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लेखक: परिचय

मुफ़्ती सदरुद्दीन आज़ुर्दा ग़ालिब युग के एक प्रमुख और सम्मानित व्यक्ति थे। मुल्क पर अंग्रेज़ों के अधिकार करने से से पहले वो दिल्ली और आस-पास के इलाक़ों के मुफ़्ती थे और बर्तानवी दौर-ए-हकूमत में उन्हें सदर-उस-सुदूर के ओहदे से नवाज़ा गया,जो उस ज़माने में अंग्रेज़ों की तरफ़ से किसी हिंदुस्तानी को दिया जाने वाला सबसे बड़ा अदालती पद था। अपने सरकारी कर्तव्यों के इलावा मुफ़्ती साहब पठन-पाठन का सिलसिला भी जारी रखे हुए थे और उनके नामवर शागिर्दों में सर सय्यद अहमद ख़ां, यूसुफ़ अली ख़ां नाज़िम(नवाब रामपुर), मौलाना अबुलकलाम आज़ाद के वालिद मौलाना ख़ैर उद्दीन, नवाब सिद्दीक़ हसन ख़ान(भोपाल) और मौलाना फ़ैज़-उल-हसन ख़ान जैसे लोग शामिल थे। वो ग़ालिब के दोस्त होने के बावजूद ग़ालिब के कलाम को, उनकी मुश्किल-पसंदी की वजह से, पसंद नहीं करते थे। दोनों में अक्सर दिलचस्प नोक झोंक होती रहती थी लेकिन दोनों एक दूसरे से मुहब्बत भी करते थे। ग़ालिब पर जब क़र्ज़-ख़्वाहों ने उनकी अदालत में मुक़द्दमा दायर किया तो उन्होंने ख़ुद ग़ालिब का क़र्ज़ अदा किया और उनको मुक्ति दिलाई। इसी तरह जब शेफ़्ता के तज़किरा में आज़ुर्दा का नाम शामिल होने से रह गया तो ग़ालिब ने शेफ़्ता को उसकी तरफ़ तवज्जो दिलाई और उनका नाम शामिल कराया। आज़ुर्दा का व्यक्तित्व विशेषताओं और गुणों का संयोजन था। वो लब्द्प्रतिष्ठ विद्वान, छंद व व्याकरण, तर्क, दर्शन, गणित और अंकगणित, शब्दार्थ, अदब और निबंधों में महारत रखते थे। वो विद्वानों की मजलिस में सदर नशीं, शायरों की महफ़िल में मीर-ए-मजलिस, हुक्काम के जलसों में प्रतिष्ठित व प्रिय और ज़रूरतमंदों की ज़रूरतें पूरी करने वाले थे। वो अपने छात्रों के शिक्षक ही नहीं संरक्षक भी थे। सभी तज़किरा लेखकों ने उनका नाम आदर से लिया है।

