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नियाज़ी ख़ानम

अशरफ़ सबूही

नियाज़ी ख़ानम

अशरफ़ सबूही

MORE BYअशरफ़ सबूही

    अल्लाह बख़्शे नियाज़ी ख़ानम को अजीब चहचहाती तबीयत पाई थी। बचपन से जवानी आई, जवानी से अधेड़ हुईं। मजाल है जो मिज़ाज बदला हो। जब तक कुंवारी रहीं, घरवालों में हंसती कली थीं। ब्याही गईं तो खिला हुआ फूल बन कर मियां के साथ वो चुहलें कीं कि जो सुनता फड़क उठता। क्या मक़दूर उनके होते कोई मुँह तो बिसूरे। फिर ख़ाली हंसोड़ी ही नहीं। अल्लाह ने अक़्ल का जौहर भी दिया था। ज़ेहन इतना बर्राक़ कि जहाँ बैठीं हंसी हंसी में सुघडापे सिखा दीं। गुदगुदाते गुदगुदाते बीसवीं टेढ़े मिज़ाजों को सीधा कर दिया। ग़रज़ कि जब तक जीईं जीने की तरह जीईं। किसी को अपने बर्ताव से शिकायत का मौक़ा नहीं दिया। क़ायदा है कि जहाँ दो बर्तन होते हैं ज़रूर खड़का करते हैं लेकिन क़हक़हों के सिवा उनके अंदर कभी कोई दूसरी आवाज़ नहीं सुनी। मरते मर गईं ये किसी से भिड़ीं, उनसे किसी ने दो बदू की। जैसी बचपन में थीं, वैसी ही आख़िरी दम तक रहीं।

    वो जो किसी ने कहा है कि पूत के पाँव पालने में नज़र जाते हैं। नियाज़ी ख़ानम माँ की गोद से उतर कर घुटनियों चलने में ऐसी शोख़ियाँ और ऐसे तमाशे करतीं कि देखने वाले हैरान होते। होश संभालने के बाद तो कहना ही क्या था। पूरी पक्की पीसी थीं। जो उनकी बातें सुनता दंग रह जाता। तक़दीर की बात, जन्म ऐसे ज़माने में लिया था कि जितनी गीगली होतीं, अच्छी समझी जातीं। लिखना पढ़ना कैसा, लिखे पढ़ों की सी बातें भी कोई करती तो, हर्राफ़ा, और शिताबा का ख़िताब पाती। बड़ा तीर मारा तो क़ुरआन शरीफ़ ख़त्म करके राह-ए-नजात, करीमा या ख़ालिक़-ए-बारी पढ़ ली, वो भी चुपके चुपके अब्बा, भाई या अमीर घराना है तो किसी उस्तानी से। सब ही लड़कियां आटे की आपा, मिट्टी की थवई, गद्दी के पीछे अक़्ल रखने वाली नहीं होतीं। आदमी आदमी अंतर कोई हीरा कोई कंकर। उन ही गुदड़ियों में बहुत से लाल भी होते हैं। बड़ी बड़ी ज़हीन, फ़ित्री क़ाबिलियतों से आरास्ता औरत देखने में आती है। क़दामत पसंदों ने घोट घोट कर उनकी तबीअतों को बुझा दिया, वरना मर्दों में क्या सुर्ख़ाब के पर लगे होते हैं। कौन सा कमाल है जो ये हासिल नहीं कर सकतीं। यूरोप में जा कर देख लो, मर्दों से आगे ही पाओगे। इतनी दूर क्यों जाओ। अपने मुल्क ही में नई तालीम याफ़्ता ख़वातीन का क्या काल है। जहाँ वो देखी जा सकती हैं जाओ देखो, कैसे जौहर दिखा रही हैं।

    काश हमारी नियाज़ी ख़ानम आज इस जदीद दौर की पैदाइश होतीं। अगर उन्होंने ये ज़माना पाया होता तो जाने शोहरत के कौन से आसमान पर अपना जलवा दिखातीं। अपनी तब्बाई की कितनी दास्तानें, क़हक़हों के कितने ज़ाफ़रानज़ार और अपनी मज़ाही शायरी की कैसी कैसी यादगारें छोड़ जातीं। अब तो उनकी बातें निरी कहानियां हैं। वो भी अँधेरी रातों में सुनी हुई, जिनमें फ़ित्री ज़हानत के सिवा कोई इल्म की रोशनी नहीं।

    अगले वक़्त तो थे लेकिन अगले वक़्तों के लगभग मुग़लिया ख़ानदान का आख़िरी चराग़ टिमटिमा रहा था कि दिल्ली के एक शरीफ़ पढ़े लिखे, क़ालल्लाहु-क़ालर्रसूल करने वाले ख़ानदान में नियाज़ी ख़ानम पैदा हुईं। उनके वालिद कुछ दिन से मकतब पढ़ाने लगे थे। ख़ुदा की शान है या तो उनके हाँ फ़ज़ीलत की पगड़ियाँ बंधती थीं या करीमा बबख़्शा-ए-बरहाल-ए-मा, ख़ालिक़-ए-बारी सुरजन हार, मा मुक़ीमान-ए-कू-ए-दिल दारेम, से आगे कोई पढ़ने वाला ही था। ताहम ये बच्चों ही को मुख़ातिब कर के अपनी इल्मी भड़ास निकालते रहते। मकतब के अलावा बाज़ खिलन्डरे बच्चों के माँ बाप अपने लड़कों को घर पर भी भेज देते और ये बड़े शौक़ से घंटों मग़ज़ज़नी करते। घर अंदर से तो ख़ासा बड़ा था मगर बाहर कोई बैठक थी। ड्यूढ़ी ही में एक तख़्त बिछा रहता। उसी पर मकतब जम जाता।

