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बेइंतिहा लोकप्रिय शायर/अपनी रूमानी और विरोधी शायरी के लिए प्रसिद्ध

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अहमद फ़राज़ के शेर

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साए हैं अगर हम तो हो क्यूँ हम से गुरेज़ाँ

दीवार अगर हैं तो गिरा क्यूँ नहीं देते

साक़ी ये ख़मोशी भी तो कुछ ग़ौर-तलब है

साक़ी तिरे मय-ख़्वार बड़ी देर से चुप हैं

वो अपने ज़ोम में था बे-ख़बर रहा मुझ से

उसे ख़बर ही नहीं मैं नहीं रहा उस का

हो दूर इस तरह कि तिरा ग़म जुदा हो

पास तो यूँ कि जैसे कभी तू मिला हो

मिरे ज़ख़्म खिले हैं तिरा रंग-ए-हिना

मौसम आए ही नहीं अब के गुलाबों वाले

अगर तुम्हारी अना ही का है सवाल तो फिर

चलो मैं हाथ बढ़ाता हूँ दोस्ती के लिए

हुआ है तुझ से बिछड़ने के बा'द ये मा'लूम

कि तू नहीं था तिरे साथ एक दुनिया थी

चारागर ने बहर-ए-तस्कीं रख दिया है दिल पे हाथ

मेहरबाँ है वो मगर ना-आश्ना-ए-ज़ख़्म है

किसी को घर से निकलते ही मिल गई मंज़िल

कोई हमारी तरह उम्र भर सफ़र में रहा

हवा-ए-ज़ुल्म सोचती है किस भँवर में गई

वो इक दिया बुझा तो सैंकड़ों दिए जला गया

तअ'ना-ए-नश्शा दो सब को कि कुछ सोख़्ता-जाँ

शिद्दत-ए-तिश्ना-लबी से भी बहक जाते हैं

शब रोज़ ही बदले हैं हाल अच्छा है

किस बरहमन ने कहा था कि ये साल अच्छा है

उस का क्या है तुम सही तो चाहने वाले और बहुत

तर्क-ए-मोहब्बत करने वालो तुम तन्हा रह जाओगे

टूटा तो हूँ मगर अभी बिखरा नहीं 'फ़राज़'

मेरे बदन पे जैसे शिकस्तों का जाल हो

जब भी ज़मीर-ओ-ज़र्फ़ का सौदा हो दोस्तो

क़ाएम रहो हुसैन के इंकार की तरह

इस इंतिहा-ए-क़ुर्ब ने धुँदला दिया तुझे

कुछ दूर हो कि देख सुकूँ तेरा बाँकपन

किसी बेवफ़ा की ख़ातिर ये जुनूँ 'फ़राज़' कब तक

जो तुम्हें भुला चुका है उसे तुम भी भूल जाओ

कुछ इस तरह से गुज़ारी है ज़िंदगी जैसे

तमाम उम्र किसी दूसरे के घर में रहा

ये शहर मेरे लिए अजनबी था लेकिन

तुम्हारे साथ बदलती गईं फ़ज़ाएँ भी

इस अहद-ए-ज़ुल्म में मैं भी शरीक हूँ जैसे

मिरा सुकूत मुझे सख़्त मुजरिमाना लगा

मैं भी पलकों पे सजा लूँगा लहू की बूँदें

तुम भी पा-बस्ता-ए-ज़ंजीर-ए-हिना हो जाना

ज़िंदगी से यही गिला है मुझे

तू बहुत देर से मिला है मुझे

हम-सफ़र चाहिए हुजूम नहीं

इक मुसाफ़िर भी क़ाफ़िला है मुझे

तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल

हार जाने का हौसला है मुझे

जो ग़ज़ल आज तिरे हिज्र में लिक्खी है वो कल

क्या ख़बर अहल-ए-मोहब्बत का तराना बन जाए

इस से बढ़ कर कोई इनआम-ए-हुनर क्या है 'फ़राज़'

अपने ही अहद में एक शख़्स फ़साना बन जाए

देखो ये किसी और की आँखें हैं कि मेरी

देखूँ ये किसी और का चेहरा है कि तुम हो

जिस सम्त भी देखूँ नज़र आता है कि तुम हो

जान-ए-जहाँ ये कोई तुम सा है कि तुम हो

जुज़ तिरे कोई भी दिन रात जाने मेरे

तू कहाँ है मगर दोस्त पुराने मेरे

आज इक और बरस बीत गया उस के बग़ैर

जिस के होते हुए होते थे ज़माने मेरे

कौन ताक़ों पे रहा कौन सर-ए-राहगुज़र

शहर के सारे चराग़ों को हवा जानती है

हुजूम ऐसा कि राहें नज़र नहीं आतीं

नसीब ऐसा कि अब तक तो क़ाफ़िला हुआ

इस ज़िंदगी में इतनी फ़राग़त किसे नसीब

इतना याद कि तुझे भूल जाएँ हम

तू इतनी दिल-ज़दा तो थी शब-ए-फ़िराक़

तेरे रास्ते में सितारे लुटाएँ हम

अब और क्या किसी से मरासिम बढ़ाएँ हम

ये भी बहुत है तुझ को अगर भूल जाएँ हम

दिल को तिरी चाहत पे भरोसा भी बहुत है

और तुझ से बिछड़ जाने का डर भी नहीं जाता

तुझ को मात हुई है मुझ को मात हुई

सो अब के दोनों ही चालें बदल के देखते हैं

जुदाइयाँ तो मुक़द्दर हैं फिर भी जान-ए-सफ़र

कुछ और दूर ज़रा साथ चल के देखते हैं

अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं

'फ़राज़' अब ज़रा लहजा बदल के देखते हैं

बहुत दिनों से नहीं है कुछ उस की ख़ैर ख़बर

चलो 'फ़राज़' को यार चल के देखते हैं

तू सामने है तो फिर क्यूँ यक़ीं नहीं आता

ये बार बार जो आँखों को मल के देखते हैं

ज़िंदगी फैली हुई थी शाम-ए-हिज्राँ की तरह

किस को इतना हौसला था कौन जी कर देखता

अब ज़मीं पर कोई गौतम मोहम्मद मसीह

आसमानों से नए लोग उतारे जाएँ

ये दिल का दर्द तो उम्रों का रोग है प्यारे

सो जाए भी तो पहर दो पहर को जाता है

गुफ़्तुगू अच्छी लगी ज़ौक़-ए-नज़र अच्छा लगा

मुद्दतों के बाद कोई हम-सफ़र अच्छा लगा

हर तरह की बे-सर-ओ-सामानियों के बावजूद

आज वो आया तो मुझ को अपना घर अच्छा लगा

दिल का दुख जाना तो दिल का मसअला है पर हमें

उस का हँस देना हमारे हाल पर अच्छा लगा

'मीर' के मानिंद अक्सर ज़ीस्त करता था 'फ़राज़'

था तो वो दीवाना सा शाइर मगर अच्छा लगा

इस क़दर मुसलसल थीं शिद्दतें जुदाई की

आज पहली बार उस से मैं ने बेवफ़ाई की

कभी 'फ़राज़' से कर मिलो जो वक़्त मिले

ये शख़्स ख़ूब है अशआर के अलावा भी

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