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अहमद नदीम क़ासमी

1916 - 2006 | लाहौर, पाकिस्तान

पाकिस्तान के शीर्ष प्रगतिशील शायर/कहानीकारों में भी महत्वपूर्ण स्थान/सआदत हसन मंटो के समकालीन

पाकिस्तान के शीर्ष प्रगतिशील शायर/कहानीकारों में भी महत्वपूर्ण स्थान/सआदत हसन मंटो के समकालीन

अहमद नदीम क़ासमी के शेर

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कौन कहता है कि मौत आई तो मर जाऊँगा

मैं तो दरिया हूँ समुंदर में उतर जाऊँगा

जिस भी फ़नकार का शहकार हो तुम

उस ने सदियों तुम्हें सोचा होगा

आख़िर दुआ करें भी तो किस मुद्दआ के साथ

कैसे ज़मीं की बात कहें आसमाँ से हम

इक सफ़ीना है तिरी याद अगर

इक समुंदर है मिरी तन्हाई

मैं ने समझा था कि लौट आते हैं जाने वाले

तू ने जा कर तो जुदाई मिरी क़िस्मत कर दी

मर जाता हूँ जब ये सोचता हूँ

मैं तेरे बग़ैर जी रहा हूँ

तुझ से किस तरह मैं इज़हार-ए-तमन्ना करता

लफ़्ज़ सूझा तो मआ'नी ने बग़ावत कर दी

मुसाफ़िर ही मुसाफ़िर हर तरफ़ हैं

मगर हर शख़्स तन्हा जा रहा है

कुछ खेल नहीं है इश्क़ करना

ये ज़िंदगी भर का रत-जगा है

ज़िंदगी शम्अ की मानिंद जलाता हूँ 'नदीम'

बुझ तो जाऊँगा मगर सुबह तो कर जाऊँगा

उस वक़्त का हिसाब क्या दूँ

जो तेरे बग़ैर कट गया है

ख़ुदा करे कि तिरी उम्र में गिने जाएँ

वो दिन जो हम ने तिरे हिज्र में गुज़ारे थे

आज की रात भी तन्हा ही कटी

आज के दिन भी अंधेरा होगा

सुब्ह होते ही निकल आते हैं बाज़ार में लोग

गठरियाँ सर पे उठाए हुए ईमानों की

मुझ को दुश्मन के इरादों पे भी प्यार आता है

तिरी उल्फ़त ने मोहब्बत मिरी आदत कर दी

अंदाज़ हू-ब-हू तिरी आवाज़-ए-पा का था

देखा निकल के घर से तो झोंका हवा का था

मैं कश्ती में अकेला तो नहीं हूँ

मिरे हमराह दरिया जा रहा है

इतना मानूस हूँ सन्नाटे से

कोई बोले तो बुरा लगता है

दिल गया था तो ये आँखें भी कोई ले जाता

मैं फ़क़त एक ही तस्वीर कहाँ तक देखूँ

सारी दुनिया हमें पहचानती है

कोई हम सा भी तन्हा होगा

मुझे मंज़ूर गर तर्क-ए-तअल्लुक़ है रज़ा तेरी

मगर टूटेगा रिश्ता दर्द का आहिस्ता आहिस्ता

जन्नत मिली झूटों को अगर झूट के बदले

सच्चों को सज़ा में है जहन्नम भी गवारा

इक उम्र के बा'द मुस्कुरा कर

तू ने तो मुझे रुला दिया है

किस तवक़्क़ो पे किसी को देखें

कोई तुम से भी हसीं क्या होगा

पा कर भी तो नींद उड़ गई थी

खो कर भी तो रत-जगे मिले हैं

मैं तेरे कहे से चुप हूँ लेकिन

चुप भी तो बयान-ए-मुद्दआ है

भरी दुनिया में फ़क़त मुझ से निगाहें चुरा

इश्क़ पर बस चलेगा तिरी दानाई का

हर लम्हा अगर गुरेज़-पा है

तू क्यूँ मिरे दिल में बस गया है

उन का आना हश्र से कुछ कम था

और जब पलटे क़यामत ढा गए

मिरे ख़ुदा ने किया था मुझे असीर-ए-बहिश्त

मिरे गुनह ने रिहाई मुझे दिलाई है

फ़रेब खाने को पेशा बना लिया हम ने

जब एक बार वफ़ा का फ़रेब खा बैठे

तू ने यूँ देखा है जैसे कभी देखा ही था

मैं तो दिल में तिरे क़दमों के निशाँ तक देखूँ

उम्र भर संग-ज़नी करते रहे अहल-ए-वतन

ये अलग बात कि दफ़नाएँगे एज़ाज़ के साथ

अजब तज़ाद में काटा है ज़िंदगी का सफ़र

लबों पे प्यास थी बादल थे सर पे छाए हुए

लोग कहते हैं कि साया तिरे पैकर का नहीं

मैं तो कहता हूँ ज़माने पे है साया तेरा

ख़ुद को तो 'नदीम' आज़माया

अब मर के ख़ुदा को आज़माऊँ

मिरा वजूद मिरी रूह को पुकारता है

तिरी तरफ़ भी चलूँ तो ठहर ठहर जाऊँ

जकड़ी हुई है इन में मिरी सारी काएनात

गो देखने में नर्म है तेरी कलाइयाँ

शाम को सुब्ह-ए-चमन याद आई

किस की ख़ुशबू-ए-बदन याद आई

आग़ोश में महकोगे दिखाई नहीं दोगे

तुम निकहत-ए-गुलज़ार हो हम पर्दा-ए-शब हैं

किस दिल से करूँ विदाअ' तुझ को

टूटा जो सितारा बुझ गया है

तुम मिरे इरादों के डोलते सितारों को

यास के ख़लाओं में रास्ता दिखाते हो

ग़म-ए-जानाँ ग़म-ए-दौराँ की तरफ़ यूँ आया

जानिब शहर चले दुख़्तर-ए-दहक़ाँ जैसे

यकसाँ हैं फ़िराक़-ए-वस्ल दोनों

ये मरहले एक से कड़े हैं

मुझ से काफ़िर को तिरे इश्क़ ने यूँ शरमाया

दिल तुझे देख के धड़का तो ख़ुदा याद आया

Recitation

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