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लेखक : बशीर बद्र

प्रकाशक : अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिन्द), देहली

प्रकाशन वर्ष : 1981

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : शोध एवं समीक्षा

उप श्रेणियां : शायरी

पृष्ठ : 375

सहयोगी : रेख़्ता

आज़ादी के बाद की ग़ज़ल का तन्क़ीदी मुताला

पुस्तक: परिचय

1947ء محض برصغیر کی آزادی کا سال ہی نہیں بلکہ اُس تہذیب کی بازیافت کا سال بھی ہے جس کے سوتے گذشتہ صدی میں خشک کرنے کی ہر ممکن سعی کی گئی۔آزادی کے بعد پہلی دہائی میں غزل گو شعرا کی ایک نمایاں صف ترقی پسند تحریک سے وابستہ تخلیق کاروں کی ہے۔ مذکورہ تحریک کی نظریاتی شدت میں اگرچہ قیام پاکستان کے بعد بہت حد تک کمی آ گئی تھی لیکن جہاں تک غزل کا تعلق ہے تو ایک عرصہ تک ترقی پسند تحریک اردو غزل پر سایہ کیے رہی اور پاکستان میں بعض آمرانہ حکومتوں کے تسلط کے خلاف غزل اپنی ذمہ داریوں سے عہدہ برا ہوتی رہی۔اور اردو غزل میں قیام پاکستان کے بعد تشکیل پانے والے معاشرے، اُس کے افراد کے محسوسات اور مسائل کے اظہار کے نئے قرینے اور امکانات سامنے آئے۔ ویسےبھی اردو غزل نے بیسویں صدی میں پیش آنے والے تمام تحریکات و رجحانات کا کسی نہ کسی حد تک اثر قبول ہی کیا ہے چنانچہ ایک ہی وقت میں ہم کو غزل میں نئے رجحانات بھی دیکھنے کو ملتے ہیں اور اسی وقت اس کے خلاف چیزیں بھی نظر آتی ہیں۔ غزل کے انھیں تمام پہلؤں کو بشیر بدر نے اپنی اس کتاب میں پیش کیا ہے۔ انھوں نے 1947 سے لیکر 1970 تک کے کہے گئے اشعار کی روشنی میں غزل کا تجزیہ کیا ہے اور یہ تجزیہ نہایت مقبول بھی ہوا۔ اس کی ایک خاص وجہ یہ رہی کہ خود بشیر بدر بھی جدید غزل کے اہم شاعر ہیں چنانچہ جن حالات سے اس دور کا شاعر گزر رہا تھا اس کو وہ اچھے سے سمجھ سکتے تھے اس لیے بشیر بدر کی یہ کتاب تخلیقی و تنقیدی دونوں اعتبار سے کافی اہمیت کی حامل ہے۔

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लेखक: परिचय

नई ग़ज़ल की दिलकश पहचान

बशीर बद्र नई उर्दू ग़ज़ल के अद्वितीय, ताज़ा बयान शायर हैं जिन्होंने ग़ज़ल में नई शब्दों को शामिल करते हुई नए संवेदी आकृति तराशे और नए ज़माने के व्यक्ति के मनोविज्ञान और उसके भावात्मक तक़ाज़ों को व्यक्त किया। इन्होंने पारंपरिक विषयों की वैचारिक घेराबंदी और प्रगतिवाद व आधुनिकता की विचारधारा से आज़ाद रहते हुए आम आदमी के रोज़मर्रा के अनुभवों व अवलोकनों को ख़ूबसूरत शे’री अभिव्यक्ति देकर उर्दू भाषीय समुदाय के साथ साथ ग़ैर उर्दू भाषीय समुदाय से भी प्रशंसा प्राप्त किया। ग़ालिब के बाद ग़ैर उर्दू भाषीय समुदाय में सबसे ज़्यादा मशहूर और लोकप्रिय शायर बशीर बद्र हैं। बशीर बद्र की ग़ज़ल का समग्र माधुर्य पूरी तरह अपरंपरागत है। वो महबूब का हुस्न हो या दूसरे मज़ाहिर कायनात, बशीर बद्र ने इन सब का एहसास व अनुभूति एक ऐसे दृष्टिकोण से किया जो पूर्व और समकालीन शायरों से अलग है। बशीर बद्र की ग़ज़लों में एक नाज़ुक नाटकीय स्थिति मिलती है। उनके अशआर महज़ एक वारदात नहीं बल्कि एक कहानी बयान करते हैं जिस पर रूपक या प्रतीक की बारीक नक़ाब पड़ी होती है। वृतांतमक वातावरण रखने वाली सक्रिय आकृति बशीर बद्र की ग़ज़ल की विशेषता हैं। बशीर बद्र का ख़ास कारनामा ये है कि उन्होंने ग़ज़ल में ऐसे अनगिनत शब्द शामिल किए जिनको ग़ज़ल ने उनसे पहले स्वीकार नहीं किए थे। इस मुआमले में बशीर बद्र की कामयाबी का राज़ ये है कि इन्होंने बोल-चाल की ठेठ उर्दू को अपनाया। ऐसी आज़ाद ज़बान में नए शब्दों के खप जाने की गुंजाइश पारंपरिक अरबीकृत व फ़ारसीकृत भाषा की तुलना में ज़्यादा थी। बशीर बद्र की ग़ज़ल में शब्द व संवेदना की सतह पर ताज़गी, शगुफ़्तगी, काव्यात्मकता और सौंदर्य है जो उनकी ग़ज़ल को दूसरे शायरों से अलग करती है।

