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मीराजी

MORE BYशाहिद अहमद देहलवी

    दिल्ली और लाहौर हमारे लिए घर आंगन था। जब जी चाहा मुँह उठाया और चल पड़े। खाने दाने से फ़ारिग़ हो रात को फ्रंटियर मेल में सवार हुए और सो गए। आँख खुली तो मालूम हुआ कि गाड़ी लाहौर पर खड़ी है। साल में कई कई फेरे लाहौर के हो जाते थे। लाहौर अदीबों की मंडी था। सर सय्यद ने उन्हें ज़िंदा दिलान-ए-पंजाब कहा और वाक़ई ये मालूम होता था कि इस खित्ते में ज़िंदगी उबलती है और गुनगुनाती गाती फिरती है। कितना ख़ुलूस था यहाँ के लोगों में और कितनी मुहब्बत! टूट कर मिलते, हाथों हाथ लेते और सर आँखों पर बिठाते। हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई सब एक ही थैली के चट्टे बट्टे थे। इनमें तीर मीर नहीं आई थी। अदीब और शायर निरीह अदीब-ओ-शायर ही थे। वो जो किसी ने कहा है कि आर्टिस्ट का कोई मज़हब नहीं होता, उसकी तस्दीक़ लाहौर ही में होती थी। और सच भी है, आर्टिस्ट का मज़हब तो आर्ट ही होता है। अब की मुझे ख़बर नहीं, ये कोई सत्तरह अठारह साल उधर की बातें हैं। अब तो ज़मीन आसमान ही बदल गए तो भला अदब-ओ-शे’र की क़दरें क्यूं बदली होंगी? ख़ैर कुछ होगा। ये वक़्त इस बहस में पड़ने का नहीं।

    हाँ तो अच्छे वक़्त थे, अच्छे लोग थे। उनसे मिलकर जी ख़ुश होता था, एक-बार मिलते, दोबारा मिलने की हवस! और सच तो ये है कि उनमें से बा’ज़ के साथ बरसों यकजाई रही और जी नहीं भरा। बल्कि उनसे बे मिले चैन नहीं पड़ता था। बेग़रज़ मिलते, जी खोल कर मिलते, उजली तबीयतें थीं। बा’ज़ दफ़ा बड़ी नागवार बातें भी हो जातीं। मगर क्या मजाल जो आँख पर ज़रा भी मैल आजाए। तुमने हमें कह लिया हमने तुम्हें कह लिया। लो दिल साफ़ हो गए। अच्छे लोगों में यही होता है। ज़माना सदा एक सा नहीं रहता। जब तक बंधन बंधा हुआ है बंधा हुआ है। जब टूटा सारी तीलियाँ बिखर गईं। जो दम गुज़र जाए ग़नीमत है। अब वो दिन जब भी याद आते हैं तो दिल पर साँप सा लोट जाता है। यही क्या कम अज़ाब था कि एक दूसरे से बिछड़ गए। अब उनकी सुनावनी सुनने को कहाँ से पत्थर का दिल लाऊँ। बुड्ढे मरे, उन्हें तो मरना ही था। मीर नासिर अली मरे, नासिर नज़ीर फ़िराक़ मरे। मीर बाक़र अली दास्तानगो मरे, अल्लामा राशिद-उल-ख़ैरी मरे, मौलाना इनायतुल्लाह मरे, किस-किस को गिनाऊँ? एक हो तो बताऊँ। उन्होंने अच्छी गुज़ारी और उम्र-ए-तबई को पहुँच कर मरे। मगर जवानों का मरना क़यामत है।

    अलबेला रफ़ीई, हंसमुख चुग़ताई, अजूबा अफ़साना निगार रफ़ीक़ हुसैन, अब आख़ीर आख़ीर में रूमाने अख़्तर, और अब पुरअसरार मीराजी! हाय कैसा कड़ियल जवान था, ये कैसे लोट गया? हो हो उसे तो ज़माने की नज़र खा गई।

    गर पीर-ए-नवद साला ब-मीरद अजबे नीस्त!

    ईं मातम-ए-सख़्त अस्त कि गोयन्द जवाँ मर्द

    बम्बई से ख़बर आई कि मीराजी किसी हस्पताल में मर गया। इन्ना-लिल्लाहे-वइन्नाइलैहि-राजिऊन। बेकसी की मौत! माँ-बाप, भाई-बहन, दोस्त-अहबाब, सब के होते सोते परदेस में बे-कसी की मौत!

