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अख़तर मुस्लिमी

1928 - 1989 | आज़मगढ़, भारत

परम्परा की गहरी चेतना के साथ शायरी करने के लिए प्रसिद्ध

परम्परा की गहरी चेतना के साथ शायरी करने के लिए प्रसिद्ध

अख़तर मुस्लिमी के शेर

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फ़रेब-ख़ुर्दा है इतना कि मेरे दिल को अभी

तुम चुके हो मगर इंतिज़ार बाक़ी है

एक ही अंजाम है दोस्त हुस्न इश्क़ का

शम्अ भी बुझती है परवानों के जल जाने के ब'अद

इक़रार-ए-मोहब्बत तो बड़ी बात है लेकिन

इंकार-ए-मोहब्बत की अदा और ही कुछ है

मेरे किरदार में मुज़्मर है तुम्हारा किरदार

देख कर क्यूँ मिरी तस्वीर ख़फ़ा हो तुम लोग

इंसाफ़ के पर्दे में ये क्या ज़ुल्म है यारो

देते हो सज़ा और ख़ता और ही कुछ है

ख़ुशी ही शर्त नहीं लुत्फ़-ए-ज़िंदगी के लिए

मता-ए-ग़म भी ज़रूरी है आदमी के लिए

अश्क वो है जो रहे आँख में गौहर बन कर

और टूटे तो बिखर जाए नगीनों की तरह

अजीब उलझन में तू ने डाला मुझे भी गर्दिश-ए-ज़माना

सुकून मिलता नहीं क़फ़स में रास आता है आशियाना

देहात के बसने वाले तो इख़्लास के पैकर होते हैं

काश नई तहज़ीब की रौ शहरों से आती गाँव में

जो बा-ख़बर थे वो देते रहे फ़रेब मुझे

तिरा पता जो मिला एक बे-ख़बर से मिला

तुम्हारी बज़्म की यूँ आबरू बढ़ा के चले

पिए बग़ैर ही हम पाँव लड़खड़ा के चले

हाँ ये भी तरीक़ा अच्छा है तुम ख़्वाब में मिलते हो मुझ से

आते भी नहीं ग़म-ख़ाने तक वादा भी वफ़ा हो जाता है

दी उस ने मुझ को जुर्म-ए-मोहब्बत की वो सज़ा

कुछ बे-क़ुसूर लोग सज़ा माँगने लगे

मुझ को मंज़ूर नहीं इश्क़ को रुस्वा करना

है जिगर चाक मगर लब पे हँसी है दोस्त

मिरे दिल पे हाथ रख कर मुझे देने वाले तस्कीं

कहीं दिल की धड़कनों से तुझे चोट जाए

सुन के रूदाद-ए-अलम मेरी वो हँस कर बोले

और भी कोई फ़साना है तुम्हें याद कि बस

थीं तुम्हारी जिस पे नवाज़िशें कभी तुम भी जिस पे थे मेहरबाँ

ये वही है 'अख़्तर'-ए-मुस्लिमी तुम्हें याद हो कि याद हो

हर शाख़-ए-चमन है अफ़्सुर्दा हर फूल का चेहरा पज़मुर्दा

आग़ाज़ ही जब ऐसा है तो फिर अंजाम-ए-बहाराँ क्या होगा

सब्र-ओ-क़रार-ए-दिल मिरे जाने कहाँ चले गए

बिछड़े हुए फिर मिले ऐसे हुए जुदा कि बस

वफ़ा करो जफ़ा मिले भला करो बुरा मिले

है रीत देश देश की चलन चलन की बात है

रह-ए-वफ़ा में लुटा कर मता-ए-क़ल्ब-ओ-जिगर

किया है तेरी मोहब्बत का हक़ अदा मैं ने

उस को भड़काऊ दामन की हवाएँ दे कर

शोला-ए-इश्क़ मिरे दिल में दबा रहने दो

लज़्ज़त-ए-दर्द मिली जुर्म-ए-मोहब्बत में उसे

वो सज़ा पाई है दल ने कि ख़ता झूम उठी

कुछ इस तरह के बहारों ने गुल खिलाए हैं

कि अब तो फ़स्ल-ए-बहाराँ से डर लगे है मुझे

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