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पुस्तक: परिचय

خان آرزو، محمد شاہ کے عہد میں فارسی کے ممتاز ترین شاعر، محقق، تذکرہ نگار اور اردو و فارسی و اردو کے زبان شناس تھے۔ فارسی زبان کے ماہر ہونے کی وجہ سے لغت نگاری میں نمایاں مقام رکھتے تھے۔ زیر نظر کتاب "نوادر الالفاظ" میر عبد الواسع ہانسوی کی لکھی ہوئی لغت "غرائب اللغات" کا اضافہ ہے۔ ہانسوی کی غرائب اللغات کو اردو کی پہلی لغت کہا جاتا ہے اس لغت میں اردو الفاظ، محاورات اور مصطلحات کی تشریح فارسی زبان میں کی گئی ہے۔ چونکہ خان آرزو اردو کے علاوہ دکنی زبانوں پر بھی قدرت رکھتے تھے، انھیں جب پتا چلا کہ الفاظ کے معنی بیان کرنے میں ہانسوی سے کچھ غلطیاں ہوگئی ہیں تو انھوں نے ان کی کتاب پر نظر ثانی کی اور غلطیاں درست کرکے نیاایڈیش تیار کیا جس کا نام "نوادر الالفاظ " رکھا ۔ اس کتاب میں انھوں نے لسانی شعور کو برتتے ہوئے سنسکرت، گوالیاری، راجستھانی، کشمیری، ہندی اور اردو زبان کا استعمال بڑی چابکدستی سے کیا ہے۔

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लेखक: परिचय

उर्दू शायरी में उस्तादों के उस्ताद

“ख़ान आरज़ू को उर्दू पर वही दावा पहुंचता है जो कि 
अरस्तू को दर्शनशास्त्र और तर्कशास्त्र पर है। जब तक कि कुल
तर्कशास्त्री अरस्तू के परिवार के कहलाएंगे तब तक उर्दू वाले 
ख़ान आरज़ू के प

रिवार कहलाते रहेंगे।” 
मुहम्मद हुसैन आज़ाद

सिराज उद्दीन अली ख़ान आरज़ू उर्दू और फ़ारसी भाषाओं के विद्वान, शायर, भाषा शास्त्री, आलोचक, कोशकार और तज़्किरा लेखक थे। मसनवी सह्र-उल-बयान के लेखक मीर हसन ने अपने तज़्किरे में कहा है कि “अमीर ख़ुसरो के बाद आरज़ू जैसा साहब-ए-कमाल शख़्स हिंदुस्तान में नहीं पैदा हुआ।” और मुहम्मद हुसैन आज़ाद समस्त उर्दू वालों को ख़ान आरज़ू के परिवार में शुमार करते हैं। आज़ाद की श्रद्धा शक्ति को एक तरफ़ रख दें तब भी ये हक़ीक़त है कि ख़ान आरज़ू वही शख़्स हैं जिनकी संगति और प्रशिक्षण से मज़हर जान जानां, मीर तक़ी मीर, मुहम्मद रफ़ी सौदा और मीर दर्द जैसे शायरों को मार्गदर्शन मिला। आरज़ू के ज़माने तक फ़ारसी के मुक़ाबले में उर्दू शायरी को कमतर और तुच्छ जाना जाता था। आज़ाद उर्दू के लिए ख़ान आरज़ू की सेवाओं का उल्लेख करते हुए लिखते हैं, “उनके बारे में इतना लिखना काफ़ी है कि ख़ान आरज़ू वही शख़्स हैं जिनके कुशल प्रशिक्षण से ऐसे शाइस्ता फ़र्ज़ंद परवरिश पा कर उठे जिन्हें उर्दू भाषा का सुधारक कहा जासकता है। सौदा ख़ान आरज़ू के शागिर्द नहीं थे मगर उनकी संगति से बहुत फ़ायदे हासिल किए, पहले फ़ारसी में शे’र कहा करते थे, ख़ान आरज़ू ने कहा, “मिर्ज़ा फ़ारसी अब तुम्हारी ज़बान मादरी(मातृ भाषा) नहीं। इसमें ऐसे नहीं हो सकते कि तुम्हारा कलाम भाषाविदों के मुक़ाबिल में काबिल-ए-तारीफ़ हो। स्वभाव उपयुक्त है, शे’र के लिए भी उपयुक्त है, तुम उर्दू में कहा करो तो ज़माने में अद्वितीय होगे।” ख़ान आरज़ू मीर तक़ी मीर के सौतेले मामूं थे और पिता के निधन के बाद कुछ दिन आरज़ू के पास गुज़ारे थे। मीर के कलाम में आरज़ू की “चराग-ए-हिदायत” के निशान जगह जगह मिलते हैं। ख़ान आरज़ू मूलतः फ़ारसी के विद्वान और शायर थे। उन्होंने उर्दू में कोई दीवान नहीं छोड़ा। उनके अशआर तज़्किरों में मिलते हैं जिनकी तादाद ज़्यादा नहीं लेकिन जो भी कलाम उपलब्ध है वो उर्दू शायरी के विकास क्रम को समझने के संदर्भ में  एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है। उर्दू में उनके अशआर की तादाद पंद्रह-बीस सही लेकिन उन्होंने अपने साथियों और शागिर्दों को उर्दू की तरफ़ आकर्षित कर के उर्दू की प्रतिष्ठा बढ़ाई और उर्दू पर से अविश्वास के दाग़ को हमेशा के लिए धो डाला।