    आसमां रा हक़ बोवद गर ख़ूँ ब-बारद बर ज़मीं

    लेकिन नहीं। मैं तो जज़्बात की रौ में बह गया। ये तो होना ही था। अगर ये होता तो तअज्जुब होता। जो यूं होता तो मीराजी की अज़मत में फ़र्क़ जाता। उसकी अज़ीम शख़्सियत का ऐसा ही इबरतनाक अंजाम होना चाहिए था। इबरतनाक उसके लिए नहीं हमारे लिए। ज़माने की यही रीत है। रोना उसका है कि वो अज़ीम शायर, वो अज़ीम निसार, वो अज़ीम हुस्नकार अब हम में नहीं है। अब वो वहाँ है जहाँ हमारी आरज़ूएं रहती हैं।

    हक़ मग़्फ़िरत करे अजब आज़ाद मर्द था

    मौत ने उसे किस क़दर प्यारा बना दिया,

    पैदा कहाँ हैं ऐसे परागंदा तबा’ लोग

    अफ़सोस तुमको मीर से सोहबत नहीं रही

    सन् तो ठीक याद नहीं, हाँ पंद्रह सोलह साल उधर की बात है, मैं हस्ब-ए-मामूल लाहौर गया। ये वो ज़माना था कि नैरंग-ए-ख़याल गिर रहा था और अदबी दुनिया उभर रहा था। कृश्न चंदर, और राजेंदर सिंह बेदी ख़ूब ख़ूब लिख रहे थे। सलाहुद्दीन अहमद और मीराजी की इदारत में अदबी दुनिया इस नफ़ासत से निकल रहा था कि देखने दिखाने की चीज़ होता था। मीराजी की शायरी से मुझे कुछ दिलचस्पी तो नहीं थी मगर एक अजूबा चीज़ समझ कर मैं उसे पढ़ ज़रूर लेता था। उसे समझने की अहलियत तो उस वक़्त थी और अब है। उस के मुख़्तसर से मुख़्तसर और तवील से तवील मिसरे ख़्वाह-मख़्वाह जाज़िब-ए-नज़र होते थे। छोटे से छोटा मिसरा एक लफ़्ज़ का और बड़े से बड़ा मिसरा उतना कि अदबी दुनिया के जहाज़ी साइज़ की एक पूरी सतर से निकल कर दूसरी सतर का भी आधा पौना हिस्सा दबा लेता था। ख़ैर, तो मतलब वतलब तो ख़ाक समझ में आता था। अलबत्ता मीराजी की नज़्म में वही कशिश होती थी जो एक मामे में होती है मगर उनकी नस्र में बला की दिलकशी होती थी। मशरिक़ के शायरों और मग़रिब के शायरों पर उन्होंने सिलसिलेवार कई मज़ामीन लिखे थे और सब के सब एक से बढ़ चढ़ कर। इसके अलावा अदबी जायज़े में जिस दिक्कत-ए-नज़र से मीराजी काम लेते बहुत कम सुख़न फ़हम उस हद को पहुँचते। हाँ तो मैं लाहौर गया तो माल रोड पर अदबी दुनिया के दफ़्तर भी गया। कमरे में दाख़िल हुआ तो सलाहुद्दीन अहमद नज़र नहीं आए। सामने एक अजीब वज़ा का इंसान बैठा था। ज़ुल्फ़ें छोटी हुई, खुली पेशानी, बड़ी बड़ी आँखें, सुतवां नाक, मौज़ूं दहाना, कुतरवां मूँछें, मुंडी हुई डाढ़ी, ठोड़ी से अज़म टपकता था। नज़रें बनफ़्शी शुआओं की तरह आर पार हो जाने वाली। ख़ासी अच्छी सूरत शक्ल थी। मगर जाने क्या बात थी कि मुवानसत की बजाय रमीदगी का एहसास हुआ। गर्मियों में गर्म कोट! ख़याल आया कि शायद गर्म चाय की तरह गर्म कोट भी गर्मियों में ठंडक पहुँचाता होगा, दिल ने कहा हो हो मीराजी हो। ये तो उस शख़्स की शायरी से ज़ाहिर था कि ग़ैर-मामूली इंसान होगा। पूछा, “सलाहुद्दीन अहमद साहब कहाँ हैं?” बोले, “कहीं गए हुए हैं।” पूछा, “आप मीराजी हैं?” बोले, “जी हाँ।” मैंने अपना नाम बताया। तपाक से मिले। कुछ देर उनसे रस्मी सी बातें हुईं। उनके बोलने का अंदाज़ ऐसा था जैसे ख़फ़ा हो रहे हों, नपे तुले फ़िक़रे एक ख़ास लहजे में बोलते और चुपके हो जाते। ज़्यादा बात करने के वो क़ाइल थे, और उन्हें तकल्लुफ़ की गुफ़्तगू आती थी। पहला असर ये हुआ कि ये शख़्स अखिल खरा है, दिमाग़ चोइटा है। मुख़्तसर सी बातचीत के बाद इजाज़त चाही। बाहर निकले तो मेरे साथी ने कहा, “अरे मियां ये तो डाकू मालूम होता है। इसने ज़रूर कोई ख़ून किया है, देखा नहीं तुमने? उसकी आँखें कैसी थीं?” मैंने कहा, “ये तो अल्लाह ही को मालूम है कि वो क्या है। मगर आदमी अपनी वज़ा का एक है।”

