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नवाब काश्मीरी

सआदत हसन मंटो

नवाब काश्मीरी

सआदत हसन मंटो

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    यूं तो कहने को एक ऐक्टर था जिसकी इज़्ज़त अक्सर लोगों की नज़र में कुछ नहीं होती, जिस तरह मुझे भी महज़ अफ़्साना-निगार समझा जाता है यानी एक फ़ुज़ूल सा आदमी। पर ये फ़ुज़ूल सा आदमी उस फ़ुज़ूल से आदमी का जितना एहतिराम करता था, वो कोई बे-फ़ुज़ूल शख़्सियत, किसी बे-फ़ुज़ूल शख़्सियत का इतना एहतिराम नहीं कर सकती।

    वो अपने फ़न का बादशाह था। इस फ़न के मुतल्लिक़ आपको यहां का कोई वज़ीर कुछ बता सकेगा मगर किसी चीथड़े पहने हुए मज़दूर से पूछें जिसने चवन्नी देकर नवाब काश्मीरी को किसी फ़िल्म में देखा है तो वो उस के गुण गाने लगेगा। वो आपको बताएगा (अपनी ख़ाम-ज़बान में) कि उसने क्या कमाल दिखाए।

    इंग्लिस्तान की ये रस्म है कि जब उनका कोई बादशाह मरता है तो फ़ौरन एलान किया जाता है “बादशाह मर गया है... बादशाह मर गया है... बादशाह की उम्र-ए-दराज़ हो।”

    नवाब काश्मीरी मर गया है... लेकिन मैं किस नवाब काश्मीरी की दराज़ उम्र के लिए दुआ माँगूँ... मुझे उस के मुक़ाबले में तमाम किरदार निगार प्यारे मालूम होते हैं।

    नवाब काश्मीरी से मेरी मुलाक़ात बंबई में हुई। ख़ान काश्मीरी जो उनके क़रीबी रिश्तेदार हैं, साथ थे। बम्बई के एक स्टूडियो में हम देर तक बैठे और बातें करते रहे। इस के बाद मैंने उस को अपनी एक फ़िल्मी कहानी सुनाई लेकिन इस पर कुछ असर हुआ। उसने मुझे से बिला-तकल्लुफ़ कह दिया। “ठीक है... लेकिन मुझे पसंद नहीं।”

    मैं उस की बे-बाक तन्क़ीद से बहुत मुतास्सिर हुआ। दूसरे रोज़ मैंने उसे फिर एक कहानी सुनाई। सुनने के दौरान में उस की आँखों से आँसू टपकने लगे। जब मैं ने कहानी ख़त्म की तो उसने रूमाल से आँसू ख़ुश्क कर के मुझ से कहा। “ये कहानी आप किस फ़िल्म कंपनी को दे रहे हैं। भड़वे का रोल मुझे बहुत पसंद है।”

    मैंने उस से कहा। “ये कहानी कोई प्रोड्यूसर लेने के लिए तैयार नहीं है।”

    नवाब ने कहा। “तो लानत भेजो उन पर।”

    नवाब मरहूम को पहली बार मैं ने “यहूदी की लड़की” में देखा था। जिसमें रतनबाई हीरोइन थी। नवाब ग़द्दार यहूदी का पार्ट कर रहे थे। मैं ने उस से पहले यहूदी की शक्ल तक नहीं देखी थी लेकिन जब बम्बई गया तो यहूदियों को देखकर मैंने महसूस किया कि नवाब ने उनका सही सौ फ़ीसद सही चर्बा उतारा है। जब नवाब मरहूम से बंबई में मुलाक़ात हुई तो उसने मुझे बताया कि ग़द्दार यहूदियों का पार्ट अदा करने के लिए उसने कलकत्ता में ये पार्ट अदा करने से पहले कई यहूदियों के साथ मुलाक़ात की। उनके साथ घंटों बैठा रहा और जब उसने महसूस किया वो ये रोल अदा करने के काबिल हो गया है तो उसने मिस्टर बी। इन सरकार मालिक न्यू थेटर से हामी भर ली।

    जिन अस्हाब ने “यहूदी की लड़की” फ़िल्म देखा, उनको नवाब काश्मीरी कभी भूल नहीं सकता। उसने बूढ़ा बनने के लिए और पोपले मुंह बातें करने के लिए अपने सारे दाँत निकलवा दिए थे ताकि किरदार निगारी पर कोई हर्फ़ आए।

