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निराला गुड्डा

मुज़फ़्फ़र हनफ़ी

निराला गुड्डा

मुज़फ़्फ़र हनफ़ी

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    “अब तक इस मकान में झाड़ू नहीं दी गई?” शमीम ने रौब जमाया...

    “तो बड़ी काम-चोर हो गई है शहनाज़।”

    और शहनाज़ अपने फटे हुए दुपट्टे से घरौंदे को इस तरह तनदही से साफ़ करने लगी जैसे वाक़ई वो इस घर की मामा हो और शमीम उसकी मालकिन। लोग अक्सर कहा करते हैं कि बच्चों में अमीर-ओ-ग़रीब की तमीज़ नहीं होती। वो खेलते वक़्त ये ख़्याल नहीं करते कि उनका साथी अमीर है या ग़रीब। लेकिन शहनाज़ को मालूम था कि ये हक़ीक़त नहीं है। वो समझती थी अगर ये बात सच होती तो शमीम और उसकी अमीर सहेलियाँ हमेशा ख़ुद शहज़ादी बन कर और मसहरी पर लेट कर उससे पैर दबवाया करतीं। कभी उसे भी शहज़ादी बनने का हक़ हासिल था। लेकिन उसे इस हक़ से महरूम कर दिया गया था। खेलों में भी उसे मामा, चोर और बंदर जैसे ही पार्ट अदा करने पड़ते थे। ये बे-इंसाफ़ी क्यों की जाती थी उसके साथ? क्या सिर्फ़ इसलिए कि वो एक ग़रीब उस्तानी की लड़की थी।

    आह! उसने सोचा, “अगर मेरे अब्बा जान की टाँगें फ़ौज में ज़ख़्मी हो जातीं तो मैं भी शमीम की तरह मज़े करती। और बे-चारी अम्मी को स्कूल में दो सौ रुपय माहवार की नौकरी करनी पड़ती।”

    वो तक़रीबन पूरे घरौंदे को साफ़ कर चुकी थी। बे-ख़याली में उसका हाथ ग़लत पड़ा और घरौंदे का बावर्ची-ख़ाना गिर गया। एक-दो हत्तड़ उसकी पीठ पर पड़ा।

    “कमीनी!” शमीम चीख़ी।

    “हमारा बावर्ची-ख़ाना गिरा दिया। चल निकल यहाँ से, हमें तुझ जैसी काम-चोर मामा की ज़रूरत नहीं है।” और फिर उसने चोटी पकड़ कर उसे घरौंदे की हद से बाहर निकाल दिया। वो चुप-चाप मुँह लटका कर कल्लू तेली के चबूतरे पर बैठ गई और देखती रही कि प्रोफ़ेसर अल्ताफ़ हुसैन की लड़की रिहाना को बुला कर शमीम उसी के साथ खेलने लगी। फिर घर जा कर वो सूजी, घी, शकर और कई छोटे बर्तन ले आई। दोनों ने मिल कर हंडकलिया पकाई। जितना खाया गया खाया और बाक़ी अपने कुत्ते रूबी को बुला कर खिला दिया।

    और उस रात टूटे हुए पलंग पर लेट कर शहनाज़ को हमेशा की तरह जल्द ही नींद आई। उसका नन्हा सा दिमाग़ इधर-उधर चक्कर काटता रहा। और फिर जाने कब नींद की देवी ने उसे अपनी आग़ोश में ले लिया। शहनाज़ ने ख़्वाब में देखा कि उसके लंगड़े अब्बा जान अच्छे हो गए हैं। उनका नाम भी अब सिर्फ़ सिद्दीक़ नहीं रहा बल्कि शमीम के डैडी सर मुहम्मद याक़ूब की तरह उन्हें भी सर मुहम्मद सिद्दीक़ कहा जाता है और फिर उसने देखा कि उसके पास शमीम और रिहाना की तरह भड़कीली पोशाकें, क़ीमती जूते और बहुत अच्छे अच्छे खिलौने हैं। फिर उसने अपने बाग़ में झूला डलवाया। उसे यूँ महसूस हुआ जैसे वो ख़ुद झूले पर बैठी है और शमीम पीछे खड़ी हो कर उसे झूला झुला रही है। पींग बढ़ती गई, बढ़ती ही गई और फिर झूले की रस्सी टूट गई। उड़ा उड़ा धड़ाम, वो टूटी हुई पलंगड़ी के नीचे पड़ी थी और अम्मी जान उसके ऊपर झुकी थीं।

    “क्या हुआ मेरी बच्ची?” उन्होंने कहा...

    “कुछ नहीं अम्मी, कुछ भी तो नहीं।” वो अपने आँसू पी कर बोली...