    थोड़े ही अरसा बाद उनसे दोबारा मुलाक़ात हुई। अब के दिल्ली में। रेडियो पर वो तक़रीर करने आए थे। मुझसे मिलने मेरे घर आए। जब गए तो बहुत कुछ पहला असर ज़ाइल कर गए। आदमी तो बुरा नहीं है। दिमाग़ चोइटा भी नहीं है वरना मिलने क्यूँ आता? फिर एक दफ़ा आए और बोले कि, “रेडियो में मुलाज़िमत के लिए बुलाया है।” मुझे कुछ तअज्जुब सा हुआ कि ये शख़्स रेडियो में क्या करेगा? बहरहाल मालूम हुआ कि गीत लिखेंगे और नस्र की चीज़ें भी। तनख़्वाह डेढ़ सौ मिलेगी। मैंने कहा तनख़्वाह कम है। “अदबी दुनिया में आपको क्या मिलता था?” बोले, “तीस रुपये।” मैंने हैरत से कहा, “बस!” कहने लगे, “मौलाना से दोस्ताना तअल्लुक़ात थे।” मैंने कहा, “तो ठीक है। हिसाब-ए-दोस्तां दर-ए-दिल।” मालूम हुआ कि बीवी बच्चे तो हैं नहीं क्योंकि शादी ही नहीं की। अपने खर्चे भर को डेढ़ सौ रुपये बहुत थे। चुनांचे मीराजी रेडियो में नौकर हो गए और उनसे अक्सर मुलाक़ात होने लगी और उनकी नज़्में और मज़ामीन “साक़ी” में छपने लगे। रेडियो में उस वक़्त अच्छे अच्छे अदीब और शायर जमा हो गए थे। नून मीम राशिद, कृश्न चंदर, मंटो, चराग़ हसन हसरत, उपेन्द्रनाथ अश्क, अंसार नासिरी, मीराजी, अख़्तर-उल-ईमान वग़ैरा सब ख़ूब लिख रहे थे। और दिल्ली रेडियो का तूती बोल रहा था। राशिद साहब के मश्वरे से मीराजी ने दो एक सूट भी सिलवाए थे मगर उन्हें कपड़े पहनने का कभी सलीक़ा आया। अजीब उल्लू उल्लू मालूम होते थे। मारे बाँधे से कहीं कपड़े पहने जाते हैं? कुछ मुद्दत बाद मीराजी फिर अपनी पुरानी धज पर आगए। निहायत मोटे और भद्दे पट्टू का अचकन नुमा कोट और उसी का पतलून, जाड़ा, गर्मी, सब में यही गर्म लिबास चलता था।

    रेडियो के मुसव्विदात लिखने में मीराजी को काफ़ी महारत हो गई थी और हस्ब-ए-ज़रूरत बे-तकल्लुफ़ लिख लेते थे। गीत रेडियो ही में आकर लिखे और इतने कि उनका मजमूआ गीत ही गीत के नाम से शाए हुआ। नस्र में भी साहब-ए-तर्ज़ थे। अंदाज़-ए-फ़िक्र फ़लसफ़ियाना और तर्ज़-ए-बयान इंशा पर्दाज़ाना था। नज़्में जब कहने पर आते थे तो कई कई कह लेते थे। मगर ख़ुदा जाने कब कहते थे और किस कैफ़ियत में कहते थे। चंद नज़्में ख़ुद उनसे समझीं तो समझ में आईं और बा’ज़ ख़ुद उनकी समझ में भी नहीं आईं। ग़ज़लें भी कहीं हैं और बहुत सुथरी।

    फ़िलबदीह भी कहते थे। अशआर के मुआमले में मेरा हाफ़िज़ा कमज़ोर है, सिर्फ़ एक मिसरा उनका चिपक कर रह गया, वो भी अपने अजब की वजह से। और कुछ नहीं तो इससे उनकी हाज़िर दिमाग़ी और क़ादर-उल-कलामी ज़रूर ज़ाहिर होती है। हम चंद दोस्त चाय पीने किसी होटल में दाख़िल हुए। एक साहब ने चाय पीने से इनकार कर दिया ये कह कर कि इतनी तो गर्मी पड़ रही है। दूसरे साहब बोले गर्मियों में गर्म चाय ठंडक पहुंचाती है। फिर चाय वालों के मक़ूलों पर बात चल निकली। किसी ने कहा अगर अशआर में मक़ूले बांधे जाएं तो बेहतर दूसरे बोले अशआर में भी हैं मसलन,

    एक पैसा माँ से लो

    इतनी चाय बाप को दो

    या...

