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वहशतें इश्क़ और मजबूरी
क्या किसी ख़ास इम्तिहान में हूँ
वो तग़ाफ़ुल-शिआर क्या जाने
इश्क़ तो हुस्न की ज़रूरत है
किसी ख़याल किसी ख़्वाब के लिए 'ख़ुर्शीद'
दिया दरीचे में रक्खा था दिल जलाया था
ये कौन आग लगाने पे है यहाँ मामूर
ये कौन शहर को मक़्तल बनाने वाला है
ज़रा सी देर को उस ने पलट के देखा था
ज़रा सी बात का चर्चा कहाँ कहाँ हुआ है
देख कर भी न देखना उस का
ये अदा तो बुतों में होती है
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- सुझाव
ख़ुदा करे कि खुले एक दिन ज़माने पर
मिरी कहानी में जो इस्तिआरा ख़्वाब का है
किसी ने मेरी तरफ़ देखना न था 'ख़ुर्शीद'
तो बे-सबब ही सँवारा गया था क्यूँ मुझ को
ये कार-ए-मोहब्बत भी क्या कार-ए-मोहब्बत है
इक हर्फ़-ए-तमन्ना है और उस की पज़ीराई