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लेखक : मोमिन ख़ाँ मोमिन

V4EBook_EditionNumber : 001

प्रकाशक : सय्यद इम्तियाज़ अली ताज

प्रकाशन वर्ष : 1964

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : शाइरी

उप श्रेणियां : कुल्लियात

पृष्ठ : 452

सहयोगी : जामिया हमदर्द, देहली, डॉ आदित्या बहेल

kulliyat-e-momin

पुस्तक: परिचय

مومن اردو کے خالص غزل گو شاعر ہیں۔ان کی غزلیات میں عاشق و معشوق کے دلوں کی واردات ،حسن و عشق اور نفسیات محبت کی باتیں ملتی ہیں۔ مومن کی غزل کا بنیادی موضوع حسن اور عشق ہے۔ان کے اشعار میں ابہام ،معنی خیزی کے ساتھ پیچیدگی حسن بھی ہے۔ ان کی زبان میں سادگی اور بیان میں حسن موجود ہے ، زبان وبیان میں دلکشی ہے ۔مومن سادہ سے الفاظ میں بھی ایک دنیا آباد کرجاتے ہیں۔ زیر نظر "کلیات مومن" ہے۔ اس کلیات کو مجلس ترقی ادب لاہور نے دو جلدوں میں شائع کیا ہے۔ پہلی جلد میں سید عبد اللہ کے مقدمہ اور مصطفی خان شیفتہ کے دیباچہ کے علاوہ تمام غزلیات، فردیات، رباعیات اور ترجیع، ترکیب بند وغیرہ شامل ہیں۔ جبکہ جلد دوم میں قصائد، معمیات، قطعات اور مثنویات شامل کیا گیا ہے۔

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लेखक: परिचय

मोमिन उर्दू के उन चंद बाकमाल शायरों में से एक हैं जिनकी बदौलत उर्दू ग़ज़ल की प्रसिद्धि और लोकप्रियता को चार चांद लगे। मोमिन ने इस विधा को ऐसे शिखर पर पहुँचाया और ऐसे उस्तादाना जौहर दिखाए कि ग़ालिब जैसा ख़ुद-नगर शायर उनके एक शे’र पर अपना दीवान क़ुर्बान करने को तैयार हो गया। मोमिन ग़ज़ल की विधा के प्रथम पंक्ति के शायर हैं। उन्होंने उर्दू शायरी की दूसरी विधाओं, क़सीदे और मसनवी में भी अभ्यास किया लेकिन उनका असल मैदान ग़ज़ल है जिसमें वो अपनी तर्ज़ के अकेले ग़ज़लगो हैं। मोमिन का कारनामा ये है कि उन्होंने ग़ज़ल को उसके वास्तविक अर्थ में बरता और बाहरी की अभिव्यक्ति आंतरिक के साथ करते हुए एक नए रंग की ग़ज़ल पेश की। उस रंग में वो जिस बुलंदी पर पहुंचे वहां उनका कोई प्रतियोगी नज़र नहीं आता।