    ये शख़्स और इसका भाई

    पीते हैं रोज़ाना चाय

    भाई के क़ाफ़िए चाय पर सब सर धुनने लगे। फिर किसी ने कहा गर्मियों में गर्म चाय ठंडक पहुंचाती है भी दरअस्ल चाय वालों का मिस्रा ही होगा। किसी ने कहा ये तो मिस्रा किसी तरह बन ही नहीं सकता। मीराजी अब तक चुपके बैठे थे। बोले, मिस्रा तो बन सकता है।

    गर्मियों में गर्म चाय ठंडक पहुंचाती है। डक

    इस पर ख़ूब क़हक़हा पड़ा। वाक़ई तो कोई लफ़्ज़ बढ़ा और घटा। हल्दी लगी फिटकरी रंग चोखा गया।

    मीराजी मुशायरों और मजलिसों में नहीं जाते थे। यूं भी वो बहुत कम-आमेज़ थे। और बड़े आदमियों से मिलना तो आर समझते थे। बड़े आदमियों के बड़ेपन के वो कभी क़ाइल नहीं हुए और किसी से मरऊब होना तो वो जानते ही नहीं थे। अफ़सरों के बारे में वो कहते थे कि ये दफ़्तर में तो अफ़सर होते ही हैं। दफ़्तर के बाहर भी अफ़सर ही बने रहना चाहते हैं। दफ़्तर के होटल तक में उनकी कुर्सियां मख़सूस हैं। बुख़ारी की कुर्सी पर बैठना सो अदब है, अदबी मजलिसों में सदर मुक़ाम उनके लिए ख़ाली रखे जाते हैं। अफ़सफ़्सर हर जगह अफ़सर बना रहता है। आदमी कभी नहीं बनता।

    मीराजी का मुताला बहुत वसी था। सुना है कि लाहौर की दयाल सिंह लाइब्रेरी वो चाट चुके थे। दिल्ली आकर उनके मुताले का शौक़ ग़र्क़-ए-मय-ए-नाब हो गया था। नस्र की किताबों में अलिफ़-लैला के आशिक़ थे। उर्दू सही बोलते थे और सही लिखते थे। ग़लती की पिच कभी करते थे। अरूज़ से ख़ूब वाक़िफ़ थे और जुमला अस्नाफ़-ए-शे’र पर हावी। एक दफ़ा एक स्टेशन डायरेक्टर ने उनके किसी मिस्रा पर एतिराज़ किया कि नामौज़ूं है। उसे तो तक़्ती करके बता दिया कि मौज़ूं नहीं है, बाहर निकल कर कई दिन तक उसे गालियां देते रहे कि ये अपने आपको अफ़सर तो समझता ही है शायर भी समझने लगा। मीराजी में चापलूसी की आदत बिल्कुल नहीं थी। और अफ़सरों का आगा तागा लेना भी वो सख़्त मायूब समझते थे। अफ़सरों में राशिद के बहुत गुरवीदा और मद्दाह थे या फिर महमूद निज़ामी के। राशिद ने मीराजी को बहुत निभाया। उस वक़्त भी जब कि मुझ समेत सबने उनका साथ छोड़ दिया था।

