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मीर नासिर अली

शाहिद अहमद देहलवी

मीर नासिर अली

शाहिद अहमद देहलवी

MORE BYशाहिद अहमद देहलवी

    अल्लाह बख़्शे मीर नासिर अली दिल्ली के उन वज़ादार शरफ़ा में से थे। जिन पर दिल्ली को फ़ख़्र था। अजब शान के “बुज़ुर्ग” थे। बुज़ुर्ग मैंने उन्हें इसलिए कहा कि मैंने जब से होश संभाला उन्हें बुज़ुर्ग ही देखा। सूख कर चमरग़ हो गए थे। ख़श-ख़शी डाढ़ी पहले तिल चावली थी, फिर सफ़ेद हो गई थी। कतरी हुई लबें, पोपला मुँह, दहाना फैला हुआ, बेक़रार आँखें, माथा खुला हुआ, बल्कि गुद्दी तक माथा ही चला गया था। जवानी में सरो क़द होंगे, बुढ़ापे में कमान की तरह झुक गए थे। चलते थे तो पीछे दोनों हाथ बाँध लेते थे। मस्तानादार झूम के चलते थे। मिज़ाज शाहाना, वज़ा क़लंदराना। टख़नों तक लम्बा कुर्ता। गर्मियों में मोटी मलमल या गाड़े का, और जाड़ों में फ़लालेन या वाइल का। उसमें चार जेबें लगी होती थीं जिन्हें मीर साहब कहते थे, ये मेरे चार नौकर हैं गले में टपका या गुलू बंद, सर पर कभी कपड़े की पचख़ गोल टोपी और कभी साफ़ा। घर में रद्दी का कंटोप भी पहनते थे और उसके पाखे उलट कर खड़े कर लेते, जब चुग़ा पहनते तो इमामा सर पर होता। इक बुरा पाजामा, इज़ारबंद में कुंजियों का गुच्छा। पाँव में निरी की सलीम शाही, किसी साहब बहादुर से मिलने जाते तो अंग्रेज़ी जूता पाँव में अड़ा लेते।

    आप समझे भी ये मीर नासिर अली कौन हैं? ये वही मीर नासिर अली हैं जो अपनी जवानी में बूढ़े सर सय्यद से उलझते सुलझते रहते थे। जिन्हें सर सय्यद अज़राह-ए-शफ़क़त “नासा-ए-मुशफ़िक़” लिखते थे। “तहज़ीब-उल-अख़लाक़” के तजदीद पसंद रुजहानात पर इंतिक़ाद और सर सय्यद से सुख़न गसतराना शोख़ियाँ करने के लिए आगरा से उन्होंने “तेरहवीं सदी निकाला”, और नेचरियों के ख़िलाफ़ इस धड़ल्ले से मज़ामीन लिखे कि उनकी धूम मच गई। “तेरहवीं सदी” बंद हुआ तो “ज़माना”। “ज़माना” के बाद “अफ़साना-ए-अय्याम” और “अफ़साना-ए-अय्याम” के बाद “नासिरी” निकाला। ये बाद के दोनों पर्चे मीर साहब के छोटे भाई मीर नुसरत अली के नुसरत-उल-मताबे में छपते थे। जब मीर साहब पेंशन लेकर दिल्ली ही में रहने लगे तो उन्होंने अपना एक हैंड प्रेस लगा लिया और उसका नाम “मतबा नासिरी” रखा। 1908ई. में इसी मतबा से मीर साहब ने “सिला-ए-आम” शाए करना शुरू किया जो उनके साल-ए-वफ़ात 1933ई. तक छपता रहा। ये सब पर्चे आला उर्दू लिट्रेचर के लिए वक़्फ़ थे और उनमें बेश्तर मज़ामीन मीर साहब ही के होते थे।

    “सिला-ए-आम” के दो मुस्तक़िल उनवान थे “पैराया-ए-आग़ाज़” और “मज़मून-ए-परेशां।” “पैराया-ए-आग़ाज़” रिसाले का दीबाचा होता था जिसमें मीर साहब मज़ामीन नज़्म-ओ-नस्र का तज़्किरा बड़े अनोखे अंदाज़ में करते थे। मज़मून-ए-परेशां टुकड़े टुकड़े मज़मून होता था जिसका हर टुकड़ा एक मुकम्मल ख़याल पेश करता था। उसे दिल-ए-सद-पारा या हज़ार जामा समझना चाहिए। मीर साहब पच्चीस साल तक इन उनवानों के तहत ख़ुद लिखते रहे और नित नई बात कहते रहे। नाज़ुक ख़याली और पाकीज़ा बयानी उनका शेवा था। साहब-ए-तर्ज़ अदीब थे। उनके अंदाज़-ए-तहरीर पर बहुत सों को रश्क आया। बा’ज़ ने कोशिश करके नक़ल उतारनी चाही। तो वो फ़िक़रे भी लिखे गए और ख़ून थूकने लगे। उर्दू में इंशाइये लतीफ़ के मूजिद मीर साहब ही थे। उनका अंदाज़-ए-बयान उन्ही के साथ ख़त्म हो गया। ग़ज़ब की इल्मियत थी उनमें। अंग्रेज़ी, फ़ारसी और उर्दू की शायद ही कोई मारूफ़ किताब ऐसी हो जिस का मुताला मीर साहब ने किया हो। किताब इस तरह पढ़ते थे कि उसके ख़ास ख़ास फ़िक़्रों और पारों पर सुर्ख़ पेंसिल से निशान लगाते जाते थे और कभी कभी हाशिये पर कुछ लिख भी दिया करते थे। हज़ारों लाखों शे’र फ़ारसी और उर्दू के याद थे, हाफ़िज़ा आख़िर तक अच्छा रहा। अंग्रेज़ी अच्छी बोलते थे और उससे अच्छी लिखते थे। साठ पैंसठ साल उन्होंने इंशापर्दाज़ी की दाद दी।

    नमक के महक्मे में अदना मुलाज़िम भर्ती हुए थे, आला ओहदे से पेंशन ली। हुकूमत की नज़रों में भी मुअज़्ज़ज़ ठहरे, ख़ान बहादुर का ख़िताब मिला, दिल्ली में आनरेरी मजिस्ट्रेट रहे, और पाटौदी में नौ साल चीफ़ मिनिस्टर।