    नियाज़ी ख़ानम की दो बहनें और थीं। कोई दो दो साल के फ़र्क़ से बड़ी, और एक छोटा भाई। अगरचे ये तीनों बहन भाई अल्लाह के जी थे। ज़ेहन के ग़बी तबीअत के ठस। लड़कियों का तो ख़ैर कुछ नहीं, पराया धन था। सुघड़ाठें या फूहड़। जिसके पल्ले बंधेंगी वो समझ लेगा। लेकिन लड़का बाप की उम्मीदों का सहारा होता है, इसलिए उस पर मौलाना अपनी मियानजीगिरी का पूरा ज़ोर सर्फ़ करते। हर वक़्त साथ रखते। मकतब जाते तो साथ ले जाते। घर पर पढ़ाते तो बेटे का पढ़ाना मुक़द्दम था। रात को दिनभर के धंदों से फ़ुर्सत पा कर पलंग पर लेटते तो सोते सोते कहानियों, क़िस्सों की तरह क़िस्म क़िस्म के मसाइल हल करते रहते। बस नहीं चलता था कि अपनी सारी इल्मी पूंजी घोल कर पिला दें।

    बरख़ुर्दार तो ठोट के ठोट रहे। लाख तोते कर पढ़ाया पर वो हैवान ही रहा। मौलाना के बाद लोगों ने देखा कि बेचारे का शहर में मकतब भी चला। हाँ नियाज़ी ख़ानम की शोख़ फ़ित्रत को चार चाँद लग गए। बाप, बेटे को जो बातें बताते बेटी ले उड़ती। थोड़े दिन में ये अलबत्ता सचमुच की अल्लामा हो गईं। ऐसे ऐसे लतीफ़े दिमाग़ से उतारने लगीं कि घर वाले, क्या छोटे क्या बड़े, मुँह तकते रह जाते। किताबी तालीम तो उन्हें कौन देता, वही दो-चार मज़हबी रिसाले वग़ैरा पढ़े थे। रहा लिखना, क़लम किसी लड़की ने छुवा और साँप ने सूंघा। पुराने लोग थोड़ा बहुत पढ़ा तो ख़ैर देते मगर लिखने के पक्के दुश्मन थे। उनका ख़याल था कि लिखना आया और लड़की हाथ से गई। ज़बान जितनी चाहे चले, हाथ चले। झूट-मूट भी अगर कभी नियाज़ी ख़ानम ने तख़्ती संभाली, इधर बाप ने डाँट बताई उधर माँ ने दोहत्तड़ रसीद किया कि “किस को ख़त लिखना है। हमारी आबरू पर हर्फ़ लाएगी। निगोड़ी ये शरीफ़ों में नहीं होता।”

    कुछ तो उस दौर की कहा मान औलाद और कुछ माँ बाप की तंबीह, शौक़ के बावजूद नियाज़ी ख़ानम ने शरारत से भी क़लम को छुवा। छूतीं तो जब कि कोई उन्हें छूने देता। ताहम तबीयत की शोख़ी कहाँ जाती थी, हज़ारों चुटकुले दूसरों से लिखवा कर छोड़ गईं। घर में सगा भाई था और कुंबे रिश्ते के लड़के थे, उनके हाथों अपने दिल का अरमान निकाल लेतीं। लड़कपन में बड़े बूढ़ों की सी तो बातें होती नहीं। धमाचौकड़ी ही में गुज़रती है। उन दिनों हर शरीफ़ घराने में गुड़ियाँ खेली जाती थीं कहने को तो ये एक खेल था लेकिन उसको सुघड़ापा सिखाने की तालीम समझना चाहिए।

    नियाज़ी ख़ानम को गुड़ियों का बड़ा शौक़ था। अजब अजब नाम रखे जाते, उनका ब्याह होता तो मज़े मज़े के रुक़्क़े लिखवातीं। मुबारकबादी, सहरे उसके बाद गुड़ियों के बच्चे होते तो ज़च्चागेरियाँ बनातीं। ख़ुद गातीं और डोमनियों से गवातीं और उनमें ऐसी ऐसी फुलझड़ियाँ छोड़तीं कि घरवाले हंसी के मारे लोट लोट जाते। मौलाना जैसे ज़ाहिद ख़ुश्क भी बाहर बैठे हुए सुनते तो मुस्कुराए बग़ैर रहते।

    हमें मरहूमा की पूरी सवानेह उमरी तो लिखनी नहीं कि महद से लहद तक के हालात बयान करें और हमारे पास उनकी ज़िंदगी का रोज़नामचा है। हाँ चंद वाक़ियात सुने हैं। आप भी सुन लें। ज़िंदा दिली के ऐसे नमूने दुनिया में रोज़ रोज़ नज़र नहीं आते। होने को मुम्किन है कि नियाज़ी ख़ानम से बढ़ चढ़ कर भी औरतें गुज़री होंगी, लेकिन ख़ुदा जिसका नाम निकाल दे।

    बच्चे उमूमन शरीर होते हैं। कोई तकलीफ़दह और कोई हंसाने वाला बा’ज़ शरीर होने के साथ बड़े तीतरे होते हैं। घर के कोने कोने का हाल उनसे पूछ लो। हर ढकी छिपी चीज़ का हाल उन्हें मालूम। कैसी ही मघम में बात करो वो ताड़ जाएं। वो वो मग़ज़ से उतार कर बातें करें कि लोगों को ग़ुस्सा भी आए और हंसी भी। ऐसे बच्चे दिल्ली वालियों की इस्तिलाह में ग़ज़बी कहलाते हैं। नियाज़ी ख़ानम उन मुआमलात में बहुत तेज़ थीं। सारे घरवालों का नाक में दम कर दिया था। बहुत सी बातें बच्चों से कहने की नहीं होतीं। बहुत से काम बच्चों के करने के नहीं होते। बहुत से मौक़ों पर बच्चों को साथ ले जाना मुनासिब नहीं होता और बच्चों से कहते भी इसलिए नहीं कि ज़िद करेंगे, मगर नियाज़ी ख़ानम से क्या मजाल कोई काम छुपा कर कर तो ले। होंट हिले और उन्होंने मतलब समझा। लतरी नहीं थीं कि ये आदत ज़रर रसां होती। उसे भी शोख़ियों के साथ एक क़िस्म की शोख़ी समझो। वक़्त गुज़रने के बाद ज़रा दिललगी हो जाती। दो-चार दिन के हंसने हंसाने का सामान हो जाता।