    नवाब बहुत बड़ा किरदार निगार था। वो किसी ऐसी फ़िल्म में हिस्सा लेने के लिए तैयार नहीं था जिसमें कोई ऐसा रोल हो जिसमें वो समा सकता हो। चुनांचे वो किसी फ़िल्म कंपनी से मुआहदा करने से पहले पूरी कहानी सुनता था। इस के बाद घर जा कर उस पर कई दिन ग़ौर करता... आइने के सामने खड़े हो कर उनके चेहरे पर मुख़्तलिफ़ जज़्बात पैदा करता था। जब अपनी तरफ़ से मुतमइन हो जाता तो मुआहदे पर दस्तख़त कर देता।

    उस को आग़ा हश्र काश्मीरी के ड्रामों से बहुत मुहब्बत थी मगर तअज्जुब है कि ये शख़्स जो अर्से तक इम्पीरियल थियटरिकल कंपनी के ड्रामों में स्टेज पर आता रहा और दाद-ए-तहसीन वुसूल करता रहा। फ़िल्म में आते ही एक दम बदल गया। उस के लब-ओ-लहजे में कोई थियटर-पन नहीं था। वो अपने मुकालिमे उसी तरह अदा करता था जिस तरह कि लोग आम गुफ़्तगू करते हैं।

    जिस थियटरिकल कंपनी मैंने ज़िक्र किया है। उस में नवाब मरहूम ने “ख़ूबसूरत बला”, “नूर-ए-वतन” और “बाग़-ए-ईरान” में अपनी अदाकारी के ऐसे जौहर दिखाए कि उस की धाग बैठ गई।

    नवाब काश्मीरी लखनऊ के बड़े इमाम बाड़े के सय्यद मुफ़्ती-ए-आज़म के इकलौते लड़के थे। क़ुदरत की ये कितनी सितम ज़रीफ़ी है कहाँ इमामबाड़े का मुफ़्ती-ए-आज़म और कहाँ मुंडवा। लेकिन बचपन ही से उस को नाटक से लगाव था।

    लखनऊ में एक नाटक आई जिसका मालिक अग्रवाल था। उस कंपनी के खेल नवाब बा-क़ायदा देखता रहा और उसने महसूस किया कि वो इस सिलसिले के लिए पैदा किया गया है, खेल देख कर घर आता तो घंटों उस ड्रामे के याद रहे हुए मकालिमे अपने अंदाज़ में बोलता।

    उस नाटक कंपनी में चुनांचे एक मर्तबा ख़ुद को पेश किया कि वो उस का इम्तिहान लें। डायरेक्टर ने जब नवाब की ऐक्टिंग देखी और मुकालिमे की अदायगी सुनी तो हैरान-ओ-शश्दर रह गया। उसने फ़ौरन उसे अपने यहां मुलाज़िम रख लिया। ये मुझे मालूम नहीं कि उस की तनख़्वाह क्या मुक़र्रर हुई।

    उस कंपनी के साथ नवाब कलकत्ता पहुंचे और अपने मज़ीद जौहर दिखाए। काऊस जी खटाऊ जी ने उनकी अदाकारी देखी तो उनको अल्फ्रेड थियटर्ज़ कंपनी में ले लिया। उन दिनों वो कैरेक्टर ऐक्टर मशहूर हो गए।

    सेठ सुख लाल कर नानी जो अल्फ्रेड थियटर के मालिक थे और परले-दर्जे के गधे और बेवक़ूफ़ थे।

    उन्होंने अपने हवारियों से सुना कि एक ऐक्टर जिसका नाम नवाब है, कमाल कर रहा है। उस का कोई जवाब ही नहीं है तो उन्होंने अपने ठेट अंदाज़-ए-गुफ़्तगू में कहा। “तो ले आओ उस सांड को।”

    वो सांड गया और वो सांड नवाब काश्मीरी था। उस को ज़्यादा तनख़्वाह देकर अपने यहां मुलाज़िम रखा। वो देर तक मेरा मतलब है दो साल तक करनानी साहब की कंपनी के खेलों में काम करते रहे।

    मुझे याद नहीं कौन सा सन था। ग़ालिबन ये वो ज़माना था जब बम्बई की “इम्पीरियल फ़िल्म” कंपनी ने हिन्दुस्तान का पहला बोलता फ़िल्म “आलम आरा” बनाया था।

