अताउर्रहमान जमील
ग़ज़ल 7
अशआर 7
आने वाली आ नहीं चुकती जाने वाली जा भी चुकी
वैसे तो हर जाने वाली रात थी आने वाली रात
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ये दुनिया है यहाँ हर आबगीना टूट जाता है
कहीं छुपते फिरो आख़िर ज़माना ढूँढ ही लेगा
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कुछ ख़्वाब कुछ ख़याल में मस्तूर हो गए
तुम क्या क़रीब निकले कि सब दूर हो गए
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उन को भी 'जमील' अपने मुक़द्दर से गिला है
वो लोग जो सुनते थे कि चालाक बहुत हैं
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तुम्हारी बज़्म से जब भी उठे तो हाल-ज़दा
कभी जवाब के मारे कभी सवाल-ज़दा
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