    एक दिन का ज़िक्र है, मोरी दरवाज़े चालीसवें में जाना था। बच्चों को ऐसी तक़रीब में यूँ भी कोई नहीं ले जाता, फिर ये तो बला की शरीर थीं। इसके अलावा उन दिनों जाने आने की भी आसानी थी। अमीरों के हाँ अपनी सवारियां होतीं, पालकियां नालकियां, बहलियां, रथें। हस्ब-ए-मक़दूर ग़रीब मांगे तांगे से काम चलाते। डोलियों में लदते या भारकश किराए पर करते। इक्के थे मगर वो उचक्की सवारी समझी जातीं। बैल गाड़ियों में देर बहुत लगती। डोलियों में इकट्ठे बातें करते हुए जाने का लुत्फ़ कहाँ? शहर में दो-चार सेज गाड़ियां गई थीं, तो उनका किराया ज़्यादा था। दिल्ली दरवाज़े से मोरी दरवाज़े का फ़ासिला ख़ासा। सलाहें हुईं कि क्यों कर चलना चाहिए। किसी ने कहा भारकश कर लो, कोई बोली शकरम में कभी नहीं बैठे। दस पाँच आने ज़्यादा जाएंगे। मुल्ला से सैर तो हो जाएगी। सुना है दो घोड़े जुतते हैं। घर का घर होती है। झिलमिलियों में से रास्ते का ख़ूब तमाशा दिखाई देता है। अंदर बैठने वाले सबको देखें और बाहर का कोई देखे।

    आख़िर शकरम ही की ठहरी और भाई साहब जा कर साई भी दे आए। अब सवाल नियाज़ी की ख़ानम के ले जाने का था। ये बच्चा बूढ़ी और उनकी बेचैन फ़ित्रत से सब वाक़िफ़। डर था कि उनकी बोलियों ठिठोलियों का क्या बंदोबस्त। अगर ये साथ चलें तो रोतों को हंसाएंगी। और कहीं बीच बाज़ार में सैर का शौक़ चर्राया, झिलमिलियां उतार दें तो क्या होगा। उनकी ज़बान में तो बवासीर है। क़हक़हे लगाने शुरू कर दिए, या ज़ोर ज़ोर से बातें ही करने लगीं तो कैसी बदनामी होगी। राहगीर समझेंगे कि निगोड़ियाँ कोई बड़ी उछाल छक्का हैं। नियाज़ी ख़ानम ने जो घरवालों को कानाफूसी करते देखा तो वो उड़ती चिड़िया के पर गिनने वाली, फ़ौरन समझ गईं कि हो हो कि कोई बात ज़रूर मुझसे छुपाने की है। टोह लेने के लिए इधर उधर टहलते टहलाते दर से लग कर इस तरह खड़ी हो गईं, गोया कुछ ख़बर ही नहीं।

    रात का वक़्त था। टिमटिमाते हुए कड़वे तेल के चराग़ की रौशनी परछाईं पड़ती हुई बड़ी बहन की भी नज़र पड़ गई। एक ने दूसरी से टहोक कर कहा “फ़ित्नी को देखा कैसी छुप कर हमारी बातें सुन रही है। आओ ज़रगरी में बातें करें।” ज़रगरी फ़र्फ़री और इसी तरह की कई बोलियाँ क़िले वालों की ईजाद शहर के अक्सर घरानों में भी पहुँची थीं। उन बोलियों का शरीफ़ों की लड़कियों में बहुत रिवाज था। अनजानों से बात छुपाने की ख़ासी तरकीब थी। चुनांचे एक बहन बोली “करियूं अज़ा पज़ा अज़स सज़े लज़े चज़ल लज़ीं नीरा नज़ईं।” (क्यों आपा इसे ले चलें या नहीं?) दूसरी ने जवाब दिया “अज़ब अज़स कज़ो यहंज़ रज़े नज़े दज़ो।” (अब इसको यहीं रहने दो) इसके बाद देर तक हंसी होती रही और ज़रगरी में बातें करतीं। कभी फ़र्फ़री में।

    नियाज़ी ख़ानम को ये बोलियाँ नहीं आती थीं। जो कुछ बहनों ने कहा वो तो समझ में क्या आता ताहम उनके मतलब को पहुँच जातीं। उनकी आँखों में धूल ही डाली तो नाम नियाज़ी ख़ानम नहीं। उन्होंने भी तरकीब सोच ली और चुपके से अपने बिछौने पर कर सो गईं। सुबह ही ज़रूरियात से फ़ारिग़ हो कर सबने कपड़े बदलने शुरू किए। नियाज़ी ख़ानम ग़ायब।

    वालिदा: भई नियाज़ी कहाँ है। बी इम्तियाज़ी तुम बड़ी कट्टर हो। वो भी चली चलेगी तो क्या होगा?

    इम्तियाज़ी: (बड़ी बेटी) अम्मां बी, वो बड़ी शरीर है। रास्ता भर उधम मचाती चलेगी।

    वालिदा: सेज गाड़ी वो भी देख लेती बच्चे उधम मचाया ही करते हैं।

    बुनियादी: (दूसरी बेटी) ले चलिए आप ही को शर्मिंदा होना पड़ेगा।

    इम्तियाज़ी: तो उसी को ले जाओ, चलो मैं नहीं जाती।

    वालिदा: बुआ बिगड़ती क्यों हो। जैसा तुम्हारा जी चाहे करो, मगर वो है किधर?

    मामा: छोटी बीवी को पूछती हो? वो तो सवेरे उठते ही बी हमसाई के हाँ चली गईं। कल शाम को कोई कह रहा था कि नूरी के अब्बा बम्बई से विलायती गुड़िया लाए हैं।

    बुनियादी: ये भी अच्छा हुआ। खेल में लगी हुई है तो लगी रहने दो। इतने में गाड़ी गई थी। गाड़ी वाला ग़ुल मचा रहा था कि जल्दी चलो।

    इमतियाज़ी: अब देर करो। गाड़ी वाले की आवाज़ उसके कानों में पड़ गई और वो पहुँची तो पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाएगा।

    सवार होने में देर क्या थी। पर्दा रुकवा झपाक झपाक सब गाड़ी में जा बैठे। गाड़ीबान दरवाज़ा बंद करके कोच बक्स पर चढ़ ही रहा था कि नियाज़ी ख़ानम ड्यूढ़ी में से निकल गाड़ी के पायदान पर झिलमिलियां उठा अंदर झांकते हुए बोली, छोटी आपा, ता, बड़ी आपा सलाम। अब ज़रगरी नहीं बोलतीं। कहो “लज़े चज़ल तज़ी हुज़ू युज़ा नज़ा हज़ीं।” (ले चलती हो या नहीं)

    वालिदा: है तो बड़ी फ़ित्नी।

    नियाज़ी: नहीं अम्मा बी मैं तो छोटी हूँ।

    बड़ी बहन: ख़ुदा ही समझे।

    दूसरी बहन: (हंसकर) और हाँ तुम छुपी हुई कहाँ थीं।

    बड़ी बहन: “कपड़े भी बदल रखे हैं।

    नियाज़ी: और क्या। भई गाड़ीबान दरवाज़ा तो खोल।

    गाड़ीबान: क्या बीवी तुम रह गई थीं?

