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इबलीस की मजलिस-ए-शूरा

अल्लामा इक़बाल

इबलीस की मजलिस-ए-शूरा

अल्लामा इक़बाल

MORE BYअल्लामा इक़बाल

    इबलीस

    ये अनासिर का पुराना खेल ये दुनिया-ए-दूँ

    साकिनान-ए-अर्श-ए-आज़म की तमन्नाओं का ख़ूँ

    इस की बर्बादी पे आज आमादा है वो कारसाज़

    जिस ने इस का नाम रखा था जहान-ए-काफ़-अो-नूँ

    मैं ने दिखलाया फ़रंगी को मुलूकियत का ख़्वाब

    मैं ने तोड़ा मस्जिद-ओ-दैर-ओ-कलीसा का फ़ुसूँ

    मैं ने नादारों को सिखलाया सबक़ तक़दीर का

    मैं ने मुनइ'म को दिया सरमाया दारी का जुनूँ

    कौन कर सकता है इस की आतिश-ए-सोज़ाँ को सर्द

    जिस के हंगामों में हो इबलीस का सोज़-ए-दरूँ

    जिस की शाख़ें हों हमारी आबियारी से बुलंद

    कौन कर सकता है इस नख़्ल-ए-कुहन को सर-निगूँ

    पहला मुशीर

    इस में क्या शक है कि मोहकम है ये इबलीसी निज़ाम

    पुख़्ता-तर इस से हुए ख़ू-ए-ग़ुलामी में अवाम

    है अज़ल से इन ग़रीबों के मुक़द्दर में सुजूद

    इन की फ़ितरत का तक़ाज़ा है नमाज़-ए-बे-क़याम

    आरज़ू अव्वल तो पैदा हो नहीं सकती कहीं

    हो कहीं पैदा तो मर जाती है या रहती है ख़ाम

    ये हमारी सई-ए-पैहम की करामत है कि आज

    सूफ़ी-ओ-मुल्ला मुलूकिय्यत के बंदे हैं तमाम

    तब-ए-मशरिक़ के लिए मौज़ूँ यही अफ़यून थी

    वर्ना क़व्वाली से कुछ कम-तर नहीं इल्म-ए-कलाम

    है तवाफ़-ओ-हज का हंगामा अगर बाक़ी तो क्या

    कुंद हो कर रह गई मोमिन की तेग़-ए-बे-नियाम

    किस की नौ-मीदी पे हुज्जत है ये फ़रमान-ए-जदीद

    है जिहाद इस दौर में मर्द-ए-मुसलमाँ पर हराम

    दूसरा मुशीर

    ख़ैर है सुल्तानी-ए-जम्हूर का ग़ौग़ा कि शर

    तू जहाँ के ताज़ा फ़ित्नों से नहीं है बा-ख़बर

    पहला मुशीर

    हूँ मगर मेरी जहाँ-बीनी बताती है मुझे

    जो मुलूकियत का इक पर्दा हो क्या इस से ख़तर

    हम ने ख़ुद शाही को पहनाया है जमहूरी लिबास

    जब ज़रा आदम हुआ है ख़ुद-शनास-ओ-ख़ुद-निगर

    कारोबार-ए-शहरयारी की हक़ीक़त और है

    ये वजूद-ए-मीर-ओ-सुल्ताँ पर नहीं है मुनहसिर

    मज्लिस-ए-मिल्लत हो या परवेज़ का दरबार हो

    है वो सुल्ताँ ग़ैर की खेती पे हो जिस की नज़र

    तू ने क्या देखा नहीं मग़रिब का जमहूरी निज़ाम

    चेहरा रौशन अंदरूँ चंगेज़ से तारीक-तर

    तीसरा मुशीर

    रूह-ए-सुल्तानी रहे बाक़ी तो फिर क्या इज़्तिराब

    है मगर क्या इस यहूदी की शरारत का जवाब

    वो कलीम-ए-बे-तजल्ली वो मसीह-ए-बे-सलीब

    नीस्त पैग़मबर व-लेकिन दर बग़ल दारद किताब

    क्या बताऊँ क्या है काफ़िर की निगाह-ए-पर्दा-सोज़

    मश्रिक-ओ-मग़रिब की क़ौमों के लिए रोज़-ए-हिसाब

    इस से बढ़ कर और क्या होगा तबीअ'त का फ़साद

    तोड़ दी बंदों ने आक़ाओं के ख़ेमों की तनाब

    चौथा मुशीर

    तोड़ इस का रुमत-उल-कुबरा के ऐवानों में देख

    आल-ए-सीज़र को दिखाया हम ने फिर सीज़र का ख़्वाब

    कौन बहर-ए-रुम की मौजों से है लिपटा हुआ

    गाह बालद-चूँ-सनोबर गाह नालद-चूँ-रुबाब

    तीसरा मुशीर

    मैं तो इस की आक़िबत-बीनी का कुछ क़ाइल नहीं

    जिस ने अफ़रंगी सियासत को क्या यूँ बे-हिजाब

    पाँचवाँ मुशीर इबलीस को मुख़ातब कर के

    तिरे सोज़-ए-नफ़स से कार-ए-आलम उस्तुवार

    तू ने जब चाहा किया हर पर्दगी को आश्कार

    आब-ओ-गिल तेरी हरारत से जहान-ए-सोज़-अो-साज़़

    अब्लह-ए-जन्नत तिरी तालीम से दाना-ए-कार

    तुझ से बढ़ कर फ़ितरत-ए-आदम का वो महरम नहीं

    सादा-दिल बंदों में जो मशहूर है पर्वरदिगार

    काम था जिन का फ़क़त तक़्दीस-ओ-तस्बीह-ओ-तवाफ़

    तेरी ग़ैरत से अबद तक सर-निगूँ-ओ-शर्मसार

    गरचे हैं तेरे मुरीद अफ़रंग के साहिर तमाम

    अब मुझे उन की फ़रासत पर नहीं है ए'तिबार

    वो यहूदी फ़ित्ना-गर वो रूह-ए-मज़दक का बुरूज़

    हर क़बा होने को है इस के जुनूँ से तार तार

    ज़ाग़ दश्ती हो रहा है हम-सर-ए-शाहीन-अो-चर्ग़

    कितनी सुरअ'त से बदलता है मिज़ाज-ए-रोज़गार

    छा गई आशुफ़्ता हो कर वुसअ'त-ए-अफ़्लाक पर

    जिस को नादानी से हम समझे थे इक मुश्त-ए-ग़ुबार

    फ़ितना-ए-फ़र्दा की हैबत का ये आलम है कि आज

    काँपते हैं कोहसार-ओ-मुर्ग़-ज़ार-ओ-जूएबार

    मेरे आक़ा वो जहाँ ज़ेर-ओ-ज़बर होने को है

    जिस जहाँ का है फ़क़त तेरी सियादत पर मदार

    RECITATIONS

    अल्लामा इक़बाल

    अल्लामा इक़बाल,

    अल्लामा इक़बाल

    इबलीस की मजलिस-ए-शूरा अल्लामा इक़बाल

    स्रोत:

    Kulliyat-e-Iqbal (Pg. 539)

    • लेखक: Iqbal
      • संस्करण: 1993
      • प्रकाशक: Dawat Offset Printers, Delhi-110006
      • प्रकाशन वर्ष: 1993

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