    शराब की लत ख़ुदा जाने मीराजी को कहाँ से लगी? जब लाहौर में उन्हें तीस रुपये मिलते थे तब भी वो पीते थे। और जब दिल्ली आए और पांच गुनी तनख़्वाह मिली तो और ज़्यादा पीने लगे। पहले रात को पीते थे, फिर दिन को भी पीने लगे, फिर हर वक़्त पीने लगे। सोडा या पानी मिलाने की ज़रूरत भी नहीं रही थी। यूंही बोतल से मुँह लगा कर गटागट चढ़ा जाते थे। जब रेडियो स्टेशन पर आते तो एक हाथ में कापियां और किताबें होतीं और दूसरे में अटैची केस। उसमें बोतल रखी रहती थी। ज़रा देर हुई और कहीं जा कर पी आए। उस शराब ने मीराजी को तबाह कर दिया और उनमें वो तमाम ख़राबियाँ आती गईं जो बिल आख़िर उनकी अख़लाक़ी मौत का बाइस बन गईं। इधर तनख़्वाह मिली और उधर क़र्ज़-ख़्वाहों और शराब में ख़त्म। फिर एक एक से उधार मांगा जा रहा है। मीराजी के क़द्रदानों ने उन्हें संभालने की बहुत कोशिश की मगर वो नहीं माने और गिरते ही चले गए। फिर ये नौबत आई कि क़र्ज़ मिलना बंद हो गया। उन्होंने अपने मज़ामीन और नज़्मों की किताबें मुरत्तब कर कर के बेचनी शुरू कीं। इसमें मुझसे साबक़ा पड़ा। एक किताब ले ली, दो ले लें, घर पे हर महीने या दूसरे महीने एक मजमुआ लेकर पहुँच जाते। मैं इनकार करता और वो इसरार, मैं उन्हें समझाता कि मीराजी मैं आपकी किताबें नहीं छाप सकता, मेरे पास बीसियों मुसव्वदे ख़रीदे हुए रखे हैं, उनके छपने की नौबत भी नहीं आती, काग़ज़ नायाब है। मगर वो कुछ ऐसे बहाने तराशते कि मुझे मजबूरन उनसे मुसव्वदा ख़रीदना पड़ता। कभी बाप की बीमारी की ख़बर सुनाते, कभी भाई की तालीम की मजबूरी बयान करते, कभी कहते वालिद की आँखें जाती रहीं, ऑप्रेशन होगा। मैं इनकार करता तो इतने हरासाँ होते कि उन पर तरस आने लगता। कई दफ़ा उन्हें ये भी समझाया कि मीराजी आप अपने मुसव्वदे मुझे सस्ते दे जाते हैं। आप किसी और को दीजिए तो रुपये भी ज़्यादा मिलेंगे, मगर उन्हें ज़िद थी कि नहीं मैं किसी और को अपनी किताब नहीं दूँगा। मैं ने उनसे एक एक करके आठ मुसव्वदे लिए जिनमें से सिर्फ़ तीन शाए हो सके। बाक़ी दिल्ली बुरद हुए। आख़िरी क़िस्त जब उन्होंने रूपों की मुझसे मांगी तो मैंने पूछा अब कौन सा मुसव्वदा बाक़ी रह गया। कहने लगे, “बातें” जो “साक़ी” में लिख रहा हूँ, ये भी कभी एक किताब हो जाएगी। बहुत हील हुज्जत के बाद मैंने उन्हें इस शर्त पर रुपये दिए कि आइन्दा वो मुझसे कभी कुछ नहीं मांगेंगे। मगर उसके बाद फिर उन्हें रुपये की ज़रूरत हुई तो मैंने साफ़ इनकार कर दिया और उन्हें कुछ सख़्त सुस्त भी कहा। बहुत अफ़्सुर्दा और नादिम हुए। कहने लगे अलिफ़-लैला का एक नायाब नुस्ख़ा बीस जिल्दों में बिक रहा है। एक नाक़दरे का दादा मर गया है। कुतुबख़ाने की किताबें औने-पौने बेच रहा है, आप ऐसा कीजिए कि वो जिल्दें अपने पास गिरवी रख लीजिए और डेढ़ सौ रुपये मुझे दे दीजिए। मैं आपको रुपये देकर किताबें आइन्दा छुड़ा लूंगा। मैंने कहा, “यक शुद दो शुद।” भाई मैं गिरवी गांठा नहीं करता, मुझे तो तुम माफ़ ही करो। क्यूं रही सही दोस्ती पर पानी फेरते हो? मैं तुम्हारा कितना बड़ा क़द्रदान हूँ। अब मुझे इस पर तो मजबूर करो कि मुझे तुमसे नफ़रत हो जाए। ये बात कुछ उनकी समझ में गई और वो ख़ामोश चले गए। बस उसके बाद मीराजी ने मुझसे कुछ नहीं मांगा और कोई और मुसव्वदा लेकर मेरे पास आए। वैसे उनसे जब तक वो दिल्ली में रहे बराबर मिलना जुलना होता रहा और अक्सर घर भी जाते थे।

    किताबों की क़ीमत के बारे में उनकी एक ख़ास मत थी। मसलन मैंने कहा ये किताब तो बहुत छोटी है, इसके मैं दो सौ रुपये से ज़्यादा नहीं दूँगा, तो वो कहते दो सौ बिल्कुल ठीक रक़म है। बाईस रुपये दो आने और दो पाई और बढ़ा दीजिए ताकि रक़म हमवार हो जाएगी। यानी दो सौ बाईस रुपय दो आने, दो पाई इसी तरह उनकी सब किताबों की क़ीमतें तजवीज़ की गई थीं। तीन तीन, चार चार, पांच पांच रुपये और अजतने के ग़ार जो उनकी नज़्मों का दूसरा मजमूआ था उसकी क़ीमत छः रुपये दी गई थी।

    मीरा जी बड़े गंदे आदमी थे वो उनमें से थे जो कहते हैं कि या नहलाए दाई या नहलाएं चार भाई। उन्हें कभी किसी ने नहाते नहीं देखा, बल्कि मुँह धोते भी नहीं देखा। बाल कटवाने के बड़े चोर थे। वहशियों की तरह हमेशा बढ़े रहते। और उनमें कभी तेल डालते और उन्हें बनाते। जब दिल्ली आए थे तो मूँछें भी मूंड डाली थीं। एक दफ़ा जाने दिल में क्या समाई कि चार अब्रू का सफ़ाया कर गले में साधुओं की सी कंठी भी डाल ली थी। हमेशा संजीदा सूरत बनाए रहते थे, उन्हें क़हक़हा मार कर हंसते मैं ने कभी नहीं देखा। बातें अक्सर हंसने हंसाने की करते मगर ख़ुद कभी हंसते थे। बहुत ख़ुश होते तो ख़ंदा-ए-दंदाँनुमा फ़रमाया। उनके ग़चले-पन से बड़ी घिन आती थी। मगर ये उन घिनावनी चीज़ों में से थे जिन्हें अपने से दूर नहीं किया जा सकता। ज़िंदगी क़लंदराना और हरकतें मजज़ूबाना। दो-चार आदमियों ने मिलकर एक कमरा कहीं बाड़े की तरफ़ ले रखा था मगर रात को अगर कहीं घास में पड़े रहे तो वहीं सो गए और अगर पटरी पर लेट गए तो वहीं सुबह हो गई। एक दो दिन नहीं बरसों यही हाल रहा।