    नियाज़ी: दरवाज़ा खोलता है या बातें बनाता है।

    सब हंसने लगे, दरवाज़ा खुला। नियाज़ी ख़ानम बड़े ठस्से से बैठीं और सारे रस्ते बहनों का सता मारा।

    एक मर्तबा तो कमाल कर दिया। गर्मी के दिन थे। चाँदनी रात। हमसाई की लड़कियां भी गई थीं। आँख मिचोली खेली जा रही थी। नियाज़ी ख़ानम होंगी कोई छः बरस में। छुपतीं और पकड़ी जातीं। कहीं बड़ी बहन के मुँह से निकल गया कि बस फिश। फिर क्या था। गया तरारा। अब के जो जाके छुपीं तो पता नहीं। सबने अंदर के दलान की कोठरी में जा देखा था। चप्पा चप्पा ढूंढ डाला। कोना कोना छान मारा। नियाज़ी ख़ानम क्या मिलतीं। छोटे बड़े सब हैरान। आख़िर माँ से रहा गया। बड़ी लड़कियों पर झुंजलाने लगीं कि ओई, भई ऐसा भी अंधेर नहीं चाहिए। एक तो वो ख़ुद ही शरीर ऊपर से तुमने उसे चिड़ा दिया। जाने किस चूहे के बिल में घुस कर बैठ गई। ये गर्मी पड़ रही है। कीड़े पतंगों के दिन, मेरी बच्ची को मारोगी। (आवाज़ से) “नियाज़ी बेटी निकल आओ। ये सब हारें तुम जीतीं। दम घुट जाएगा। बस खेल हो चुका।” देखते क्या हैं कि कोठरी के आगे जो छप्पर खट बिछा था उसके नीचे से निकली चली आती हैं।

    वालिदा: ग़ज़बी लड़की तू यहाँ थी।

    बड़ी बहन: और इसके नतीजे तो कई मर्तबा मैंने ख़ुद देखा है।

    मंझली बहन: छिपकिली को भी मात कर दिया सचमुच छप्पर खट के नीचे थीं।

    नियाज़ी: (हंसकर) और कहाँ से निकली। मैंने तुम्हारी आँखों पर बुरकी मार दी थी।

    बड़ी देर के बाद सबसे चीं बुलवाली तो बताया के निचले पाखों में घुस कर लेट गई थी। लाख पतली दुबली, हल्की फुल्की सही, बिनाई के ख़ला में इस तरह लेटना और फिर इतनी देर तक दम साधे पड़े रहना जिन्नाती काम है। गर्मी लगी जी घबराया। ख़ुदा की पनाह।

    एक कमाल, नियाज़ी ख़ानम की जो बात थी, हैरत में डालने वाली। हम तो कहते हैं कि नज़र क्यों नहीं लगती। अँधेरे कोठरी में सूई ऐसी पिरोलेतीं कि जैसे कोई बड़ा मश्शाक़ सूरज की रौशनी में पिरो दे। अँधेरी कोठरी में लिहाफ़ उढ़ा कर कैसे ही नाके की सूई देते, मिनट दो मिनट में इतनी सी बिटिया को सवा गज़ की चुटिया वाली कर देतीं। शुबहा हुआ कि अल्लामा तो है ही, कहीं ये चालाकी तो नहीं करती कि तागा पिरोई हुई सुइयां छुपा रखती हो। इस शक को दूर करने के लिए कई दफ़ा ऐसा किया कि ख़ूब टटोल टटोल कर सारे कपड़ों की तलाशी ली। चोटी तक खोल डाली। फिर आँखों पर कस कर पट्टी बाँधी। दो दो लिहाफ़ डाले, चारों तरफ़ से घेर लिया। और एक ने रंग बिरंग के तागे। अलग अलग, किसी की छोटी किसी की बड़ी सुइयां दीं कि अब देखें क्या कारस्तानी करती है। मगर अल्लाह ही जाने नियाज़ी ख़ानम के सर पर कोई आते थे या उनकी आँखें बिल्ली की सी थीं। बारी बारी से सब के तागे पिरो दिए।

    ऐसे हंसोड़े बच्चे लड़के हों या लड़कियां एक एक दिल्लगी का शगूफ़ा छोड़ते रहते हैं। इत्तफ़ाक़ से एक बिल्ली का बच्चा मियाऊं मियाऊं करता घर में घुस आया। वालिदा बोलीं, “अरे ये मुर्दा माल कहाँ से गया।” बहन ने देख कर कहा, “बुआ जल्दी बाहर फेंक़वा दो। उपलों की कोठड़ी या कबाड़ख़ाने में दुबक गया तो मुश्किल होगी। कमबख़्त कैसा घिनावना है।” नियाज़ी ख़ानम मुस्कुराईं। कहने लगीं “ए हे कैसा प्यारा बच्चा है। भई कुछ तो ख़ुदा का ख़ौफ़ करो। बेचारे को मारते क्यों हो।”

