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वा'दा-ख़िलाफ़ कितने हैं ऐ रश्क-ए-माह आप

असद अली ख़ान क़लक़

वा'दा-ख़िलाफ़ कितने हैं ऐ रश्क-ए-माह आप

असद अली ख़ान क़लक़

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    वा'दा-ख़िलाफ़ कितने हैं रश्क-ए-माह आप

    सच तो ये है कि झूटों के हैं बादशाह आप

    दफ़्तर सियाह करते हैं क्यूँ कातिब-ए-अमल

    हूँ मग़रिब गुनाहों का मैं रू-सियाह आप

    हम से तो दिल में आप के अब तक घर हुआ

    कर लेते हैं दिलों में ये किस तरह राह आप

    ये गह भी कफ़्श-ख़ाना है आख़िर हुज़ूर का

    तशरीफ़ याँ भी लाया करें गाह गाह आप

    महशर तलक रहेगा इन आँखों को शौक़-ए-दीद

    देखें कि अब दिखाते हैं ता-चंद राह आप

    तश्बीह नाम आँखों की है सूझना मुहाल

    सारी बयाज़ करते हैं ना-हक़ सियाह आप

    कुछ हुस्न ही हैं अफ़सर-ए-ख़ूबाँ नहीं हुज़ूर

    हैं मुल्क-ए-आन-ओ-नाज़ के भी बादशाह आप

    आरिज़ अभी हैं रूप पे ख़त आने दीजिए

    कर लीजिएगा फ़र्क़-ए-सफ़ेद-ओ-सियाह आप

    क्यूँ उस ने कू-ए-यार से बाहर निकाले पाँव

    मजनूँ हुआ है हाथ से अपने तबाह आप

    कलिमा पढ़े हुज़ूर का देखे जो सामरी

    रखते हैं ऐसी सेहर की चश्म-ओ-निगाह आप

    सब आशिक़ों के एक से होते नहीं चैन

    खोटा खरा परखने की रखिए निगाह आप

    दरमानदों का है कौन ब-जुज़ उन के दस्त-गीर

    अपने अपाहिजों को वो लेंगे निबाह आप

    मुझ रू-सियह की है ये दुआ वक़्त-ए-बाज़-पुर्स

    रखिएगा अपने लुत्फ़-ओ-करम पर निगाह आप

    उल्फ़त का क्या यही है नतीजा जहान में

    आशिक़ को क़त्ल करते हैं क्यूँ बे-गुनाह आप

    दिल दे के बहर-ए-फ़िक्र में हो ग़ोता-ज़न अबस

    दरिया-ए-इश्क़ की नहीं पाएँगे थाह आप

    अज़्म-ए-सफ़र तो मुल्क-ए-अदम का है 'क़लक़'

    कुछ अपने साथ ले भी चले ज़ाद-ए-राह आप

    स्रोत:

    Mazhar-e-Ishq (Pg. e-56 p-54)

    • लेखक: असद अली ख़ान क़लक़
      • संस्करण: 1911
      • प्रकाशक: मुंशी नवल किशोर, कानपुर

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