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ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर

1795 - 1854 | लखनऊ, भारत

19 वीं सदी के शायर

19 वीं सदी के शायर

ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर के शेर

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है साया चाँदनी और चाँद मुखड़ा

दुपट्टा आसमान-ए-आसमाँ है

देखना हसरत-ए-दीदार इसे कहते हैं

फिर गया मुँह तिरी जानिब दम-ए-मुर्दन अपना

जिस को आते देखता हूँ परी कहता हूँ मैं

आदमी भेजा हो मेरे बुलाने के लिए

आया है मिरे दिल का ग़ुबार आँसुओं के साथ

लो अब तो हुई मालिक-ए-ख़ुश्की-ओ-तरी आँख

सर मिरा काट के पछ्ताइएगा

किस की फिर झूटी क़सम खाइएगा

कू-ए-जानाँ से जो उठता हूँ तो सो जाते हैं पाँव

दफ़अ'तन आँखों से पाँव में उतर आती है नींद

जब ख़फ़ा होता है तो यूँ दिल को समझाता हूँ मैं

आज है ना-मेहरबाँ कल मेहरबाँ हो जाएगा

इसी ख़ातिर तो क़त्ल-ए-आशिक़ाँ से मनअ' करते थे

अकेले फिर रहे हो यूसुफ़-ए-बे-कारवाँ हो कर

पोंछो मेरे आँसू तुम पोंछो

कहेगा कोई तुम को ख़ोशा-चीं है

ज़र दिया ज़ोर दिया माल दिया गंज दिए

फ़लक कौन से राहत के एवज़ रंज दिए

यार तन्हा घर में है अफ़्सोस लेकिन हम नहीं

हूर तो है गुलशन-ए-फ़िरदौस में आदम नहीं

हाल पूछो मिरे रोने का बस जाने दो

अभी रूमाल निचोड़ूँगा तो तूफ़ाँ होगा

आएँगे वक़्त-ए-ख़िज़ाँ छोड़ दे आई है बहार

ले ले सय्याद क़सम रख दे गुलिस्ताँ सर पर

यूँ फिर रहे हैं जैसे कोई बात ही नहीं

आलूदा मेरे ख़ून से दामाँ किए हुए

एक को दो कर दिखाए आइना

गर बनाएँ आहन-ए-शमशीर से

चुप रह के गुफ़्तुगू ही से पड़ता है तफ़रक़े

होते हैं दोनो होंट जुदा इक सदा के साथ

बुत भी भूलें याद ख़ुदा की भी कीजिए

पढ़िए नमाज़ कर के वुज़ू आब-ए-गंग से

अपने कूचे में मुझे रोने तो दे रश्क-ए-गुल

बाग़बाँ पानी हमेशा देते हैं गुलज़ार को

हिज्र में इक माह के आँसू हमारे गिर पड़े

आसमाँ टूटा शब-ए-फ़ुर्क़त सितारे गिर पड़े

ख़ुद-ब-ख़ुद अपना जनाज़ा है रवाँ

हम ये किस के कुश्ता-ए-रफ़्तार हैं

फिर वही हम थे वही तुम थे मोहब्बत थे वही

सुल्ह कर लेते अगर आँखें लड़ाने के लिए

वस्ल की रात है बिगड़ो बराबर तो रहे

फट गया मेरा गरेबान तुम्हारा दामन

ग़ज़ब है रूह से इस जामा-ए-तन का जुदा होना

लिबास-ए-तंग है उतरेगा आख़िर धज्जियाँ हो कर

है चश्म नीम-बाज़ अजब ख़्वाब-ए-नाज़ है

फ़ित्ना तो सो रहा है दर-ए-फ़ित्ना बाज़ है

इस ख़जालत ने अबद तक मुझे सोने दिया

हिज्र में लग गई थी एक घड़ी मेरी आँख

छान डाला तमाम काबा-ओ-दैर

हमारे ख़ुदा कहाँ तू है

हाथ दिखला के ये बोला वो मुसलमाँ-ज़ादा

हो गया दस्त-ए-निगर अब तो बरहमन अपना

क्या दीद के क़ाबिल तिरे कूचे की ज़मीं है

हर गाम है नक़्श-ए-क़दम-ए-रह-गुज़री आँख

वो आँखों से हो जुदा यारब

जब तलक मेरी आँख बंद हो

ज़मीं भी निकली जाती है मिरी पाँव के नीचे से

मुझे मुश्किल हुआ है साथ देना अपने मंज़िल का

सिलसिला रखता है मेरा कुफ़्र कुछ इस्लाम से

हैं कई तस्बीह के दाने मिरी ज़ुन्नार में

कहें अदू कहें मुझ को देख कर मुहताज

ये उन के बंदे हैं जिन को करीम कहते हैं

देखा जिसे बिस्मिल क्या ताका जिसे मारा

उस आँख से डरिए जो ख़ुदा से डरे आँख

सर आँखों से करें सज्दा जिधर अबरू हिलाए वो

जुदा कुछ कुफ़्र और इस्लाम से मज़हब हमारा है

हुई गर सुल्ह भी तो भी रही जंग

मिला जब दिल तो आँख उस से लड़ा की

देख पछताएगा बुत मिरे तरसाने से

उठ के का'बे को चला जाऊँगा बुत-ख़ाने से

सख़्ती-अय्याम दौड़े आती है पत्थर लिए

क्या मिरा नख़्ल-ए-तमन्ना बारवर होने लगा

ख़ाक में मिल जाए वो चश्मा जिस में आब हो

फूट जाए आँख अगर मौक़ूफ़ रोना हो गया

मैं ने यूसुफ़ जो कहा क्यूँ बिगड़े

मोल ले लेगा कोई बिक जाएगा?

बरसों गुल-ए-ख़ुर्शीद गुल-ए-माह को देखा

ताज़ा कोई दिखलाए हमें चर्ख़-ए-कुहन फूल

बे तेरे मुझे दीद का कुछ शौक़ नहीं है

तू पर्दा-नशीं है तो निगह गोशा-नशीं है

साक़ी के आने की ये तमन्ना है बज़्म में

दस्त-ए-सुबू बुलंद है दस्त-ए-दुआ के साथ

मिरा कुछ हाल कह कर ज़िक्र-ए-मजनूँ करते हैं आशिक़

किताब-ए-आशिक़ी में अपना क़िस्सा पेश-ख़्वानी है

साक़िया हिज्र में कब है हवस-ए-गुफ़्त-ओ-शुनीद

साग़र-ए-गोश से मीना-ए-ज़बाँ दूर रहे

उस बुत-ए-काफ़िर का ज़ाहिद ने भी नाम ऐसा जपा

दाना-ए-तस्बीह हर इक राम-दाना हो गया

तिरे कूचे की शायद राह भूली

सबा फिरती है मुज़्तर कू-ब-कू आज

पहन लो बुतो ज़ुन्नार-ए-तस्बीह-ए-सुलैमानी

रखो राज़ी इसी पर्दे में हर शैख़-ओ-बरहमन को

सर झुकाए रहा सदा गर्दूं

क्या किया था जो शर्मसार रहा

फूल जब झड़ने लगे रंगीं-बयानी से मिरी

रह गई हैरत से बुलबुल खोल कर मिन्क़ार को

बुतो दर-पर्दा तुम से ज़ाहिदों को भी है इश्क़

सूरत-ए-तस्बीह पिन्हाँ रखते हैं ज़ुन्नार को

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