    मीर साहब फ़ारसी और उर्दू और अंग्रेज़ी के बहुत बड़े आलिम थे मगर अरबी वाजिबी ही जानते थे। उनके बाप दादा निहायत जय्यद क़िस्म के उल्मा में शुमार होते थे और मुनाज़रा करने में उन्होंने इतनी शोहरत पाई थी कि इमाम-उल-मुनाज़िरा कहलाते थे। मगर मीर साहब को मज़हबियात से कोई तब्ई’ मुनासिबत नहीं थी। उन्होंने बाप से छुप कर अंग्रेज़ी पढ़नी शुरू की थी। जब उनके वालिद को इसकी सुन गुन मिली तो बहुत नाराज़ हुए और उन्हें सख़्ती से मना किया। मगर मीर साहब का मुताला जारी रहा और इसकी पादाश में उन्हें घर से अलाहदा कर दिया गया। फ़रमाते थे कि “घर से निकलने के बाद हमने अरब सरा में पांच रुपये महीने की ट्यूशन करली। अरब सरा आने जाने में बहुत वक़्त लगता था, इसलिए हम ये करते थे कि घर से दो किताबें लेकर चलते। एक किताब जाते में ख़त्म कर देते और दूसरी आते में। यूं हमारा रास्ता भी कट जाता और हमारा मुताला भी हो जाता।” मुताले की आदत उन्हें सारी उम्र रही और सारी दुनिया का अदब और फ़लसफ़ा उन्होंने चाट लिया।

    मीर साहब को बहस मुबाहिसा की आदत बिल्कुल नहीं थी। सच कहते हो, सच कहते हो कह कर टाल जाते थे। अगर इत्तिफ़ाक़ से कहीं उलझना ही पड़ जाता तो उनके इल्म के समुंदर में ज्वार भाटा जाता। बस फिर हरीफ़ का जब तक बेड़ा ग़र्क़ कर लेते उन्हें चैन आता। अरबी की कमी को बा’ज़ दफ़ा बुरी तरह महसूस करते थे। माक़ूलात में तो भला कौन उनसे जीत सकता था। अलबत्ता जब कोई मनक़ूलात पर उतर आता तो मीर साहब एक दम से ख़ामोश हो जाते। फ़रमाते थे कि मौलवी साहब अरबी के हवाले देने लगते हैं, मैं इसलिए ख़ामोश हो जाता हूँ कि उनकी बात मेरी समझ में नहीं आती, और वो ये समझ कर ख़ुश हो जाते हैं कि देखो किस धड़ल्ले से क़ाइल किया।

    मीर साहब जब बातें करते तो मुस्कुराते भी जाते। उनकी बातें उमूमन हंसी मज़ाक़ ही की होती थीं। उन्हें कभी किसी से संजीदा गुफ़्तगू करते या इल्मी बहस करते मैंने नहीं देखा। हमेशा ज़राफ़त की कोई बात कहते, औरों को हंसाते और ख़ुद भी हंसते, मगर उनकी हंसी में आवाज़ नहीं होती थी। मौलवियों का मज़ाक़ अक्सर उड़ाते थे। एक दफ़ा जाने मौलवियों की बरात में कैसे जा फंसे। दुल्हन वालों ने बरात को खाना भी दिया था। मीर साहब दस्तर-ख़्वान पर तो बैठ गए मगर खाना उन्होंने नहीं खाया। उनके साथ उनका एक कम उम्र पोता था। उससे बोले, “तू खाले।” जब लड़का खा चुका तो मीर साहब बोले, “अबे जन्नत में झाड़ू नहीं देगा तो मौलवी नाराज़ हो जाएंगे।” ये कह कर एक जग़ादरी मौलवी की तरफ़ देखकर कहा, “क्यों साहब?” और फिर लड़के से बोले रिकाबी को इस तरह चाट कर तिस भी बाक़ी रहे।

    मीर साहब को अपनी बीवी से बड़ी मोहब्बत थी। हर साल अपनी शादी की सालगिरह मनाया करते थे। तीसरे पहर से घरवाले और क़रीबी अज़ीज़ जमा होने शुरू होते। खान-पान होता। बीवी दुल्हन बनतीं, मेहमानों के हाल में कर बैठतीं और मीर साहब उन्हें एक सोने की अँगूठी पहनाते। मुबारक सलामत का शोर मचता, हंसी मज़ाक़ की बातें होतीं और एक एक कर के रात गए तक मेहमान रुख़्सत होते। बीवी के इंतिक़ाल के बाद मीर साहब बीस पच्चीस साल जिए मगर उन्होंने दूसरी शादी नहीं की, और अदब-ओ-फ़लसफ़ा के मुताले में ज़्यादा मुनहमिक हो गए।

    मीर साहब की हवेली। हवेली काहे को महलसरा कहना चाहिए... के तीन हिस्से थे। ज़नाना, जिसमें कुशादा दालान दर दालान, मुग़ल मेहराबों वाले, उन पर टपा टपी के रुवे भरे दबीज़ पर्दे पड़े हुए। दालानों में दाएं बाएं कोठरियां थीं। पेश दालान के आगे सेहन चबूतरा। उसके पहलुओं में सख़चियां। नीचे के रुख़ दाएं जानिब एक सह दरी थी जिसमें किवाड़ लगा कर कमरा बना लिया था। उसमें उनकी छोटी बहू रहती थीं। दालानों के ऊपर आमने सामने दो बड़े कमरे थे जिनमें मीर साहब के बड़े बेटे और उनका कुम्बा रहता था। जहाँ ज़नाना मकान की हद ख़त्म होती थी, उसी से मिलवां एक और हिस्सा था जिसका एक दरवाज़ा ज़नाने के सेहन में खुलता था। उस हिस्से में एक दालान था और पहलू में कमरे थे। मकान के उस हिस्से में मीर साहब का कुतुबख़ाना और नवादिर ख़ाना था। ज़नानख़ाना और कुतुबख़ाने की पूरी लम्बान में बाज़ार के रुख़ एक चौड़ी पट्टी पर मर्दाना बना हुआ था। नीचे बारहज़ के रुख़ दुकानें और महलसरा का मुग़लई शानदार सदर दरवाज़ा था जिसके बड़े भारी किवाड़ों में पतीली गंज कीलें जड़ी हुई थीं और एक पट में खिड़की भी खुली हुई थी। उसके अंदर डेयुढ़ी थी जिसमें एक बड़े से तख़्त पर दरबान बैठा रहता था। यहीं से ज़नाना मकान और कुतुबख़ाने को रास्ते जाते थे, बालाख़ाने पर दाएं तरफ़ एक बरामदा था जिसमें मीर साहब का बेश्तर वक़्त गुज़रता था। उसके पीछे एक सिकुड़ा कमरा था जिसमें मीर साहब की मसहरी और किताबों और नवादिर की अलमारियां थीं। उसके पीछे एक चौकोर सा बड़ा कमरा या हाल था जिसमें अदबी नशिस्तें होती थीं। बाद में उसी हाल में बाक़ीमांदा कुतुबख़ाना और नवादिर ख़ाना मुंतक़िल हो गया था। क्योंकि नीचे सामान बहुत चोरी होने लगा था। मीर साहब की एक बेटी मअ अपने ख़ानदान के इस ख़ाली हिस्से में उठ आई थीं। ऊपर बाएं जानिब भी बरामदा और कमरा दर कमरा था। ये हिस्सा पहले मीर साहब के छोटे बेटे के तसर्रुफ़ में था, फिर उनके पोते मियां अंसार नासरी उसमें रहने लगे थे। ये पूरा मकान फ़र्राशख़ाना में नमक वालों की हवेली के नाम से मशहूर था। क्योंकि मीर साहब नमक के महक्मे में मुलाज़िम रहे थे।