    शराब के नशे में मीराजी को रोने की धुन सवार हो जाती थी और वो ऐसे बेसुध हो जाते कि तन-बदन का भी होश रहता। एक दिन हम मोरी दरवाज़े के पुल पर से रहे थे। जब नहर सआदत ख़ां के सिनेमा के आगे पहुंचे तो देखा कि एक मजमा सड़क पर लग रहा है। मालूम हुआ कि एक आदमी दहाड़ें मार कर रो रहा है। और दो एक उसे सड़क पर से उठा रहे हैं। हमने सोचा कोई हादिसा हो गया है। बेचारे के सख़्त चोट आई है, उसे फ़ौरन हस्पताल भेजना चाहिए। इतने में अख़लाक़ ने घबराकर कहा भाई शाहिद! ये तो मीराजी हैं! और मीराजी सड़क पर पड़े रो रहे थे और बड़बड़ा भी रहे थे। मगर ज़बान क़ाबू में नहीं थी कि बात समझ में आती। एक साहब जो उन्हें उठाने की कोशिश कर रहे थे। वो भी जानने वाले ही थे। हमें देखकर उनकी जान में जान आई। झट एक तांगा मंगाकर सबने उठाकर मीराजी को ताँगे में डाला मगर वो फिसल कर फिर नीचे आरहे। दुबारा उन्हें आगे की सीट पर डाला और अख़लाक़ को साथ भेजा कि उनके घर पहुँचा कर आए। अगले दिन अख़लाक़ ने बताया कि मीराजी अपनी अम्मां के लिए रो रहे थे।

    ये अख़लाक़ अहमद रेडियो अनाउंसर थे और मीराजी के बड़े मद्दाह। मीराजी ने अपनी एक किताब भी उनके नाम मानून की है। दोनों में बहुत इख़्लास था।

    एक दिन उनके चंद दोस्त उन्हें घेर घार कर एक नस्तालीक़ तवाइफ़ के कमरे पर ले गए। वहाँ कुछ गाना सुना, कुछ शराब पी और बहकने लगे। ज़ीने से उतर कर सड़क पर आए तो हालत और भी ख़राब हो गई। सड़क पर लोटना और चीख़ें मार मार कर रोना शुरू कर दिया। नज़्मों का दूसरा ज़ख़ीम मजमूआ मुसव्वदे की शक्ल में उनके पास था उसे इस बुरी तरह उछाला कि रात के अंधेरे में उसका एक वरक़ भी किसी के हाथ आया। दोस्तों ने जो उनकी ये हालत देखी तो घबरा गए। लाख उन्हें चुमकारा पुचकारा मगर वो अपने औसानों में आए। इतने ही में पुलिस के चंद आदमी गश्त करते गए। दोस्त बेचारे सब दम-ब-ख़ुद हो गए कि अब आवारागर्दी में सब के सब बंद होते हैं। भला रात के बारह बजे इस बदनाम बाज़ार में और इस हालत में देख कर कौन छोड़ेगा? मगर अख़लाक़ अहमद के हवास क़ाएम रहे। हिम्मत-ए-मर्दाना तो उनकी भी जवाब दे चुकी थी। मगर जब पुलिस वालों ने टोका तो उसने जुर्रत-ए-रिंदाना से काम लेकर कहा बेचारे की माँ मर गई है। ये कह कर मीराजी को समझाने लगा कि माँ-बाप सदा किसी के जीते नहीं रहते। सब्र करो सब्र। चलो उठो। कोई देखेगा तो क्या कहेगा। अरे भई तुम तो बड़े बोदे निकले। बच्चों की तरह रो रहे हो। लो चलो उठो। घर चलो और हाँ संतरी जी कोई ताँगा मिले तो इधर भेज देना। ख़ुदा ख़ुदा करके आई बला टली और सबकी जान में जान आई। नज़्मों के दूसरे मजमूए के साथ उस महीने की तनख़्वाह का बक़ाया भी मीराजी उसी बाज़ार में उछाल आए।

    चलो जान बची लाखों पाए

    ख़ैर से बुद्धू घर को आए।

    सुबह उन्हें कुछ भी याद नहीं रहता था कि रात को अपनी जान पर और दोस्तों पर क्या मुसीबत तोड़ चुके हैं।

