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बड़ा कौन

बानो सरताज

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    वो बड़ी तेज़ी से सपाट चिकनी सड़क पर चली जा रही थी। चल क्या रही थी, समझो उड़ रही थी। नई-नवेली, ज़र्द, सब्ज़ और सफ़ेद रंगों से सजी। वो एक बस थी।

    सुबह की ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी। बस में सवार मुसाफ़िर नर्म गद्दे वाली सीटों पर नीम-दराज़ मीठी नींद का मज़ा ले रहे थे। ड्राईवर टेप रिकार्ड पर बजते हुए फ़िल्मी गीनों का लुत्फ़ लेते हुए आहिस्ता-आहिस्ता ख़ुद भी गुनगुना रहा था।

    एक मोड़ से गुज़रते ही रेल की पटरियाँ सड़क के साथ-साथ बिछी हुई नज़र आईं। बस ने देखा, धीमी रफ़्तार से एक रेल पटरियों पर चल रही है।

    रेल ने भी उसे देख लिया। बोली, “हेलो, आदाब बस बहन।”

    “आदाब।” बस ने जवाब दिया।

    रेल ने पूछा, “पहली मर्तबा इधर आई हो?”

    “हाँ।” बस ने गर्दन अकड़ा कर कहा, “इधर ही क्या... कहीं भी पहली मर्तबा चली हूँ। देखती नहीं हो? मेरा रंग-ओ-रूप कितना उजला है। कैसी चम-चमा रही हूँ। अभी दो रोज़ क़ब्ल ही मेरा जन्म हुआ है। मेरी तरह ख़ूबसूरत कोई और होगा।”

    रेल ने कहा, “सही है। बेहद ख़ूबसूरत हो तुम।”

    अपनी ख़ूबसूरती की तारीफ़ सुन कर बस और ज़्यादा तेज़ी से दौड़ने लगी। रेल ने कहा, “अभी कुछ दूर और साथ चलना है हमें। बातें करती चलो तो दिल बहला रहेगा।”

    “इतनी बातें तुमसे कर लीं। यही बहुत हुआ, वर्ना तुम्हारा मेरा क्या मेल? मैं ख़ूबसूरत रंग-रंगीली... तुम लाल, काली, मैली।” बस ने ग़ुरूर से कहा।

    “ऐसा भी क्या घमंड बहन कि बात भी करो। मैं तुमसे रंग-ओ-रूप में कम ज़रूर हूँ मगर मेरी अपनी एक हैसियत है।” रेल ने सादगी से कहा।

    “तुम्हारा वजूद तुम्हारी हैसियत किस काम की?” बस ने कहा, “मेरी रफ़्तार का तुम मुक़ाबला नहीं कर सकतीं। मैं उड़ रही हूँ, तुम घिसट रही हो।”

    “मैं क्या करूँ?” रेल ने बेबसी से कहा, “कितने सारे डिब्बे हैं मेरे। उनमें टनों सामान लदा हुआ है। मैं मालगाड़ी हूँ ना... इतना बोझ ढोने में रफ़्तार तो धीमी ही रहेगी।”

    “यही तो मैं कह रही हूँ कि बोझ ढोने से कोई बड़ा नहीं बन जाता। मैं तेज़-रफ़्तार हूँ। तेज़ रफ़्तारी से चलने वालों को पसंद करती हूँ। तुम अपनी पटरी चलो, मैं अपने रास्ते चल रही हूँ।”

    “तुम्हारी मर्ज़ी!” रेल अफ़्सुर्दा हो कर बोली, “न बोलो मुझसे, मगर मैं तुमसे बड़ी हूँ। बहुत ज़माना देखा है मैंने। ये ज़रूर कहूँगी कि घमंड करना अच्छी बात नहीं। फिर रंग-ओ-रूप तो वक़्त के साथ तुम्हारा भी रहेगा।”

    बस हंस पड़ी। बोली, “अब कुछ सूझा तो नसहीत करने लगीं। भला मुझे नीचा कौन दिखा सकता है? कौन मुझे रोक सकता है? कम से कम तुम मेरी बराबरी नहीं कर सकतीं। वो देखो सामने मोड़ रहा है। चलो पीछा छूटा तुमसे।”

    इतना कह कर बस तेज़ी से मुड़ गई। दिल ही दिल में हंस रही थी कि ख़ूब लताड़ा काली-कलूटी को। अचानक उसे रुक जाना पड़ा। सामने रेल का फाटक था। वो फाटक के क़रीब पहुँची थी कि फाटक बंद हो गया। वो ख़्यालात की दुनिया से बाहर निकल आई। रेल के इंजन की सीटी सुनाई दे रही थी। फिर उसे धीमी रफ़्तार से चलती हुई मालगाड़ी सामने से आती नज़र आई। जैसे ही उसकी नज़र बस पर पड़ी, उसने कहा, “ख़ुदा-हाफ़िज़ बस बहन, फिर मिलेंगे और आगे बढ़ गई।”

    बस गिन रही थी, एक... दो... तीन... दस... ग्यारह... इक्कीस डिब्बे... और दिल में सोच रही थी कि कितनी इन्किसारी से रेल ने उसेसे रुख़स्त ली। ताना नहीं मारा कि “लो देखो, मैं काली-कलूटी, पुरानी, खूसट हूँ, फिर भी मेरी वजह से तुम्हें रुक जाना पड़ा।”

    वो चाहती तो कह सकती थी कि, “बताओ बड़ा कौन हुआ, मैं या तुम?” मगर उसने कुछ नहीं कहा।

    बस ने दिल ही दिल में ए'तराफ़ किया कि बड़ा वो होता है जो दिल से बड़ा होता है।

    स्रोत:

    शायर (Pg. 27)

      • प्रकाशक: नाज़िर मोमान सिद्दीक़ी
      • प्रकाशन वर्ष: 2014

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