    जब मीर साहब पेंशन लेकर दिल्ली गए तो ये हवेली बड़ी पुर रौनक़ हो गई थी। जहाँ तक मुम्किन होता था मीर साहब अपनी औलाद को अपने से जुदा होने नहीं देते थे। बड़े बेटे ने यके बाद दीगरे कई मुलाज़िमतें कीं, आख़िर हार कर घर बैठ रहे थे और सिला-ए-आम का सारा इंतज़ाम मीर साहब ने उन्हें सौंप कर दो सौ रुपये उनके मुक़र्रर कर दिए थे। छोटे बेटे मुलाज़िमत के सिलसिले में हमेशा बाहर ही रहे। ज़नाना घर में दो ब्याही त्याही बेटियां भी रहती थीं। मीर साहब बड़े सरीर चश्म और कुम्बा परवर आदमी थे। औलाद और औलाद की औलाद को तो ख़ैर भरते ही थे दूर परे के रिश्तेदारों का भी ख़याल रखते थे। एक साहब थे जो किताबत करते थे, ख़त बहुत अच्छा नहीं था मगर मीर साहब ने उन्हें सिला-ए-आम की किताबत करने के लिए रख लिया था। उन्ही साहब के एक साहबज़ादे थे उन्हें अपने मत्बा नासरी का मैनेजर मुक़र्रर कर लिया था। जनरल मैनेजर मीर साहब के बड़े साहबज़ादे थे। मत्बा नासरी नीचे मीर साहब ही की दुकानों में से एक में था।

    बालाख़ाना पर एक बहुत बड़ी खुली हुई छत थी। जो दोनों तरफ़ के अमले के दरमियान सेहन का काम देती थी। इस पर चारों तरफ़ फूलों के गमले लगे हुए थे और बेलें चढ़ी हुई थीं। बीच में बाज़ार के रुख़ एक गज़ ऊंची कुर्सी देकर संग-ए-मरमर का एक शह नशीन नस्ब किया गया था। उसमें बैठ कर बाज़ार की सैर की जा सकती थी और उसी हिस्से में कभी मुशायरे होते और कभी शब-ए-माह मनाई जाती।

    शब-ए-माह चौदहवीं के चांद में मनाई जाती थी। उसमें ख़ास एहतिमाम किया जाता था कि जहाँ तक मुम्किन हो हर चीज़ सफ़ेद हो। चुनांचे धूप ढलते ही छिड़काव किया जाता। शाम होते होते उजली उजली चांदनियों का फ़र्श हो जाता। चारों तरफ़ सफ़ेद गाव तकिए लग जाते। चंगेरों में चम्बेली और मोतिया के फूल रखे जाते। उधर चांद खेत करता इधर मेहमान सफ़ेद बुर्राक़ अंगरखे दरबर और सफ़ेद दो पल्लियाँ बरसर आने शुरू हो जाते और तकियों के सहारे बैठते जाते। पेचवानों से ख़मीरे की लपटें उठती रहतीं, चांदी की थालियों में गंगा-जमुनी डिब्बियां रखी होतीं। बड़ी डिबिया में पान, उससे छोटी में छालिया, उससे छोटी डिबियों में किसी में चौघड़ा इलायचियां, किसी में ज़र्दे की नन्ही नन्ही गोलियां वर्क-ए-नुक़रा में लिपटी हुईं। सफ़ेद बिल्लौर के आब दानों में बर्फ़ पड़ी हुई, उनके गिर्द गिलास सजे हुए। जलसा शुरू होने से पहले दूध के शर्बत का दौर चलता। उससे फ़ारिग़ होने के बाद मेहमानों ही में से किसी को सदर बना कर बिठाया जाता और महफ़िल-ए-मुशायरा शुरू हो जाती। ऐसे वैसे का यहाँ भला गुज़र कहाँ। दिल्ली के चीदा चीदा अह्ल-ए-कमाल बुलाए जाते थे। हिंदू-मुसलमान सभी शरीक होते थे। सब अपना अपना मुंतख़ब कलाम सुनाते और ख़ातिर-ख़्वाह दाद पाते। मीर साहब जैसे सुख़न संज से वाह वाह लेने के सब मुश्ताक़। मीर साहब का दाद देने का तरीक़ा सबसे निराला है। वो तड़प कर दाद देने के क़ाइल नहीं हैं। बड़े सुकून से शे’र सुनते हैं और बड़े इत्मिनान से दाद देते हैं। शे’र के एक एक लफ़्ज़ पर उनकी नज़र रहती है। भई वाह, ये लफ़्ज़ अच्छा आया। ये टुकड़ा इसमें ख़ूब कहा। पहला मिसरा तो शायद कोशिश कर के मैं भी कह लेता, मगर दूसरा मिसरा तो मैं कोशिश कर के भी नहीं कह सकता। अगर तुम यूं कहते तो मैं नाराज़ हो जाता। ग़रज़ कोई दो घंटे ढाई घंटे यह मुशायरा जारी रहता और इसी शाइस्तगी के साथ बर्ख़ास्त होता और सारे मेहमान मुतमइन-ओ-ख़ुश रुख़्सत होते।