    बड़ी बहन: (मुस्कुराते हुए) जैसी रूह, वैसे फ़रिश्ते।

    मंझली: तो गले लगा लो ना।

    वालिदा: नौज, अब तुम ये लगा दो।

    नियाज़ी: विलायती बिल्ली का बच्चा है। ये कहती और मुस्कुराती दौड़ीं। बच्चे को गोद में उठा लिया। सब हाँ हाँ करते रहे। वालिदा ने बुरा-भला कहा, बहनों ने कीड़े डाले, मगर ये कब सुनने वाली थीं। दिल में जो समागई समागई। चलिए एक नया मश्ग़ला हाथ लगा। बिल्ली के बच्चे की ख़ातिरें होने लगीं। ख़ूबसूरत रेशमी पट्टा सी कर गले में डाला। छोटी सी रंगीन पाँव की खटोली मंगाई गई। हर वक़्त गोद में लिये लिये फिर रही हैं। दिनों दूध पिलाया। फिर छीछड़ों की जगह क़ीमा आता। जहाँ खाने को तर निवाले मिलें, आदमी क्या जानवर क्या ग़ींचा बन जाता है। वो मर जियोना, ज़रगुल बच्चा चंद रोज़ में चिकना चिकना जगादरी बिल्ला हो गया।

    अच्छा समां हुआ, फ़ारिग़-उल-बालियां हों तो आदमी को नई नई सूझती है। पैसा चाहिए और बेफ़िक्री, अनहोनी बातें किए जाइए। बहुत सी तक़रीबें शादी की हों या ग़मी की, बहुत से मेले ठेले, क्या हैं? ख़ुशहाली के वक़्तों की यादगारें। मिलकर बैठने, रंग रलियाँ मनाने और ख़ुश होने की तरकीबें। हाँ तो नियाज़ी ख़ानम को बैठे-बैठे हलहला उठा कि गुड्डे गुड़िया के ब्याह तो बहुत किए, बिल्ले की भी शादी करनी चाहिए। बड़ा मज़ा आएगा। अनोखी बात होगी। अब सोच हुआ कि बिल्ली कहाँ से आए। नज़र दौड़ाई तो याद आया कि छोटी आपा की सहेली रमज़ानी ख़ानम के हाँ बिल्ली है। याद आने की देर थी। घर में ज़िक्र किया। माँ बहनें भी आख़िर उन ही की माँ बहनें थीं। थोड़ी देर हंसी दिल्लगी करके सब राज़ी हो गए।

    रात को ये ज़िक्र हुआ था। नियाज़ी ख़ानम चुलबुली तबीयत वाली। हर चीज़ में जिद्दत, पलंग पर लेटे लेटे रुक़्क़े का मज़मून घड़ा। वो भी नज़्म में। सुबह उठते ही भाई से तक़ाज़ा कि “भय्या आज मकतब ज़रा ठहर कर जाना। मुझे अपने बेटे की मंगनी का रुक़्क़ा लिखवाना है। तुम ही बाज़ार से लाल काग़ज़ लाना।” चुनांचे सुनहरी रुपहली अफ़्शां किया हुआ लाल काग़ज़ आया। छोटे मौलाना लिखने बैठे, “हाँ बुआ क्या लिखूँ? बिस्मिल्लाहिर-रहमानिर-रहीम।” ठहरो, ज़रा दम लो। बताती हूँ। नियाज़ी ख़ामन का मटकना सा मुँह, ज़बान फ़र्राटे भर्ती हुई। शे’र जो रात को गढ़े गए थे। लिखवाने शुरू किए। घरवालों के पेटों में बल पड़े जाते थे। रुक़्क़ा तैयार हुआ तो लाल क़ंद के रूमाल में लपेट कर बेटी वालों के हाँ भेजा गया। वहाँ भी बड़ी हंसी हुई। दिनों मुहल्ले पर मुहल्ले इस रुक़्क़े की तुक बंदी का चर्चा रहा। जिसने सुना फड़क उठा। उस ज़माने के लोग ऐसे माक़ूल और क़द्रदान कहाँ थे जो उन चीज़ों को सैंत कर रखते। नियाज़ी ख़ानम अपने साथ ही ले गईं। दो तीन शे’र ख़ुदा जाने कितनी ज़बानी याददाश्तों की ठोकरें खाते हम तक पहुँचे हैं। आप भी सुन लें। वहुवा हज़ा,

    क़ीमा पसंदे खाता हूँ ज़रबफ़्त की है झोल

    ये इल्तिजा है कीजिए दामादी में क़बूल

    सूरत है सारी शेर की ख़सलत में आदमी

    आसूदा घर का बेटा हूँ किस बात की कमी

    ऐबी नहीं, सताओ नहीं, मुसमसन नहीं

    मुँह से किसी चूहे का लहू तक लगा नहीं

    बेटा बिलाव ख़ां का हूँ फ़िरोज़ नाम है

    पुश्तें गुज़र गईं हैं कि देहली मक़ाम है

    जैसा मज़ेदार रुक़्क़ा था, देखने वालों का सुनने वालों से बयान है कि शादी की रस्में भी बड़ी लुत्फ़ की थीं। ग़रज़ कि नियाज़ी ख़ानम बहू ब्याह लाईं। लोगों का ख़ुसूसन जाहिल औरतों का क़ायदा है कि जहाँ किसी से, लड़की हो या लड़का, औरत हो या मर्द ग़ैर मामूली हरकतें होती देखीं कह दिया कि उस पर तो कोई आता है। इसी तरह जानवरों के मुताल्लिक़ भी अजीब अजीब बातें मशहूर हो जाती हैं। बिल्ला बिल्ली के हज़ारों नहीं तो बीसियों क़िस्से हमने सुने हैं। नियाज़ी ख़ानम के बिल्ले पर भी बा’ज़ का गुमान था कि ज़रूर इसमें कोई असरार है और लड़की से जो अक़्ल में आने वाली बातें सरज़द होती हैं, वो बिल्ले की करिश्मा साज़ी है। एक बड़ी बी कहती थीं कि मैंने उस बिल्ले को देखा है। जिन्नों का शहज़ादा था। भला उसकी आँखों से आँखें मिला कर कोई देख तो ले। दीदे थे जैसे मशालें। ग़ुस्सा आता तो फूल कर गधे का गधा हो जाता। ऐसी आवाज़ें निकालता कि हैबत आती। ये भी सुना है कि जब मरा है तो बड़ी आंधी आई और बड़े ज़ोर का धमाका हुआ।

