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जलाने वाले जलाते ही हैं चराग़ आख़िर
ये क्या कहा कि हवा तेज़ है ज़माने की
होने दो चराग़ाँ महलों में क्या हम को अगर दीवाली है
मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम मज़दूर की दुनिया काली है
ब-क़द्र-ए-पैमाना-ए-तख़य्युल सुरूर हर दिल में है ख़ुदी का
अगर न हो ये फ़रेब-ए-पैहम तो दम निकल जाए आदमी का
इन्ही हैरत-ज़दा आँखों से देखे हैं वो आँसू भी
जो अक्सर धूप में मेहनत की पेशानी से ढलते हैं
बुतों को तोड़ के ऐसा ख़ुदा बनाना क्या
बुतों की तरह जो हम-शक्ल आदमी का हो
किसे ख़बर थी कि ले कर चिराग़-मुस्तफ़वी
जहाँ में आग लगाती फिरेगी बू-लहबी
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आया ये कौन साया-ए-ज़ुल्फ़-ए-दराज़ में
पेशानी-ए-सहर का उजाला लिए हुए
ऐ सज्दा-फ़रोश-ए-कू-ए-बुताँ हर सर के लिए इक चौखट है
ये भी कोई शान-ए-इश्क़ हुई जिस दर पे गए सर फोड़ लिया
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