    मीर साहब का कुतुबख़ाना एक ज़माने में दिल्ली के बेहतरीन कुतुबख़ानों में शुमार होता था। यूं तो उसमें तमाम उलूम की किताबें थी मगर तारीख़, अदब और फ़लसफ़ा की कुतुब का ज़ख़ीरा बेमिसल था। अफ़सोस कि इस कुतुबख़ाने की बहार उनकी ज़िंदगी ही में लुट चुकी थी। उसकी बेश बहा कुतुब चोरी हो कर कौड़ियों के मोल रद्दी ख़रीदने वाले कबाड़ियों में पहुँचती रहीं। मीर साहब अक्सर अपनी किताबें चौक से दुबारा ख़रीद लाया करते थे फिर वो अपने लुटने पर क़ाने हो गए थे। उनके इंतिक़ाल के वक़्त भी उनके लुटे घुटे कुतुबख़ाना में चार हज़ार किताबें थीं जो उनके विरसा में तक़्सीम हो गईं और उनका कुतुबख़ाना सख़ी के दिल की तरह साफ़ हो गया।

    नवादिर जमा करने का भी मीर साहब को शौक़ था। कुतुबख़ाने का एक हिस्स अजाइब ख़ाना बना हुआ था। उसमें क़लमी तस्वीरें, ख़त्ताती के नमूने, क़ितात, दस्तकारी के आला नमूने, तारीख़ी नवादिर, क़लमी किताबें, सिक्के और बा’ज़ बेहद क़ीमती चीज़ें शामिल थीं। कुतुब ख़ाना और अजाइब ख़ाना में किसी को जाने की इजाज़त नहीं थी। जब मीर साहब ख़ूब जाँच लेते थे कि वाक़ई कोई क़द्रदान पहुंचा है तो उसे अज़राह-ए-नवाज़िश ख़ुद अपने साथ ले जाते थे, और फिर ग़ज़ब ये करते कि उसका इम्तिहान लेते। अच्छा बताओ तुम्हें इस तस्वीर में क्या ख़ूबी नज़र आती है? मीर पंजाकश की इस वसली में तुमने क्या बात देखी? अगर किसी ने कोई क़रीने की बात जवाब में कह दी तो मीर साहब ख़ुश हो कर उसे एक एक चीज़ दिखाते, और अगर कोई एंडी बैंडी उसके मुँह से निकल गई तो मीर साहब की तबीयत मुकद्दर हो जाती और फ़रमाते क्यूं आप अपना और मेरा वक़्त ज़ाए करते हैं? ये आपके ज़ौक़ की चीज़ें नहीं हैं, कहीं और जाकर अपना जी बहलाइए। और बाहर लाकर उसे बड़ी रुखाई से रुख़्सत कर देते। इसी खरेपन से लोग मीर साहब से घबराते थे और अक्सर उन्हें सनकी समझते थे।

    मीर साहब का ताल्लुक़ चूंकि अंग्रेज़ अफ़सरों से रहता था इसलिए उन्ही को ख़ुश रखने की तदबीरें करते रहते थे। उनकी ये कमज़ोरी इस क़दर बढ़ गई थी कि जो भी अंग्रेज़ दिखाई देता उसे सलाम कर लेते, कहते थे कि क्या ख़बर कोई बड़ा अफ़सर हो या कल को यही कोई बड़ा अफ़सर बन कर जाए। फ़ुलां साहब को देखो न, पहले पॉलीटिकल डिपार्टमेंट में अदना अफ़सर थे, फिर महक्मा-ए-नमक में कमिशनर बन गए, और अब दिल्ली के चीफ़ कमिशनर बन कर गए हैं। मगर मीर साहब ने अपनी अंग्रेज़ परस्ती और हुक्कामरसी से कोई फ़ायदा नहीं उठाया। हमेशा उनकी ख़िदमत करने पर आमादा और उन पर एहसान करने की फ़िक्र में लगे रहे। एक दफ़ा बहुत कहने सुनने से अपने लड़के की सिफ़ारिश करने एक अंग्रेज़ अफ़सर के पास गए। वो मीर साहब का बड़ा पुराना क़द्रदान था। मीर साहब से मिल कर बहुत ख़ुश हुआ और बार-बार कहता रहा, “बताओ मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूँ?” और मीर साहब यही कहते रहे कि “मैं तो हुज़ूर के सलाम को हाज़िर हुआ था।” ग़रज़ सही गए और सलामत आए। घर वालों ने जब शिकवा किया तो बोले, “मैंने पहले ही कह दिया था कि मुझसे किसी की सिफ़ारिश नहीं हो सकती।” एक दफ़ा घरवालों ने मीर साहब को इस पर आमादा किया कि आप सिर्फ़ अपने लड़के को अपने साथ ले जाएं, सई सिफ़ारिश कुछ करें। मीर साहब बादल-ए-नाख़्वास्ता चले गए और साहब बहादुर उनसे मिलकर ख़ुश भी बहुत हुए, मगर जब उन्होंने पूछा, “ये आपका लड़का है?” तो मीर साहब की रग-ए-ज़राफ़त फड़क गई, बोले, “ये तो इसकी माँ बता सकती है।” बात क़हक़हों में उड़ गई और लड़के को बे नील-ए-मराम के अलावा पशेमान भी लौटना पड़ा।

    मगर मीर साहब अंग्रेज़ से बिल्कुल दब कर नहीं रह गए थे, कभी कभी उन्हें हरारा भी जाता था। एक दफ़ा किसी यूरोपी मुस्तश्रिक़ को सुलतान जी की दरगाह दिखाने ले गए। ख़्वाजा हसन निज़ामी ने दरगाह के दरवाज़े पर उनकी पज़ीराई की। अंग्रेज़ के जूते साफ़ कराके ख़्वाजा साहब ने दरगाह में दाख़िल कर दिया। मगर मीर साहब से कहा आप जूते उतार कर अंदर जाइए। मीर साहब इस इम्तियाज़ पर बरहम हो गए। बोले, “अगर जूते उतारना बेइज़्ज़ती है तो मैं इस गोरे के सामने बेइज़्ज़त हो कर अंदर जाना नहीं चाहता।” चुनांचे मीर साहब वहीं खड़े रहे और ख़्वाजा साहब अंग्रेज़ को दरगाह में घुमा लाए। वापसी पर ख़्वाजा साहब ने मीर साहब से कहा, “आप इमामा बाँधे हुए हैं और मौलवियों का चुग़ा भी है। फिर फ़ुल बूट क्यों पहने हुए हैं?” मीर साहब ने चटख़ कर जवाब दिया, “पाँव में पहना है सर पर तो नहीं ओढा और हाँ तुम ऐसे सवाल क्यों करते हो?”

