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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

लेखक : अमीर ख़ुसरो

भाषा : Persian

श्रेणियाँ : शाइरी, सूफ़ीवाद / रहस्यवाद

उप श्रेणियां : मसनवी

पृष्ठ : 154

सहयोगी : सुमन मिश्रा

masnavi tughlaq nama
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पुस्तक: परिचय

" تغلق نامہ" امیر خسرو کی تاریخی مثنوی ہے جس میں انہوں نے غیاث الدین تغلق بادشاہ کی زندگی اور اس کی فتوحات کو نظم کا جامہ پہنایا ہے۔ امیر خسرو ہندوستان کی وہ مایہ ناز شخصیت ہے جسے ہم کسی ایک فن اور خصوصیت کے ساتھ مخصوص نہیں کر سکتے۔ اگر وہ شاعری میں غزل کے استاد ہیں تو قصاید میں خاقانی شیروانی کے ہم پلہ، مثنوی میں نظامی گنجوی کی برابری کرتے نطر آتے ہیں۔ تو قول و قوالی کے پیشرو، ان کے مراثی میں سوز و گداز ہے تو ان کی نثر سہل و مغلق نگاری کا نمونہ۔ موسیقی میں جگت گرو ہیں اور ہندوستان کی دو بڑی زبانوں کے موجد بھی۔ تاریخ نویسی میں بھی وہ اپنا جداگانہ مقام رکھتے ہیں خاص طور پر منظوم تاریخ نویسی میں ان کا کوئی ہمسر نہیں۔ خسرو اگر ایک ماہر جنگجو ہیں تو امارت ان کی شناخت ہے اس لئے وہ ہمیشہ ان چیزوں کو بہت ہی اچھے طریقے سے نظم کرتے ہین جو تاریخی پہلو لئے ہوئے ہوں کیونکہ وہ سب کچھ اپنی کھلی آنکھوں سے دیکھتے ہیں ۔ قران السعدین ان کی تاریخی واقعہ ناگاری اور جدت مضمون کا جیتا جاگتا نمونہ ہے۔ تغلق نامہ میں قطب الدین مبارک شاہ کے قتل اور خسرو خان کی چند روزہ بادشاہی اور غیاث الدین تغلق کی فتح اور تخت نشینی کے حالات درج کئے گئے ہیں۔ اس مثنوی میں استادانہ پختگی اور قدرت بیان اس کے ہر شعر میں نمایاں ہے۔ تاریخی جزئیات کی صحت کا بہت ہی زیادہ خیال رکھا گیا ہے۔ دنیا میں بہت کم تاریخی مثنویاں ہیں جن میں اتنا زیادہ صحت واقعات کا خیال رکھا گیا ہو۔

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लेखक: परिचय

अमीर ख़ुसरो उन प्रतिभाशाली हस्तियों में से एक थे जो सदीयों बाद कभी जन्म लेती हैं। ख़ुसरो ने तुर्की मूल के होने के बावजूद बहुजातीय और बहुभाषीय हिन्दोस्तान को एक एकता की शक्ल देने में अद्वितीय भूमिका निभाई। उनका व्यक्तित्व अपने आप में बहुआयामी था। वो एक समय में एक साथ शायर, चिंतक, सिपाही, सूफ़ी, अमीर और दरवेश थे। उन्होंने एक तरफ़ बादशाहों के क़सीदे लिखे तो दूसरी तरफ़ अपनी शीरीं-बयानी से अवाम का दिल भी मोह लिया। अमीर ख़ुसरो उन लोगों में से थे जिनको क़ुदरत सिर्फ़ मुहब्बत के लिए पैदा करती है। उनको हर शख़्स और हर चीज़ से मुहब्बत थी और सबसे ज़्यादा मुहब्बत हिन्दोस्तान से थी जिसकी तारीफ़ करते हुए उनकी ज़बान नहीं थकती। वो हिन्दोस्तान को दुनिया की जन्नत कहा करते थे। हिन्दोस्तान की हवाओं का नग़मा उनको मस्त और इसकी मिट्टी की महक उनको बेख़ुद कर देती थी। जब और जहां मौक़ा मिला उन्होंने हिन्दोस्तान और इसके बाशिंदों की जिस तरह प्रशंसा की हैं इसकी कहीं दूसरी जगह मिसाल नहीं मिलती। पीढ़ी दर पीढ़ी सदियों से हिन्दोस्तान में रहने वाला भी जब हिन्दोस्तान के बारे में उनके बयान पढ़ता है तो उसे महसूस होता है कि हिन्दोस्तान के वास्तविक सौंदर्य से पहली बार उसका सामना हो रहा है।