    एक दिन रेडियो स्टेशन पर मीराजी को देखा कि जगह जगह से उनका मुँह सूजा हुआ है और सारे चेहरे पर ज़ख़्म और नुहट्टे लगे हुए हैं। मैंने घबराकर पूछा, “मीराजी क्या कहीं गिर पड़े।” बोले नहीं, “मुझे मारा है।” “आपको क्यूं मारा? आप तो लड़ना जानते ही नहीं।” कहने लगे, “मुझे सोते में मारा है उसने।” “किस ने?” मेरा शुबहा है एक आदमी पर। और आज तक मालूम हो सका कि उस बेहोश आदमी को किस मलऊन ने मारा था! मीराजी को ज़्यादा जानने वालों में से बा’ज़ ये भी कहते थे कि उसने ख़ुद नशे में अपने आपको मारा है। वल्लाहु आलम बिस्सवाब!

    मीराजी पुरअसरारियत और हैरत के क़ाइल थे। उनकी शख़्सियत भी उनकी शायरी की तरह पुरअसरार थी। वज़ा क़ता, लिबास और बातों से तो वो पुरअसरार नज़र ही आते थे वो हरकतें भी कुछ ऐसी करते थे कि लोग उन्हें हैरत से देखें। मसलन एक ज़माने में मुर्ग़ी के अंडे के बराबर लोहे का गोला हाथ में हर वक़्त रखते थे और कोई पूछता था कि ये क्या है तो कुछ बताते थे। फिर एक के दो गोले हो गए थे और ये ख़ासा डेढ़ पाव का बोझ ख़्वाह-मख़्वाह उठाए फिरते थे। इसके बाद इन गोलों पर सिगरेट की पन्नी चढ़ाई जाती थी। लखनऊ में जब मैंने उन्हें आख़िरी बार राशिद साहब के हाँ देखा तो गोले उनके पास नहीं थे।

    खाने में मीठा और नमकीन मिलाकर खाते थे और देखने वाले चेमिगोइयां करते थे। बा’ज़ जो उन्हें जानते थे उन्हें बावला कहते थे। मंटो उन्हें फ्राड कहता था।

    आवाज़ बहुत उम्दा और भारी पाई थी। रेडियो पर अक्सर ड्रामों में बोलते थे। पंजाब के रहने वाले थे मगर उनकी ज़बान या उनका लहजा चुग़ली नहीं खाता था। अंग्रेज़ी की इस्तिदाद आला दर्जे की थी मगर जहाँ तक मुम्किन होता बोलने से गुरेज़ करते। मूसीक़ी से दिलचस्पी थी। राग जयजयवंती सुनते तो वो वज्द तारी हो जाता और सर फोड़ने लगते। समझते ख़ाक थे।

    मज़हब से मीराजी को कोई वास्ता नहीं था। हिंदू सनमियात से उन्हें शग़फ़ था। उसी का रचा पचा तसव्वुर उनकी शायरी में भी झलकता है। बस मुसलमान इसलिए थे कि एक मुसलमान के हाँ पैदा हो गए थे। जो शख़्स अख़लाक़ी ज़ाब्तों की पाबंदी करना भी ज़रूरी समझता हो वो भला मज़हबी क़ैद-ओ-बंद को कैसे गवारा कर लेता? मीराजी के तो दिल और दिमाग़ दोनों ही काफ़िर थे।

    मीराजी जिन्सी एतिबार से एक गुंजलक थे। इब्तिदाअन उन्हें औरतों से रग़्बत थी। और ये कोई हिंदू लड़की “मीरा” ही थी जिसकी नाकाम मोहब्बत में अपना नाम उन्होंने मीराजी रखा था। वरना असली नाम तो उनका “सनाउल्लाह” था। ख़ुदा जाने इस्तिमना बालीद का उन्हें चसका कहाँ से लगा कि जीते जी छूटा और उन्हें किसी जोग नहीं रखा। वो उसे फ़ख़्रिया बयान करते थे और कहते थे कि इसकी बदौलत मेरी सब तमन्नाएं पूरी हो जाती हैं। आप एक एक कामना तकते हैं और दिल में हसरत लिए रह जाते हैं। मैं किसी को देखता हूँ तो उसका लुत्फ़ भी हासिल कर लेता हूँ। एक दिन अपने एक हम मज़ाक़ से तआरुफ़ कराया तो ये कह कर कि ये भी दस्तकार हैं। उनसे जब कहा गया कि ये तो बड़ी ग़लत चीज़ है तो जवाब मिला कि मैं साइंटिफिक तरीक़े का दस्तकार हूँ। इसमें कोई नुक़्सान नहीं पहुँचता। और दस्तकारी में उन्हें इतना ग़ुलू था कि कैद-ए-मुक़ाम से भी गुज़र चुके थे। उनके पतलून की बाएं जेब तो बनी हुई थी मगर जेब का कपड़ा ग़ायब था।

