये आदमी चाहे नमाज़ी और क़ुरआन-ख़्वाँ हो या मस्जिद में नमाज़ियों की जूतियाँ चुराने वाला, ने’मतों का मालिक-ओ-मुख़्तार हो या टिक्कड़-गदा, अपनी दोनों सूरतों में एक सी क़द्र-ओ-तवज्जोह का मुस्तहिक़ और हम-मर्तबा है। नज़ीर एक से मरऊ’ब होते हैं दूसरे को हक़ीर गरदानते हैं। “सो है वो भी आदमी” के बार-बार दोहराए जाने वाले वज़ीफ़े में में हर-चंद कि अँधेरे और उजाले नीज़-हिर्मां नसीबी और ख़ुश-बख़्ती के एक दूसरे से मुतसादिम मोड़ सामने आते हैं लेकिन हर मोड़ पर दीद का नुक़्ता आदमी ही बनता है।

    नज़ीर अपने दाख़िली नज़्म-ओ-ज़ब्त को बर-क़रार रखते हुए इस आदमी के साथ उसकी ज़मीन के तमाम जल्वों का नज़ारा करते हैं कि उनके लिए हर वो हक़ीक़त जो इस ज़मीन पर मौजूद है, अपने मा’नवी तज़ादात, इख़्तिलाफ़ात और दर्जात के फ़र्क़ के बा-वजूद, यकसाँ क़ीमत और क़द्र की हामिल है। इसमें से किसी भी हक़ीक़त की जानिब से, ख़्वाह समाजी मुआ’शरे और अख़्लाक़ी ज़वाबित के ए’तिबार से वो कितनी ही ना-पसंदीदा और बदवजे़’ क्यों हो, मुँह मोड़ लेने का मतलब ये होगा कि आदमी और उसकी हक़ीक़त का पता देने वाली दुनिया की सिफ़ात का एक दरवाज़ा आँखों पर बंद हो गया।

    और मियाँ नज़ीर चूँकि आँखों के शाइ’र हैं और अपने मुशाहिदे की राह से हो कर हक़ीक़त तक पहुँचते हैं इसलिए सारे का सारा मंज़रनामा खुला रखना चाहते हैं। वो मुतहय्यर और मुतजस्सिस यूँ नहीं होते कि उस मंज़र-नामे के हर नक़्श में उन्हें उसकी तकमील का कोई कोई वसीला दिखाई देता है।

    आदमी अपनी दुनिया के मुख़्तलिफ़-उल-सिमत और रंगा-रंग मज़ाहिर में अपनी तकमील का निशान पाता है और नज़ीर रंगों और ज़ावियों के इस हुजूम में आदमी का ख़ाका मुकम्मल करते हैं। हसरत उन बातों पर होती है जो अनहोनी हों और जुस्तजू उन बातों की की जाती है जो अनदेखी हों। नज़ीर के लिए सब कुछ देखा-भाला है कि वो आदमी को देख रहे थे, उसके मुख़्तलिफ़ लम्हों, रंगों और तजरबों में, और मुतमइन यूँ थे कि हर लम्हा, रंग और तजरबा उनके आदमी-नामे की किसी किसी नई जिहत को रौशन करने का ज़रीआ’ था।

    यही वज्ह है कि नज़ीर की शाइ’री में एक नौ’ की हिस्सी, जज़्बाती और बसरी मुसावात का रंग बहुत नुमायाँ है। इस मुसावात की हदें उनके मुशाहिदे से उनके फ़िक्री तजरबे तक और इस तजरबे से उनके लिसानी मिज़ाज तक चार-सू फैली हुई हैं

    नज़ीर के कुल्लियात को एक सफ़र-नामा समझ कर पढ़ा जाए या मज़ाहिर के एक ग़ैर-रस्मी और मस्नूई’ तंज़ीम-ओ-तर्तीब से आ’री ड्रामे के तौर पर, उनका सबसे दिलचस्प किरदार ख़ुद हर-सम्त अपनी ही मंज़िल तक ले जाता है, सो वो रास्ते की हर शादमानी और हर सऊ’बत को एक सी ख़ुश-दिली के साथ क़ुबूल करता है। वो बाज़ारों से इसलिए नहीं गुज़रता कि उसे किसी शय की तलब या ख़रीदारी की हवस है। वो दिलचस्पी के साथ हर शय को देखता है, हर रंग की सैर करता है कि ये सैर बजा-ए-ख़ुद कुछ कम मअ’नी-ख़ेज़ और दिल-फ़रेब नहीं, पर वो कांधे पर इतना बार भी नहीं डालना चाहता कि सफ़र की अगली राहें उसके लिए मुसीबत बन जाएँ।

    रही वो अफ़्सुर्दगी जिसके साथ नज़ीर की जवानी बुढ़ापे की दहलीज़ तक पहुँची, तो ये नज़ीर के उस इदराक की देन है जिसमें खिलंडरेपन के साथ-साथ संजीदगी भी समोई हुई है। ये अफ़्सुर्दगी नतीजा है, हर तमाशे के अंजाम से बा-ख़बरी का। मियाँ नज़ीर, साहिब-ए-नज़र तो थे ही लेकिन उनकी रसाई ख़बर तक भी थी।

    स्रोत:

    तारीख़, तहज़ीब और तख़्लीक़ी तजरबा (Pg. 50)

    • लेखक: शमीम हनफ़ी
      • प्रकाशक: संग-ए-मील पब्लिकेशन्स, लाहौर
      • प्रकाशन वर्ष: 2006

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

    GET YOUR PASS
    बोलिए