अमीर ख़ुसरो का असल नाम अबुलहसन यमीन उद्दीन था। वो 1253 ई. में एटा ज़िला के क़स्बा पटियाली में पैदा हुए। उनके वालिद अमीर सैफ़ उद्दीन, चंगेज़ी फ़साद के दौरान ताजकिस्तान और उज़बेकिस्तान की सरहद पर स्थित मुक़ाम कश(मौजूदा शहर सब्ज़) से हिज्रत कर के हिन्दोस्तान आए और एक हिन्दुस्तानी अमीर इमादा-उल-मुल्क की बेटी से शादी कर ली। ख़ुसरो उनकी तीसरी औलाद थे। जब ख़ुसरो ने होश सँभाला तो उनके वालिद ने उनको ख़ुशनवीसी(सुलेख) की मश्क़ के लिए अपने वक़्त के मशहूर ख़त्तात(सुलेखक) साद उल्लाह के हवाले कर दिया लेकिन ख़ुसरो को पढ़ने से ज़्यादा शे’र कहने का शौक़ था, वो तख्तियों पर अपने शे’र लिखा करते थे। शुरू में ख़ुसरो “सुलतानी” तख़ल्लुस करते थे, बाद में ख़ुसरो तख़ल्लुस इख़्तियार किया। ख़ुसरो जब जवानी की उम्र को पहुंचे तो ग़ियासुद्दीन बलबन मुल्क का बादशाह था और उसका भतीजा किशलो ख़ां उर्फ़ मलिक छज्जू अमीरों में शामिल था। वो अपनी बख्शिश व उदारता के लिए मशहूर और अपने वक़्त का हातिम कहलाता था। उसने ख़ुसरो की शायरी से प्रभावित हो कर अपने दरबारियों में शामिल कर लिया। इत्तफ़ाक़ से एक दिन बलबन का बेटा ब़गरा ख़ान, जो उस वक़्त समाना का हाकिम था, महफ़िल में मौजूद था। उसने ख़ुसर का कलाम सुना तो इतना ख़ुश हुआ कि एक किश्ती भर रक़म उनको इनाम में दे दी। ये बात किशलो ख़ान को नागवार गुज़री और वो ख़ुसरो से नाराज़ रहने लगा। आख़िर ख़ुसरो ब़गरा ख़ान के पास ही चले गए जिसने उनकी बड़ा मान-सम्मान किया, बाद में जब ब़गरा ख़ान को बंगाल का हाकिम बनाया गया तो ख़ुसरो भी उसके साथ गए। लेकिन कुछ अर्से बाद अपनी माँ और दिल्ली की याद ने उन्हें सताया तो वो दिल्ली वापस आ गए। दिल्ली आ कर वह बलबन के बड़े बेटे मलिक मुहम्मद ख़ान के मुसाहिब बन गए। मलिक ख़ान को जब मुल्तान का हाकिम बनाया गया तो ख़ुसरो भी उसके साथ गए। कुछ दिनों बाद तैमूर का हमला हुआ। मलिक ख़ान लड़ते हुए मारा गया और तातारी ख़ुसरो को क़ैदी बना कर अपने साथ ले गए। दो बरस बाद ख़ुसरो को तातारियों के चंगुल से रिहाई मिली। इस अर्से में उन्होंने मलिक ख़ान और जंग में शहीद होने वालों के दर्दनाक मरसिये कहे। जब ख़ुसरो ने बलबन के दरबार में ये मरसिये पढ़े तो वो इतना रोया कि उसे बुख़ार हो गया और उसी हालत में कुछ दिन बाद उसकी मौत हो गई। बलबन की मौत के बाद ख़ुसरो उमराए शाही में से एक ख़ां जहां के दरबार से सम्बद्ध हुए और जब उसे अवध का हाकिम बनाया गया तो उसके साथ गए। ख़ुसरो दो बरस अवध में रहने के बाद दिल्ली वापस आ गए। ख़ुसरो ने दिल्ली के ग्यारह बादशाहों की हुकूमत देखी और बादशाहों या उनके अमीरों से सम्बद्ध रहे। सभी ने उनको नवाज़ा यहां तक कि एक मौक़े पर उन्हें हाथी के वज़न के बराबर सिक्कों में तौला गया और ये रक़म उनको इनाम में दी गई। ख़ुसरो निहायत पुरगो शायर थे। अक्सर तज़किरा लिखनेवालों ने लिखा है कि उनकी शे’रों की तादाद तीन लाख से ज़्यादा और चार लाख से कम है। ओहदी ने लिखा है कि ख़ुसरो का जितना कलाम फ़ारसी में है उतना ही ब्रजभाषा में भी है लेकिन उनके इस दावे की सत्यापन इसलिए असम्भव है कि ख़ुसरो का संपादित कलाम ब्रजभाषा में नहीं मिलता। उनका जो भी हिन्दी कलाम है वो सीना ब सीना स्थानान्तरित होते हुए हम तक पहुंचा है। ख़ुसरो से पहले हिन्दी शायरी का कोई नमूना नहीं मिलता। ख़ुसरो ने फ़ारसी के साथ हिन्दी को मिला कर शायरी के ऐसे दिलकश नमूने पेश किए हैं जिनकी कोई मिसाल नहीं। ख़ुसरो दरबारों में दरबारी शायर थे लेकिन दरबार से बाहर वो पूरी तरह अवाम के शायर थे। ज़िंदा दिली और ख़ुशमिज़ाजी उनमें कूट कट् कर भरी थी, तसव्वुफ़ ने उनको ऐसी निगाह दी थी कि उन्हें ख़ुदा की बनाई हुई हर मख़लूक़ में हुस्न ही हुस्न नज़र आता था। हिन्दी और फ़ारसी के मिश्रण से कही गई उनकी ग़ज़लें अजीब रंग पेश करती हैं, शायद ही कोई हो जिसने उनकी ग़ज़ल 
"ज़िहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल दुराए नैनां बनाए बतियां
कि ताब-ए-हिज्राँ नदारम ऐ जां ना लेहू काहे लगाए छतियां” 
न सुनी हो और इसके पुरसोज़ मगर परम आनंद के लुत्फ़ से वंचित रह गया हो।

