इसहाक़ विरदग के शेर
बाज़ार हैं ख़ामोश तो गलियों पे है सकता
अब शहर में तन्हाई का डर बोल रहा है
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ऐसी तरक़्क़ी पर तो रोना बनता है
जिस में दहशत-गर्द क्रोना बनता है
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किसी की याद मनाने में ईद गुज़रेगी
सो शहर-ए-दिल में बहुत दूर तक उदासी है
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ख़ैरात में दे आया हूँ जीती हुई बाज़ी
दुनिया ये समझती है कि मैं हार गया हूँ
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