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होली

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    जब आई होली रंग-भरी सौ नाज़-ओ-अदा से मटक मटक

    और घूँघट के पट खोल दिए वो रूप दिखला चमक चमक

    कुछ मुखड़ा करता दमक दमक कुछ अबरन करता झलक झलक

    जब पाँव रखा ख़ुश-वक़्ती से तब पाइल बाजी झनक झनक

    कुछ उछलीं सुन्नतें नाज़ भरीं कुछ गोदें आईं थिरक थिरक

    ये रूप दिखा कर होली के जब मैन रसीले टुक मटके

    मँगवाए थाल गुलालों के भर डाले रंगों से मटके

    फिर साँग बहुत तय्यार हुए और ठाठ ख़ुशी के झुर मटके

    ग़ुल शोर हुए ख़ुश-हाली के और नाचने गाने के खटके

    मिर्दंगें बाजें ताल बजे कुछ खनक खनक कुछ धनक धनक

    पोशाक-ए-छिड़कवां से हर जा तय्यारी रंगीं-पोशों की

    और भीगी जागह रंगों से कर कुंज गली और कूचों की

    हर जागह ज़र्द लिबासों से हुई ज़ीनत सब आग़ोशों की

    सौ ऐश-ओ-तरब की धुएँ में और महफ़िल में मय-नोशों की

    मय निकली जाम गुलाबी कुछ लहक लहक कुछ छलक छलक

    हर चार तरफ़ ख़ुश-वक़्ती से दफ़ बाजे रंग और रंग होई

    कुछ धूमें फ़रहत इशरत की कुछ ऐश ख़ुशी के रंग हुए

    दिल शाद हुए ख़ुश-हाली से और इशरत के सौ ढंग हुए

    ये झमकी रंगत होली की जो देखने वाले दंग हुए

    महबूब परी-रू भी निकले कुछ झिजक झिजक कुछ ठिठक ठिठक

    जब ख़ूबाँ आए रंग भरे फिर क्या क्या होली झमक उठी

    कुछ हुस्न की झमकें नाज़ भरीं कुछ शोख़ी नाज़ अदाओं की

    सब चूमने वाले गिर्द दुखड़े नज़ारा करते हँसी-ख़ुशी

    महबूब नशे की ख़ूबी में फिर आशिक़ ऊपर घड़ी घड़ी

    हैं रंग छिड़कते सुर्ख़ी के कुछ लपक लपक कुछ झपक झपक

    है धूम ख़ुशी की हर जानिब और कसरत है ख़ुश-वक़्ती की

    हैं चर्चे होते फ़रहत के और इशरत की भी धूम मची

    ख़ूबाँ के रंगीं चेहरों पर हर आन निगाहें हैं लड़ती

    महबूब भिगोएँ आशिक़ को और आशिक़ हँस कर उन को भी

    ख़ुश हो कर उन को भिगोवें हैं कुछ अटक अटक कुछ हुमक हुमक

    वो शोख़ रंगीला जब आया याँ होली की कर तय्यारी

    पोशाक सुनहरी ज़ेब-ए-बदन और हाथ चमकती पिचकारी

    की रंग छिड़कने से क्या क्या उस शोख़ ने हर-दम अय्यारी

    हम ने भी 'नज़ीर' उस चंचल को फिर ख़ूब भिगोया हर बारी

    फिर क्या क्या रंग बहे उस दम कुछ ढलक ढलक कुछ चिपक चिपक

    स्रोत:

    कुल्लियात-ए-नज़ीर (Pg. 543)

    • लेखक: नज़ीर अकबराबादी
      • प्रकाशक: मुंशी नवल किशोर, लखनऊ
      • प्रकाशन वर्ष: 1951

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