    मीर साहब में पुराने फ़लसफ़ियों की सी बददिमाग़ी थी। कभी कभी उन पर ज़ड़ भी सवार हो जाती थी। हद है कि मीर साहब की बेटी की शादी हुई तो वक़्त-ए-रुख़्सत दूल्हे ने हाज़िर हो कर सलाम करने की इजाज़त चाही। मीर साहब ने इजाज़त नहीं दी। इस पर दूल्हे वालों में बड़ी चरग़म चरग़म हुई। दूल्हे के मामूं भी ख़ान बहादुर थे। उन्होंने कहला भेजा कि “अगर इजाज़त हो तो मैं मुलाक़ात के लिए हाज़िर हूँ?” इसका जवाब ये आया कि “आप मेरी तबीयत से वाक़िफ़ नहीं। मैं आपके मज़ाक़ से आश्ना नहीं, आप दूल्हे के मामूं ज़रूर हैं मगर उसके ये मानी तो नहीं कि आप मेरा और अपना दोनों का वक़्त ज़ाए करें। चुनांचे बरात यूँही रुख़्सत हो गई।”

    मीर साहब दरअस्ल अपने आगे किसी को गरदानते नहीं थे। नौजवानों से तो और भी भड़कते थे। एक ख़ासे नामी गिरामी अदीब दिल्ली आए तो फर्त-ए-अक़ीदत से मीर साहब के घर उनसे मिलने पहुँच गए। तौअन-ओ-क़रहन मीर साहब ने उन्हें बारयाबी की इजाज़त दी। उन्होंने निहायत अदब से झुक कर सलाम किया। जवाब मिला “बंदगी।” वो बेचारे सिटपिटा गए। घबराकर बोले, “सिला-ए-आम” मेरे नाम जारी कर दीजिए। ये पांच रुपये हैं चंदे के।” मीर साहब ने सर से पाँव तक उन्हें देखा और बोले, “सिला-ए-आम” तुम्हारी समझ में नहीं सकता।” ये कह कर फिर किताब पढ़ने लगे। अक़ीदतमंद ने बड़ी लजाजत से कहा, “आपको ज़हमत देने की माफ़ी मांगता हूँ।” मीर साहब ने तुनक कर कहा, “मियां साहबज़ादे माफ़ी क्या मांगते हो, भीक मांगो, भीक!” वो बेचारे अपना सा मुँह लेकर वहाँ से चले आए। ग़लत उर्दू सुन कर मीर साहब आपे से बाहर हो जाते थे।

    मीर साहब की नज़र एक एक लफ़्ज़ पर रहती थी। लिखने में ख़ुद इतने मोहतात थे कि जो कुछ लिखते थे उसे बार-बार पढ़ते थे, और अगले दिन सुबह को सबसे पहला काम ये करते कि अपने मज़मून की नोक पलक दुरुस्त करते। एक दिन एक साहब मज़मून लिख कर ले गए जिसका उनवान था “दाग़ की शायरी पर एक नज़र” मीर साहब ने उनवान देखते ही फ़रमाया “एक नज़र क्यों? दो नज़र क्यों नहीं?” ये कह कर मज़मून वापस दे दिया। यूं भी वो सिला-ए-आम में लगे बंधे आदमियों के मज़मून छापते थे। जो शख़्स नवाब साइल से बेधड़क कह देता हो “अबे यार तू तो नवाब है, शायर कहाँ है।” वो भला किसी और की क्या रखता।

    मीर साहब किताबों और पुरानी चीज़ों की तलाश में रोज़ाना अस्र के वक़्त फ़र्राशख़ाने से जामा मस्जिद तक पैदल जाया करते थे। आंधी जाये मेंह जाये उनका फेरा नाग़ा नहीं होता था। कमर पर हाथ बांधे ठेकियाँ लेते हुए जाते। पीछे पीछे एक मुलाज़िम होता जिससे घरेलू बातों से लेकर फ़लसफ़ियाना निकात तक बयान करते चले जाते, और वो जी हुज़ूर, जी हुज़ूर कहता रहता। चौक पर पहुँचते ही कबाड़िये और पुरानी किताबों वाले उन्हें घेर लेते। “नवाब साहब, यहाँ आइए। अजी डिप्टी साहब, देखिए क्या चीज़ रखी है मैंने आपके लिए। हुज़ूर देखिए कैसा तोहफ़ा माल लाया हूँ।” और मीर साहब एक एक चीज़ को देखते, मोलतोल करते और पैसों की चीज़ रूपों में ख़रीद कर ख़ुश ख़ुश घर लौटते। कभी बहुत मौज में होते तो किसी बराबर से गुज़रते हुए लौंडे के सर पर चपत जमा देते, वो पलट कर मोटी सी गाली देता तो ये उस गाली का मज़ा लेते। “ओहो हो हो, आहा हाहा हा। दिल्ली का रोड़ा है, क्या परी दिमाग़ पाया है।” करते आगे बढ़ जाते।

    अपने बच्चों से और बच्चों से मीर साहब को बड़ी मोहब्बत थी। यूं तो हवा समझ कर उनके पास एक भी नहीं फटकता था। मगर तीसरे पहर की चाय में सबको जमा होने का हुक्म था। इसलिए ख़ूब रोल चोल रहती। मज़े मज़े की बातें होतीं। दिन भर के घरेलू झगड़े क़िस्से चुकाए जाते, बिस्कुट, पनीर, नमकीन चीज़ों का दौर चलता। मीर साहब चाय के बड़े शौक़ीन थे। जिस ज़माने में चाय आठ आने पौंड बिकती थी। मीर साहब सर बन्द चाय पांच रुपये पौंड से कम की नहीं पीते थे। फ़रमाते थे कि इससे ज़्यादा की मुझमें हिम्मत नहीं। जब प्यालियों में चाय डाली जाती तो कहते, “सोने का पानी है, सोने का पानी” और जब उसमें दूध डाला जाता तो कहते, “ओ होहोहो, बादल उठ रहे हैं।”

    बददिमाग़ी के बावजूद कभी अपनी नाक़द्री का मलाल भी उन्हें ज़रूर होता था। फ़रमाते थे “कभी किसी अह्ल-ए-कमाल की उसके वक़्त में क़दर हुई है होगी। अब हर शख़्स की ज़बान पर ग़ालिब और मिर्ज़ा ग़ालिब है। ज़िंदगी में ग़रीब को कोई पूछता तक नहीं था। हमने देखा है कि किराये के अदना मकान में पड़े रहते थे। बेचारे को घर का घर नसीब हुआ आराम से खाना नसीब हुआ। ज़िंदगीभर मुसीबतें झेलते झेलते मर गए। अब ग़ालिब परस्ती शुरू हुई है, फ़रमाइये ग़ालिब के किस काम की?”