    और दूसरे दिन सुबह वो दिन-भर शमीम के घर नहीं गई। शाम को अम्मी स्कूल से आईं तो देखा कि वो अब तक मुँह लपेटे बिस्तर पर पड़ी थी।

    “आज हमारी बेटी खेलने नहीं गई?” उन्होंने पूछा…

    “नहीं।” अब्बा जान ने जवाब दिया, “आज तो सुबह से घर में है।”

    “जाओ बेटी, दिन-भर घर में घुसे रहना ठीक नहीं।” उन्होंने उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा, “जा कर खेल आओ।”

    वो बाहर आई तो जैसे शमीम उसी का इंतिज़ार कर रही थी।

    “अरे शहनाज़!” वो घरौंदे में से चीख़ी, “तुम तो जैसे पर्दे में ही बैठ गईं, आओ खेलें।”

    शहनाज़ का दिल बाग़-बाग़ हो गया। लेकिन जैसे ही क़रीब पहुँची उसे मालूम हो गया कि शमीम इतनी मीठी-मीठी बातें क्यूँ कर रही थी। चने की दाल, घी, शकर और बहुत सा दूसरा सामान छोटे-छोटे बर्तनों में रखा था। शहनाज़ चने का हलवा बहुत लज़ीज़ बनाती थी इसी लिए अब उसका इंतिज़ार किया जा रहा था।

    “लो ज़रा जल्दी से हलवा तैयार कर डालो।” शमीम ने अहकाम देना शुरू कर दिए। शहनाज़ जल्दी-जल्दी काम करने लगी। दाल भूनी, क़िवाम तैयार किया और फिर थोड़ी देर बाद चने का सोंधा-सोंधा लज़ीज़ हलवा तैयार हो गया। “अच्छा अब तुम जाकर हमारे घर से बुक़चा उठा लाओ।”

    शमीम ने दूसरा हुक्म दिया और हलवा साफ़ करना शुरू कर दिया। शहनाज़ तेज़ी से भागी। बंगले में जा कर आया से बुक़चा लिया और फिर तेज़ी से वापस लौटी, उसे डर था कि उसके पहुँचने से पहले हलवा साफ़ हो जाए और हुआ भी यही। घरौंदे पर पहुँच कर उसने देखा... कुत्ता रूबी जल्दी-जल्दी हलवा खा रहा था और शमीम और रिहाना पास ही खड़ी तालियाँ बजा-बजा कर हंस रही थीं।

    उन्होंने जल्दी से शहनाज़ के हाथ से गुड़ियों का बुक़चा ले लिया और कहा, “शहनाज़ अब तुम्हारी छुट्टी तुम्हीं ने तो कल हमारा घरौंदा ख़राब कर दिया था।”

    बे-चारी शहनाज़ फिर कल्लू तेली के चबूतरे पर बैठ गई। शमीम ने एक नया गुड्डा बुक़चे से निकाल कर रिहाना को दिखाया, “ये मेरे डैडी सतरह रुपय का लाए हैं। देखो कितना अच्छा है। इस बटन को दबाओ ज़रा।”

    रिहाना ने बटन दबाया, “अरे!”

    वो ख़ुशी से उछलने लगी। शहनाज़ की आँखें फटी की फटी रह गईं। सेलूलाइड का बे-जान गुड्डा जल्दी-जल्दी हाथ पैर चला रहा था। उसने पास जा कर देखा। गुड्डा पलकें भी झपका रहा था।

    “शमीम, क्या ये पलकें भी झपकाता है?” उसने बे-इख़्तियार हो कर पूछा और जवाब में तड़-तड़ उसके गाल पर दो चपत पड़े।

    “कमीनी को कितनी बार कहा कि हमारे साथ खेला कर। चल यहाँ से!” शमीम ने फटकारा...

    “बे-हया है बे-हया रिहाना ने नमक छिड़का।”

    “अम्मी, शमीम के पास बड़ा निराला गुड्डा है।” वो आँखों में आँसू भरे हुए कह रही थी... “बड़ा ही निराला गुड्डा। हाथ पैर चलाता है, आँखें भी झपकता है, मुझे भी ला दो ना ऐसा ही गुड्डा।” वो अम्मी के कंधे पर सर रख कर सिसकने लगी।”

    “अरी पगली, तेरे पास तो उससे भी अच्छा है।”

    “कहाँ?”

    “वो देख।” और उसने आँखें फाड़ कर देखा। झूले पर नन्हा अशफ़ाक़ अँगूठा मुँह में डाले चूस रहा था।

    “मेरा गुड्डा...” उसने लपक कर नन्हे को उठा लिया। और वो मुस्कुराने लगा।

    “अम्मी मेरा गुड्डा तो हंस भी लेता है। क्या शमीम का गुड्डा भी हंस सकता है?” और जवाब में अम्मी और अब्बा जान दोनों मुस्कुरा दिए। लेकिन साथ ही साथ जाने क्यों दोनों की आँखों में आँसू भी झलक रहे थे?

    स्रोत:

    नीला हीरा (Pg. 59)

    • लेखक: मुज़फ़्फ़र हनफ़ी
      • प्रकाशक: मक्तबा पयाम-ए-तालीम, नई दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1999

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