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दादी अम्मां की कहानी

इशतियाक़ अहमद

दादी अम्मां की कहानी

इशतियाक़ अहमद

MORE BYइशतियाक़ अहमद

    दादी अम्मां सोने से पहले सब बच्चों को कहानी सुनाया करती थीं। हमारे घर में उनकी कहानी सुनने के लिए मुहल्ले के दूसरे बच्चे भी जाते। हर-रोज़ रात को हम उनसे कहानी सुनते। उनकी कहानी बहुत मज़े-दार होतीं। हम उन्हें मज़े ले-ले कर सुनते। आख़िर में दादी अम्मां कहानी ख़त्म कर के सबको दुआएं देतीं।

    इस रात भी सब बच्चे उनके गिर्द जमा थे। दादी अम्मां ने कहानी इस तरह शुरू की।

    नन्हे-मुन्ने फूल जैसे नाज़ुक बचोगे कहानियाँ तो तुमने ना जाने कितनी सुनी होंगी। उनमें जिन्नों, देवओं, भूतों परियों, बादशाहों और शहज़ादों, सभी किस्म की कहानियाँ तुमने सुनी होंगी, लेकिन आज मैं जो कहानी सुनाने वाली हूँ, वो ना किसी जिन्न देव की है, ना बादशाह या शहज़ादे की, बल्कि आज की कहानी एक औरत और उसके बेटे की है।

    ‘‘भला ये क्या कहानी हो सकती है दादी अम्मां!’’ एक बच्चे ने हैरान हो कर कहा। दादी अम्मां मुस्कुराईं और फिर कहने लगीं।

    ‘‘पहले सुन तो लो। हाँ तो उस औरत का एक छोटा सा बेटा था। अभी उसकी उम्र चार साल की थी कि उस औरत का ख़ाविंद बस के नीचे आकर मर गया। वो बहुत ग़रीब आदमी था। उस के मरने के बाद घर में कुछ भी ना था। आख़िर उस ने मोहल्ले के घरों में काम करना शुरू कर दिया। लोगों के बरतन धोए, कपड़े धोए, सिलाई का काम किया और इस तरह वो इतने पैसे कमाने के काबिल हो गई कि अपनी और अपने बच्चे की गुज़र बसर कर सके। इनही हालात में बच्चा छः साल का हो गया तो उसने उसे स्कूल में दाख़िल करा दिया। बच्चा बहुत ज़हीन था। क्लास में उसने नुमायाँ मुक़ाम हासिल कर लिया। पहली जमात में अव़्वल आया तो माँ की ख़ुशी का कोई ठिकाना ना रहा। बच्चा दिल लगा कर पढ़ता रहा। उसने दिन रात मेहनत की। हर साल जमात में अव़्वल आता रहा। दरअसल उसे इस बात का बहुत दुख था कि उसकी माँ को लोगों के घरों में काम करना पड़ता है। वो सोचा करता कि वो पढ़ लिख कर एक दिन बड़ा आदमी बनेगा और अपनी माँ की ख़िदमत करेगा। सारी उम्र उसे कोई काम ना करने देगा।

    दिन गुज़रते गए। आख़िर उसने दसवीं जमात का इम्तिहान पास कर लिया। इस बार उसने अपनी मेहनत की कि माँ फ़िक्र-मंद हो गई कि कहीं वो बीमार ना हो जाए। लेकिन वो मेहनत करने से बाज़ ना आया। नतीजा निकला तो अख़बार के पहले सफ़े पर उसकी तस्वीर छपी। वो ज़िला भर में अव़्वल आया था।

    माँ की ख़ुशी का क्या पूछना। उस दिन दोनों ख़ुशी के मारे सो ना सके। मुहल्ले वाले तमाम दिन मुबारकबाद देने आते रहे। रात को बेटे ने प्यार भरे लहजे में कहा। ''अम्मी जान अब मैं आगे नहीं पढूँगा’’ माँ उसकी बात सुनकर चौंक उठी। उसने कहा। ''बेटा ये तुम क्या कह रहे हो। अगर पढ़ोगे नहीं तो बड़े आदमी कैसे बनोगे। अभी तो तुम्हें बहुत पढ़ना है।’’

    ‘‘लेकिन अम्मी जान मैं आपको काम करते नहीं देख सकता। इसलिए मैं कोई मुलाज़मत ढूंढ लेता हूँ।’’

    ‘‘बेटा तुम मेरी उम्मीदों पर पानी ना फेरो। इस ख़्याल को फ़ौरन दिल से निकाल दो। मुझे तुम्हारी इस बात से बहुत तकलीफ़ पहुंची है। आइन्दा ऐसी बात ना कहना।’’

    बच्चे ने माँ की बात सुनकर ख़ामोशी इख़्तियार कर ली और कॉलेज में दाख़िल हो गया। अब वो पहले से भी ज़्यादा मेहनत करने लगा। उसकी माँ भी पहले की निसबत ज़्यादा घरों में काम करने लगी। क्योंकि अब उसे बेटे की कॉलेज की फ़ीस अदा करनी पड़ती थी और इस के दूसरे अख़राजात भी। करना ख़ुदा का किया हुआ। वो हर साल अच्छे नंबरों से पास होता चला गया। यहाँ तक कि आला तालीम हासिल करके फ़ारिग़ हो गया। अब चूँकि उसने हर साल नुमायाँ कामयाबी हासिल की थी और मैट्रिक में तो ज़िला भर में अव़्वल आया था। इसलिए उसे फ़ौरन ही एक सरकारी दफ़्तर में मुलाज़मत मिल गई। जिस दिन उसे मुलाज़मत मिली, वो दौड़ता हुआ घर में दाख़िल हुआ और अपनी माँ से लिपट गया और उसे उठा कर चक्कर लगाने लगा।