    जब बोलती फिल्मों का दौर शुरू हुआ तो मिस्टर बी. उन सरकार जो बड़े तालीम-याफ़ता और सूझ-बूझ के मालिक थे। उन्होंने जब न्यू थियटर की बुनियाद रखी तो नवाब काश्मीरी को जिससे वो अक्सर मिलते-जुलते थे। इस बात पर आमादा कर लिया कि वो थियटर छोड़ कर फ़िल्मी दुनिया में जाए।

    बी. इन सरकार नवाब को अपना मुलाज़िम नहीं महबूब समझते थे। उनका ज़ौक़ बहुत अर्फ़ा-ओ-आला था। वो आर्ट के गरविदा थे। नवाब मरहूम का पहला फ़िल्म “यहूदी की लड़की” था। इस फ़िल्म की हीरोइन “रतन बाई” थी। जिसके सर के बाल उस के टख़नों तक पहुंचते थे। इस फ़िल्म के डायरेक्टर एक बंगाली मिस्टर अठारथी थे। (जो दुनिया त्याग चुके हैं) इस टीम में हाफ़िज़ जी और म्यूज़िक डायरेक्टर बाली थे। इस तगढ़म में क्या कुछ होता था। मेरा ख़याल है इस मज़मून में जायज़ नहीं।

    मिस्टर अठारती ने जो बहुत पढ़े लिखे और क़ाबिल आदमी थे। मुझ से कहा कि नवाब ऐसा ऐक्टर फिर कभी पैदा नहीं होगा। वो अपने रोल में ऐसे धंस जाता है जैसे हाथ में दस्ताना। वो अपने फ़न का मास्टर है।

    हाफ़िज़ जी भी उस की तारीफ़ में रत्ब-उल-लिसान थे। वो कहते थे कि मैंने अपनी ज़िंदगी में ऐसा अच्छा ऐक्टर कभी नहीं देखा।

    ख़ैर! इन बातों को छोड़िए। मैं अब नवाब ऐक्टर की तरफ़ आता हूँ।

    एक फ़िल्म में जिसका उनवान ग़ालिबन “माया” था। मरहूम को जेब कतरे का पार्ट दिया गया। उसने जब सारी कहानी सुनी तो इनकार कर दिया कि मैं ये रोल अदा नहीं कर सकता इसलिए कि मैं जेब-कतरा नहीं हूँ। मैंने आज तक किसी की जेब नहीं काटी लेकिन वो कलकत्ते के एक वाहियात होटल में हर-रोज़ जाता रहा। वहां उस की कई जेब-कतरों और उठाई-गीरों से मुलाक़ातें होती रहीं। सुना है कि उनके साथ उसने शराब भी पी। हालाँकि उसे इस की आदत नहीं थी। एक हफ़्ते के बाद वो मुतमइन हो गया। चुनांचे उसने फ़िल्म कंपनी के मालिक से कह दिया कि वो जेब-कतरे का रोल अदा करने के लिए तैयार है।

    उसने इस दौरान में कई बदमाशों और किरदारों से दोस्ती पैदा कर ली थी। उनके तमाम ख़साइस उसने सीख लिए थे। यही वजह है कि वो इस रोल में कामियाब रहा। मरहूम की ज़िंदगी यूं बड़ी पाक साफ़ थी, उनके एक अज़ीज़ ए. एम. इमादा हैं। उन्होंने मुझे बताया कि नवाब बड़ा तहारत पसंद था। शिया था, कोई काम बग़ैर इस्तिख़ारे के नहीं करता था। सुन्नी और शिया होने में क्या फ़र्क़ है लेकिन जब उन दो फ़िर्क़ों में लड़ाई झगड़े होते हैं तो इतना समझ में आता है कि उनके दिमाग़ में मज़हबी फ़ुतूर है।

    मैं तो नवाब मरहूम की बात कर रहा था। मैं वो मुक्ती का “सीन” कभी नहीं भूल सकता। जब उसने अपनी बद-चलन बीवी को भुने चने दिए। उस के बढ़े हुए हाथ में इतना ग़म-ओ-अंदोह था जो चेहरा भी ज़ाहिर नहीं कर सकता।