हकीम मोमिन ख़ां मोमिन का ताल्लुक़ एक कश्मीरी घराने से था। उनका असल नाम मोहम्मद मोमिन था। उनके दादा हकीम मदार ख़ां शाह आलम के ज़माने में दिल्ली आए और शाही हकीमों में शामिल हो गए। मोमिन दिल्ली के कूचा चेलान में 1801 ई.में पैदा हुए। उनके दादा को बादशाह की तरफ़ से एक जागीर मिली थी जो नवाब फ़ैज़ ख़ान ने ज़ब्त करके एक हज़ार रुपये सालाना पेंशन मुक़र्रर कर दी थी। ये पेंशन उनके ख़ानदान में जारी रही। मोमिन ख़ान का घराना बहुत मज़हबी था। उन्होंने अरबी की शिक्षा शाह अबदुल क़ादिर देहलवी से हासिल की।  फ़ारसी में भी उनको महारत थी। धार्मिक ज्ञान की शिक्षा उन्होंने मकतब में हासिल की। सामान्य ज्ञान के इलावा उनको चिकित्सा, ज्योतिष, गणित, शतरंज और संगीत से भी दिलचस्पी थी। जवानी में क़दम रखते ही उन्होंने शायरी शुरू कर दी थी और शाह नसीर से संशोधन कराने लगे थे लेकिन जल्द ही उन्होंने अपने अभ्यास और भावनाओं की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति के द्वारा दिल्ली के शायरों में अपनी ख़ास जगह बना ली। आर्थिक रूप से उनका सम्बंध मध्यम वर्ग से था। ख़ानदानी पेंशन एक हज़ार रुपये सालाना ज़रूर थी लेकिन वो पूरी नहीं मिलती थी जिसका शिकवा उनके फ़ारसी पत्रों में मिलता है। मोमिन ख़ां की ज़िंदगी और शायरी पर दो चीज़ों ने बहुत गहरा असर डाला। एक उनकी रंगीन मिज़ाजी और दूसरी उनकी धार्मिकता। लेकिन उनकी ज़िंदगी का सबसे दिलचस्प हिस्सा उनके प्रेम प्रसंगों से ही है। मुहब्बत ज़िंदगी का तक़ाज़ा बन कर बार-बार उनके दिल-ओ-दिमाग़ पर छाती रही। उनकी शायरी पढ़ कर महसूस होता है कि शायर किसी ख़्याली नहीं बल्कि एक जीती-जागती महबूबा के इश्क़ में गिरफ़्तार है। दिल्ली का हुस्न परवर शहर उस पर मोमिन की रंगीन मिज़ाजी, ख़ुद ख़ूबसूरत और ख़ुश-लिबास, नतीजा ये था उन्होंने बहुत से शिकार पकड़े और ख़ुद कम शिकार हुए; 
आए ग़ज़ाल चश्म सदा मेरे दाम में
सय्याद ही रहा मैं,गिरफ़्तार कम हुआ

उनके कुल्लियात(समग्र) में छः मसनवीयाँ मिलती हैं और हर मसनवी किसी प्रेम प्रसंग का वर्णन है। न जाने और कितने इश्क़ होंगे जिनको मसनवी की शक्ल देने का मौक़ा न मिला होगा। मोमिन की महबूबाओं में से सिर्फ़ एक का नाम मालूम हो सका। ये थीं उम्मत-उल-फ़ातिमा जिनका तख़ल्लुस “साहिब जी” था। मौसूफ़ा पूरब की पेशेवर तवाएफ़ थीं जो ईलाज के लिए दिल्ली आई थीं। मोमिन हकीम थे लेकिन उनकी नब्ज़ देखते ही ख़ुद उनके बीमार हो गए। कई प्रेम प्रसंग मोमिन के अस्थिर स्वभाव का भी पता देते हैं। इस अस्थिरता की झलक उनकी शायरी में भी है, कभी तो वो कहते हैं; 
इस नक़श-ए-पा के सज्दे ने क्या क्या किया ज़लील
मैं कूचा-ए-रक़ीब में भी सर के बल गया 

और फिर ये भी कहते हैं; 
माशूक़ से भी हमने निभाई बराबरी
वां लुत्फ़ कम हुआ तो यहां प्यार कम हुआ

मोमिन के यहां एक ख़ास किस्म की बेपरवाही की शान थी। माल-ओ-ज़र की तलब में उन्होंने किसी का क़सीदा नहीं लिखा। उनके नौ क़सीदों में से सात मज़हबी नौईयत के हैं। एक क़सीदा उन्होंने राजा पटियाला की शान में लिखा। इसका क़िस्सा यूं है कि राजा साहिब को उनसे मिलने की जिज्ञासा थी। एक रोज़ जब मोमिन उनकी रिहायशगाह के सामने से गुज़र रहे थे, उन्होंने आदमी भेज कर उन्हें बुला लिया, बड़ी इज़्ज़त से बिठाया और बातें कीं और चलते वक़्त उनको एक हथिनी पर सवार कर के रुख़सत किया और वो हथिनी उन्हीं को दे दी। मोमिन ने क़सीदे के ज़रिये उनका शुक्रिया अदा किया। दूसरा क़सीदा नवाब टोंक की ख़िदमत में न पहुंच पाने का माफ़ी नामा है। कई रियासतों के नवाबीन उनको अपने यहां बुलाना चाहते थे लेकिन वो कहीं नहीं गए। दिल्ली कॉलेज की प्रोफ़ेसरी भी नहीं क़बूल की।