शायर होने के साथ साथ ख़ुसरो एक बड़े संगीतज्ञ भी थे। सितार और तबला की ईजाद का श्रेय उनको है। इसके इलावा उन्होंने हिन्दुस्तानी और फ़ारसी रागों के संयोजन से नए राग ईजाद किए। राग दर्पण के मुताबिक़ इन नए रागों में साज़ गरी, बाख़रज़, उश्शाक, सर पर्दा, फ़िरोदस्त, मुवाफ़िक़ वग़ैरा शामिल हैं। ख़ुसरो ने कव़्वाली को फ़न का दर्जा दिया। शिबली नोमानी के अनुसार ख़ुसरो पहले और आख़िरी मूसीक़ार हैं जिनको “नायक” का ख़िताब दिया गया। उनका दावा है कि ख़ुसरो अकबर के काल के मशहूर संगीतज्ञ तानसेन से भी बड़े संगीतकार थे। ख़ुसरो को हज़रत निज़ाम उद्दीन औलिया से विशेष लगाव था। हालाँकि दोनों की उम्रों में बस दो-तीन साल का फ़र्क़ था। ख़ुसरो ने 1286 ई.में ख़्वाजा साहब के हाथ पर बैअत की थी और ख़्वाजा साहब ने ख़ास टोपी जो इस सिलसिले की प्रतीक थी ख़ुसरो को अता की थी और उन्हें अपने ख़ास मुरीदों में दाख़िल कर लिया था। बैअत के बाद ख़ुसरो ने अपना सारा माल-ओ-अस्बाब लुटा दिया था। अपने मुर्शिद से उनकी श्रद्धा इश्क़ के दर्जे को पहुंची हुई थी। ख़्वाजा साहब को भी उनसे ख़ास लगाव था। कहते थे कि जब क़ियामत में सवाल होगा कि निज़ाम उद्दीन क्या लाया तो ख़ुसरो को पेश कर दूँगा। ये भी कहा करते थे कि अगर एक क़ब्र में दो लाशें दफ़न करना जायज़ होता तो अपनी क़ब्र में ख़ुसरो को दफ़न करता। जिस वक़्त ख़्वाजा साहिब का विसाल (स्वर्गवास) हुआ ख़ुसरो बंगाल में थे। ख़बर मिलते ही दिल्ली भागे और जो कुछ ज़र-ओ-माल था सब लुटा दिया और काले कपड़े धारण कर ख़्वाजा की मज़ार पर मुजाविर हो बैठे। छः माह बाद उनका भी स्वर्गवास हो गया और मुर्शिद के क़दमों में दफ़न किए गए, बराबर इसलिए नहीं ता कि आगे चल कर दोनों की अलग क़ब्रों की शनाख़्त में मुश्किल न पैदा हो।

अमीर ख़ुसरो उन अनोखी हस्तियों में से एक थे जिन पर सरस्वती और लक्ष्मी, एक दूसरे की दुश्मन होने के बावजूद, एक साथ मेहरबान थीं। ख़ुसरो ने बहुत मसरूफ़ लेकिन पाकीज़ा ज़िंदगी गुज़ारी और अपनी सारी उर्जा शे’र-ओ-मौसीक़ी के लिए समर्पित कर दी। उन्होंने नस्लीय विदेशी होने और विजेता शासक वर्ग से सम्बंधित होने के बावजूद एक मिली-जुली हिन्दुस्तानी तहज़ीब की संरचना में प्रथम ईंट का काम किया। उनका ये कारनामा कम नहीं कि हिन्दी और उर्दू, दो विभिन्न भाषाओँ के विकास के बाद भी, दोनों ख़ेमों के लोग ख़ुसरो को अपना कहने पर फ़ख़्र करते हैं।

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