बशीर बद्र (असल नाम सय्यद मुहम्मद बशीर) 15 फरवरी 1935 को कानपुर में पैदा हुए। उनका पैतृक स्थान फ़ैज़ाबाद ज़िले का मौज़ा बक़िया है। उनके वालिद सय्यद मुहम्मद नज़ीर पुलिस के विभाग में मुलाज़िम थे। बशीर बद्र ने तीसरी जमात तक कानपुर के हलीम मुस्लिम कॉलेज में शिक्षा प्राप्त की जिसके बाद वालिद का तबादला इटावा हो गया जहां मुहम्मद सिद्दीक़ इस्लामिया कॉलेज से इन्होंने हाई स्कूल का इम्तिहान पास किया। हाई स्कूल के बाद वालिद के देहांत के सबब उनकी शिक्षा का क्रम टूट गया और उनको 85 रूपये मासिक पर पुलिस की नौकरी करनी पड़ी। वालिद की मौत के बाद घर की ज़िम्मेदारियाँ इन ही के सर पर थीं। उनका रिश्ता वालिद की ज़िंदगी में ही अपनी चचाज़ाद बहन क़मर जहां से हो गई थी। पुलिस की नौकरी के दौरान ही उनकी शादी हो गई और तीन बच्चे भी हो गए।
बशीर बद्र को शायरी का शौक़ बचपन से ही था। जब वो सातवीं जमात में थे उनकी ग़ज़ल नियाज़ फ़तहपुरी की पत्रिका “निगार” में छपी जिस पर इटावा के साहित्यिक मंडलियों में खलबली मच गई। 20 साल की उम्र को पहुंचे पहुंचते उनकी ग़ज़लें हिंदुस्तान और पाकिस्तान की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं और साहित्य में उनकी शनाख़्त बन गई थी। शैक्षिक क्रम टूट जाने के कई साल बाद उन्होंने नए सिरे से अपनी शैक्षिक योग्यता बढ़ाने का फ़ैसला किया और जामिया अलीगढ़ के अदीब माहिर और अदीब कामिल परीक्षाएं पास करने के बाद अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी से बी.ए, एम.ए और पी.एचडी. की डिग्रियां हासिल कीं। पी. एचडी. में उनके पर्यवेक्षक प्रोफ़ेसर आल-ए-अहमद सुरूर थे और शोध का विषय “आज़ादी के बाद उर्दू ग़ज़ल का तन्क़ीदी मुताला” था। बी.ए के बाद उन्होंने 1967 में पुलिस की नौकरी छोड़ दी थी। वो यूनिवर्सिटी के वज़ीफ़े और मुशायरों की आमदनी से घर चलाते रहे।1974 में पी.एचडी. की डिग्री मिलने के बाद वो कुछ दिन अस्थाई रूप से अलीगढ़ यूनीवर्सिटी में पढ़ाते रहे फिर उनकी नियुक्ति मेरठ यूनीवर्सिटी में हो गई। इस अर्से में मुशायरों में उनकी लोकप्रियता बढ़ती रही। मई 1984 में जब वो एक मुशायरे के लिए पाकिस्तान गए हुए थे उनकी बीवी का देहांत हो गया। मुहल्ले वालों ने, जिनमें अक्सर ग़ैर मुस्लिम थे, उनका अंतिम संस्कार किया। 1987 के मेरठ फ़सादात में उनका घर लूट कर जला दिया गया।1986 में उन्होंने भोपाल की डाक्टर राहत सुलतान से शादी कर ली और कुछ दिनों बाद वहीं स्थाई रूप से बस गए। उम्र बढ़ने के साथ उनकी याददाश्त कमज़ोर होने लगी और आख़िरकार वो सब कुछ भूल गए। उनको ये भी याद न रहा कि कभी उनकी शिरकत मुशायरों की कामयाबी की ज़मानत हुआ करती थी।