    “देवदास” में जब सहगल उस के मुँह पर थप्पड़ मारता है तो वो कुछ देर अपना चेहरा सहलाता है जहां ज़र्ब आई है और सिर्फ़ इतना कहता है। “तुमने दीनू भाई को मारा...” और... अब मैं क्या कहूं... सारे हस्सास तमाशाई लरज़ जाते हैं।

    फ़िल्म “ज़िद्दी” में जब उस के भतीजे की बीवी (कुलदीप कौर) उस के पास से गुज़रती है। वो ग़ुस्से के आलम में (परान ऐक्टर से) जा रही होती है। नवाब काश्मीरी मरहूम “इनवैलिड चेयर” में बैठा है... उस को देखता है... और अजीब फ़लसफ़ियाना अंदाज़ में हम-कलामी करता है “फिर... चली गई।”

    मैं ज़्यादा तफ़सील में नहीं जाना चाहता लेकिन आपको फ़िलहाल ये बता देना चाहता हूँ जो ग़ालिबन अभी तक किसी पर्चे में शायेअ नहीं हुआ कि उस की पहली बीवी अपने वतन की थी। उस लड़की से इस की कब शादी हुई। इस के मुताल्लिक़ में कुछ नहीं जानता।

    उस बीवी से इस के कोई औलाद हुई। जब उस तरफ़ से ना-उम्मीदी हुई तो नवाब ने इधर उधर किसी दूसरे रिश्ते का ढूंढना शुरू किया। आख़िर प्रिंस महर क़दर (बादशाह अवध के बड़े लड़के) की बेटी को अपने निकाह में ले लिया।

    जब ये शादी हुई तो घर में एक कोहराम मच गया। नवाब ने कोई परवाह की। नतीजा इस का ये हुआ कि उस की पहली बीवी ने ख़ुदकुशी कर ली। अब आप इस ख़ुदकुशी का मुख़्तसर हाल सुन लीजिए। जब उस की पहली बीवी को मालूम हुआ कि उस के ख़ावंद ने दूसरी शादी कर ली है तो उसने नौकरानी से तौशक मंगवाई। उस पर मिट्टी का तेल छिड़का। उस के बाद अपने तन बदन पर भी यही तेल मला। अपने कपड़ों को इस से मानूस किया... फिर आराम से चारपाई पर लेट कर दिया-सलाई जलाई और ख़ुद को आग लगा दी। वो मर गई... नवाब को मालूम नहीं था कि उस की बीवी कोयला बन गई है। वो अपनी दूसरी बीवी के साथ दूसरे घर में था।

    जब नवाब को मालूम हुआ कि वो मर गई है तो उसने उनकी तजहीज़-ओ-तकफ़ीन का इंतिज़ाम किया। बाद में उसे मालूम हुआ कि वो आख़िरी वसियत कर गई थी कि अपनी दस हज़ार की इंशोरंस पालिसी में अपने ख़ावंद के नाम सुपुर्द करती हूँ। इस के अलावा एक सौ साठ तोला सोना भी उनकी तहवील में देती हूँ।

    नवाब ये वसीयत सुनकर बहुत मुतअज्जिब हुआ।

    उसे देर तक मिट्टी के तेल की बू आती रही थी।

    मैं अब कभी सोचता हूँ तो यूं महसूस होता है कि मैं मिट्टी का तेल हूँ। कैरोसीन हूँ। नवाब काश्मीरी हूँ। काश्मीरी मैं भी हूँ लेकिन इतना ज़ालिम नहीं जितना कि वो था, इसलिए कि उसने सिर्फ़ औलाद की ख़ातिर अपनी पहली बीवी को ख़ुदकुशी पर मजबूर कर दिया।

    में भी कश्मीरी हूँ... मुझे कश्मीरियों से बहुत मुहब्बत है लेकिन मैं ऐसे कश्मीरियों से नफ़रत करता हूँ जो अपनी बीवियों से बुरा सुलूक करें।

    मैं नवाब मरहूम के फ़न का क़ाइल हूँ। मैं उसे बहुत बड़ा फ़नकार मानता हूँ लेकिन जब भी मैंने उसे स्क्रीन पर देखा तो मुझे घांसलेट (मिट्टी के तेल) की बू आई।

    ख़ुदा करे उसे दोज़ख़ नसीब हो, कि वहां वो ज़्यादा ख़ुश रहेगा।

    स्रोत:

    Loud Speaker (Pg. 27)

    • लेखक: सआदत हसन मंटो
      • प्रकाशक: साक़ी बुक डिपो, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1987

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