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लेखक : ज़किया मशहदी

प्रकाशक : बिहार-ए-उर्दू अकादमी, पटना

प्रकाशन वर्ष : 1993

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : महिलाओं की रचनाएँ, अफ़साना

उप श्रेणियां : कहानियाँ

पृष्ठ : 170

सहयोगी : ज़किया मशहदी

तरीक राहों के मुसाफ़िर

पुस्तक: परिचय

زیر نظر کتاب "تاریک راہوں کے مسافر" ذکیہ مشہدی کا افسانوی مجموعہ ہے۔ ذکیہ مشہدی کا شمار موجودہ عہد کی ان چنیدہ خواتین افسانہ نگاروں میں ہوتا ہے جنھوں نے اپنی فنکارانہ صلاحیتوں، اور باشعور ماحول میں پرورش کی بنا پر افسانوں کو ایک مخصوص رنگ و آہنگ عطا کیا۔ ان کے افسانوں میں موجودہ ہندوستانی سماج کی تمام تر خوبیاں اور خامیاں نظر آتی ہیں۔زیر نظر کتاب میں ان کے تیرہ افسانے شامل ہیں۔

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लेखक: परिचय

उनका असल नाम ज़किया सुल्ताना है। उनके वालिद हकीम अहमद सिद्दीक़ी थे। ज़किया सन् 1944 में लखनऊ में पैदा हुई और यहीं शिक्षा भी प्राप्त की। मनोविज्ञान में एम.ए किया और बी एड की डिग्री भी ली। शिक्षा प्राप्ति के बाद कॉन्वेंट कॉलेज लखनऊ में मनोविज्ञान की लेक्चरर हो गईं और उसी पद पर पाँच साल तक रहीं, उसके बाद इस्तीफ़ा देकर पटना चली आईं, यहाँ भी बी.एड कॉलेज में पाँच-छः साल तक शिक्षा-दीक्षा के कर्तव्यों को पूरा किया।

ज़किया मशहदी आज की नामवर कहानीकार हैं। आधुनिक कहानीकारों में उनका नाम भी सम्मान के साथ लिया जाता है। उर्दू, अंग्रेज़ी और हिन्दी पर समान अधिकार है। उन्होंने अहम संस्थाओं के लिए अनगिनत किताबों के अनुवाद किए हैं, जैसे फ़रोग़ उर्दू कौंसल, दिल्ली के लिए उन्होंने तीन किताबें तर्जुमा कीं जिनका सम्बंध मनोविज्ञान से है। उन्होंने भिवानी भट्टाचार्य की अंग्रेज़ी किताब का उर्दू तर्जुमा किया है ये काम साहित्य अकादेमी दिल्ली के लिए अंजाम दिया। नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए जीलानी बानो की उर्दू कहानियों का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया। कुछ किताबों का हिन्दी से उर्दू में अनुवाद किया। ऐसे अहम काम के अलावा उनकी मूल पहचान एक कहानीकार की हैसियत से है। कहानियों के कई संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जैसे “पराए चेहरे”, “तारीक राहों के मुसाफ़िर” और “सदाए बाज़गश्त।”

मुहतरमा की कहानियों का जायज़ा लिया जाये तो एक बात तो आसानी से स्पष्ट होजाती है कि सहनुभूति उनकी हर कहानी का सार है। किसी इज़्म से उनका ताल्लुक़ नहीं। लेकिन इंसानियत की शीरीनी उनकी नसों में दौड़ती रहती है। इसलिए जीवन के प्रदूषण, उसकी गंभीर असमानता, शोषण सभी के साथ वो बरसर-ए-पैकार हैं लेकिन न तो उनके यहाँ प्रगतिशीलता का ऊंचा स्वर है और न ही आधुनिकता की अस्पष्टता। उनकी कहानियों में ज़िंदगी के उतार-चढ़ाव रचनात्मक पहलुओं से गुज़र कर आकर्षक बन जाते हैं। इसलिए उनके अध्ययन से आत्मा की शुद्धि होती है और दृष्टि में वृद्धि होती है।

कुछ अन्य महिलाओं की तरह ये मर्दों के ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठातीं लेकिन धुर्त समाज की व्यवस्था से संतुष्ट भी नहीं हैं, उसके ख़िलाफ़ वो चीख़ती नहीं हैं बल्कि अदेखे शोषण का एहसास दिलाती हैं। इसकी एक मिसाल उनकी कहानी “भेड़िए” है। दलितों और कमज़ोरों से उनकी हमदर्दी है और सामाजिक असमानता को वह ख़तरनाक समझती हैं। इसलिए वह पितृसत्तात्मक समाज से बिलकुल भी संतुष्ट नहीं और अपने असंतोष को कला के रूप में प्रस्तुत करने का गुण जानती हैं।

उनकी अब तक सत्तर(70) कहानियां प्रकाशित हो चुकी हैं। वह घटनाओं को पात्रों के द्वारा उजागर करती हैं। कसे हुए माजरा में उनका मंतव्य स्पष्ट होजाता है, कह सकते हैं कि उन्होंने ज़िंदगी को समझने और समझाने में अपने रचनात्मक रवय्ये को हमेशा सक्रिय रखा है। इस लिए पात्र, माजरा और दृश्य सब आपस में एक होजाते हैं बल्कि एक दूसरे में एकीकृत हो कर रचनात्मक अंतर्दृष्टि की सामग्री उपलब्ध करते हैं। ज़किया मशहदी की भाषा सहज और धाराप्रवाह है। पेचीदगी से अलगाव उनकी शैली की कामयाबी की ज़मानत है। इसलिए पढ़ने वाला कहीं भी अप्रसन्न नहीं होता और शुरू से अंत तक लेखिका के साथ शरीक रहता है। कह सकते हैं कि ज़किया मशहदी उर्दू की एक माया नाज़ कहानीकार हैं जिनकी संभावनाएं व्यापक हैं।

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