आरज़ू का एक बड़ा कारनामा ये है कि उन्होंने हिंदुस्तानी ज़बान की भाषाई शोध की बुनियाद रखी और जर्मन प्राच्याविदों से बहुत पहले बताया कि संस्कृत और फ़ारसी जुड़वां भाषाएं हैं। वो आज के संदर्भ में पक्के राष्ट्रवादी थे। उनका कहना था कि जब ईरान के फ़ारसी जानने वाले अरबी और दूसरी भाषाओं के शब्दों को फ़ारसी में दाख़िल कर सकते हैं तो हिंदुस्तान के फ़ारसी जानने वाले हिन्दी शब्दों को इसमें क्यों नहीं शामिल कर सकते। इस सिलसिले में अली हज़ीं के साथ उनका विवाद बहुत मशहूर है। अली हज़ीं एक ईरानी शायर थे जो दिल्ली में बस गए थे। वो बहुत हि घमंडी थे और हिंदुस्तानी शायरों का उपहास करते थे। एक बार उन्होंने हिंदुस्तानियों के महबूब फ़ारसी शायर बेदिल का परिहास उड़ाते हुए कहा कि अगर बेदिल के शे’र इस्फ़हान में पढ़े जाएं तो कोई न समझेगा। इससे हिंदुस्तानी शायरों को दुख पहुँचा लेकिन ख़ामोश रह गए, लेकिन आरज़ू ने बेदिल का डट कर बचाव किया और हज़ीं के 400 अशआर की बख़ीया उधेड़ कर रख दी, हज़ीं को दिल्ली से भागना पड़ा। इससे आरज़ू की विद्वता और साहित्यिक कौशल का अंदाज़ा होता है। उन्होंने एक पारंपरिक शायर होने के बावजूद परंपरा तोड़ने के लिए प्रोत्साहित किया और अद्भुत आलोचनात्मक प्रतिभा का सबूत दिया। आरज़ू पहले शख़्स थे जिन्होंने दिल्ली में बोली जाने वाली खड़ी बोली को उर्दू का नाम दिया। उनके ज़माने तक उर्दू का मतलब लश्कर था। शाहजहाँ आबाद को भी लश्कर कहा जाता था। उर्दू भाषा से तात्पर्य फ़ारसी भी लिया जाता था। ख़ान आरज़ू ने पहली बार उर्दू शब्द का इस्तेमाल उन विलक्षण शब्दों के लिए किया जो दिल्ली में बोली जाती थी।