    ‘‘बस अम्मी आज के बाद आप किसी घर में काम नहीं करेंगी’’

    ‘‘ठीक है बेटा इस दिन के इंतिज़ार में तो मेरी सारी जवानी गुज़र गई। अब ख़ुदा के फ़ज़ल से तुम किसी काबिल हो गए हो तो मुझे क्या ज़रूरत है कि दूसरों के घरों में काम करूँ। अब तो में अपने बेटे के लिए चांद सी दुल्हन लाऊँगी।’’

    माँ ने उसी दिन से बेटे के लिए रिश्ता तलाश करना शुरू कर दिया। बहुत जल्द वो अपने मक़सद में कामयाब हो गई और उसने अपने बेटे की शादी कर दी। शादी के छः साल बाद मलिक की सरहदों पर जंग छिड़ गई। उस वक़्त तक उस के बेटे के हाँ तीन बच्चे पैदा हो चुके थे। ये दो लड़के और एक लड़की थे। दुश्मन मुल्क ने ऐलान के बग़ैर हमारे मुल्क पर हमला किया था। इसलिए सब ग़ुस्से में आगए। हज़ारों शहरी जंग की तर्बीयत लेने के लिए। उनमें उस औरत का बेटा भी था। वो भी किसी से पीछे रहना नहीं चाहता था। तर्बीयत लेने लगा। एक दिन उसे भी पिछले मोर्चों पर भेज दिया गया। माँ ने उसे ख़ुशी ख़ुशी रुख़स्त किया। जब वो लड़ाई पर जा रहा था तो उस के बच्चे इस से लिपट लिपट गए। इस की बीवी की आँखों में आँसू आगए। जंग पिंदर दिन तक जारी रही। पंद्रहवीं दिन शहर के महाज़ पर कुछ ज़्यादा ही ज़ोर था। तोप का एक गोला पिछले मोर्चों पर आकर गिरा और कुछ दूसरे लोगों के साथ उस औरत का बेटा भी शहीद हो गया। उस की लाश घर लाई गई तो बच्चे उस से लिपट कर रोने लगे। बीवी धाड़ें मार मार कर रोने लगी। एक माँ थी जिसने आँख से एक आँसू भी ना निकलने दिया। बस वो लाश को तकती रही।

    एक-बार फिर वही दूसरों के घरों के काम थे और वो थी। पहले वो अपने बेटे के लिए काम करती थी। अब अपने पोतों के लिए और बेटे की बीवी के लिए। बचोगे जानते हो अब वो अपने पोतों को क्या नसीहत करती है। वो उन्हें ख़ूब पढ़ने लिखने की नसीहत करती है, ताकि वो एक दिन बड़े अफ़्सर बन सकें और अगर मलिक को उनकी ज़रूरत पड़ जाये तो इस की ख़ातिर अपने ख़ून का आख़िरी क़तरा तक बहादें। इतना कह कर दादी अम्मां ख़ामोश हो गईं

    सब बच्चे टुकुर टुकुर उनके मुँह की तरफ़ देखने लगे

    ‘‘आगे सुनाईए ना दादी अम्माँ।’’

    ‘‘बस बच्चो। कहानी तो ख़त्म हो गई।’’

    क्या। कहानी ख़त्म हो गई!'

    ‘‘हाँ बच्चो कहानी ख़त्म भी हो गई और नहीं भी हुई। ख़त्म इस तरह कि उस का बेटा शहीद हो गया और अभी ख़त्म इस तरह नहीं हुई कि अब वो अपने बेटे के बेटों को पढ़ा रही है। जब वो बड़े हो जाएंगे तो हो सकता है कि किसी दिन फिर जंग छिड़ जाये और उन्हें अपनी जानें क़ुर्बान करने का मौक़ा मिल जाये। इस तरह भला ये कहानी ख़त्म कैसे हो सकती है। उस के पोते ज़िंदा हैं और वो एक-बार फिर उन्हें वतन के लिए तय्यार कर रही है। मुझसे वाअदा करो बच्चो कि तुम भी अपने वतन की हर तरह ख़िदमत करोगे, उस के लिए जान तक दोगे।'

    ‘‘दादी अम्मां हम वाअदा करते हैं।’’ सबने यक ज़बान हो कर कहा

    ‘‘दादी अम्मां आपने ये तो बताया ही नहीं कि वो औरत कौन है, कहाँ रहती है, उसका क्या नाम है।’’

    अचानक दादी अम्मां की आँखों से आँसू टप टप गिरने लगे, फिर वो रोते-रोते मुस्कुराएँ और बोलीं ‘‘प्यारे प्यारे बचोगे वो औरत में ही हूँ। मेरा ही बेटा शहीद हुआ था और अब मैं तुम तीनों को पाल रही हूँ।’’ उन्होंने मेरी, मेरे छोटे भाई और बहन की तरफ़ इशारा करके कहा

    बच्चे हैरान हो कर हमें देखने लगे

    स्रोत:

    Dadi Amman Ki Kahani

    • लेखक: इशतियाक़ अहमद
      • प्रकाशक: मसऊद उमर, सदा बहार पब्लिकेशंस, दिल्ली

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