    और तो ख़ैर, इतनी बात तो सच है कि बिल्ले की मौत का नियाज़ी ख़ानम को बहुत रंज हुआ। कई वक़्त रोटी नहीं खाई। आदमियों का सा सोग किया। उसकी लाश को यूँही नहीं फेंकवाया बल्कि बाक़ायदा कफ़न दिया, दफ़न कराया। फ़ातिहा दुरूद भी किया। एक रिवायत ये भी सुनी गई है। दरोग़ बरगर्दन-ए-रावी कि बिल्ले के मरने के कुछ दिन बाद नियाज़ी ख़ानम ने अपनी एक राज़दार सहेली को बताया कि एक रात अपने प्यारे बिल्ले को याद करते करते मैंने कहा कि “फ़िरोज़ क्या सचमुच तुझमें कोई असर था और तू बिल्ले के रूप में परिस्तान का शहज़ादा था? अगर वाक़ई तू बिल्ला नहीं था तो ख़्वाब में मुझे अपनी सूरत दिखा जा। उसी रात आँख बंद होते ही ख़्वाब में देखा कि एक ख़ूबसूरत नौजवान ज़र्क़-बर्क़ कपड़े पहने मेरे सामने खड़ा मुस्कुरा रहा है।”

    अधर में लटकते हुए सफेदपोश लोगों को जो अमीर होंन लंगोटी बंद, बेटा बेटी के बंज में हमेशा से बड़ी दिक्कतें पेश आती हैं। दौलतमंद को कौन बेटी दे और उनकी बेटी कौन ले। कार पेशाओं की अपनी बिरादरी होती है। रिश्ते जुड़ने में क्या मुश्किल। दर्मियानी दर्जे वाले पहले भी इस मुआमले में बदनसीब थे और आज भी एक एक का मुँह तकते हैं। पैवंद नहीं मिलता। दो बेटियां तो जवान बैठी ही थीं। तीसरी नियाज़ी ख़ानम भी पहाड़ बनती चलीं। हर वक़्त नज़र दौड़ाते थे लेकिन कोई समझ में नहीं आता था। रात-दिन मौलवी साहब और उनकी बीवी इसी फ़िक्र में रहते। वो जो कहते हैं कि बेटियों का नसीब पत्ते के तले। जब खुलता है तो बे सान गुमान। जुमा का दिन था। मकतब की छुट्टी, मौलवी साहब घर ही में थे कि किसी ने दरवाज़े की कुंडी बजाई। निकल कर देखें तो पड़ोस के मिर्ज़ा साहब, अलैक सलैक के बाद ड्यूढ़ी में तख़्त पर दोनों बैठ गए।

    मौलाना: कहिए इस वक़्त कैसे तशरीफ़ लाए?

    मिर्ज़ा: कुछ अर्ज़ करना है (मुस्कराकर) आप जानते हैं जिस घर में बेरी का दरख़्त होता है पत्थर आने लाज़िमी हैं।

    मौलाना: (मतलब समझ कर) जी हाँ, मगर क्या कीजिए अल्लाह मियां को बेरी के दरख़्त ही बोने थे और एक छोड़ तीन तीन।

    मिर्ज़ा: (ज़रा से ताम्मुल के बाद) मेरे एक मिलने वाले जो बुलंदशहर के बाशिंदे और पूरे मौलवी हैं एक हफ़्ते से ग़रीबख़ाने पर तशरीफ़ फ़रमा हैं। कोई चालीस बरस का सिन है। निहायत मर्दे माक़ूल क़ौम के सिद्दीक़ी शेख़। शजरा-ए-नस्ब बेदाग़। आमदनी बहुत काफ़ी।

    मौलाना: बहुत ख़ूब, अच्छा फिर?

    मिर्ज़ा: उनकी बीवी हाल ही में, शायद छे महीने हुए होंगे, दो छोटे छोटे बच्चे छोड़कर इंतिक़ाल कर गईं। बेचारे परेशान हैं, शादी की फ़िक्र है।

    मौलाना: अल्लाह रहम करे। किसी बेवा से शादी कर लें, सवाब भी होगा।

    मिर्ज़ा: बेवा से तो जब करें कि कुंवारी लड़कियां मिलें।

    मौलाना: मौलवी हो कर सुन्नत से इन्हिराफ़! अपना अपना ख़याल है। तो फिर उन्हें अपने ही वतन में शादी करनी चाहिए, जाने बूझे लोग होंगे।

    मिर्ज़ा: देहात क़स्बात की बीवी उन्हें पसंद नहीं।

    मौलाना: ये क्यों?

    मिर्ज़ा: कहते हैं कि शहर वालियों की सी नस्तालीक़ ज़बान गंवारों को कहाँ नसीब।

    मौलाना: मुझे तो उनके चाल चलन में शक हो गया। उन्होंने यहाँ की शरीफ़ ज़ादियों को बातें करते कहाँ सुना?

    मिर्ज़ा: उनका बयान है कि पिछली मर्तबा जो मैं दिल्ली आया तो नावक़्त पहुँचा था। सराय में ठहर गया। भूक लगी हुई, भटियारी से खाने के लिए कहा। वो बोली, “मियां अब तो बाज़ार की सारी दुकानें ख़ैर से बंद हो गईं, मूंग की मुक़्क़शर दाल भूनी मसालेदार मौजूद है। इसे नोश फ़रमाकर देखिए पसंद आए तो फ़बिहा वरना अभी चलाद तैयार किए देती हूँ।” दौरान-ए-गुफ़्तगू में उसने मुक़्क़शर, नोश और फ़बिहा के अलावा और भी कई लफ़्ज़ इस बेतकल्लुफ़ी से बोले कि मैं हैरान रह गया।

    मौलाना: भटियारी पर लट्टू हो गए?