    सुनते चले आए हैं कि पहने जग भाता और खाए मन भाता, मगर मीर साहब पहनने और खाने दोनों में अपनी पसंद को तर्जीह देते थे। ख़ुश-ख़ुराक और नफ़ीस मिज़ाज आदमी थे। खाना पकाने पर रिकाबदार ख़ानसामां उनके हाँ नहीं रखा जाता था, मामाएं रखी जाती थीं। मीर साहब अज़राह-ए-तफ़न्नुन कहते थे कि जब तक आटा गूँधने में चूड़ियों की धुन शामिल हो रोटी में मज़ा कैसे सकता है? वैसे ऊपर के काम पर बुड्ढे और लड़के हमेशा नौकर रखे जाते थे। दोनों वक़्त का खाना ज़नाने में से पक कर आता था। सुबह और तीसरे पहर की चाय का एहतिमाम मर्दाने में ख़ुद करते थे।

    ये अजीब बात है कि मीर साहब को अपनी ज़िंदगी में औरत से कोई दिलचस्पी नहीं थी। बल्कि एक तरह से औरत से मुतनफ़्फ़िर कहे जा सकते हैं। उनके किसी पर्चे में औरत का कोई मज़मून या ग़ज़ल कभी नहीं छपी। कभी किसी ख़ातून का तज़्किरा तक उन्हें मंज़ूर था। दरअस्ल जब वो मर्दों ही को नहीं गांठते थे तो भला औरतों को क्या घास डालते। मगर उनकी ये नफ़रत बस इसी हद तक थी। वरना औरत की तारीफ़ में तो उन्होंने ऐसे ऐसे नफ़ीस नफ़्सियाती नुक्ते बयान किए हैं कि मेंहदी इफ़ादी जैसा बांका अदीब भी फड़क कर कहता है, “मैं आप में यूनानियों की सी लताफ़त-ए-ख़याल पाता हूँ।” और फिर मीर साहब ही के अंदाज़-ए-बयान से मुतअस्सिर हो कर अपना वो बेपनाह मज़मून पेश करता है जिसमें उसने फ़लसफ़ा-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ बयान किया है। मीर साहब के मज़ामीन में औरत के मुताल्लिक़ अनगिनत नस्र हैं। उनमें से चंद यहाँ नक़ल करता हूँ।

    “औरत जब मुँह फेर कर चलने के लिए उठ खड़ी हो तो उसके ये मानी हैं कि ये चाहती है कि कोई दौड़ कर दामन पकड़ले।”

    “औरत के लिए इस क़दर बस नहीं है कि मर्द का दिल हाथ में रखे बल्कि जब हाथ जाए तो तंग रखे कि यही नुस्ख़ा-ए-तस्ख़ीर है।”

    “अकेले मयनोशी ऐश में दाख़िल नहीं। किसी ग़ारत-गर-ए-दीन आफ़त-ए-होश के साथ अगर ये लुत्फ़ मुयस्सर हो तो ऐसे में रहमत-ए-इलाही पर ईमान रखना ज़ाे’अ्फ़-ए-अक़ाइद में दाख़िल है।”

    किसी के ख़याल में अपनी जान को ख़ुश रखना बुरा नहीं। ख़ास कर ऐसी मोहब्बत जिसमें यार का मुस्कुराना ये बताए कि,

    “न देख उस वक़्त मैं होती हूँ बदनाम-ए-मोहब्बत वो चीज़ है जो सामान-ओ-अस्बाब की मोहताज नहीं। मुहब्बत के लिए एक अकेला दिल चाहिए।”

    “औरत कैसी ही आवारा कयों हो मगर पारसाई पर जान देती है।”

    “हसीनों को शायरों से शायर मिज़ाज ज़्यादा पसंद हैं। उनके लिए मौज़ू नई तबा बेकार है। उनको इस ख़याल में मज़ा आता है कि किसी को हमारा ख़याल हुआ और हमें किसी का।”

    “वो हसीन भूलने की चीज़ी नहीं जो लड़कपन से निकलती जवानी में किसी के ख़याल में हो। ऐसी औरत को अपने चाहने वाले से ये सुनने की ताब नहीं कि रात ज़्यादा गई है। उसकी एक रात अलिफ़-लैला की हज़ार रात से बेहतर है।”

    “ये औरत जो दामन-ए-कुशाँ जा रही है इसको आपकी बेइल्तिफ़ाती का रंज है। ये चाहती है कि आप किसी और की तरफ़ देखें।”

    “हसीन औरत जब किसी से बच कर निकले तो उसका इस क़दर नुक़्सान नहीं जिस क़दर कि अपना है।”

    “आप ये समझें कि मर्द औरत से बाज़ी ले जाता है। मर्द अगर किसी औरत को दग़ा दे तो भी औरत ही का मारा समझिए।”

    “तमाम आलम में हसीनों की कमसिनी से ज़्यादा कोई चीज़ दिल से क़रीब नहीं। जिनकी खुली या बंधी सर की चोटियां दराज़ उम्र का जवाब हैं।”

    “ख़ुदा ने औरत को बित्तबा ऐशपसंद किया है। औरत के लिए ऐश सलतनत का जुलूस है।”

    “औरत के पाँव फर्श-ए-मख़मलीं चाहते हैं। मर्द के पैर कांटों के लिए बने हैं।

    “मसाइब में औरत का हाल शाख़-ए-गुल का सा है जो आंधी में झुक जाती है और जहाँ हवा थमी फिर सीधी हो गई।”

    “औरत का दिमाग़ हमेशा बहार का नमूना समझिए जिसमें ख़िज़ां को दख़ल नहीं।”

    “औरत जिस बात का इरादा करले कर गुज़रती है। इसलिए मुहब्बत में ज़्यादा लुत्फ़ उस मुहब्बत का है जो औरत की तरफ़ से हो कि अगर औरत चाहे तो सौ बहाने से मिलेगी। वही चाहे तो मिलना मालूम ये अगर चाहें तो फिर क्या चाहिए?”