ये बेपरवाही शायद उस मज़हबी माहौल का असर हो जिसमें उनकी परवरिश हुई थी। शाह अब्दुल अज़ीज़ के ख़ानदान से उनके ख़ानदान के गहरे सम्बंध थे। मोमिन एक कट्टर मुसलमान थे। 1818 ई. में उन्होंने सय्यद अहमद बरेलवी के हाथ पर बैअत की लेकिन उनकी जिहाद की तहरीक में ख़ुद शरीक नहीं हुए। अलबत्ता जिहाद की हिमायत में उनके कुछ शे’र मिलते हैं। मोमिन ने दो शादियां कीं, पहली बीवी से उनकी नहीं बनी फिर दूसरी शादी ख़्वाजा मीर दर्द के ख़ानदान में ख़्वाजा मुहम्मद नसीर की बेटी से हुई। मौत से कुछ अर्सा पहले वो इश्क़ बाज़ी से किनारा कश हो गए थे। 1851 ई. में वो कोठे से गिर कर बुरी तरह ज़ख़्मी हो गए थे और पाँच माह बाद उनका स्वर्गवास हो गया।

मोमिन के शायराना श्रेणी के बारे में अक्सर आलोचक सहमत हैं कि उन्हें क़सीदा, मसनवी और ग़ज़ल पर एक समान दक्षता प्राप्त थी। क़सीदे में वो सौदा और ज़ौक़ की श्रेणी तक तो नहीं पहुंचते लेकिन इसमें शक नहीं कि वो उर्दू के चंद अच्छे क़सीदा कहनेवाले शायरों में शामिल हैं। मसनवी में वो दया शंकर नसीम और मिर्ज़ा शौक़ के हमपल्ला हैं लेकिन मोमिन की शायराना महानता की निर्भरता उनकी ग़ज़ल पर है। एक ग़ज़ल कहनेवाले की हैसियत से मोमिन ने उर्दू ग़ज़ल को उन विशेषताओं का वाहक बनाया जो ग़ज़ल और दूसरी विधाओं के बीच भेद पैदा करती हैं। मोमिन की ग़ज़ल तग़ज़्ज़ुल की शोख़ी, शगुफ़्तगी, व्यंग्य और प्रतीकात्मकता की सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि कही जा सकती है। उनकी मुहब्बत यौन प्रेम है जिस पर वो पर्दा नहीं डालते। पर्दा नशीन तो उनकी महबूबा है। इश्क़ की वादी में मोमिन जिन जिन परिस्थितियों व दशाओं से गुज़रे उनको ईमानदारी व सच्चाई के साथ शे’रों में बयान कर दिया। हुस्न-ओ-इश्क़ के गाल व तिल में उन्होंने कल्पना के जो रंग भरे वो उनकी अपनी ज़ेहनी उपज है। उनकी अछूती कल्पना और निराले अंदाज़-ए-बयान ने पुराने और घिसे हुए विषयों को नए सिरे से ज़िंदा और शगुफ़्ता बनाया। मोमिन अपने इश्क़ के बयान में साधारणता नहीं पैदा होने देते। उन्होंने लखनवी शायरी का रंग इख़्तियार करते हुए दिखा दिया कि ख़ारिजी मज़ामीन भी तहज़ीब-ओ-संजीदगी के साथ बयान किए जा सकते हैं और यही वो विशेषता है जो उनको दूसरे ग़ज़ल कहने वाले शायरों से उत्कृष्ट करती है।

 

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