    मिर्ज़ा: तौबा तौबा! भटियारी पर क्या लट्टू होंगे। हाँ, दिल्ली की बेटी से शादी करने की क़सम खा ली।

    मौलाना: ये गुमान होगा कि जहाँ की भटियारियां बाहर के मौलवियों के कान कुतरें, वहाँ की बेगमात का तर्ज़-ए-गुफ़्तगू क्या होगा।

    मिर्ज़ा: जी हाँ, बरसों से मैं उन्हें जानता हूँ, इंतिहा दर्जे के शरीफ़, ख़लीक़ हैं। पहली बीवी ने जब तक ज़िंदा रही, ऐश किया। रोटी कपड़े की कमी नहीं। मेरा अपना ख़्याल है कि अगर आप उन्हें दामादी में क़बूल फ़रमाएं तो इंशा अल्लाह तआला आपको किसी तरह की शिकायत नहीं होगी।

    मौलाना: आपको उनके हसब नसब का यक़ीन है।

    मिर्ज़ा: बिल्कुल, मैं ज़िम्मेदार हूँ।

    मौलाना: (कुछ सोच कर) पैवंद तो ना-मुनासिब नहीं। उम्र ज़रा बड़ी है।

    मिर्ज़ा: आपकी छोटी लड़की भी तो ग़ालिबन शादी के क़ाबिल हो गई होगी।

    मौलाना: उसका अभी क्या ज़िक्र। पहले दोनों बड़ी बहनों का करना है।

    मिर्ज़ा: (दबी ज़बान से) मगर उनका ख़याल तो छोटी से है।

    मौलाना: ऊंट के गले में घंटाल! भई अव़्वल तो पंद्रह बरस की लड़की, चालीस साल के मर्द से मंसूब हो, दूसरे बड़ी बैठी रहें और छोटी के सहरा बंधे। आप ही सोचिए कहाँ तक मुनासिब है?

    मिर्ज़ा: जी इन बातों को जाने दीजिए। जिसका नसीब खुले। किसी तरह बंद तो टूटे, क्या ख़बर उसके बाद ही दोनों बहनों का मुक़द्दर भी जाग उठे।

    मौलाना का दिल तो मिर्ज़ा साहब को दुआएं दे रहा था कि ख़ूब बात लाए। कैसी छोटी और कैसी बड़ी एक पहाड़ तो छाती से टलता है। मगर बेटी के बाप थे फ़ौरन किस तरह हाँ कर लेते। कहने लगे, “अब आप फ़रमाते हैं तो मैं घर में ज़िक्र कर दूंगा। बड़ी रज़ामंदी तो माँ की है। मामुओं का मश्वरा भी ज़रूरी है। अगले जुमे तक मिलिएगा।”

    बुलंदशहर वाले मौलवी साहब को कौन नहीं जानता था। रस्मी बातचीत के बाद मुआमला तै हो गया। तै क्या एक जुमा बीच में छोड़कर दूसरे को इलाही! (देहली में निकाह के बाद शुहदे ये दुआ दूल्हा को दिया करते थे।) सत पूता हो, साज़गारी रहे। डाढ़ी के एक एक बार पर नूर बरसे, आमीन! का ग़ुल शुहदों ने मचा दिया। “लड़के की बरी बाज़ार में खड़ी” तो कहावत ही है। “मौलवी का ब्याह सर-ए-राह” की मिस्ल भी पूरी हो गई और पंद्रहवें दिन बी नियाज़ी ख़ानम दोनों बड़ी बहनों को मुँह चिड़ा बुलंदशहर जा पहुँचीं।

    तक़दीर जब जागती है तो यूँ जागती है। मौलवी साहब सच पूछो तो उम्र के लिहाज़ से नियाज़ी ख़ानम की जोड़ थे, लेकिन घटा हुआ बदन था। भंवरा सी काली डाढ़ी, रंग सुर्ख़-ओ-सफ़ेद। अच्छे टांटे। बेफ़िक्री की मिले तो आदमी कभी बूढ़ा नहीं होता, आदमी की जवानी का घुन तो पैसे की नहूत है। सबसे बढ़कर ये कि मौलवी साहब की तबीयत आम मौलवियों की तरह ख़ुश्क थी, बल्कि ग़ैर-मामूली शगुफ़्ता। दोनों एक डाली के फूल, रंगीन और ख़ंदां। वो बात करते तो खिले जाते, ये बात करतीं तो कलियाँ चटकने लगतीं। दोनों के नसीब ऐसे लड़े कि ख़ुदा सारे जहान की बेटियों और बेटों की ऐसी ही जोड़ी मिलाए।

    मौलवी साहब घर में अकेले थे। बच्चे अपनी नन्हियाल में रहते। मियां, बीवी के ममोले चुनते और बीवी मियां की तफ़रीह का सामान करतीं। कोई मुख़िल था। दोनों मसखरे, दोनों की जिबिल्लत में ज़राफ़त मगर एक नौ उम्र और तर्ज़-ए-ज़िदंगी के लिहाज़ से ज़रा लिए दिए हुए, फिर देहाती, एक शहर की छटी हुई शोख़ लड़की। बातों बातों में ऐसे ऐसे लताइफ़-ओ-ज़राइफ़ कह जाती, ऐसी नई नई चुहलें करती कि मियां बग़लें झांकते रह जाते। मौलाना की आदत थी कि जब घर में होते तो गाव तकिए से लग कर बड़े ठस्से से बैठते। गाव तकिया उठा दिया और गाव तकिए की सूरत खपचियां जोड़ कर तकिया बनाया। नया ग़िलाफ़ चढ़ाया और उसे क़ालीन पर सजा चुपकी बैठ गईं। मौलवी साहब तशरीफ़ लाए। अपनी आदत के मुवाफ़िक़ आते ही गाव तकिए से लग कर बैठे ही थे कि चुरमुर की आवाज़ आई। खपचियों का जाल टूटा और मौलाना ब-ईं रेश दफ़श उसके अंदर। पहलुओं में बाँस की तीलियों ने चुभना शुरू किया। तड़प कर खड़े हुए। बीवी दौड़ती हुई आईं, “हाएं क्या गाव तकिए ने पकड़ लिया। डाढ़ी की तो ख़ैर है। उई संभल कर नहीं बैठते। अल्लाह की अमान।” हंसी की बात भी क़हक़हों में ख़त्म हो गई।

