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जाफ़र मलीहाबादी

1946 | लखनऊ, भारत

जाफ़र मलीहाबादी

अशआर 4

अहल-ए-वतन शाम-ओ-सहर जागते रहना

अग़्यार हैं आमादा-ए-शर जागते रहना

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दिलों में हुब्ब-ए-वतन है अगर तो एक रहो

निखारना ये चमन है अगर तो एक रहो

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बनाना है हमें अब अपने हाथों अपनी क़िस्मत को

हमें अपने वतन का आप बेड़ा पार करना है

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वतन के जाँ-निसार हैं वतन के काम आएँगे

हम इस ज़मीं को एक रोज़ आसमाँ बनाएँगे

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