1984 में प्रकाशित होने वाले अपने तीसरे काव्य संग्रह “आमद” में उन्होंने अपनी शायरी के बारे में बलंद बाँग दावे किए तो संजीदा क़ारईन को ये बात अच्छी नहीं लगी। इस संग्रह में 2035 के पाठकों के नाम एक ख़त था जिसमें कहा गया था ‘आज 1985 की ग़ज़ल में मुझसे ज़्यादा मक़बूल-ओ-महबूब कोई शायर नहीं। आज ग़ज़ल के करोड़ों आशिक़ों का ख़्याल है कि नाचीज़ की ग़ज़ल उर्दू ग़ज़ल के कई सौ साला सफ़र में नया मोड़ है, मेरा उस्लूब आज की ग़ज़ल का उस्लूब बन चुका है। तन्क़ीद की बददियानती और ना फ़हमी के अक्सर हरबे अपने आप में महदूद हो गए हैं। मैं एतराफ़ करता हूँ कि आपके अह्द (2035) में जो ग़ज़ल रवाँ-दवाँ है उसका आग़ाज़ मुझ नाचीज़ के चराग़ों से हुआ।”

इसमें शक नहीं कि बशीर बद्र ने अपनी ग़ज़लों में नए दौर के नए विषयों, समस्याओं, विचार व राय से अपनी गहरी संवेदी, अंतर्ज्ञान, भावात्मक और बौद्धिक सम्बद्धता को एक अनोखी और आकर्षक अभिव्यक्ति देकर उर्दू ग़ज़ल में एक नए अध्याय का इज़ाफ़ा किया। बशीर बद्र आम जज़्बात को अवामी ज़बान में पुरफ़रेब सादगी से बयान कर दिए हैं जिसमें कोई आडंबर या बनावट नज़र नहीं आती। उनके अशआर में गांव और क़स्बात की सोंधी सोंधी मिट्टी की महक भी है और शहरी ज़िंदगी के तल्ख़ हक़ायक़ की संगीनी भी। बशीर बद्र की शायरी ने तग़ज़्जुल को नया अर्थ प्रदान किया। ये तग़ज़्ज़ुल रुहानी और जिस्मानी मुहब्बत की अर्ज़ीयत और पारगमन का एक संयोजन है। गोपीचन्द नारंग के अनुसार “बशीर बद्र ने शायरी में नई बस्तियां आबाद की हैं। ये बात सच है कि यही उनका पोपुलर इमेज है लेकिन इमेज पूरे बशीर बद्र की नुमाइंदगी नहीं करता। उनकी शायरी वो ख़ुशबू है जो हमारा रिश्ता आरयाई मिज़ाज से, हमारी धरती से, गंग-ओ-जमन की वादी से और हिन्दी, बृज, अवधी बल्कि तमाम स्थानीय बोलियों से जोड़ती है।”

डाक्टर बशीर बद्र को भारत सरकार ने पदमश्री के ख़िताब से नवाज़ा और उनको साहित्य अकादेमी के अलावा विभिन्न प्रादेशिक उर्दू एकेडमियों ने भी एवार्ड दिए। बशीर बद्र के कलाम के छ: संग्रह इकाई, इमेज, आमद, आस, आसमान और आहट प्रकाशित हो चुके हैं। उनका समग्र भी उपलब्ध है।

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