नवादिर-उल-अलफ़ाज़ मीर अब्दुल वासे हांसवी की “ग़राइब-उल-लुग़ात” का संशोधित संस्करण है। “ग़राइब-उल-लुग़ात” गैर उर्दू भाषियों के लिए एक उर्दू-फ़ारसी शब्दकोश है। आरज़ू ने ख़ामोशी से इसकी गलतियां दुरुस्त करके उसे “नवादिर-उल-अलफ़ाज़” का नाम दिया। दूसरी तरफ़ मिर्ज़ा ग़ालिब ने मीर अब्दुल वासे की एक ग़लती पकड़ कर उसे स्कैंडल बना दिया। मीर मज़कूर ने कहीं लिखा था कि लफ़्ज़ “ना-मुराद” ग़लत है, उसे “बे-मुराद” लिखा जाना चाहिए। ग़ालिब ने इसकी पकड़ किस तरह की देखिए। “वो मियां साहब हांसी वाले, बहुत चौड़े चकले, जनाब अब्दुल वासे फ़रमाते हैं कि “बे-मुराद” सही “ना-मुराद” ग़लत। अरे तेरा सत्यानास जाये। बे-मुराद और ना-मुराद में वो फ़र्क़ है जो ज़मीन-ओ-आसमान में है। ना-मुराद वो शख़्स है जिसकी कोई मुराद, कोई ख्वाहिश, कोई आरज़ू बर न आवे। बे-मुराद वो कि जिसका सफ़हा-ए-ज़मीर नुक़ूश मुद्दआ से सादा हो।” (पत्र बनाम साहिब-ए-आलम मारहरवी)। हरगोपाल तफ़्ता और ग़ुलाम ग़ौस बेख़बर के नाम पत्रों में भी उन्होंने उस ग़लती को उछाला। इस संदर्भ का उद्देश्य एक विद्वान और एक शायर के दृष्टिकोण के बीच अंतर दिखाना है।

सिराज उद्दीन अली ख़ां आरज़ू सन्1786 में ग्वालियार में पैदा हुए। उनका बचपन ग्वालियार में गुज़रा। जवानी में वो आगरा चले गए जहाँ उनको बाइज़्ज़त जगह मिली। कुछ अरसा आगरा में रहने के बाद वो दिल्ली स्थानांतरित हो गए जहाँ उन्होंने ज़िंदगी का अधिकतर हिस्सा गुज़ारा। उन्होंने बारह बादशाहों के पतन को देखा। दिल्ली में उन्हें बौद्धिक और सांसारिक तरक़्क़ी मिली। वो मुहम्मद शाह के दरबार के अहम मंसबदार थे। उम्र के आख़िरी हिस्से में वो फ़ैज़ाबाद चले गए और वहीं उनका देहांत हुआ। बाद में उनके आसार दिल्ली ला कर दफ़न किए गए। आरज़ू की ज़िंदगी का बेशतर हिस्सा लेखन व रचना और पठन-पाठन में गुज़रा। आरज़ू का अध्यापन उस ज़माने में मशहूर था। कोई छात्र अपने आपको ज्ञान और साहित्य का दक्ष नहीं समझता था जब तक वो आरज़ू के शागिर्दों की टोली में शामिल न हो। उनके दोस्तों में बिंद्राबन खुशगो, टेक चंद बहार और आनंद राम मुख्लिस के नाम खासतौर पर उल्लेखनीय हैं। आरज़ू ने छः दीवान संपादित किए, इसके अलावा व्याख्या “गुलिस्तान-ए-खियाबाँ” के नाम से, फ़ारसी शायरों का तज़्किरा “मजमा-उल-नफ़ाइस” के नाम से और “नवादिर-उल-लुगात” उर्दू-फ़ारसी शब्दकोश संकलित किया। उनकी दूसरी रचनाओं में “सिराज-उल-लुग़ात” (फ़ारसी शब्दकोश), “चराग़-ए-हिदायत”(फ़ारसी अलफ़ाज़-ओ-मुहावरे)अतिया -ए-किबरी, मेयार-उल-अफ़कार(व्याकरण), पयाम-ए-शौक़(पत्रों का संकलन), जोश-ओ-ख़रोश (मसनवी) मेहर-ओ-माह, इबरत फ़साना और गुलकारी-ए-ख़्याल(होली पर लम्बी कविता)  शामिल हैं।

उर्दू के संदर्भ से आरज़ू की उपलब्धि यह है कि उन्होंने अपने ज़माने के दूसरे शायरों को संरक्षण दिया और उर्दू शायरी की कला का मार्ग प्रशस्त किया। उनकी हैसियत एक वास्तुकार  की है। फ़ारसी भाषा के दबदबे के सामने उर्दू शायरी का चराग़ रौशन करना आरज़ू का बड़ा कारनामा है। उन्हें उर्दू भाषा के स्वाभाविक गुणों का अंदाज़ा और भविष्य में उसके व्यापक संभावनाओं की अपेक्षा थी। उनकी दूरदर्शिता सही साबित हुई और वो भाषा जिसका बीजारोपण उन्होंने दिल्ली में किया था, एक फलदार वृक्ष में तब्दील होगई।

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