आज़ुर्दा का नाम मोहम्मद सदर उद्दीन था। उनके वालिद मौलवी लुत्फ़ उल्लाह थे। आज़ुर्दा 1789 ई. में दिल्ली में पैदा हुए। इस्लामी क़ानून, सिद्धांत आदि धार्मिक ज्ञान की शिक्षा शाह वलीउल्लाह के बेटे मौलाना रफ़ी उद्दीन से हासिल की, जबकि शेष विषयों की किताबें मौलाना फ़ज़ल इमाम ख़ैराबादी से पढ़ीं। इस विद्वता और फ़तवा देने में उनकी शोहरत की वजह से ईस्ट इंडिया कंपनी की हुकूमत ने 1827 ई. में उनको सदर-उस-सुदूर का पद दिया। दिल्ली और आस-पास के इलाक़ों के शरई मामलों के फ़ैसले, स्कूलों के इम्तिहानात और अदालते दीवानी की सदारत उनके ज़िम्मे थी। इसके साथ ही वो अपने मकान पर छात्रों को छंद व व्याकरण, तर्क, अदब, गणित, न्यायशास्त्र और भाष्य की शिक्षा भी देते थे। जामा मस्जिद के नीचे मदरसा दारुल बक़ा के छात्रों को मुफ़्ती साहब वज़ीफ़े देते थे और उनकी ज़रूरियात पूरी करते थे। लेखन व भाषण की उत्कृष्टता और गंभीरता के साथ साथ मरव्वत, नैतिकता और एहसान उनकी खूबियां थीं। हर तरह के विद्वानों और शायरों की महफ़िल उनके यहां जमती थी। उर्दू-फ़ारसी और कभी कभी अरबी में शे’र कहते थे। मुशायरों में बाक़ायदगी से शरीक होते थे। मौलाना हाली समेत उनका कलाम सुनने वालों का बयान है कि वो बहुत दिलकश ऊंची, ग़मनाक और दर्द अंगेज़ आवाज़ से शे’र पढ़ते थे। उनका अपना बयान है कि “बहुत ज़्यादा व्यस्तताएं शे’र कहने की फ़ुर्सत नहीं देती लेकिन कभी कभी शे’र कहे बग़ैर नहीं रह सकता।” दीवान मुकम्मल नहीं हो सका या 1857 ई. के हंगामे में नष्ट हो गया, ये कहना मुश्किल है, लेकिन तज़किरों के चयन से अंदाज़ा होता है कि अक्सर हुरूफ़ की रदीफ़ में उर्दू और फ़ारसी की ग़ज़लें लिखीं। एक छोटा सा मुसद्दस भी उनकी यादगार है जिसमें उन्होंने 1857 ई. की घटना के बाद बेगुनाह क़त्ल किए जाने वालों के ग़म में आँसू बहाए हैं। 1857 ई. की जंग में उल्मा से जिहाद का फ़तवा लिया गया तो आज़ुर्दा को भी दस्तख़त करने पड़े। इस आधार पर अंग्रेज़ों ने, जीत पाने के बाद उनको गिरफ़्तार कर के सारी जायदाद ज़ब्त कर ली। चंद माह जेल में रहे, फिर पंजाब के चीफ़ कमिशनर जान लॉरेंस ने, जो दिल्ली में मुफ़्ती साहब पर मेहरबान था, उनको जुर्म से बरी कर दिया। कहा जाता है कि जिहाद के फ़तवे पर अपने दस्तख़त के नीचे उन्होंने “कतसिबत बिलजब्र” इस तरह लिखा था कि नुक़्ते नहीं लगाए थे, जिसे “ख़ैर’ भी पढ़ा जा सकता था और “जब्र” भी। बहरहाल उनका सामान और क़ीमती कुतुबख़ाना ग़ारत हो चुका था। अचल संपत्ति नष्ट हो गई। कुछ दिन बस्ती निज़ाम उद्दीन में रह कर पुरानी दिल्ली के अपने मकान में वापस आगए। वापसी पर उन्होंने पठन-पाठन का सिलसिला जारी रखा। उस ज़माने में बहुत ज़्यादा आर्थिक परेशानियों के शिकार रहे क्योंकि छात्रों के इलावा बहुत से दूसरे लोगों की ज़रूरतें अपने ज़िम्मे ले रखी थी। आख़िरी उम्र में फ़ालिज का हमला हुआ और एक दो साल तक इसी हालत में रहने के बाद 1868 ई. में 81 साल की उम्र में उनका देहांत हो गया। उनकी कोई संतान नहीं थी। अपने एक भांजे को गोद ले लिया था।

लब्द्प्रतिष्ठ विद्वान होने के साथ साथ आज़ुर्दा एक उच्च श्रेणी के शायर भी थे। उन्होंने जवानी में ही शायरी शुरू कर दी थी और शाह नसीर के शागिर्द हो गए थे। कभी कभी निज़ाम उद्दीन ममनून और मुजरिम मुरादाबादी से भी मश्वरा-ए-सुख़न करते थे। आज़ुर्दा का कोई संकलित दीवान मौजूद न होने के बावजूद विभिन्न तज़किरों में उनके जो अशआर मिलते हैं, वो उनका शायराना मर्तबा निर्धारित करने के लिए काफ़ी हैं। आज़ुर्दा ने सरल और सामान्य भाषा को अपनी काव्य अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। वो उच्च विषयों को फ़ारसी, अरबी तकनीकों और कठिन शब्दों का सहारा लिए बिना दिलचस्प अंदाज़ में व्यक्त करने में महारत रखते थे। आज़ुर्दा का काव्य सिद्धांत उनके ही शब्दों में ये था:

रेख़्ता ये है कि जूं आयत-ए-मुहकम है साफ़
मानी-ए-दूर नहीं लफ़्ज़ भी महजूर नहीं

उनके अशआर में दर्द, ख़्याल की बुलंदी, ज़बान की सफ़ाई और भावनाओं की सच्चाई स्पष्ट है।

आज़ुर्दा ने पढ़ी ग़ज़ल इक मैकदे में कल
वो साफ़ तर कि सीना-ए-पीर-ए-मुग़ां नहीं

आरज़ू के कलाम का सोज़-ओ-गुदाज़ उस सामाजिक और सांस्कृतिक क्रांति को दर्शाता है जिससे उस ज़माने की ज़िंदगी दो-चार थी। इस सम्बंध में उन्होंने एक दर्दनाक शहर-ए-आशोब भी लिखा है। आज़ुर्दा के यहां विषय आमतौर पर पारंपरिक हैं जिनमें वो अपनी फ़नकारी से नई रूह फूंक देते हैं: 
कामिल उस फ़िर्क़ा-ए-ज़ह्हाद से कोई न उठा
कुछ हुए तो यही रिन्दान-ए-क़दहख़वार हुए

उनके कलाम में उत्साह व ताज़गी भी है और प्रवाह व सहसापन भी, तर्ज़-ए-दिलबरी भी है और अंदाज़ दिलरुबाई भी। आज़ुर्दा के अशआर ख़ास-ओ-आम सब के लिए दिलकश और दिलचस्प हैं। उनका जो भी कलाम उपलब्ध है सब का सब चयन है:
जूं सरापा-ए-यार आज़ुर्दा 
तेरे दीवाँ का इंतख़ाब नहीं।

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