    “कहते हैं कि मोहब्बत में होश नहीं रहता। मेरी राय में मर्द को होश नहीं रहता। औरत को होश रहता है।”

    “औरत को मालूम है कि मैं अकेली बेकार हूँ। मेरी ज़िंदगी का मदार दूसरे पर है जो ग़ैर जिन्स (मर्द) है।”

    “औरत जिसकी अमलदारी में रहती है उस पर हुकूमत करती है।”

    “ये बात औरत की आदत में दाख़िल है कि मुँह छुपाए और हुस्न-ए-इल्तिफ़ात का दावा करे।”

    “औरत को चुपके ही चुपके घर में जान देते सुना।”

    “मर्द इश्क़ करते हैं मगर औरत इश्क़-ए-मुजस्सम है।”

    “औरत में मुहब्बत के सिवा किसी चीज़ की क़ाबलियत ही नहीं।”

    “मुहब्बत बग़ैर औरत जी नहीं सकती। मर्द और तरह भी जी सकता है।”

    “औरत के दिल में मुहब्बत जिस क़दर जल्द असर करती है उसी क़दर देर-पा भी है।”

    “औरत के लिए निरी पारसाई काफ़ी नहीं। दिलरुबाई और दिलफ़रेबी भी ज़रूरी है।”

    मीर साहब की आदम बेज़ारी का एक सबब ये भी था कि तवालत-ए-उम्र की वजह से उनकी तक़रीबन सारे साथी एक एक करके उठ गए थे और वो इस भरी दुनिया में अकेले रह गए थे। हद ये कि उनके छोटे भी उनके सामने ही रुख़्सत हो गए। मौलवी नुसरत अली, मीर साहब के छोटे भाई जो तीन साल छोटे थे उनसे छः महीने पहले सद हार गए। ये भी अजब शान के बुज़ुर्ग थे। सौ से ज़्यादा उनकी तसानीफ़ हैं, एक लुग़त भी उन्होंने सात ज़बानों की मुरत्तब की थी। अपना छापाख़ाना और अपना अख़बार था। साल-हा-साल तक उनका अख़बार छपता रहा मगर आज नुसरत अली मरहूम को कोई भी नहीं जानता। ख़ुद मीर नासिर अली को लोग उनकी ज़िंदगी ही में भूल गए थे। उनके मरने पर जब नासिर नंबर साक़ी ने निकाला तो लोग चौंके कि हाएं, कोई इतना बड़ा अदीब भी था जो मर गया? कितनी बेरहम है मौत और कितना बेरहम है ज़माना! नासिर अली की मौत पर रियाज़ और दिलगीर जैसे दो-चार बुड्ढे ठड्डे रो लिये और बस। हमारी बेहिसी तो बफ़ज़्ल-ही उस देहाती औरत की तरह क़ाएम है जिसने अकबर बादशाह की सुनौनी सुन कर कहा था कि जब छेदू का बाप रहा तो अकबर कैसे रह जाता।

    मीर साहब बड़े समझदार आदमी थे। वो जानते थे कि बुढ़ापे में आदमी किस हद को पहुँच जाता है। किसी अंग्रेज़ी किताब में उन्होंने पढ़ा था कि बुढ़ापे में सबसे दूर रहना ही ठीक होता है। जब आदमी साठ साल का हो जाए तो उसे अपनी ज़िंदगी यकसर बदल लेनी चाहिए। अपनी सूरत शक्ल और लिबास का ज़्यादा ख़याल रखना चाहिए। उससे जी ज़रा हल्का रहता है, कोई कोई मशग़ला इस उम्र में ज़रूर होना चाहिए। साठ से नव्वे साल की उम्र तक जनाज़ों में शरीक नहीं होना चाहिए क्योंकि कभी ऐसा भी होता है कि किसी को दफ़नाने के बाद अपने दफ़नाए जाने की बारी जाती है। शादी ब्याहों में और आम जलसों में शिरकत मुनासिब नहीं होती। क्योंकि उन से उलझनें पैदा होती हैं और उलझनों से उम्र कम होती है।

    मेरे वालिद से मीर साहब के गूना-गूं ताल्लुक़ात थे, अज़ीज़दारी के, मज़मून निगारी के, वज़ीफ़ा ख़्वारों की अंजुमन के। मगर मीर साहब को मैंने उनके जनाज़े में नहीं देखा। बाद में पुरसा देने अलबत्ता आए थे। घर में दाख़िल होते ही बोले चला गया। हमारा यार चला गया। जल्दी चला गया। अच्छा आदमी था।

    मज़मून निगारी, मुताला और नवादिर जमा करना, ये सब मश्ग़ले ऐसे थे कि उनके बाद मीर साहब को तो किसी से मिलने की फ़ुर्सत होती थी ज़रूरत। बच्चों के बच्चों से उनका जी बहलता ही रहता था, कोई मिलने जाता तो उन्हें तबीयत पर जब्र कर के उससे मिलना पड़ता। जानते थे कि कम इल्मी की और बेकार बातें करेगा, इसलिए रुखाई से मिलते थे। तबीयत भी बड़ी बेनियाज़ पाई थी। सताइश की तमन्ना सिले की पर्वा। सारी उम्र उनके क़द्रदान उनसे इसरार करते रहे कि अपने मज़ामीन के मुंतख़ब मजमूए छाप दीजिए। मगर उन्होंने कभी इसका ख़याल भी नहीं किया। मीर साहब कोई साठ बरस के होंगे जब मेंहदी अफ़ादी ने मजमूआ-ए-मज़ामीन छापने के सिलसिले में उन्हें लिखा था।

    इस पाकीज़ा मजमूए की तर्तीब से उर्दू अदब-ए-आलिया में आपकी तरफ़ से मुसतक़िलन क़ीमती इज़ाफ़ा होता जो यादगार-ए-ज़माना रहता। आप माफ़ फ़रमाएंगे ये बदतरीन हक़-तलफ़ी थी जो आप अपनी कर सकते थे।

