अहल-ए-ग़म से इशरत-ए-आलम का सामाँ हो गया
जब ज़मीं की दाग़ उभर आए गुलिस्ताँ हो गया
अपनी हद से बढ़ के जाता किस तरफ़ को दिल मिरा
जान पड़ते ही ये मुश्त-ए-ख़ाक बे-जाँ हो गया
इश्क़ के बा'द अब हवादिस की ज़रूरत क्या रही
आसमाँ दम ले मिरे मरने का सामाँ हो गया
हश्र में पहचान कर क़ातिल का मुँह तकने लगा
जब ज़रूरत होश की देखी तो हैराँ हो गया
ख़ुफ़्तगान-ए-ख़ाक कितना बे-महल सोए कि अब
मजमा-ए-अहबाब इक ख़्वाब-ए-परेशाँ हो गया
इंक़लाब आ कर मदद देते हैं इस्तेदाद को
करवटें बदलें लहू ने और इंसाँ हो गया
रास्ता वहशत को आख़िर मिल गया तंगी में भी
ये गरेबाँ था जो दो हाथों में दामाँ हो गया
वुसअ'त-ए-सहन-ए-जहाँ कुछ कम न थी ऐ इश्क़ दोस्त
क्यूँ घटा इतना कि दिल वालों को ज़िंदाँ हो गया
बाग़बाँ की राय में मैं बे-हक़ीक़त था मगर
बा'द मेरे आशियाँ दाग़-ए-गुलिस्ताँ हो गया
रुक चला है बीच में ख़ंजर इलाही ख़ैर हो
दम न निकलेगा अगर क़ातिल पशेमाँ हो गया
एक क़तरा बहर-ए-इस्याँ का था जो यूँ सर चढ़ा
पलते पलते दामन-ए-आलम में तूफ़ाँ हो गया
जब कोई आँसू मिज़ा पर आ के चमका शाम-ए-ग़म
मैं ये समझा सुब्ह का तारा नुमायाँ हो गया
शुक्र शाने का करूँ या सब्र को ढूँडूँ कहीं
ज़ुल्फ़ तो सिमटी मगर हाँ दिल परेशाँ हो गया
कम से कम पर आज राज़ी हैं शहीदों के मज़ार
आप हँस देंगे तो समझेंगे चराग़ाँ हो गया
जिस में लाखों फूल थे 'साक़िब' वो बाग़-ए-दिल-कुशा
एक ही गर्दिश में गर्दूं की बयाबाँ हो गया
स्रोत:
Deewan-e-Saqib (Pg. 165)
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लेखक:
Mirza Zakir Husain Qazlibaas Saqib Lucknowvi
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- संस्करण: 1998
- प्रकाशक: Urdu Acadami U.P.
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