    कई दिन का भुलावा देकर फिर ख़ानम ने अपने मज़ाक़ का पिटारा खोला। रात को मौलवी साहब की आमद से पहले एक खपची मोड़ कर पिटारी के आगे खड़ी की। सहारे के लिए इधर उधर दो तकिए खड़े लगा दिए और अपनी दुलाई उस पर इस तरह उढ़ाई गोया सर झुकाए छालिया कतर रही हैं। मियां को उनके करतूतों की क्या ख़बर। वो आए और सीधे पलंग पर बैठ गए। कड़वे तेल के चराग़ की रौशनी ही क्या होती है। समझे कि घरवाली पान बना रही हैं। बोले “क्यों जी, हमें भी पान मिलेगा? मुँह सीठा हो रहा है।” मगर जवाब नदारद। फिर कहा, “कुछ ख़फ़ा हो, क्या बैठे-बैठे ऊँघ गईं।” खपची क्या बोलती। “अरे साहब, नींद रही है तो पलंग पर लेट जाओ।” अब भी जवाब मिला तो उठकर पिटारी के पास आए और दुलाई का पल्ला खींच कर कहने लगे, “अल्लाह रे, तुम्हारे नख़रे, लो अब उठती हो या गोद में लेकर उठाऊं।” दुलाई को हाथ लगाना था कि खपची सीधी हो कर उछली। मौलाना कूद कर पीछे हटे। अंदर के दालान की बग़ली कोठड़ी में से क़हक़हे की आवाज़ आई। खिसियानी हंसी हंसते हुए जो देखते हैं तो दुलाई के नीचे बाँस की एक खपची और दो तकिए पड़े हैं।

    मियां: लाहौल वलाक़ुव्वत अरे बी! तुम भी।

    बीवी: (क़हक़हा लगाकर) तुम भी क्या। आपने मुझको शैतान मुक़र्रर किया है जो लाहौल पढ़ी।

    मियां: आख़िर ये कौन सी रहमानी हरकत थी।

    बीवी: बस डर गए। ज़रा सी खपची से, इतनी बड़ी डाढ़ी वाले मर्द हो कर।

    मियां: इस तरह बेख़बरी में तो आदमी परछाइयों से हौल खा जाता है।

    बीवी: नहीं तो आप शेर का मुक़ाबला करें।

    मियां: कभी मौक़ा मिला तो देख लेना।

    बीवी: माशा-अल्लाह! माशा-अल्लाह।

    ये तो चुहल की बातें थीं। अब हाज़िर जवाबी और तुकबंदी मुलाहिज़ा हो। गर्मी का मौसम था, रात का वक़्त। दोनों मियां बीवी बालाख़ाने पर खुले हुए सेहन में बिराज रहे थे। फ़तील सोज़ में कड़वे तेल का चराग़ रौशन है। हवा से बचाने के लिए बुर्जी नुमा झर झरे कपड़े का फ़ानूस ढका हुआ है। उस वक़्त लालटेन वग़ैरा कहाँ थीं। रौशनी और रौशनी की हिफ़ाज़त के लिए यही सामान थे। मौलाना को प्यास लगी। ख़ुदा जाने क्या सूझी। शायरी को मौलवियों से क्या इलाक़ा। लेकिन नई बीवी सोहबत का असर, तुकबंदी को जी चाहा। एक मिसरा गढ़ा और कहने लगे “आब-ए-ख़ुनुक सुराही से जल्दी उंडेल दो।” बीवी मुस्कुराती हुई उठीं कि इतने में चराग़ का तेल ख़त्म हो चुका था। सुराही के पास जाते-जाते उनकी शायरी भी उकसी। वहीं से बोलीं “अँधेरा हो रहा है उठो ला के तेल दो।” मौलवी साहब नीचे गए। बोतल देखी तो तेल नदारद, आवाज़ लगाई,

    बोतल में एक बूँद भी बाक़ी नहीं है तेल

    बीवी बस आज रात तो यूँही ढकेल दो

    नियाज़ी ख़ानम पूरा शेर सुनतीं और चुप रहतीं। फ़ौरन सुर में सुर मिलाया,

    तेली के घर में तेल का क्या काल मौलवी

    टटख़ारी मार कोल्हू के बैलों को ठेल दो

    मियां को उसके जवाब में क़ाफ़िए की तलाश हुई। टटोलते हुए ऊपर आए और कहने लगे,

    सरसों कहीं धरी है जो घानी में रेल दो

    यहाँ ख़ानम का क़ाफ़िया भी तंग हुआ। इत्तफ़ाक़ से मौलवी साहब ज़मींदार भी थे। उनकी किसी असामी के हाँ से उसी दिन अलसी दो बोरियां आई थीं। सूझ ही तो है। फ़ौरन जवाब दिया,

    सरसों अगर नहीं है तो अलसी को पेल दो

    मौलवी साहब फिसड्डी रहे जाते थे ज़ोर लगाकर बोले,

    क्यों रात खोटी करती हो सोने का मेल दो

    रात ज़्यादा चुकी थी। चराग़ बुझ चुका था। अँधेरे में क़ाफ़िए भी नहीं सूझते थे। आख़िर बीवी ने ये कह कर “कब तक ये ग़म्ज़े ऊंट को अपने नकेल दो।” मुशायरा ख़त्म किया और दोनों सो गए। मौलवी साहब अपने को अरबी नस्ल से बताते थे, इसलिए उन पर ऊंट और नकेल की फब्ती ऐसी हुई कि दोनों नहीं भूले। (दिल्ली की चंद अजीब हस्तियाँ/ अशर्फ़ सबूही देहलवी, किताब का सफ़ा 198 और 199 Missing है)

    बच्चे और दिल्ली की माँ। क्या कहना है, ख़ूब उठाया।

    सदा रहे नाम अल्लाह का। अफ़सोस ये ज़िंदा दिल और लायक़ बीवी ज़्यादा अर्से ज़िंदा नहीं रहीं। बड़ी मन्नतों से कई साल के बाद औलाद की उम्मीद हुई थी। कच्चा बच्चा हुआ। क़स्बे की दाइयाँ जाहिल। बेचारी जवान लहलहाती हुई चली गईं। मौलवी साहब को कितना सदमा हुआ बस ये समझ लो कि बाक़ी ज़िंदगी उन्होंने घर में बैठ कर गुज़ार दी। या तो वाज़ में भी हंसने हंसाने से बाज़ रहते या फिर किसी ने उन्हें मुस्कुराते भी नहीं देखा। कोई उन्हें पुरानी बातें याद दिला कर हंसाना चाहता तो कह देते,

    ज़िंदगी ज़िंदा दिली का है नाम

    मुर्दा दिल ख़ाक हंसा करते हैं

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