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इमाम बख़्श नासिख़

1772 - 1838 | लखनऊ, भारत

लखनऊ के मुम्ताज़ और नई राह बनाने वाले शायर/मिर्ज़ा ग़ालिब के समकालीन

लखनऊ के मुम्ताज़ और नई राह बनाने वाले शायर/मिर्ज़ा ग़ालिब के समकालीन

इमाम बख़्श नासिख़

ग़ज़ल 45

अशआर 51

ख़ुद ग़लत है जो कहे होती है तक़दीर ग़लत

कहीं क़िस्मत की भी हो सकती है तहरीर ग़लत

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जुस्तुजू करनी हर इक अम्र में नादानी है

जो कि पेशानी पे लिक्खी है वो पेश आनी है

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तंग जब जब कहा मैं ने कि मर जाऊँ कहीं

बद-गुमाँ समझा कि इस को इश्तियाक़-ए-हूर है

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दरिया-ए-हुस्न और भी दो हाथ बढ़ गया

अंगड़ाई उस ने नश्शे में ली जब उठा के हाथ

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फ़ुर्क़त-ए-यार में इंसान हूँ मैं या कि सहाब

हर बरस के रुला जाती है बरसात मुझे

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पुस्तकें 36

ऑडियो 5

चैन दुनिया में ज़मीं से ता-फ़लक दम भर नहीं

ज़ोर है गर्मी-ए-बाज़ार तिरे कूचे में

सनम कूचा तिरा है और मैं हूँ

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