    मीराजी की सीरत में बीसियों ख़राबियां आगई थीं लेकिन तबअन वो एक शरीफ़ इंसान थे। दोस्तों के लिए दामे, दरमे, क़दमे, हर तरह ख़िदमत करने को तैयार रहते थे। दानिशवरों के एक ख़ास हलक़े में एक साहब ने एक मज़मून पढ़ा जो पूरी उर्दू शायरी पर हावी था। उस मज़मून की बहुत तारीफ़ हुई। अचंभे की बात ये थी कि साहिब-ए-मज़मून यूं तो पढ़े लिखे थे लेकिन उन्हें अदब-ओ-शे’र का कोई ख़ास ज़ौक़ नहीं था। हमारा माथा वहीं ठनका था कि ये मज़मून उनका नहीं हो सकता। बाद में मालूम हुआ कि ये मज़मून मीराजी का लिखा हुआ था। शुरू शुरू में जब उनकी शराब नहीं बढ़ी थी वो रुपये पैसे से भी बा’ज़ दोस्तों की मदद करते थे। तनख़्वाह में से कुछ पस-अंदाज़ करके अपने वालिद और छोटे भाई को भी कुछ भेजा करते थे, और ये छोटे भाई वही साहब थे जिन्होंने मीराजी की तमाम नज़्में चंद पैसों में बेच डाली थीं। हुआ ये कि उन्होंने सारे घर की रद्दी किसी फेरी वाले के हाथ में दो-तीन आने सेर के हिसाब से बेची और उसमें मीराजी की वो दो ज़ख़ीम कापियां भी तौल दीं जिनमें उनकी नज़्में लिखी हुई थीं। मीराजी ने लाहौर के तमाम रद्दी बेचने वाले छान डाले मगर वो मजमूए मिलने थे मिले। इसका उन्हें बेहद रंज पहुंचा, इतना कि उन्होंने अपना घर और अपने अज़ीज़ों को हमेशा हमेशा के लिए छोड़ दिया। जिस घर में उनके हुनर की ये तौक़ीर हो वो वहाँ कैसे रह सकते थे और जिनके हाथों उनके हासिल-ए-उम्र का ये हश्र हो भला वो उनसे मिलना कैसे गवारा कर सकते थे? घर तो घर उन्होंने लाहौर ऐसा छोड़ा कि फिर कभी उधर का रुख़ नहीं किया।

    मीराजी को मैंने कभी किसी से बदज़बानी करते नहीं देखा। वो तो किसी से मज़ाक़ तक नहीं करते थे। उनका रख-रखाव ऐसा था कि क्या मजाल जो कोई उनसे नाशाइस्ता बात करले। अदब आदाब हमेशा मलहूज़ रखते। उनकी भोंडी वज़ा क़ता पर बेतकल्लुफ़ दोस्त फब्तियां कसते मगर वो सिर्फ़ मुस्कुराकर रह जाते और कभी उलट कर कोई सख़्त जवाब देते। इस से ये होता कि मो’तरिज़ ख़ुद शर्मिंदा हो जाता।

    अजीब बात मीराजी में ये थी कि उनकी जुमला ख़राबियों के बावजूद सब उनकी इज़्ज़त करते थे। उन्हें देखकर अंदर से दिल कहता था कि ये एक अज़ीम इंसान है और इज़्ज़त-ओ-एहतिराम का मुस्तहिक़। जाने उस शख़्स में क्या बात थी कि इतनी नफ़रत अंगेज़ियों के बावजूद दिल उसकी तरफ़ खिंचता था। ऐसा मक़नातीसी शख़्सियत का इंसान मैंने कोई और नहीं देखा। शायद इसकी वजह ये हो कि उनका ज़ाहिर-ओ-बातिन एक था। उन्होंने कभी अपने ऐबों को नहीं छुपाया और कभी अपनी ख़ूबियों को सराहा। रियाकारी उनमें नाम को नहीं थी। उनके लिए ख़लवत और जलवत दोनों एक थे। अख़लाक़ी क़द्रें इज़ाफ़ी तो होती ही हैं, उनके नज़दीक मुरव्वजा अख़लाक़ की कोई हैसियत नहीं थी। बल्कि वो उन्हें बुरा समझते थे और उनकी तहक़ीर करते थे। या शायद उन्होंने इंतिक़ामन ज़ाहिर को तज दिया था और उनका बातिन ही ज़ाहिर बन गया था। और शायद यही उनकी अज़ीम शख़्सियत का राज़ हो।

    स्रोत:

    Ganjeena-e-Gauhar (Pg. 128)

    • लेखक: शाहिद अहमद देहलवी
      • प्रकाशक: मकतबा नया दाैर, कराची
      • प्रकाशन वर्ष: 1962

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