मोहब्बत को न रक्खो दिल के नाज़ुक आबगीनों में
मोहब्बत को न रक्खो दिल के नाज़ुक आबगीनों में
ये ऐसा आब-ए-ज़म-ज़म है जिसे रखते हैं टीनों में
समुंदर का सफ़र कैसे करेंगे वो सफ़ीनों में
जो बुज़दिल डर के मारे डूब जाते हैं पसीनों में
बड़ी तशवीश फैली है वतन के तारकीनों में
उन्हें मिलती हैं सौ सौ धमकियाँ दो दो महीनों में
अजाइब-घर में रखिए ये किसी क़ारून का सर है
मिला है ये भी आसार-ए-क़दीमा के दफ़ीनों में
दिल-ए-गुम-गश्ता मेरा उन के बटवे से निकल आया
अबस ढूँडा किए हम आसमानों और ज़मीनों में
मुसल्लम है जनाब-ए-शैख़ की पाकीज़ा-दामानी
कि बिन पूछे चले जाते हैं वो पर्दा-नशीनों में
बिगड़ती है कभी क़िस्मत कभी बीवी कभी मोटर
यक़ीनन मुश्तरक है कोई सी इक चीज़ तीनों में
ख़ुदावंदा न जाने उन तिरे बंदों पे क्या गुज़रे
निकल आते हैं जीते जागते चूज़े मशीनों में
इधर डूबे उधर उभरे उधर उभरे इधर डूबे
मोहब्बत बहर है और अपना मस्कन सब-मरीनों में
ख़ुदा ही लाज रख लेता है बीमार-ए-मोहब्बत की
वो जब तशरीफ़ लाते हैं तो रोज़ों के महीनों में
जिन्हें इक़बाल ने सींचा था अपने ख़ून से 'बुलबुल'
हम अपने हल चलाने लग गए हैं उन ज़मीनों में
स्रोत:
Khanda-e-Gul (Pg. 147)
- लेखक: बुलबुल काश्मीरी
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- प्रकाशक: इदारा-ए-फ़रोग़-ए-उर्दू, लाहौर
- प्रकाशन वर्ष: 1987
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