    ख़ुद मेंहदी ने उस मजमूए का नाम इफ़ादात-ए-नासरी भी तजवीज़ कर दिया था, मगर मेंहदी मर गए और मजमूआ शाए हुआ। इस तजवीज़ के कोई बीस साल बाद अंसार नासिरी और मैंने डरते डरते मीर साहब से इजाज़त चाही कि हम इस ख़िदमत को अंजाम दें। मीर साहब इस पर रज़ामंद हो गए थे और इफ़ादात-ए-मेंहदी भी उनकी नज़र से गुज़र चुकी थी। अंसार नासिरी ने मीर साहब की किताब का नाम इफ़ादात-ए-नासिरी रखना चाहा तो मीर साहब चीं ब-जबीं हो कर बोले मैं मेंहदी से घट कर नहीं रहना चाहता। मैं ने मक़ामात-ए-हरीरी और मक़ामात-ए-हमीदी के वज़न पर मक़ामात-ए-नासिरी सोचा है। मगर मीर साहब की अलालत का सिलसिला शुरू हो चुका था, वो इंतिख़ाब-ए-मज़ामीन का काम कर सके और फिर उनका वक़्त-ए-आख़िर पहुंचा, उनके मरने के बाद और बुहतेरे बखेड़े फैल गए और यह काम रह ही गया।

    मीर साहब वज़ादार ऐसे थे कि सारी उम्र उनके लिबास में कोई फ़र्क़ नहीं आया। सला-ए-आम 25 साल जारी रहा, पहला पर्चा जिस कातिब ने लिखा था आख़िर के पर्चे तक वही किताबत करता रहा। प्रेस मेँ भी शुरू से आख़िर तक एक ही रहा। आख़िर आख़िर में सिला-ए-आम की इशाअत जब बहुत कम हो गई तो सिर्फ़ सौ सवा सौ पर्चे छपते और क़द्रदानों में तक़्सीम हो जाते। मीर साहब उसके लिए दो सौ रुपये माहवार आख़िर तक देते रहे और पर्चा बंद करने को अपनी वज़ादारी के ख़िलाफ़ समझते रहे। अपने किसी पर्चे में कभी कोई इश्तिहार नहीं छपा। रोज़ाना शाम को जामा मस्जिद का फेरा ज़रूर होता था। जब तक उनके दोस्त अहबाब जीते रहे उनसे मिलने और बाज़दीद के लिए जाते रहे। नमाज़ पाबंदी से नहीं पढ़ते थे मगर जब पढ़ते तो बड़े ख़ुज़ू-ओ-ख़ुशू के साथ। कभी कभी यूँही सज्दे में पड़ जाते। ईद, बक़रईद के मौक़े पर घर के सब छोटे बड़ों को जमा करके ईदगाह ज़रूर जाते थे। आख़िरी बक़रईद के मौक़े पर सख़्त तकलीफ़ में मुब्तला थे मगर ईदगाह जा कर ही नमाज़ अदा की। ईद के दिन ख़ानदान के कुल अफ़राद को दोपहर के खाने पर जमा करते थे।

    मीर साहब को ब्रश से दाँत मांझने की आदत थी। एक एक करके सब दाँत रुख़्सत हो गए। आख़िर में सिर्फ़ एक दाँत रह गया था। उसके लिए भी ब्रश और क्रीम का एहतिमाम करते थे।

    मीर साहब को हज़ारों शे’र याद थे। शे’र का बरजस्ता मस्रफ़ उनसे बेहतर कहीं और नहीं देखा। लिखने में भी शे’र बहुत लिखते और बोलने में भी बात बात पर शे’र पढ़ते थे। जब हब्स बोल की शिकायत बढ़ गई तो मीर साहब ज़िंदगी से मायूस हो गए थे। फ़रमाते थे,

    “ख़त्म ही समझो ज़िंदगी के दिन कुछ वर्क़ और हैं फ़साने के”

    इंतिक़ाल से चार दिन पहले का वाक़िआ है कि मरजुल-मौत की शिद्दत में मुब्तला थे। ज़ोफ़ से आँख खुलती थी। उनके साहबज़ादे ने दिल बहलाने के लिए कहा देखिए, आपके बेटे बेटियां, पोते पोतियां, नवासे नवासियां, सब आपकी ख़िदमत के लिए जमा हैं। क्या उन्हें देखकर आपको ख़ुशी नहीं होती? मुतबस्सिम हो कर बोले,

    “हो ग़म ही जांगुदाज़ तो ग़मख़्वार क्या करे?”

    मरने से कुछ देर पहले जब उनसे पूछा गया कि “आपकी तबीयत कैसी है?” तो फ़रमाया,

    सफ़ीना जब कि किनारे पे लगा ग़ालिब

    ख़ुदा से क्या सितम वजूद-ए-नाख़ुदा कहिए!

    मीर साहब की आख़िरी आरज़ू उनके एक ख़त में दर्ज है। ये ख़त उन्होंने अपने बेटे इंतिसार अली साहब को लिखा था।

    ख़त की नक़ल हासिल करके दर्ज की जाती है,

    बेटा

    मेरी एक आरज़ू ये है कि कुतुबख़ाने वाला मकान तकल्लुफ़ से आरास्ता हो जाएगी, और मैं दिन रात वहीं पड़ा रहूं। तुम अगर साथ चाय पीने जाओ तो क्या कहना मगर कोई मामूली ज़िक्र किसी का हो। खाना, जब मुझे भूक लगे पका पकाया मिल जाए, और कोई लड़की आकर खिला जाए। कोई नायाब किताब या चीज़ नज़र आए तो मुझे इतना मक़दूर हो कि फ़ौरन ख़रीद लूं। रात को बेफ़िक्र सोऊँ और सुबह ख़ुश उठूँ। कोई मसला फ़िलॉसफ़ी का जो समझ में आता हो उसे समझ लूं और दूसरों को समझा सकूँ। दुनिया की जितनी किताबें दिल-ओ-दिमाग़ को ख़ुश कर सकें सब मेरे पास हों। जाड़े में अंगीठी हो और गर्मी में बर्फ़। बरसात में कमरे के अंदर बैठा हूँ और वो टपकता हो। रात को जलाने के वास्ते ख़ूबसूरत CANDLE STICK की रोशनी हो, और जो किताब मुझे पसंद हो वो मेरे सामने हो। तुम इतना सामान मेरे लिए कर दो तो I WILL DIE HAPPY।

    ये नफ़ीस मिज़ाज इंसान 1933ई. में हमसे रुख़्सत हो गया, सीमाब अकबराबादी ने मीर नासिर अली ख़ां से तारीख़-ए-वफ़ात 1353 हिजरी निकाली।

    स्रोत:

    Ganjeena-e-Gauhar (Pg. 28)

    • लेखक: शाहिद अहमद देहलवी
      • प्रकाशक: मकतबा नया दाैर, कराची
      • प्रकाशन वर्ष: 1962

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